बुन्देलखण्ड में Shard Pune Vrat शरद पूनें व्रत कथा घर -घर होत। एक गाँव में एक वामुन डुकरिया रत्ती । आंगै पाछै ऊके कौऊ नई हतो । ऊके परिवार के सबई जने राम खौं प्यारे हो गये ते । वा अकेली एक टपरिया में डरी- डरी जीवन के दिन रो गा कें काद रईत्ती । अकेलैं हतो उयें भगवान पै पूरौ भरोसौ । दिन भर गावन-गावन घूम फिर कैं माँग ल्याबैं, उर जो कछू मिलें ओई सै गुजर बसर करत रत्ती ।
पैंला सत्यनारायन भगवान की पूजा करकै बड़ी भाव भक्ति सैं भोग लगा कैं प्रसाद पाऊत रत्ती । ऊखौ तो भगवानई पै पूरौ भरोसौ हतो । दुनियादारी सैं कछू मतलब नई हो। सत्यनारायन भगवान की ऊपै भौत कृपा रत्ती। दो चार खोवा चून मिल गओ उत्तई भौत हतो ऊके लाने । अकेले पेट के लाने और का चाने तो उयै।
वा तौ भौतई संतोषी डुकरिया हती । लगत कै ऊने तो जौ मंत्र पूरी तरासैं पढ़ लओ तो- ‘रूखा सूका खायकै ठण्डापानी पी’ देख पराई चूपड़ी मत ललचाबैं जी’। डुक्को खौ देख कै सबई खौ दया आ जात ती । उयै दोरे में देखतनई लोग खोवा भर चून तुरतई दै देत ते उयै। उर ऊके भगवान के लाने उत्तई चून भौत हतो | ऐसई ऐसें माँगत खात कैऊ वरसै कड़ गई ती ।
एक दिना ऊनें सोसी कै भगवान की पूजा तौ वरसन सै कर रयै है । अब एक दिना गाँव भरको भण्डारौ और कर दओ जाय । जौन गाँव सैं मँगा-मँगा के हम भगवान खौ भोग लगा-लगा कै अपनौ पेट भरत रये । हमाये ऊपर गाँव को भौत बड़ो ऐसान चढ़ गओ । उखौं चुकावने तो परेई ।
वा गई सो गाँव भर खौं न्यौतौ दै आई । न्यातै की बात सुनकै गाँव भर के आदमी सनाकौ खाकै सोसन लगै कै घर में भूजी भाँगतौ है नइया मँगा मँगाकै तो पेट भर रई उर गाँव भर के न्यौता कर को शौक कर रई । ऐसी कन लगत कै ‘मर गई किल्ली काजर खौं गिरदौला गोपी चन्दन खौ’।
लोग उयै देख-देख ‘हँसी करन लगे कै हओ बऊ हम सब सपर-सपर कै सौकाऊँ आ जैय डुक्को जानतौ सब रई ती । अकेलै उने अपने सत्यनारायन स्वामी पें पूरौ – पूरौ विश्वास हतोई । वे सोसन लगी कै दुनिया हँसी करे सो करन दो हमाई लाजतौ भगवानई के हात में है । बेई सब पूरी करें। आदमी की बस की का है । वा घरै आकै भगवान कौ ध्यान करन लगी उर सोसन लगी कै ‘तेलना ताई उर लगुन दै लिखाई ‘ ।
हराँ – हराँ उनके आँगन में आदमी जुरन लगे उन्हें आव देखो ना ताव उर आँगन के बरत चूले पै करइया धर दई । नाचून उर ना चोपर सत्यनारायन स्वामी कौ नाँव लैकै जई सैं झारौ ठोको सोऊ ऊ करिया में सैं छप्पन बिन्जन तैयार होन लगे । भगवान की ऐसी लीला कै छबला के छबला भर गये सामान सैं। जौ तमाशो देखकैं लोग ता करकै रै गये।
फिर का कने पंगत बैठ गई । उर दिन भर उर आदीरात नौ भण्डारौ चलत रओ, कोनऊ कमी नई आ पाई। सामान की गाँव तो गाँव दस गाँव के लोग खा-खा कै सनात हो गये, उर डुक्क करइया पै जमी रई। जई सैं उन्ने देखो कै सब जनें खा पी चुके, सोऊ उन्ने करइया में सैं झारौ बायरे काड़ लओ ।
उर उठ कै वे अपने सत्यनारायन भगवान सैं कुन्नस करन लगी कै हे भगवान आपने हमाई लाज बचा लई नई तर हमाई भौतई हँसी होने ती, ऐसई सबकी लाज राखेँ रइयौ । उतें ठाढ़े- ठाढ़े एक ढीमर ढीमरन वामुन डुक्को कौ जौ तमाशों देख रये ते । उनन नें सोसी कै डुक्को तौ जा भौतई अच्छी जुगती जानती । तनक हमई जौ नाटक करकै देखें उनन खौ सत्यनारायन सैतौ कोनऊ मतलब हतो नई, उनन खौ तौ ऊ खेल खौ अजमाउने भर हतो ।
उनन ने अपने आँगन खौ अच्छी तरा सै लीपो पोतो । चूलों घरकै आंगें आगी बारी उर करइया में जई सैं ऊने झारै ठोके सोऊ वौ उचट कैं ढीमरन के मौमे घलो सोऊ वा चिल्लयात भगी। माँसै उर फिर एक छूटा कौ तातौ झारो ढीमर के गलपटे मे घलौ। सोऊ सबई सिट्टी-पिट्टी भूल गई उननकी। कन लगत कै चूले की खाँई मजोटे हुन आई वे दोई ने भगत – भगत डुक्को नौ जाकै ऊके पाँवन पै गिरकै कन लगे कै बाई ताते झारन के मारै तौ हमाई कागत हो गई हमन तौ अदमरे हो गये तुमें जा इत्ती बड़ी सिद्धि कैसे मिली।
सुनतनई डुक्को मुस्कयाकै कन लगी कै बेटा सत्यनारायन भगवान की कृपा के बिना पत्ता नई हिल सकत, तुम उनई कौ मन लगा कै पूजन करो सोऊ तुमाये सबई काम अपने आप होत रैय, देखौ इन बातन कौ ख्याल करियौ डेढ़ पौवा खोवा, डेढ़ पौवा शक्कर जीसे बनाये छै लडुवा ।
तुलसी खौ, ठाकुर खौ, पति खौ, गर्भस्त्री खौ, बालक खौ उर अपन ने पा लओ । ईसै तुमाई मनसा अपने आप पूरी हो जैय। अकेलै विश्वास करवौ जरूरी है। मानौ तौ परमेसुर नईतर सो पथरा सौ हैई। जा बात ढीमर उर ढीमरन के गरे उतर गई उर उदनई सै पूजा पाठ में लग गये । है सत्यनारान भगवान ऐसई सबकी मनसा पूरी करत रइयौ । कोऊ हैरान नई हो पाबै।
भावार्थ
एक गाँव में एक परिवार निवास करता था । परिवार में माता-पिता, भाई-बहिन, नाती- नातिन सभी थे, किन्तु सारा परिवार अभावग्रस्त और साधनहीन था । बड़ी कठिनाई से परिवार के भरण-पोषण की व्यवस्था हो पाती थी । उनका रहन-सहन और खान-पान बहुत ही सहज और सरल था। एक ऐसी कहावत कही जाती है कि- ‘चाँदी की मेख तमाशा देख’ जब चाँदी की मेख ही नहीं है तो फिर तमाशा देखने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता ।
एक बार कोई भयंकर बीमारी आयी और ब्राह्मण परिवार के सारे लोग काल के गाल में समा गये । उस परिवार में केवल एक बूढ़ी डुकरिया शेष बची। बहुत दिनों तक तो वह अपने परिवारजनों के लिए रोती रही, अंत में मन मारकर अपने जीवन के शेष दिन व्यतीत करने लगी। उसने भी सोच लिया कि ‘अब पछताये होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत’ । उसका सारा मकान धराशायी हो गया । वह बेचारी वृद्धा एक झोपड़ी में रहकर दिन काटने लगी। अपना पेट भरने के लिए गाँव में घर-घर से एक-एक चुटकी आटा माँग कर लाती थी, किन्तु थी वह भगवान् सत्यनारायण की परम भक्त ।
आटा इकट्ठा होने के बाद अपने हाथ से भोजन तैयार करती थी । फिर विस्तार पूर्वक भगवान् सत्यनारायण की पूजा करके, उन्हें विधिवत् प्रसाद लगाकर भोजन करती थी । इस प्रक्रिया के द्वारा उसका उदर पोषण होता था। दीन होने के बाद भी उसके मन में अपने भगवान् के प्रति अटूट आस्था और विश्वास था। ऐसा कहा जाता है कि ‘विश्वासो फलदायक : ‘ भीख माँगते और पूजा करते अनेक वर्ष व्यतीत हो गये।
उसने सोचा कि मैं इतने वर्ष से गाँव वालों के दिये हुए आटे को खा-खा कर गुजर-बसर कर रही हूँ और अपने भगवान् को भोग लगा रही हूँ । मेरे ऊपर और मेरे भगवान् पर गाँव वालों का बहुत बड़ा ऋण चढ़ चुका है। हमें किसी न किसी रूप में उनका ऋण चुकाना ही चाहिए। यदि हम सारे गाँव का निमंत्रण करके भोजन करा दें, तो हमारे सिर का बोझ कुछ हल्का हो सकता है। मेरे पास है तो कुछ भी नहीं, भगवान् ही मदद करेंगे। ऐसा सोचकर वह पूरे गाँव में निमंत्रण कर आई।
निमंत्रण की बात सुनकर लोग आश्चर्य चकित होकर सोचने लगे कि ये डोकरी पागल हो गई है । द्वार-द्वार पर भीख माँग- माँग कर खाने वाली गाँव भर को कैसे और कहाँ से खिलायेगी? सभी लोगों ने हँसकर हाँ-हाँ कर टाल दिया। ऐसा कहा जाता है कि भोले के भगवान् होते हैं। डोकरी को तो अपने सत्यनारायण पर पूरा विश्वास था कि वे ही मेरी लाज रखेंगे। संध्या का समय होते ही गाँव के आमंत्रित लोग झोपड़ी के पास एकत्रित होने लगे।
लोगों को वहाँ भोजन की कोई तैयारी दिखाई नहीं दी । लोगों ने सोचा कि अरे! यहाँ तो कुछ भी नहीं है डोकरी पागल हो गई है। धीरे-धीरे गाँव के तमाम लोग एकत्रित हो गये । उन्हें देखकर डोकरी मन मन चिंतित तो थी ही, किन्तु उसे अपने भगवान् पर पूरा विश्वास था। उसने मन ही मन सत्यनारायण भगवान् का स्मरण करके चूल्हा जलाया और उस पर एक बड़ी खाली कड़ाही चढ़ा दी और ऊँचे से आसन पर बैठकर ज्यों ही कड़ाही में झारे को ठोका, त्योंही कड़ाही में से अपने आप व्यंजन तैयार हो – होकर निकलने लगे।
भोजन सामग्री के ढेर लग गये। गाँव वाले इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखकर चकित थे । फिर क्या था ? पंगत बैठ गई । लोग परोस – परोस कर खिलाने लगे। आधी रात तक तो भोज चलता रहा। गाँव ही क्या आस-पास के दस गाँव के लोग भोजन कर करके चले गये, किन्तु भोज्य सामग्री की कोई कमी नहीं आ पाई । डोकरी जब तक कड़ाही में झारे को डाले रही, तब तक कड़ाही भोज्य सामग्री उगलती रही। कार्यक्रम पूरा होने के बाद डोकरी ने आसन से उठकर भगवान् को प्रणाम किया और फिर विधिपूर्वक सत्यनारायण की पूजा-अर्चना की ।
ये होता है उपासना और भक्ति भावना का प्रभाव। इस दृश्य को वहाँ खड़े-खड़े एक ढीमर और ढीमरन देख रहे थे । उन्होंने सोचा कि अरे ! ये तो बहुत अच्छी युक्ति है । इसका तो लाभ हम भी ले सकते हैं। ज्यादा मेहनत भी नहीं है और विधि भी सरल है। इससे तो हम मालामाल हो सकते हैं। वे दोनों अपने घर गये और अपने आँगन को लीप-पोतकर स्वच्छ किया । उन्हें सत्यनारायण भगवान् से तो कोई मतलब था नहीं। वे तो केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाह रहे थे।
भक्ति भावना तो उनसे कोसों दूर थी। दोनों ने मिलकर आँगन में चूल्हा जलाया और उस पर एक कड़ाही चढ़ा दी और फिर चूल्हे के पास बैठकर ज्यों ही ढीमर ने कड़ाही में झारे को ठोका, त्यों ही वह गर्म झारा उचटकर ढीमर के गाल पर पड़ा, जिससे वह वहाँ से चिल्लाकर भागा और फिर दो झारे ढीमरन के दोनों गालों पर पड़े। तब वह भी वहाँ से चूल्हे को छोड़कर भागी ।
दोनों की हालत खराब हो गई और दो तीन दिन खटिया पर पड़े रहे। उन्होंने प्रण किया कि अब हम आज से किसी की परीक्षा नहीं लेंगे। उस डोकरी की भक्ति भावना का प्रचार-प्रसार होता रहा और बुंदेलखण्ड की महिलाएँ शरद पूर्णिमा का व्रत करके मनोवांछित फल प्राप्त करने लगीं। वे दोनों ढीमर और ढीमरन डोकरी के चरणों पर गिरकर पूछने लगे कि माताजी आपको इतनी बड़ी सिद्धि कैसे प्राप्त हुई? हमारी तो दुर्गति हो गई है।
डोकरी ने मुस्कराकर कहा कि बेटा ये सब सत्यनारायण भगवान् की ही कृपा है। उनकी कृपा के बिना तो पत्ता भी नहीं हिल सकता । तुम दोनों उन्हीं का पूजन करो। डेढ़ पाव खोवा और डेढ़ पाव शक्कर मिलाकर छै लड्डू बनाकर शरद पूर्णिमा को भगवान सत्यनारायण की विधिवत् पूजा करके एक लड्डू देव मंदिर में, एक गर्भवती स्त्री को, एक सखी को, एक पति को, एक छोटे बालक और एक स्वयं खाकर उपवास कीजिए, जिससे तुम्हें सारी सिद्धियाँ प्राप्त जायेंगी। तभी से ये उत्तम व्रत सारे बुंदेलखण्ड में प्रचलित हो गया।