बुन्देलखंड मे बुन्देली काव्य साहित्य के विभिन्न आन्दोलनों के आधार पर बुन्देली काव्य साहित्य के कुल सात युग माने जाते हैं। मौखिक परम्परा से भी काव्य सृजन हुआ। यह लोक काव्य तक ही सीमित रहा है। bundeli Ka kavya Sahitya मे लोकगाथाओं में लोककाव्य का विकास और उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। बुन्देली काव्य साहित्य के कुल सात युग माने जाते हैं।
1- भाषा काव्य आन्दोलन – नवीं शती विक्रमी से तेरहवीं शती तक
2- बुंदेली कथा काव्य काल – तेरहवीं से सोलहवीं शती विक्रमी तक
3- बुंदेली रीति भक्ति काव्य काल – सोलहवीं शती से सत्रहवीं शती विक्रमी तक।
4- बुंदेली सांस्कृतिक उन्मेष काल – सत्रहवीं शती से अट्ठाहरवीं शती विक्रमी तक।
5- बुंदेली श्रृंगार काव्य काल – अट्ठारहवीं शती से उन्नीस सौ पचास शती विक्रमी तक।
6- बुंदेली स्वतन्त्रता पूर्व आधुनिक – सम्वत् 1950 से 2000 शती विक्रमी तक।
7- बुंदेली अत्याधुनिक काल – सम्वत् 2000 से अब तक
1-बुंदेली भाषा काव्य आन्दोलन
9वीं शती विक्रमी से 13वीं शती विक्रमी तक
छान्दस का संस्कृत में अपभ्रंशी के माध्यम से लोक भाषा में विकसित होना, एक घटना नहीं है, यह समय की आवश्यकता रही है। छान्दस, प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश के समीकरणों पर अनेक विचार दिए गए हैं। छठी शताब्दी में अपभ्रंश का प्रयोग भाषा के रुप में मिलता है।
12वीं शताब्दी तक वह साहित्यिक भाषा सी रही है पर जनपदीय बोलियों से यह भी मुक्त नहीं मानी गयी है। नव्य भारतीय आर्य भाषा का विकास मध्य देशीय शौरसेनी से माना गया है और अपभ्रंश के विकासोन्मुख रुप ग्रहण करते समय अवह की स्थिति मानी गयी। अवह का प्रयोग सबसे पहले अपभ्रंश के लिए हुआ है। अनेक जैन रचनाएं बौद्ध रचनाएं , नाथ पंथियों की रचनाएं आदि समाने आयी है। सिद्धों ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह लोक भाषा अधिक है। हिन्दी का प्रारंभिक नाम भाषा ही कहा गया है।
भाषा के स्वरुप में अनेक परिवर्तन एवं समृद्धियां आयीं। मौखिक परम्परा से भी काव्य सृजन हुआ। यह लोक काव्य तक ही सीमित रहा है। लिखित काव्यों में कथा काव्यों की भरमार रही है। इनमें प्रमुख कृति विष्णुदास लिखित रामायण कथा, महाभारत कथा, रुक्मिणी मंगल, स्वर्गारोहण कथा आदि ऐसी कृतियां है, जिनसे भाषा काव्य की परम्परा पर प्रकाश पड़ता है। भाषा काव्य के प्रारम्भिक चरण में जिस कृति को प्रस्तुत किया गया हैं वह स्थानीयता के प्रभावों से प्रायः मुक्त है। इसलिए किसी भी बोली से प्रारम्भिक रुप से मेल खाती, व्यापक भाषा का स्वरुप प्रस्तुत करती है।
मौखिक परम्परा के महाकाव्य आल्हाखण्ड का वैशिष्ट्य बुन्देली का अपना है। महोवा 12वीं शती तक कला केन्द्र तो रहा है जिसकी चर्चा इस प्रबन्ध काव्य में है। इतिहास में परमार्देदेव की कथा कुछ दूसरे ही रुप में है परन्तु आल्हा खण्ड का राजा परमाल एक वैभवशाली राजा है, आल्हा और ऊदल उसके सामन्त है।
बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गांवों में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा की बैठक लगती है। आल्हा भले ही मौखिक परम्परा से आया है, पर बुन्देली भूमि संस्कृति और बोली का प्रथम महाकाव्य है, जगनिक इसके रचयिता है। भाषा काव्य में बुन्देली बोली का उत्तम महाकाव्य स्वीकार किया जाना चाहिए। बुन्देली बोली और उसके साहित्य का समृद्ध इतिहास है और भाषा काव्यकाल में उसकी कोई भी लिखित कृति उपलब्ध नहीं है।
2- बुंदेली कथा काव्य काल Bundeli Katha Kal
13वीं शती विक्रमी से 16वीं शती विक्रमी तक
कथा काव्य प्रबन्ध काव्य का ही एक भेद है जिसमें महाकाव्य के विधान की ही हर चीज होती है परन्तु कथा सहज प्रवाह युक्त बिना किसी गम्भीर गहन जीवन दर्शन के होती है। बुन्देलाण्ड में जगनिक के बाद विष्णुदास ही ऐसे कवि हैं जिन्होंने 14वीं शती में दो कथा काव्य महाभारत कथा और रामायण कथा लिखी। इन दोनों कथाओं का आधार कृष्ण कथा और रामकथा है पर उनके निर्वाह की शैली में संस्कृत कथा काव्यों और हिन्दी कथा काव्यों से भिन्नता है।
यह बुन्देली के प्रथम ग्रन्थ है। बुन्देली माटी के कवि विष्णुदास की रचनाएं अनेक समय तक अज्ञात रहीं। जब बुन्देली पीठ सागर के प्रकाश में आयी तो उनमें बुन्देली का मार्दव, ओज लालित्य एवं संस्कृति मूर्तिमान दिखे। कवि ने युग की चेतना को दोनों कथाओं के माध्यम से व्यक्त किया है और तत्कालीन परिस्थितियों पर प्रकाश डाला है।
महाभारत की रचना का समय 1435 ई. और रामायण कथा की रचना 1443 ई. सिद्ध हो जाती है। भाषा की दृष्टि से विष्णुदास का काव्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बुन्देली कवियों ने जन भाषा में काव्य रचनाएं प्रस्तुत की। कथा काव्य शैली में दोहा, सोरठा, चौपाई और छन्दों का प्रयोग अधिक है।
3- बुंदेली रीति भक्ति काव्य काल
16वीं शती विक्रमी से 17वीं शती विक्रमी तक
समाज में व्याप्त जड़ता उदासी और अकर्मण्यता के स्थान पर भक्ति की ओर प्रवृत्ति मिलती है। बुन्देलखण्ड में भक्ति की उस पावन धार के दर्शन नहीं होते जो बृज प्रदेश में प्रवाहित हुए। यहां सभी प्रकार की उपासनाओं का जोर रहा। गोस्वामी तुलसीदास भी इसी भू-भाग से जुड़े हुये थे। प्रसिद्ध कवि रहीम भी बुन्देलखण्ड की संस्कृति के प्रति श्रद्धावान थे जो उनकी उक्ति…..
चित्रकूट में रम रहे रहिमन अवध नरेश। जा पर विपदा पड़त है सो आवत इहि देश।।
महाकवि बलभद्र मिश्र अत्यन्त प्रतिभाशाली कवि हैं। इनके प्रमुख ग्रन्थों में सिखनख, भाषा-भाष्य, बलभद्री व्याकरण, हनुमानाष्टक टीका गोवर्द्धन सतसई अधिक चर्चित है। इनके समय तक ओरछा, पन्ना, छतरपुर, झांसी, टीकमगढ़, दतिया और सागर केन्द्र के रुप में उभरकर सामने आने लगे। महाकवि केशव के पूर्व महाराज मधुकर शाह, पंडित हरिराम व्यास आदि कवियों ने बुन्देली काव्यधारा में महत्वपूर्ण योगदान किया है।
मधुकर शाह “टिकैत” बुन्देलखण्ड की रक्षा में ही प्रसिद्ध हुए। कवि देशभक्त और धर्म प्रवर के रुप में उनका स्मरण अब तक किया जाता है। पंडित हरिराम व्यास मधुकर शाह को दीक्षा देने वाले गुरु, एक संगीतज्ञ, भक्त और साधक के रुप में विख्यात हुए। उनकी रचनाओं में राग माली, व्यास वाणी, राग पर्यायाची आदि में बुन्देली और तथा रीति सावेत का अद्भुत समन्वय मिलता है।
केशवदास (सम्वत 1612) इस काल के अन्यतम् कवि हैं। इनकी समस्त कवियों का आधार संस्कृत के ग्रंथ हैं पर कवि प्रिया, रसिक प्रिया, रामचन्द्रिका, वीरसिंहदेव चरित्र, विज्ञान गीता, रतन वादनी और जहाँगीर रसचन्द्रिका में कवि की व्यापक काव्य भाषा प्रयोगशीलता एवं बुन्देल भूमि की संस्कृति रीति रिवाज भाषागत प्रयोगों से केशव बुन्देली के ही प्रमुख कवि हैं।
रीति और भक्ति का समन्वित रुप केशव काव्य में आोपान्त है। रीतिवादी कवि ने कविप्रिया, रसिकप्रिया में रीति तत्व तथा विज्ञान गीता एवं रामचन्द्रिका में भक्ति तत्व को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप में प्रस्तुत किया है। आचार्य कवि केशवदास ने बुन्देली गारी (लोकगीत) को प्रमुखता से अपने काव्य में स्थान दिया और सवैया में इसी गारी’गीता को परिष्कृत रुप में रखा है। रामचन्द्रिका के सारे सम्वाद सवैयों में है ऐसी सम्बाद योजना दुर्लभ है। रामलीलाओं में केशव के संवादों का प्रयोग शताब्दियों से हो रहा है।
प्रवीण राय महाराज इन्द्रजीत सिंह के दरबार में थी। महाराज इन्द्रजीत स्वयं धीरज नरेन्द्र उपनाम से कविता करते थे। पं. गौरीशंकर द्विवेदी ने इनका समय सं. 1620 विक्रमी माना है। इन्हीं के समय में कल्याण मिश्र विक्रमी सं. 1635 कवित्त लेखन में श्रेष्ठ माने गये हैं। बुन्देली के अनेक मुहावरों का प्रयोग बिहारी सतसई में मिलता है। बलभद्र मिश्र के पौत्र श्री शिवलाल मिश्र (सं. 1660) ने ठेठ बुन्देली के क्रिया पदों का प्रयोग किया है।
इसी प्रकार स्वामी अग्रदास की कुण्डलियों में शत-प्रतिशत बुन्देली लोकोक्तियों को आधार बनाकर लोक संदेश दिया है। इसी काव्यधारा में सुन्दर दास का सुन्दर श्रृंगार परगणित किया जाता है। रीतिभक्ति काव्य में खेमदास रसिक सुवंश कायस्थ, पोहनदास मिश्र तथा ओरछा के अनेक कवियों का योगदान है। भक्ति काव्य बुन्देलखण्ड में पूरी समग्रता के साथ में आया।
यहाँ के राजाओं ने उसे प्रोत्साहन दिया। अनेक रचनाएं आश्रयदाता की इच्छा के अनुसार मिलती है। रीति भक्ति काव्यकाल में प्रस्तुत की गयी प्रतियों में बुन्देली संस्कृति, भाषा और रीति तत्व की अभिव्यक्ति विशेष है। इसी काल के उपरान्त बुन्देली की रचनाओं में ठेठ स्थानीयता का प्रभाव दिखने लगता है।
4- बुंदेली सांस्कृतिक उन्मेष काल
17वीं शती विक्रमी से 18वीं शती विक्रमी तक
बुन्देलखण्ड में चम्पतराय के बाद छत्रसाल ने स्वतन्त्रय मशाल जलाई। औरंगजेब ने छत्रसाल को जितना दबाया उतना ही वे अधिक उभरते गए। स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने में छत्रसाल ने मुगल अधिकार के सभी शहरों, राज्यों को लूटा। अपनी धाक जमाते हुए एकछत्र राज्य बनाने के उपक्रम में छत्रसाल ने विकट संघर्ष किया।
लालकृत छत्रप्रकाश इसी प्रकार के बुन्देलखण्ड राजा का काव्य इतिहास है। लाल कवि और भूषण दोनों का लक्ष्य एक ही है। पूरी शताब्दी में सांस्कृतिक क्षेत्रों में जागरुकता का परिचय मिलता है। रीतिभक्ति की मिश्रित काव्य धारा प्रच्छन्न रुप में प्रवाहित होती रही पर छत्रसाल, अक्षय अनन्य, गोरे लाल बख्शी हंसराज, हरिसेवक मिश्र आदि कवियों की रचनाओं का समाज पर अनुकल प्रभाव पड़ा। एक दृष्टि से समाज का चतुर्दिक विकास इस काल में हुआ है।
लाल और छत्रसाल जहां हिन्दुत्व और स्वाधीन बुन्देलखण्ड का समर्थन करते हैं तथा पृथक अस्तित्व बनाते हैं। अक्षर अनन्य भक्ति और उपासना के क्षेत्र में निर्गुण काव्य-धारा का समर्थन कबीर की भाँति करते हैं। प्रेममार्गी काव्यधारा में हरिसेवक मिश्र तथा सगुण कृष्ण भक्ति काव्य में बख्शी हंसराज के द्वारा मधुराभक्ति का प्रतिपादन हुआ।
राम काव्यधारा में केशव के उपरान्त अनेक कवियों ने काव्य रचना की, पर केशव की तुलना में वे कम ही प्रभाव डाल सकें। इस प्रकार बुन्देलखण्ड के कबीर (अक्षर अनन्य) सूर (बख्शी हंसराज), जायसी (हरिसेवक मिश्र), राष्ट्रीय कवि “लाल’ आदि ने चतुर्दिक उन्मेष का संदेश दिया।
कवियों का प्रदेय इस प्रकार है कि बख्तबली महाचार्य ने चम्पतराय के युद्धों का वर्णन किया तो उनके पुत्र भानुभ (1701 वि.) ने भी छत्रसाल के युद्धों का वर्णन और राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया। इन्हीं के दूसरे पुत्र गुलाब भी इसी धारा के कवि थे। “लाल’ का प्रदेय इस काल में इसलिए अधिक है कि उन्होंने छत्रसाल को नायक बनाकर उकने समस्त घटनाओं का यथार्थ चित्रण किया है।
छत्रसाल स्वयं एक कवि भी रहे हैं। युद्ध कला और काव्यकला का अद्भुत मेल उनमें मिलता है। बुन्देलखण्ड के चरित-नायक बनकर वे महान कार्य में लगे रहे। इनके बाद सं.1712 वि. में देवीदास, अक्षर अनन्य (1700 वि.) के नाम महत्वपूर्ण है। अक्षर अनन्य ने व्यापक काव्यभाषा को अपनाया पर बुन्देली रीतिरिवाज, संस्कृति, उक्तियों और मुहावरों को अपनाकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की त्रिवेणी प्रवाहित की। उन्होंने कबीर की भाँति मानवधर्म का प्रतिपादन किया और समाज की बुराइयों को दूर करने में योगदान दिया।
इसी प्रकार हरिसेवक मिश्र सं. 1720 ने प्रेममार्गी काव्यधारा में “कामरुप कथा’ के माधक से एकनिष्ठ प्रेम का संदेश दिया। देशी रियासतों में महाराज उदोतसिंह के आश्रय में कोविद मिश्र ने भाषा में हितोपदेश, रामभूषण मुहूर्त दपंण, नायिका भेद आदि ग्रंथ लिखे। सागर के सुवेश कायस्थ ने हितोपदेश और मित्रमिलाप लिखे। बुन्देली मुहावरों और कविताओं का उत्तम प्रयोग कवि ने अपने ग्रन्थों में किया है। इस समय के शासकों में महाराज उदीतसिंह स्वयं एक कवि रहे हैं।
बख्शी हंसराज की तीन रचनाओं-मेहराज चरिॠ सनेहसागर और विरहविलास में अंतिम दो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें सूर के समान वात्सल्य, विरहवर्णन, मधुराभक्ति और बुन्देली संस्कृति का दर्शन होता है। इसी काल में पद्माकर कवि के पिता मोहनभट्ट, कृष्णकवि सना ओरछा, गोपकवि रसनिधि के दरबारी कवि रुपनारायण मिश्र, खण्डन कायस्थ दतिया, कवीन्द्र ज्ञानी जू, गुमानमिश्र कविताकाल, बोधा कवि का कृतित्व बुन्देली काव्य के इतिहास में अमूल्य योगदान रहा है।
5- बुंदेली श्रृंगार काव्य काल Bundeli shrngar Kavya Kal
18वीं शती विक्रमी से 1950 शती विक्रमी तक
भक्तिकाल की समृद्धि बृजभूमि मानी जाती है तो रीति या श्रृंगार काव्य का पूर्ण उन्मेष बुन्देलभूमि में ही हुआ है। आचार्य कवि केशवदास रीतिकाल के श्रेष्ठतम कवि माने जाते हैं। उनके बाद श्रृंगार की धारा में पद्माकर संवत 1810 खुमानकवि, ठाकुर, दामोदर देव, मंचित, नवलसिंह कायस्थ झाँसी, प्रताप साहि चरखारी, पजनेस पन्ना, गदाधर भट्ट, सरदारकवि ललितपुर, भगवंत कवि पन्ना, ईसुरी, गंगाधरव्यास छतरपुर, ख्यालीराम चरखारी, आदि कवियों ने बुन्देली की श्रृंगार माधुरी को अनेक प्रकार से सुसज्जित किया है।
पद्माकर के आते-आते- बुन्देलखण्ड के वे सौ वर्ष बीत गये जिनसे इस भू-भाग में सांस्कृतिक प्रवाह आया। छत्रसाल की मृत्यु के बाद समग्र बुन्देलखण्ड छोटी-छोटी इकाइयों में बँट गया। इन सबसे में एक होड़ अवश्य थी पर वह श्रृंगार तक ही सीमित रही। अनेक राजाओं के आश्रय से प्रभावित उनकी समस्त कृतियों में रीतिबद्ध श्रृंगार क्रमशः लोकतत्व से जुड़ता गया।
अतः वे रचनायें अधिक सुन्दर बन पड़ीं जिनमें लोक जीवन रहा है। इसलिए फाग साहित्य अथवा ॠतुकाव्य अधिक आकर्षक बन पड़े हैं। पद्माकर ने बुन्देली संस्कृति, भाषा और जीवनदर्शन को श्रृंगार रस से समन्वित करके प्रस्तुत किया है। जगत् विनोद, पद्माभरण, प्रबोधपचासा और गंगालहरी कृतियों में उनकी प्रतिभा के दर्शन होते हैं।
फाग की भौरें अभीरैं लै गहि गोविन्द भीतर गोरी।
आई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की झोरी।।
छीन पीताम्बर कम्म्र तैं सु बिदा दई मीड़ कपोलन रोरी।
नैन नचाई कहौ मुस्काई, आइयो लला फिर खेलन होरी।।
पद्माकर के बाद श्रृंगार काल के कवियों में काव्यादेश देने की क्षमता नहीं रही थी। रुप साहि, दामोदर देव, मंचित ने अलंकार और नायिका भेद को महत्व दिया है तो नवलसिंह कायस्थ के कृतित्व “”रास पंचाध्यायी, आल्हा रामायण, रामचन्द्र विलास, रुपक रामायण में कवि और चित्रकार दोनों का समन्वय हुआ है। प्रताप साहि चरखारी, रतनेस वंदीजन के पुत्र माने जाते हैं।
नायक-नायिकाओं और व्यंग्य चित्रण में ये पद्माकर के समान प्रतिभाशाली हैं। इनके विम्ब चित्रण के आधार पर इन्हें दूसरा पद्माकर भी कहा जाता है। नरेस, ओरछा नरेश तेजसिंह और सुजानसिंह के आश्रय में रहे हैं। इन्होंने झाँसी की रानी को पूरे इतिहास के साथ चित्रित करने की चेष्टा की है।
पजनेरा का कृतित्व एवं व्यक्तित्व उनका ‘पजनेस प्रकाश’ है। ये पूर्णतः बुन्देली के कवि हैं पर ब्रज और फारसी के शब्दों का प्रयोग यथास्थान करते हैं। पद्माकर के प्रपौत्र गदाधर भट्ट, सरदार कवि, भगवंत कवि, बुन्देलखण्ड के ऐसे कवि हैं जिन्होंने छिटपुट रचनाओं में ही अपनी प्रतिभा दिखाई है।
6- बुंदेली स्वतन्त्रता पूर्व
1950 शती विक्रमी से 2000 शती विक्रमी तक
श्रृंगार काव्य की प्रवृत्तियाँ प्रारंभिक दशकों तक ही सीमित रही है। इसी समय सन् 1857 की गदर की भूमिका बनी स्वतंत्रता के लिए उत्तरभारत और बुन्देलखंड के वीरों ने अनेक बलिदान दिए। ये बलिदान व्यक्तिगत भूमिका पर होते-होते राष्ट्रीय महत्व के हो गए। झांसी की रानी, नाना साहब, तात्या टोपे, नवाब बांदा आदि ने एक झंडे तले खड़े होकर क्रांति का बाना पहना। उनके अनुयायियों में बख्तबली, मर्दनसिंह जैसे क्रांतिवीरों के नाम लिये जाते हैं।
अंग्रेजी शासन धीमे-धीमे स्थापित होता गया और नए प्रांत बने। बुंदेलखण्ड उत्तरप्रदेश और मध्यप्रांत में विभाजित हो गया। आधुनिक काल में चार प्रकार के कवि मिलते हैं। प्रथम वर्ग में कवि आते हैं जिन्होंने अतीत के चरित्रों को आधार बनाकर तथा संस्कृति, धर्म, देशभक्तिपरक रचनायें की।
द्वितीय वर्ग के कवियों ने आधुनिक चेतना एवं स्वातंत्रयोन्मुख विचारधारा को ठेठ बुन्देली में प्रस्तुत किया। तृतीय वर्ग के कवियों ने स्फुट छंदों में काव्य रचनायें प्रस्तुत की। समस्यापूर्ति इन्हें श्रृंगारकाल से विरासत में मिली। चतुर्थ वर्ग में लोककाव्य शैली अपनाने वाले कवियों ने ग्रामीण जीवन को प्रस्तुत किया।
प्रथम वर्ग के कवियों ने ब्रज और बुन्देली के साथ खड़ी बोली के शब्दों का प्रयोग किया। इन्होंने भले ही मिश्रित भाषा में काव्य लिखा पर उच्चारण से वे कृतियों को बुन्देली में ही पढ़ते हैं। दूसरे वर्ग के कवियों ने भाषा, लोक संस्कृति, लोक जीवन, लोक विश्वास आदि सभी में बुन्देलखंड की भाषा को जीवित रखा है। तीसरे वर्ग के कवियों में मूलतः खड़ी बोली और ब्रज का प्रयोग अधिक मिलता है। इनमें बुन्देली के शब्द अनायास आ गये हैं। ये बुन्देली संस्कृति और माटी से दूर नहीं जा पाये हैं।
चौथे वर्ग के कवियों की रचनायें लोककाव्य की प्राण हैं। इन कवियों ने अधिकांश में दीवारी, फागें, भजन और श्रृंगारिक गीत अधिक लिखे हैं। समस्त कवियों का संक्षिप्त परिचय उनकी प्रवृतियों के आधार पर इस प्रकार है। मदन मोहन द्विवेदी ‘मदनेशद’ रासो-काव्य परम्परा में लक्ष्मीबाई रासो जैसी अमूल्य कृति प्रस्तुत करते हैं जो डॉ. भगवानदास माहौर के सानिध्य से प्रकाश में आई। हरनाथ ने व्यापक काव्य भाषा अपनाई, बुन्देली चरित्र देशभक्ति, नीति, श्रृंगार आदि को काव्य का विषय बनाया।
डॉक्टर भवानी प्रसाद ने बुन्देली कहावतों, मुहावरों को काव्य में विषय बनाकर अपने विचार दिए। ऐनानन्द ने सिद्धांत सार नामक ग्रन्थ लिखा। सुखराम चौबे गुणाकर, गौरीशंकर शर्मा, गौरीशंकर सुधा, जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, पं. जानकी प्रसाद द्विवेदी, शिवसहाय चतुर्वेदी, रामचंद्र भार्गव, घासीराम व्यास आदि अनेक कवियों की कृतियों में बुंदेलखंड की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थितियों का परिचय मिलता है।
लोक संस्कृति के चित्रकारों में श्रृंगार काव्य काल के अवसान पर ईसुरी, ख्यालीराम और गंगाधर के नाम सामने आये जिन्होंने फाग साहित्य को अत्यधिक समृद्ध बना दिया। उनके बाद रामचरण हयारण मित्र, हरिप्रसाद ‘हरि’, गौरी शंकर द्विवेदी ‘शंकर’, द्वारिकेश, संत बृजेश सुधाकर शुक्ल शास्त्री, पं. ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी, शंभुदयाल श्रीवास्तव ‘बृजेश’, भैयालाल व्यास, लक्ष्मीनारायण पथिक, चतुर्भुज दीक्षित, रघुनाथ प्रसाद गुरु, रामदयाल श्रीवास्तव आदि अनेक कवियों ने नए विषय, नीति ओर संस्कारों के साथ’साथ बुन्देली माटी और देश का गान किया।
7- बुंदेली अत्याधुनिक काल
संवत 2000 शती विक्रमी से अब तक
विक्रम की 20 वीं शताब्दी में बुंदेलखंड में बुन्देली और अन्य प्रदेशों में स्थानीय बोलियों के साहित्य की विपुल राशि दृष्टिगत होती है। सागर विश्व विद्यालय बुन्देलीपीठ से डॉ. बलभद्र तिवारी ने बुन्देली काव्य परम्परा के तीन ग्रंथ प्रकाशित किए जो प्राचीन और नवीन काव्य धारा में श्रृंखला का कार्य करते हैं। आधुनिक काव्य-धारा का परिचय बुन्देली काव्य परम्परा भाग २ आधुनिक काव्य में मिलता है।
बुन्देली के उन कवियों को इस कृति में स्थान दिया गया है जो सन् 1900 के बाद बुन्देली जनजीवन को ही चित्रित नहीं करते बल्कि राष्ट्रीय एवं सामाजिक परिवेश के प्रति जागरुक हैं। हिंदी साहित्य में द्विवेदी युग की अवसान बेला में पं. रामनरेश त्रिपाठी और विदेशी भाषाविदों ने प्रदेशिक भाषा, संस्कृति और साहित्य पर विशेष ध्यान दिया है।
छायावाद युग के साथ राष्ट्र प्रेम की कविताओं का विशेष उफान आता है। बुन्देलखण्ड के मुन्शी रामाधीन खरे, नरोत्तम दास पाण्डे ‘मधु’ इस भावधारा की रचनायें प्रस्तुत करते हैं। सन् 1920 में जलियांवाला बाग का काण्ड घटित हुआ। अंग्रेज सरकार की नीति के विरोध में घासीराम व्यास, रामनाथ त्रिवेदी, रामनाथ, राव ठाकुरदास, नाथूराम चतुरेश परासर, नन्दराम शर्मा आदि कवियों ने अनेक कविताएँ लिखी है।
एक अन्य धारा में गौरीशंकर शर्मा, जानकी प्रसाद द्विवेदी, सुखराम चौबे गुणाकर, रामचन्द्र भार्गव, शिवसहाय चतुर्वेदी, लोकनाथ सिलाकारी, सुधाकर शुक्ल शास्री, ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी जैसे कवि आते हैं जो समाज और संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर विचार तो करते ही हैं साथ ही राष्ट्रीय उद्बोधन के गीत भी गाते हैं। अतीत के भारत को वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न करने की चेष्टा में वे खड़ी बोली और बुन्देली दोनों में रचनाएँ प्रस्तुत करते हैं।
इसी समय का लोक साहित्य फाग से अनुप्राणित होकर सामने आता है। इंसुरी, ख्यालीराम, गंगाधर व्यास के सिवा अनेक स्फुट छंद लिखने वाले कवियों ने समसामयिक आंदोलन को अपनी कविताओं में प्रोत्साहित किया है। एक अन्य वर्ग व्यापक काव्य भाषा अपनाकर भी बुंदेली के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता है।
इसमें डॉ. लक्ष्मी प्रसाद ‘रमा’, गौरीशंकर द्विवेदी ‘शंकर’, हरगोविंद गुप्ता, बालमुकुन्द कन्हैया, रामलाल बरानिया ‘द्विजदीन’, गौरीशंकर पंडा, सैय्यद मीर अमीर अली ‘मीर’, नाथूराम प्रेमी एवं उनके सहयोगी के नाम विशेष है। बुन्देली काव्य के आधुनिक काल में चार प्रकार के कवि मिलते हैं।
1-अतीत के चरित्रों को आधार बनाकर रचनायें लिखने वाले संस्कृति-धर्मी और देशभक्त कवि।
2-आधुनिक चेतना के बुन्देली में लिखने वाले कवि।
3-छिटपुट विषयों पर अल्प कृतित्व वाले कवि।
4-लोक काव्य शैली के रचयिता कवि।
समस्त कवियों में आधुनिक काल के पूर्वार्द्ध में जानकी प्रसाद द्विवेदी, शिवसहाय चतुर्वेदी, रामचंद्र भार्गव, हरिप्रसाद हरि, लोकनाथ द्विवेदी सिलाकारी, सन्त ब्रजेश, रामचरण हयारण मित्र, सुधाकर शुक्ल शास्री और ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी प्रमुख है। इनकी रचनायें समस्यापूर्ति शैली से प्रारंभ होकर आधुनिक युग की समस्याओं तक केन्द्रित हैं।
ये बुन्देलखंड के जन-जीवन का खड़ी बोली और बुन्देली दोनों में चित्रण करते हैं। विशुद्ध बुन्देली में काव्य रचना करने वालों में सन्तोषसिंह, अवधेश, बाबूलाल खरे, माधव शुक्ल, दुर्गेश, गुणसागर, लक्ष्मी प्रसाद गुप्त, नीरज जैन आदि हैं। इनके काव्य में ग्राम्य जीवन, प्राकृतिक सुषमा और देहात की समस्याओं के चित्र आते हैं।
बुंदेली के नये काव्य का प्रतिनिधित्व भैयालाल व्यास ‘विन्ध्य कोकिल’, चतुर्भुज चतुरेश, शर्मनलाल जैन ‘पथिक’, रतिभानु तिवारी तेज ‘कंज’, भगवान सिंह गौड़, शंभुदयाल श्रीवास्तव “ब्रजेश’, रामकृष्ण पांडे, गोरेलाल साहू, महेश कुमार मिश्र ‘मधुकर’, जीजा बुन्देलखंडी, कैलाश मड़वैया, प्रकाश मड़वैया, प्रकाश सक्सेना, लोकेंद्र सिंह ‘नागर’ संतोष सिंह बुन्देला, अयोध्या प्रसाद चौबे, द्वारिका प्रसाद अग्रवाल, केदारनाथ अग्रवाल आदि करते हैं। इन कवियों में समकालीन समाज, संस्कृति और राजनीति के प्रति जागरुकता है। ये जमीन से जुड़े हुए कवि हैं।
समकालीन जीवन बोध से संपृक्त जीवन दृष्टि के कारण बुन्देली काव्य में आज नये प्रयोग भी हो रहे हैं। कुल मिला कर बुन्देली काव्य की एक निश्चित परम्परा है जो पिछले सात सौ वर्षों तक फैली हुई है। हिन्दी की समर्थ बोली का साहित्य इसमें मिलता है। अतः यह कहने में हमें कोई संकोच नहीं कि इसे भाषा का गौरव दिया जा सकता है।
बुन्देली झलक ( बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य )
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
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