चद्रवंशी राजाओं की राजधानी सिरसागढ़ थी। किले का नाम कालिंजर था। चंद्रवंशी क्षत्रिय अब चंदेले कहलाते थे। उनकी राजधानी को चंदेरी भी कहा जाता था। चंदेले राजा कीर्ति राय का प्रतापी पुत्र था परिमाल राय। Raja Parimal Rai Ka Vivah राजा वासुदेव की पुत्री मल्हना से हुआ। यह बारहवीं शताब्दी की घटना है। उन दिनों महोबा में राजा वासुदेव का शासन था। उनके दो पुत्र थे—माहिल और भोपति। तीन पुत्रियाँ थीं— मल्हना, दिवला और तिलका।
मल्हना अनुपम सुंदरी थी। उसके अंग-अंग में तेज और सौंदर्य था। सिंह के समान कटि और हंस के समान चाल। उसके विशाल और चंचल नयनों के मृग समान होने से मल्हना को मृगनयनी कहा जाता था। वासुदेव राजा का ही एक नाम माल्यवंत भी था। वासुदेव की अनिंद्य सुंदरी पुत्री मल्हना की चर्चा चंदेले राजकुमार परिमाल देव राय के कानों तक पहुँची। देखे बिना सुनने मात्र से ही उसने निश्चय कर लिया कि मल्हना को ही अपनी रानी बनाऊँगा।
राजा परिमाल का विद्वान् मंत्री था पंडित चिंतामणि। मंत्री को बुलाकर परिमाल राय ने पूछा, “पंडितजी! अपना पंचांग देखिए और शोध करके ऐसा मुहूर्त निकालिए कि हमारी मंशा सफल हो जाए।” पंडित चिंतामणि ने श्रेष्ठ मुहूर्त निकाला और बरात सजाने को कहा। उन दिनों क्षत्रियों की बरात वीरों की सेना होती थी।
अत: सेना को तैयार होने का आदेश दे दिया गया। तोपें तैयार कर ली गई। रथ भी सजाए गए। हाथियों पर हौदे सजाए गए। ऊँटों पर बीकानेरी झूलें डाल दी गई। घोड़ों पर जीन और लगाम कसी गई। जो-जो बहादुर जिस सवारी के लिए निश्चित थे, वे अपनी-अपनी सवारी पर चढ़ गए।
एक दाँतवाले हाथी अलग तथा दो दाँतवाले हाथी अलग सजाए गए। घोड़ों की तो अलग सेना ही सज गई। कुछ तुर्की घोड़े थे, कुछ काबुली-कंधारी। कुछ घोड़े रश्की, मुश्की, सब्जा, सुर्खा घोड़े और कुछ नकुला नसल के घोड़े सजाए गए। काठियावाड़ी घोड़ों की तो तुलना ही नहीं थी। उन पर मखमलवाली जीन सजाई गई थी। मारवाड़ के सजीले ऊँट, अरबी ऊँट तथा करहल के ऊँट तैयार किए गए, जिन पर चंदन की बनी काठी और काठी पर गद्दे सजाए गए।
चंदेले राजा परिमाल के आदेश पर गोला-बारूद के छकड़े भी लाद दिए गए। सभी सैनिकों को आदेश दिया गया कि अपने-अपने काम के अनुसार अपना लिबास (वर्दी) पहनकर शीघ्र तैयार हो जाओ। लाल कमीज के साथ चुस्त पायजामा पहन लो। छाती पर बख्तर (बुलैट पूरफ जैकट, जो धड़ पर पहनी जाती है) बाँध लो। उस पर झालरदार कोट डालो, जिसमें छप्पन छुरियाँ तथा गुजराती कटार टाँगी जाती हैं। दोनों तरफ दो पिस्तौलें टाँग लो और दाहिनी ओर तलवार लटका लो। सिर पर टोप (हैल्मेट) पहन लो, जिस पर गोली लगे तो भी असर न कर पाए।
चंदेली सेना के जवानों ने सब गहनों और हथियारों सहित स्वयं को सजाकर तैयार कर लिया। इसके पश्चात् वीर राजा परिमाल के मंत्री नवल चौहान ने हाथ उठाकर सभी जवानों को संबोधित किया- “हे वीर क्षत्रियो! ध्यान से मेरी बात सुनो। जिनको अपनी पत्नियों से बहुत प्यार हो या जिसकी पत्नी अभी मायके से विदा होकर आई है, वे सब अपने हथियार वापस रख दें, परंतु जिन्हें अपनी मर्यादा प्यारी है, वे युद्ध में हमारे साथ चलें। उनको हम दुगुनी पगार (तनख्वाह) देंगे। वे रणभूमि में खुलकर अपने शस्त्रों का प्रदर्शन कर वीरता दिखाएँ।”
इसके पश्चात् सैनिक समवेत स्वर में बोले, “हे नवल चौहान! हम राजा के मन-प्राण से साथ हैं। जहाँ राजा परिमाल का पसीना गिरेगा, हम अपना खून बहा देंगे। अगर हमारे सिर भी कटकर धरती पर गिर जाएँगे तो भी बिना सिर का धड़ खड़े होकर तलवार चलाएगा।” इतनी बात सुनकर मुंशी नवल चौहान राजा परिमाल के पास गए और पूरी सेना के तैयार होने की सूचना दी।
राजा ने अपने मंत्री चिंतामणि से कहा कि जितने राजा दरबार में हैं तथा जिनकी हमसे मित्रता है, उन सबको भी साथ चलने का आग्रह कर दो। फिर राजा ने स्वयं मिसरूवाला चुस्त पायजामा पहना। कवच सहित कमर पर अँगरखा (अचकन) पहना। दोनों ओर पिस्तौलें लटकाई। बाईं ओर मूठवाली तलवार लटकाई। सिर पर सुनहरी पगड़ी पहनी, जिस पर मोतियोंवाली कलगी सुशोभित थी।
युद्ध के लिए सजकर वीर चंदेला राजा बाहर आया तो वह इंद्र के समान सुशोभित हो रहा था। राजा के लिए वीरभद्र नाम के हाथी को भी ऐरावत हाथी के समान सजाया गया। उस पर मखमल से बनी झूलें लटकाई गई तथा सोने का बना हुआ हौदा रखा गया। इसके पश्चात् हाथियों, ऊँटों तथा घोड़ों पर सभी सवार हो गए।
आगे-आगे नौ सौ सैनिक सुनहरे भगवा झंडे लेकर चलने लगे। फिर कूच करने का बिगुल बजा तथा ढोल-नगाड़े बजने लगे। जब चंदेलों की भारी सेना चली तो मार्ग की ईंटें घिस-घिसकर कंकड़ बन गई। जो रोड़े और कंकड़ थे, वे सभी धूल बन गए। धूल आसमान में चढ़ गई और आकाश में अँधेरा छा गया। इसी प्रकार चंदेली सेना महोबा की सीमा पर पहुंच गई।
महोबा के पहले ही खेतों में तंबू गाड़ दिए गए और सेना ने डेरा डाल दिया। राजा परिमाल ने मंत्री को बुलाकर महोबा के राजा वासुदेवजी को पत्र लिखा। सादर प्रणाम लिखकर अपना परिचय लिखा। तब आग्रहपूर्वक निवेदन किया, “महाराज आपकी सुपुत्री मल्हना से हम विवाह करने के लिए बरात लेकर आए हैं। आप धूमधाम से प्रसन्नतापूर्वक विवाह कर दीजिए, अन्यथा महोबा को हम तहस-नहस कर देंगे। फिर भी मल्हना को हम ले ही जाएँगे। ब्याह के इरादे से आए हैं, अब खाली लौटकर नहीं जा पाएँगे।”
पत्र को धामन (पत्रवाहक) के हाथ महोबे के राजदरबार में भेज दिया गया। ऊँट सवार जब दरबार में पत्र लेकर पहुँचा तो वहाँ की शोभा देखकर दंग रह गया। बड़े-बड़े सजीले क्षत्रिय वीर वहाँ बैठे थे। राजा माल्यवंत (वासुदेव) सोने के सिंहासन पर विराजमान थे। इंद्र की तरह दरबार में नृत्य-संगीत चल रहा था।
पत्रवाहक ने सात कदम दूर से झुककर प्रणाम किया और पत्र राजा के सामने रख दिया। राजा वासुदेव ने बिना देरी किए तत्काल पत्र को उठा लिया। पत्र को खोलकर जैसे ही पढ़ा, राजा का मुख क्रोध से लाल हो गया। राजकुमार माहिल ने पूछा, “पिताजी! पत्र किसका है, इसमें क्या लिखा है? खुलकर बताइए।”
राजा ने पत्र की पूरी बात सुना दी। फिर माहिल से बोले, “चंदेले राजा परिमाल की सेना से युद्ध करने की तैयारी करो।” फिर पत्र उठाकर माहिल ने पढ़ा। तुरंत ही कागज पर उत्तर लिखा-“महोबे में भी वीर रहते हैं। इस धमकी से विवाह की आशा छोड़कर वापस लौट जाओ।” पत्र को लिखकर हरकारे (पत्रवाहक) को दे दिया। माहिल ने उपस्थित दरबारियों तथा सेनापतियों को युद्ध के लिए तैयार होने को कहा।
युद्ध का डंका बजा दिया गया। हाथी, घोड़े और पैदल सभी सैनिक अपनी तैयारी में लग गए। माहिल राजकुमार की आज्ञा से तोपें तैयार कर ली गई। कुछ तोपों के नाम थे ‘बिजली तड़पन’ और कुछ ‘लक्ष्मणा’ नाम की तोपें थीं। ‘भवानी’ और ‘कालिका’ नामक की बड़ी-बड़ी तोपें भी, जिनका एक-एक गोला दो-दो मन का होता था। संकटा तोप और भैरव तोप भी तैयार कर ली गईं। हाथी भी अनेक नामवाले थे।
एक दंत और दो दंत तो थे ही। मैनकुंज, मलयागिरि, धौलागिरि और भौरागिरि हाथी, भूरा, सब्जा और अंगाद गज, मुडिया और मुकमा हाथी भी तैयार हो गए। उन पर चाँदी-सोने के हौदे रखवा दिए गए। हर हौदे में चार-चार जवान शस्त्रों सहित चढ़ गए। इसी प्रकार घोड़े सजाए गए। हरियल घोड़े, मुशकी घोड़े, स्याह घोड़े, सफेद घोड़े, तुर्की और अरबी घोड़े, कच्छी-मच्छी और समुद्री घोड़े, लक्खा, गर्रा और कमैता घोड़े, श्याम कर्ण और सब युद्ध के लिए तैयार कर लिये गए। मारवाड़ी, मेवाड़ी ऊँट, करहल के ऊँट और बीकानेरी ऊँटों पर गद्दे बिछाकर काठी लगा दी गई।
महोबे में जितने योद्धा थे, रघुवंशी, सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, यादव, तोमर, भदावरवाले और मैनपुरीवाले चौहान सब तैयार होकर अपनी-अपनी सवारियों पर चढ़ गए। राजा वासुदेव की सारी सेना केवल दो घंटे में ही लड़ने के लिए तैयार हो गई। ढोल-नगाड़े बजने लगे। इधर से राजकुमार माहिल ने कमान संभाली और उधर परिमाल पहले ही तैयार होकर आया था।
शूरवीर दोनों ओर से गरजने लगे। राजा परिमाल बोले, “माहिल! हम चंदेलवंशी राजकुमार हैं। तुम्हारी बहन मल्हना से विवाह करने आए हैं। जल्दी इस शुभ कार्य को संपन्न करवाओ।” माहिल ने कहा, “विवाह नहीं, तुम्हारा काल ही तुम्हें यहाँ खींचकर ले आया है।”
फिर माहिल के आदेश से तोपें गरजने लगीं। पहले दोनों ओर से सलामी तोपें चली और फिर आग बरसने लगी। तोपों के बाद बंदूकें चलीं। गोलियाँ बारिश की बूंदों की तरह बरसने लगीं। हाथियों के गोली लगती तो तीन कदम पीछे हट जाते। तीर भी सनसनाते निकल जाते। गोली और गोलों से ऊँट-घोड़े भी हिनहिना उठते।
सैनिक गोलों की चपेट में आ जाते तो कपड़ों के समान फटकर उड़ जाते। दोनों सेनाएँ आमने-सामने केवल पाँच कदम के अंतर पर रह गई। बंदूकें और तोपें चलनी बंद हो गई। अब भाले, बरछी चलने लगे। सांग उठाकर सामनेवाले पर फेंककर वार करने लगे। चार घंटे तक ऐसा भयानक युद्ध हुआ, खून के फव्वारे छूटने लगे। कोई बरछी से बिंध गया तो कोई सांग से दब गया।
फिर दोनों ओर की फौजें एक हाथ की दूरी पर पहुँच गई, तब जवानों ने अपनी तलवारें खींच लीं। चुनव्वी और गुजराती तलवारें खटाखट बजने लगीं। घुड़सवार घुड़सवारों से भिड़ गए और पैदल पैदल से मुकाबला करने लगे। हाथियों के सूंड़ से सूंड़ और दाँतों से दाँत अटकने लगे। जगह-जगह पैदल सैनिकों की लाशें बिछ गईं। हाथी तो ऐसे पड़े थे, मानो रास्तों में पर्वत अड़े हों। सैनिकों के कहीं सिर कटे पड़े थे, तो कुछ कटी भुजाएँ फड़क रही थीं।
किसी की अंतड़ियाँ ही निकली पड़ी थीं तो किसी का चेहरा ही कट चुका था। ढालें जो खून से सनी नीचे पड़ी थीं, वे कछुए जैसी दिखाई पड़ रही थीं। बंदूकें खून की नदी में पड़ी ऐसी लग रही थीं, मानो नाग तैर रहे हों। युद्ध की विभीषिका में घायल पड़े सैनिक पानी के लिए तड़प रहे थे।
कुछ तो अपनी पत्नियों को याद कर रहे थे और कुछ अपने बेटों को पुकार रहे थे। कोई अपने पूर्वजों को याद कर रहे थे। उन्हें लगा, जैसे चंदेरी नगर से भेडिए आ गए हैं और भेड़ों पर टूट पड़े हैं। जो जीवित बचे, वे सोच रहे हैं कि माहिल की सेना में भरती होने की जगह हम अच्छे रहते कि जंगली लकड़ी ही काटकर बेच रहे होते।
माहिल अपने हाथी पर सवार हर मोरचे पर घूम रहा था। अपनी सेना की दुर्दशा देखकर उन्हें जोश दिलाते हुए माहिल बोला, “प्यारे सैनिको! तुम कोई वेतन भोगी नौकर-चाकर नहीं हो। तुम सब तो हमारे भाई-बंधु हो। मोरचे से पीछे मत हटना। जो रण छोड़कर भाग जाएगा, उसकी सात पीढियों का नाम डूब जाएगा। यहाँ मनुष्य शरीर बारबार नहीं मिलता।
जैसे पत्ता डाल से टूटकर फिर नहीं जुड़ सकता, वैसे ही हमारी इज्जत अब तुम्हारे हाथ है। एक बार चली गई तो फिर कभी वापस नहीं आ सकती। बहादुरो! मरना तो है ही, फिर चारपाई पर पड़े-पड़े क्यों मरें? रणभूमि में वीरता से लड़ते हुए यदि मर भी गए तो नाम अमर हो जाएगा।” । इस भाषण के बाद भी माहिल के सिपाही आखिरी युद्ध में टिके नहीं रह सके।
वे भाग खड़े हुए। माहिल ने अपना हाथी बढ़ाया और राजा परिमाल के सामने पहुँच गया। माहिल बोला, “बहुत सेना और शक्ति बरबाद हो चुकी; आओ हम-तुम आपस में निपट लें।” परिमाल ने अपना हाथी बढ़ाकर ललकार स्वीकार की। माहिल ने अपनी तलवार पूरी शक्ति से चलाई। परिमाल ने अपनी ढाल अड़ाई और वार खाली गया।
माहिल ने कहा कि या तो तुम्हारी माँ ने शिवजी की पूजा की होगी या पिता ने रविवार का उपवास किया होगा, अन्यथा मेरा वार खाली न जाता। अतः नजदीक से माहिल ने हाथी की लोहे की जंजीर घुमाकर मारी तो चंदेला वीर का हाथ फुरती से पीछे हट गया। भगवान् ने उसकी रक्षा की। माहिल बोला, “अब भी चंदेरी को लौट जाओ। इस बार तो तुम्हारे प्राण नहीं बचेंगे।”
राजा परिमाल ने हँसकर उत्तर दिया, “रण से भागना क्षत्रियों का धर्म नहीं है। एक बार और वार करो, फिर मेरी बारी है। स्वर्ग में जाकर कहीं पछताना न पड़े कि एक मौका और मिल जाता।” इतने में माहिल ने सत्तर मन भारी सांग उठाकर फेंकी, परंतु परिमाल का हाथी एक ओर हट गया। सांग धरती पर जा गिरा।
परिमाल बोले, “चार वार तुम कर चुके। अब मेरा वार झेलो।” परिमाल ने अपनी तलवार माहिल के हाथी के मस्तक पर मारी। हाथी जैसे ही झुका, परिमाल ने माहिल को फुरती से बाँध लिया। माहिल के बंदी होते ही भोपति के भी हौसले पस्त हो गए।
सेना तो पहले ही हिम्मत छोड़ चुकी थी। भोपति परिमाल के सामने आया तो परिमाल ने उससे युद्ध छोड़कर बहन का विवाह करने को कहा। भोपति ने भी ललकारा, तब परिमाल बोला, “बिना विवाह के तो हम वापस नहीं जाएँगे, चाहे प्राण चले जाएँ।” भौपति ने कहा कि लो अब मेरा वार झेलो।
उसने नीलकंठ भगवान् शिव और जगदंबा दुर्गा का स्मरण किया। फिर अपने महोबे के रक्षक मनियाँ देव को याद करके जो तलवार चलाई, तो वह तलवार ही टूट गई और परिमाल का बाल बाँका न हुआ। भौपति को बहुत अचंभा हुआ कि इसी तलवार से हाथियों तक को काट डाला था, यह भी धोखा दे गई। तब उसने गुर्ज (सांग) उठाकर फेंका, परंतु चतुर हाथी हट गया और सांग धरती पर गिरा। इसी घबराहट में भौपति असमंजस में पड़ा था, तभी राजा परिमाल ने उसे भी बंदी बना लिया।
अब तो सेना में भगदड़ मच गई। तब माल्यवंत (वासुदेव) राजा ने अपने हाथी पर आगे आकर ललकारा। राजा परिमाल ने गरजकर कहा, “तुम्हारे दोनों बेटे हमारे कब्जे में हैं। अब अपनी बेटी का विवाह हमारे साथ कर दो, नहीं तो महोबे का राज भी नहीं रहेगा और मल्हना का विवाह तो हमसे होगा ही।” वासुदेव ने युद्ध के लिए ललकारा तो परिमाल बोला, “सिंह को कोई न्योता नहीं देता। वह अपनी इच्छा से वन में शिकार करता है। क्षत्रिय भी अपनी शक्ति के द्वारा जहाँ चाहें, वहाँ विवाह करते हैं। क्षत्रियों का विवाह अपनी तलवार की धार के बल पर होता है।”
राजा वासुदेव ने तोपें फिर से चालू कर दीं। आकाश में फिर धुआँधार होने लगी। फिर बंदूकें आग उगलने लगीं। आकाश फिर भयानक गर्जनाओं से भर गया। पग-पग पर सैनिकों की लाशें बिछ गई। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर हाथी और ऊँट गिरे हुए। वीरों के सिर भूमि पर लुढ़कने लगे। पगड़ियाँ रक्त में तैरने लगीं।
खून में तैरते दुशाले मछलियों से दिखाई पड़ रहे थे। कोई-कोई घायल सिपाही मरे हुए सिपाहियों के नीचे दबे पड़े थे। कोई उठकर भागना भी चाहे तो उठ नहीं पा रहे थे। जब कोई हाथी घायल होकर भागने लगता तो नीचे पड़े घायलों को रौंदकर मौत के घाट उतार देता। तीर, तलवार और गोलियाँ ऐसे चल रही थीं, मानो सावन में मूसलधार वर्षा हो रही हो।
राजा वासुदेव ने भी तलवार का जोरदार वार किया तो तलवार की मूठ हाथ में रह गई। तलवार टूटकर नीचे गिर गई। फिर सांग उठाकर फेंका तो हाथी पीछे हट गया। वार खाली गया। चंदेलवंशी परिमाल ने कहा, “राजा वासुदेव! हमारे कुल की तीन परंपराएँ हैं। पहली यह कि हम बाँधे हुए बंदियों पर वार नहीं करते। दूसरी, भागते हुए सैनिकों पर पीछे से वार नहीं करते। तीसरी परंपरा है कि हम पहले चोट नहीं करते, शत्रु को पहले मौका देते हैं। लो छाती में तीर मारो, तलवार मारो। मैं मुँह नहीं फेरूँगा। अपनी मनचाही कर लो, कहीं फिर पछताना पड़े।”
राजा वासुदेव ने सांग का भारी वार परिमाल पर कर दिया, परंतु हाथी हट गया और वासुदेव का वार खाली गया। माँ शारदे ने परिमाल पर कृपा कर दी। सांग धरती पर गिरी और गहरा गड्ढा कर दिया। तब वासुदेव ने सोचा ‘जाको राखे साइयाँ, मार सकै ना कोय।’ भगवान् इस लड़के की रक्षा कर रहा है।
लड़का प्रखर वीर है। वास्तव में इसके माता-पिता धन्य हैं। जिनके पुत्र कायर हो जाएँ, उन क्षत्रियों का जीवन ही मृत्यु के समान है। उनके कुल का तो नाश होना निश्चित है। जिनके घर में पत्नी कलह करने वाली हो, उसकी संपत्ति निश्चय ही नष्ट हो जाती है। जिनके घर पुत्री का जन्म हो जाए, वे फिर गर्व से सिर ऊँचा नहीं कर सकते। उनको तो सिर झुकाना ही पड़ता है।
यदि मेरे घर बेटी न होती तो राजा परिमाल क्यों चढ़ाई करता? राजा मन-ही-मन सोचता है कि ब्राह्मण, बनिए अच्छे हैं। उनके चार बेटी भी हो जाएँ तो वे खुशी से कन्यादान कर देते हैं। दोनों ओर के परिवार तथा संबंधी प्रसन्नता से आनंदोत्सव मनाते हैं। यह राजपूतों में ही बड़ी बुराई है, जो कन्या को नाश का कारण बना देते हैं। यदि वर ससुर का सिर काट दे तो भी बुरा है और ससुर अपने दामाद को मार दे तो भी नाश ही नाश है।
ऐसा सोचते हुए राजा वासुदेव ने परिमाल से कहा, “चलो, हमारे साथ महोबे में चलो। हम तुम्हारा ब्याह कर देंगे।” परिमाल ने तुरंत राजा वासुदेव को बंदी बना लिया और बोला, “क्या मैं बुद्धू हूँ, जो युद्धक्षेत्र से घर जाऊँ और तुम मुझे कैद कर लो। अब तुम तीनों (बाप-बेटे) मेरे बंदी हो। मैं स्वयं जाकर मल्हना से विवाह कर लेता हूँ। फिर यदि मर भी जाऊँगा तो कष्ट आपको ही होगा, जिसकी बेटी विधवा हो जाए, उससे अधिक और दुःख क्या होगा?”
राजा वासुदेव बोले, “तुम्हारी सब बात हमारी समझ में आ गई हैं। तुम वीर हो, बलवान हो और बुद्धिमान भी हो। अतः अपनी सुपुत्री मल्हना का विवाह मैं तुम्हारे साथ करने को तैयार हूँ।” तुरत पंडित को बुलवाकर मुहूर्त निकलवा लिया और महोबे को सजाने का आदेश दे दिया गया। तब परिमाल ने राजा और दोनों पुत्रों को स्वतंत्र कर दिया।
उन्होंने विवाह की तैयारी कर ली। इधर चंदेला वीर परिमाल बरात लेकर महोबे को चला। मार्ग में चारों ओर फूल और इत्र की खुशबू सजाई गई। घरों, बाजारों में वंदनवार सजाए गए। जगह-जगह महिलाओं की टोलियाँ मधुर गीत गा रही थीं। द्वार पर मंगलाचार के गीत गाए गए। आरती उतारी गई। चंदन की चौकी बिछाई गई। पंडित चिंतामणि ने श्लोक एवं मंत्रों के उच्चारण किए।
फिर कुमारी मल्हना को लाया गया। चिंतामणि ने आभूषणों की पिटारी पहले ही महलों में भेज दी थी। मल्हना का पूरा शृंगार किया गया। घूमदार घाघरा पहनाया गया और दक्षिणी चीर या ओढ़ना उढ़ाया गया, जिस पर सुनहरी गोटा लगा हुआ था। नाक में बड़ी सुंदर नथ पहनाई गई और गेंदा के समान सुंदर कर्णफूल पहने हुए थे।
माथे पर नीलमणि की बिंदी सुशोभित थी, लंबी चोटी और ऊपर शीशफूल (वोलणा) चमक रहा था। हरी चूडियों के साथ नागौरी कंगन दमक रहे थे। पाँवों में बिछुए और बजनेवाली घुघरूदार पायल सुशोभित थी। इस प्रकार अप्सरा सी सजी हुई मल्हना दुलहन बनकर भाँवर के लिए लाई गई। एक-एक भाँवर पर युद्ध की छाया पड़ी, परंतु चंदेल वीरों ने सब सँभाल लिया। सातों फेरे पूरे हो गए, तब राजा परिमाल ने चंदेरी को धामन के द्वारा समाचार भेज दिया।
चंदेरी में नई रानी के स्वागत की भारी तैयारियाँ की गई। सारे नगर तथा द्वारों को सजाया गया। नृत्य-संगीत के प्रबंध किए गए। इधर महोबे से विदा होकर परिमाल अपनी दुलहन मल्हना सहित चंदेरी के लिए चल पड़े। अपने राज्य में बरात का भव्य स्वागत हुआ। रानी के स्वागत में मंगलगान हुए। राजा परिमाल का यह सुख अधिक दिन नहीं चला।
रानी मल्हना को चंदेरी का महल पसंद नहीं आया। उसने कहा कि हमें महोबा में ही रहना है। अतः या तो महोबे में रहने का प्रबंध करें या मैं अपने प्राण त्यागती हूँ। राजा ने समझाया कि महोबे रहने के लिए किसी की दया या स्वीकृति लेकर नहीं रहना। क्षत्रिय जहाँ रहते हैं, अपनी शक्ति के बल पर रहते हैं। जरा ठहरो, मैं महोबे को जीतकर ही तुम्हें वहाँ रहने का अवसर दूंगा।
राजा परिमाल ने महोबे के राजा यानी अपने ससुर माल्यवंत को पत्र लिखा कि आधा महोबा हमें दे दो अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। पत्र लेकर धामन महोबे पहुँचा। राजदरबार में पत्र दिया तो माहिल ने पूछा, “किसका पत्र है, क्या समाचार है?” वासुदेव ने बताया कि “परिमाल को आधा महोबा बाँटकर दे दो। नहीं तो वह पूरा ही राज्य छीन लेगा।”
माहिल का क्रोध में आना स्वाभाविक था। पहले ही महोबे वाले लोग आक्रमण के परिणाम झेल चुके थे। माहिल अपनी संपत्ति एवं अधिकार को इतनी सरलता से छोड़ना नहीं चाहता था। राजा वासुदेव पिछले युद्ध के नुकसान की भी भरपाई अभी तक नहीं कर पाए थे। राजा ने पुत्रों को समझाया, “यह राज्य, धन मृत्यु के समय साथ नहीं जाता।
इसके लिए अपनी प्रजा को तथा अपने हितैषियों को मरवाना उचित नहीं। रावण जैसे बली ने अहंकार को महत्त्व दिया तो अपने परिवार तथा राज्य को नष्ट करवा लिया। कंस ने बल का अभिमान किया तो कृष्ण के हाथों मारा गया। बैर पालना अच्छा नहीं होता। फिर यहाँ तुम्हारी बहन ही तो रहेगी। बिना लड़े आधा महोबा देने में ही कल्याण है।” परंतु माहिल अपनी सेना लेकर लड़ने को तैयार हो गया।
युद्ध हुआ, परिमाल ने माहिल की सूचना पाते ही महोबा की ओर कूच कर दिया था। पहले तोपों का युद्ध हुआ, फिर गोलियाँ चलीं। तीर चले और फिर घुड़सवार और पैदल सामने होकर लड़े। राजा परिमाल ने माहिल और भौपति को फिर बंदी बना लिया। वासुदेव को जैसे ही समाचार मिला, वह राजा परिमाल के पास पहुँचा और बोला, “अब आप शत्रु नहीं, संबंधी हैं।
अपने दोनों सालों को छोड़ दो और युद्ध समाप्त कर के महोबा में आनंद से राज करो।” महोबे का राज परिमाल को सौंपकर वासुदेव उरई चले गए। वहाँ कुछ अरसे बाद वे बीमार हो गए। उन्होंने परिमाल को बुलाकर अपने दोनों पुत्र उन्हें सौंप दिए। उनकी रक्षा का वचन ले लिया। इसके पश्चात् राजा के प्राण-पखेरू उड़ गए। माहिल ने राजा से कहा कि मुझे चुगली करने की आदत है।
मेरी गलती को क्षमा करते रहिएगा। इस प्रकार माहिल और जगनिक उरई और जगनेरी के दुर्ग में चले गए। मल्हना और परिमाल महोबे में राज करने लगे। मल्हना ने अपने ही परिवार को नष्ट करवा दिया और अपने पैतृक महल में आनंद से रहने लगी।
राजा परिमाल भी युद्धों से तंग आ चुके थे, अत: उन्होंने अपने शस्त्रों को सागर को अर्पित कर दिया। भविष्य में शस्त्र न उठाने का संकल्प ले लिया, परंतु उनकी पुरानी साख और धाक से ही वे सुखपूर्वक लंबे अरसे तक महोबा में शासन करते रहे।