Vyatha Katha व्यथा कथा

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By admin

कुछ रिश्ते ऐसे होते है जो जीवन भर तडपाते है,  कुछ रिश्ते ऐसे होते है जो जीवन भर तरसाते है और कुछ ऐसे रिश्ते होते हैं जो जीवन भर रुलाते हैं। उन रिश्तों की Vyatha Katha जीवन भर टीस देती रहती है। कुछ ऐसे दर्द होते हैं जिन्हे इंसान न चाहते हुये भी अपने सीने मे छुपा कर रखता है पर किसी को बता नही सकता सिर्फ तिल-तिल कर जलता रहता है।

‘‘सुनिए जी! आप, आम के टोकरे गाड़ी में रखवाइए। मुझे अभी दस मिनट और लगेंगे।’’ नन्दा ने मुस्कराते हुए अपने पतिदेव हरीश कुमार से कहा, जो हाल ही में जनपद न्यायाधीश के पद से अवकाश ग्रहण कर जिला उपभोक्ता फोरम में अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए हैं।

हरीशजी स्वयं तैयार होने के बाद से ही अपनी छड़ी के सहारे ड्राइंगरूम में धर्मपत्नी नन्दा की प्रतीक्षा में चहलकदमी कर रहे थे। वैवाहिक जीवन के पड़ाव वर्ष दर वर्ष गुजरते जाते हैं, इसमें धर्मपत्नी के तैयार होने के साथ के इंतजार की झल्लाहट का अपना अलग ही अंदाज बना रहता है, जिसे शादीशुदा जोड़े  बेहतर समझ सकते हैं।

‘‘आम के टोकरे कबके गाड़ी में रखवा दिए हैं। खरेजी को साढ़े पाँच बजे का समय दिया है।’’ हरीश ने दीवार घड़ी की ओर देखा। शाम के पाँच बज रहे थे, ‘‘जल्दी करो भाई! रास्ते मे भी पन्द्रह-बीस मिनट लग जाएंगे।’’ समय के पाबन्द हरीश ने कलाई घड़ी में देखा मिनट की सुई पाँच मिनट आगे थी, उन्होंने दीवार घड़ी से समय मिलाकर अपनी रिस्टवाच की सुई सही की।

सेलफोन के युग में कलाई घड़ी का उपयोग नगण्य रह गया है, पर हरीश कुमार जी बिना रिस्टवाच पहने घर से कभी बाहर नहीं निकलते थे। रिस्टवाच ही क्यों? उन्हें अपना व्यक्तित्व तब तक सम्पूर्ण नहीं लगता, जब तक कि वे मोजे-जूते, जेब मे रुमाल, कंघी, बाईं कलाई पर घड़ी नहीं पहन लेते। उनकी दाहिनी कलाई में कलावा के अलावा स्वर्णमंदिर अमृतसर से प्राप्त कड़ा तो स्थाई रूप से रहता ही था।

जेठ मास का उत्तरार्द्ध चल रहा था। देर रात आँधी फिर पानी बरसने से उमस भरी गर्मी से छुटकारा मिल गया था। बेमौसम की बरसात में दोपहर भी पानी बरसा था। आसमान में बादलों की आवाजाही सुबह से चल रही थी। हरीशजी ने पूर्व योजना के तहत आम के दो टोकरे मँगवा लिए थे, जिसे वे दोनों आदिल नगर स्थित वृद्धाश्रम में लेकर जाने वाले थे।

नगर निगम का यह वृद्धाश्रम गायत्री परिवार द्वारा संचालित है। प्रत्येक माह के द्वितीय शनिवार के अवकाश में हरीश अपनी धर्मपत्नी नन्दा के साथ अनाथालय, बाल-सुधार गृह, नारी-निकेतन या वृद्धाश्रम जाकर खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने या जीवन-उपयोगी सामान के साथ पहुँच जाते। वहाँ के हाल-चाल लेते, उनके साथ कुछ वक्त बिताते। नन्दा घर में ही दो-तीन अपने जैसी मोहल्ले की सहेलियों के साथ स्लम के बच्चों को पढ़ाया करती थी। हरीशजी भी ड्यूटी से आकर बच्चों को गणित के सवाल हल करवाते और नैतिक शिक्षा दिया करते थे।

‘‘लो जी चलो देखो! ठीक लग रही हूं न।’’ नन्दा पति से प्रशंसा चाहती थी, जो उसे सदैव एक अलग अंदाज में मिलती रहती थी। वह अंदाज था हरीशजी का गोल होते होठों से निकली मद्धिम स्वर की सीटी, जो बाँसुरी से भी मीठी, कर्णप्रिय होती, जिस पर नन्दा सौ-सौ बार वारी हो जाने को तैयार रहती।

कार ड्राइवर सह घरेलू कार्य देखने वाले कमलेश की पत्नी नीलम को नन्दा ने आदत के अनुसार हिदायतें दीं और कार का शीशा चढ़ा लिया। कमलेश व नीलम अपने जुड़वाँ बच्चों के साथ सर्वेंट क्वार्टर में रहते थे। उनके दोनों बच्चे इसी साल से स्कूल जाने लगे थे। वे दोनों अपने परिवार के साथ खुश थे। कमलेश कार ड्राइविंग व बागवानी के अतिरिक्त घर के अन्य आवश्यक कार्य पूरी लगन व निष्ठा से करता था, जबकि नीलम घर के सारे कार्य झाड़ू-पोंछा-बर्तन-कपड़े से लेकर पूरे घर की साफ-सफाई देखती थी। भोजन नन्दा स्वयं बनाती थी।

दोनों बेटियाँ ब्याह के बाद से ही अमरीका में सेटल हो गईं थीं। वर्ष में एक बार बेटियाँ अपने परिवार के साथ बारी-बारी से भारत आतीं। पन्द्रह दिन ससुराल तो पन्द्रह दिन उनके पास रह जातीं। वह समय पूरे साल की कमी तो पूरा नहीं कर पाता, पर बहुत खुशी और संतोष दे जाता। बेटियों की खुशी में उनकी खुशी निहित रहती। नाती, नातिनों की टूटी-फूटी हिंदी और अंग्रेजी का अमरीकी उच्चारण उन्हें बहुत भाता। नन्दा व हरीशजी अमेरिका तीन-चार बार जा चुके थे, परंतु उन्हें अपना देश ही पुसाता था। थकान भरी उबाऊ हवाई यात्रा उस पर अमेरिका की अत्याधुनिक पाश्चात्य संस्कृति वाली जीवन शैली उन्हें कतई रास नहीं आती थी।

अभिवादन शीलस्य नित्यरू वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम ।।

(जो सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। उनकी आयु, विद्या, कीर्ति, और बल इन चारों में वृद्धि होती है।)

वृद्धाश्रम के मुख्यद्वार के अंदर पोर्टिको में अपनी कार से उतरते ही हरीशजी व नन्दा की दृष्टि इस श्लोक पर पड़ी। श्लोक व उसके भावार्थ को पढ़ते दोनों के हृदय भावपूर्ण श्रद्धा से भर उठे। वृद्धाश्रम के संचालक मेजर विजय कुमार खरे अपनी रौबदार श्वेत घनी मूँछों के साथ अपने कक्ष से बाहर आकर आत्मीयता से बोले, ‘‘प्रणाम! आइये जज साहब! इस आश्रम में आपका ह्रदय से स्वागत है। आप दोनों के पधारने से मुझे बहुत खुशी हुई है।’’ ‘‘प्रणाम! मेजर साहब!’’ हरीशजी व नन्दा ने हाथ जोड़ लिए।

अपने कक्ष में जलपान कराते हुए मेजर खरे ने वृद्धाश्रम के बारे में विस्तार से जानकारी दी। जलपान के बाद वे उन्हें पुस्तकालय, गायत्री मन्दिर, भोजनालय दिखाते हुए वहाँ संचालित होने वाले कार्यक्रमों पर प्रकाश डालते रहे। नन्दा व हरीश अपने से अधिक उम्र के वृद्धजनों के मध्य आकर स्वयं को युवा अनुभव कर रहे थे। विस्तृत तिकोने मैदान के तीनों ओर ऊँचे बरामदे के समानांतर वृद्धजनों के रहने के लिए कक्ष बने हुए थे। प्रत्येक कक्ष में अटैच बाथरूम था। बाहरी दरवाजे पर खुली बालकनी भी थी, जहाँ कपड़े सुखाने के साथ-साथ जाड़े की धूप में बैठा जा सकता था। मेजर खरे ने बताया कि, ‘‘इस वृद्ध आश्रम में जो सक्षम हैं, उनसे एक निर्धारित धनराशि प्रत्येक माह प्राप्त होती है और जो निर्धन वृद्धजन हैं, उन्हें डोरमेट्री में सामूहिक रहना होता है।

प्रत्येक पलंग के साथ एक छोटी अलमारी दी जाती है। उनका शौचालय व स्नानघर सामूहिक रहता है। आश्रम में विभिन्न संस्थाएं व संपन्न लोग सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन भी कराते हैं। मकर संक्रति, होली, रक्षाबन्धन, गुरुपूर्णिमा, विजयादशमी व दीपावली के त्योहारों के अतिरिक्त गणतन्त्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर यहाँ वृद्धजनों से भद्रजन आकर मिलते हैं और उन्हें मिठाइयां व अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुएं प्रदान करते हैं।

आप जैसे कई दयालुजनों के यहाँ पधारने से वृद्धजन भी प्रसन्न होते हैं। उनमें उत्साह एवं ऊर्जा भर जाती है। आप दोनों माह में कम से कम एक दो बार समय निकालकर अवश्य आया कीजिए। मैं आपको अब से यहाँ पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों की नियमित सूचना वॉट्सएप दे दिया करूँगा,  जिसमें भी आपका मन और समय हो सहमति दें। आप अवश्य पधारें।’’

बात करते-करते वे सब वृद्धजनों के लिये बने पुस्तकालय में कुछ देर के लिये बैठ गए। करीने से बुक सेल्फ में लगीं पुस्तकों व वहाँ की साफ-सफाई से हरीश व नन्दा गदगद हो उठे, उन्हें पुस्तकालय की व्यवस्था देख रहे महानुभाव का स्वभाव भी बहुत अच्छा लगा। मेजर खरे ने परिचय कराते बताया कि, ” आप से मिलिए आप श्री रामचंद्र श्रीवास्तव हैं और ‘माहिर’ के उपनाम से शेरो-शायरी भी करते हैं। हरीशजी के आग्रह पर माहिर साहब ने स्वरचित कुछ शेर प्रस्तुत किए –

जो पेड़ साया देते हुए बूढ़ा हो गया।
उसी को काटने को लोग बेताब हैं।।
जिन पर मैंने अपनी सारी दौलत लुटा दी।
इन्हीं वारिसों ने कफन मुझे माफ कर दिया।।
हुजूर मेरी कब्र पर इसलिए नहीं आता है,
कहीं उसे देख कर जिंदा न हो जाऊं।’’

माहिर साहब ने आगे कुछ अन्य शेर भी सुनाए। इस बढ़ती उम्र में भी उनकी ऊर्जा देखते बनती थी। पुस्तकालय से निकलते हुए मेजर खरे ने बताया, ‘‘माहिर साहब उत्तर प्रदेश शासन के सचिवालय से अनुभाग अधिकारी के पद से अवकाश प्राप्त हैं। दो बेटे हैं, जो इसी शहर में रहते हैं। पत्नी के गुजर जाने और बेटे बहुओं की उपेक्षा उन्हें यहाँ ले आई। उनकी शायरी में भी यही तंज व दर्द झलकता रहता है।” “काश! दो बेटों में एक बेटी होती।” हरीशजी बोल पड़े।

“जी हाँ एकदम सही कह रहे हैं, आप! बेटी होती तो उन्हें कम से कम वृद्धाश्रम में तो नहीं ही रहने देती।” अपने कक्ष में न ले जाकर मेजर खरे आगे बोले, ‘‘आप से निवेदन है, भोजनालय पर आज बने हुए भोजन को ग्रहण करके ही यहाँ से प्रस्थान करें।’’ मेजर खरे का आत्मीय आग्रह वे दोनों टाल न सके और मुस्कराते हुए भोजनालय में आ गए। भोजन-कक्ष साफ-सुथरा बड़ा-सा हॉल था, जिसमें करीने से कुर्सी-टेबिलें लगी हुई थीं।

एक लंबा काउंटर बना था, जिस पर से भोजन-सामग्री को स्वयं लेना होता है। पास में ही साफ वाश-बेसिन व उसके ऊपर एक बड़ा-सा दर्पण लगा हुआ था। हॉल से अंदर का रास्ता रसोईघर को गया था। मेजर खरे ने उन्हें रसोई घर भी दिखलाया। यहाँ पर सफाई के साथ भोजन तैयार करने की सामग्री, सब्जियाँ, फ्रिज व एक एग्जास्ट फैन रसोई घर में लगा हुआ था।

वापस भोजनकक्ष में आकर सभी अपनी टेबल के सामने रखी कुर्सी पर बैठ गए। भोजन परोसा गया। भोजन परोस रहे वृद्ध को देखकर हरीशजी को बार-बार कुछ याद आ रहा था। अपनी स्मरण-शक्ति पर जोर देते हुए हरीशजी से रहा नहीं गया और भोजन के बाद उन्होंने मेजर खरे से उस वृद्ध के बारे में जानकारी चाही। हरीशजी जिस बात को लेकर अपने स्मृति-पटल पर जोर दे रहे थे। जानकारी मिलने से वह और पुख्ता हो गई अर्थात यह वही व्यक्ति है, जिसके बारे में वह सोच रहे थे। मेजर खरे के कक्ष में आकर हरीशजी ने उस वृद्ध से मिलने की इच्छा जताई। मेजर खरे ने तुरंत अपने कक्ष में भोजन परोस रहे वृद्ध को बुलवाया।

लगभग बहत्तर वर्षीय वृद्ध नानक दास, मझोला कद, गौरवर्ण, श्वेत दाढ़ी-मूँछ, श्वेत धवल धोती-कुर्ता पहने, कन्धे पर पड़े भगवा अँगोछे से नानक दास ज्ञानी संत दिख रहा था। हरीशजी ने अपने पास बैठाते नानक दास को बीस वर्ष पहले की याद दिलाई। नानक दास को सब याद आ गया। माह नवंबर, वर्ष 2000 स्थान उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जनपद में विशेष सत्र न्यायाधीश हरीश कुमार श्रीवास्तव की अदालत। वाद की पुकार हुई।

‘‘राज्य बनाम नानक दास हाजिर हो।’’ नानक दास का मुकदमा आज 313 की अन्तिम बहस पर लगा हुआ था। नानक दास पहले ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम सेक्शन 24 के अंतर्गत अपना अपराध स्वीकार कर चुका था। आरोप बहुत गम्भीर थे। अभियोजन पक्ष के द्वारा प्रस्तुत सभी साक्ष्य उसके विरुद्ध थे। नानक दास निर्विकार रूप से कृत अपराध की स्वीकारोक्ति व सभी साक्ष्यों में स्वयं की संलिप्तता एवं सहमति जताता चला गया। न्यायालय द्वारा मुकदमे की सुनवाई पूरी कर भोजनोपरांत अपना निर्णय देना सुनिश्चित किया गया।

न्यायाधीश हरीश कुमारजी अभियुक्त नानक दास को देख मन ही मन विचलित थे। उनकी अंतरात्मा यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी कि इस भोले-भाले निर्दोष व्यक्ति के द्वारा एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई हो। दफा 376 और दफा 302 के अभियुक्त नानक दास को हरीश कुमारजी ने अपने विश्राम कक्ष में बुलाने के लिए अपने पेशकार को आदेश दिया। न्यायालय में बैठा नानक दास बुजुर्ग दीवान के साथ विश्राम कक्ष में प्रस्तुत हुआ। हरीश कुमारजी ने सबसे पहले दीवान से पूछा, ‘‘ दीवानजी आपकी उम्र कितनी है?’’

सैल्यूट करने के बाद दीवान ने जवाब दिया, ‘‘हजूर! उनसठ साल आठ महीने’’ ‘‘पुलिस की नौकरी में आए तुम्हें कितने वर्ष हुए हैं?’’ दीवान ने जवाब दिया, ‘‘हजूर! चार महीने बाद मेरा रिटायरमेंट है, चालीस साल की सेवा हो जाएगी।’’ ‘‘अच्छा तुम्हारा नाम क्या है?’’ ‘‘हजूर हुकुम सिंह।” दीवान ने जवाब दिया।

‘‘अच्छा हुकुम सिंह! मुझे यह बताओ यह जो मुलजिम है, क्या तुम्हें लगता है कि इसने एक नौ वर्ष की अबोध लड़की के साथ दुष्कर्म किया होगा?.. और उसकी हत्या भी की होगी?’’ हुकुम सिंह इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। कुछ देर बाद जब न्यायाधीश हरीश कुमारजी ने प्रश्न दोहराया तब वह बोला, ‘‘हुजूर! मेरी चालीस साल की नौकरी में मैंने अभी तक ऐसे मुलजिम को नहीं देखा है।

इस व्यक्ति को मैं पिछले डेढ़ साल से जान रहा हूँ। यह दुष्कर्म और हत्या करेगा ऐसा मुझे नहीं लगता है। इसके कार्यकलाप व व्यवहार देख कर मुझे लगता है यह पूरी तरह से निर्दोष है और पता नहीं क्या कारण है कि यह इस अपराध को स्वीकार कर रहा है। जहाँ तक मेरा मत है, मैं दृढ़ विश्वास से कह सकता हूं कि यह निर्दोष है, फिर आगे हजूर जैसा समझें।’’

हरीश कुमार सोच में पड़ गए, उन्होंने अभियुक्त नानक दास से भी प्रश्न किया, ‘‘मेरे इस कक्ष में निर्भय होकर बताओ क्या यह दुष्कर्म तुमने किया है? यदि नहीं किया है, तो बिना भय के बताओ तुम्हारी विधि सम्मत मदद की जाएगी। मुझे नहीं लगता कि तुमने ऐसा जघन्य अपराध किया होगा?’’  हरीश कुमार के प्रश्न का कोई उत्तर नानक दास ने नहीं दिया। हरीश कुमारजी ने नानक दास के निकट जाकर उसके कंधे पर हाथ रखा और उससे पुनः कहा कि, ‘‘तुम पूरी तरह से निर्भय होकर बताओ! किसी के भय या दबाव में ऐसा निर्णय तो नहीं ले रहे हो?’’

नानक दास पल भर को अपने स्थान से थोड़ा हिला फिर वह धीरे से बुदबुदाया, ‘‘नहीं, हजूर! यह जो भी आरोप मुझ पर लगे हैं, वह सही हैं और मेरे द्वारा ही किए गए हैं।’’ न्यायाधीश हरीश कुमारजी की अनुभवी आँखें यद्यपि उसके झूठ को पकड़ रही थीं, तथापि उसके बयान के आगे वह बेबस थे। एक बार पुनः वे अभियुक्त नानक दास की ओर पलटे।

उसकी आँखों में झाँका, आँखों में एक अजीब-सी बेबसी, एक अजीब-सा सूनापन उन्हें दिखाई दिया। कक्ष से बाहर जाते हुए नानक दास की आँखें हरीश की आँखों से पुनः टकराईं। अभियुक्त नानक दास की आँखें सजल हो आईं थीं। हरीशजी के मन में आया कि वह उसे रोक ले, पर बचाव का कोई भी रास्ता उन्हें दिखाई नहीं दिया और वह उसे नहीं रोक पाए।

भियुक्त नानक दास के जाने के बाद न्यायाधीश हरीश कुमार ने वही किया, जो उन्हें साक्ष्य और बहस के दौरान सही लगा। अभियोजन पक्ष के द्वारा की गई फाँसी की मांग को खारिज करते हुए उन्होंने अभियुक्त नानक दास को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। टेबिल पर रखे गिलास का पानी पीने के बाद नानक दास ने आगे की जो आपबीती सुनाई वह इस प्रकार है –

‘हुजूर! पिछले वर्ष 2 अक्टूबर, 2019 महात्मा गाँधीजी की 150वीं जयंती के अवसर पर लगभग बीस वर्ष की मेरी सजा पूरी होने पर मेरे अच्छे चाल-चलन एवं बढ़ती उम्र को देखते हुए मुझे व मेरी तरह अन्य कुछ कैदियों को रिहा कर दिया गया था। मेरी धर्मपत्नी का स्वर्गवास मेरी जेल अवधि में रहते हुए पहले ही हो चुका था। एकलौते पुत्र का विवाह हो चुका था, उसकी आठ वर्षीय जुड़वाँ बेटियाँ थीं। बेटे को तहसील में अमीन के पद पर नौकरी मिल गई थी। बेटे का घर परिवार देख मन को अपार प्रसन्नता हुई। मेरा समय पूजा-पाठ, गमलों, क्यारियों की निराई-गुड़ाई व पोतियों के साथ खेलने में सुखमय बीतने लगा था।’’

नानक दास ने एक घूँट पानी पीने के बाद आगे बताया, ‘‘हुजूर! एक दिन संध्या बेला पर मेरी दोनों पोतियां घर के आँगन में मेरे संग खेल रहीं थीं। मेरी बहू उसी समय बाजार से लौटी थी। वह एकाएक हमें खेलते देख भड़क उठी, ‘‘बाबूजी! आपको शर्म नहीं आती। एक पोती को गोद में दूसरी को पीठ पर बैठाये हो। जेल से लम्बी सजा काटकर आये हो, पर आपकी गंदी आदत नहीं गई। अपनी ही पोतियों के साथ ….’’ ‘बहू! यह तुम क्या कह रही हो? भला! मैं ऐसा क्यों करूँगा? तुमने..’’

‘‘खबरदार! जो आइंदा मेरी बेटियों को छुआ भी।’’ कहते हुए बहू दोनों पोतियों को मुझसे खींचकर अंदर ले जाने लगी तभी मेरा बेटा ऑफिस से आ गया। बहू ने तीखे शब्दों में बेटे को सुनाते हुए कहा, ‘‘देख लो! अपने बाबूजी को आज अपनी पोतियों को गोद में बैठाले थे। कल पता नहीं उनके साथ क्या कर डालें। अपने कुकर्मों से जी नहीं भरा जो.. ये तो मैं आ गई और देख लिया नहीं तो पता नहीं यह बुढ्ढा क्या गुल खिलाता।’’

बहू बेहद रोष में बोले जा रही थी। बेटे ने आव देखा न ताव बहू के सामने एक तेज झापड़ मुझे मार दिया। मैं लड़खड़ाकर गिर पड़ा। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। आँगन में पड़ा मैं कुछ सोचता तभी बेटे ने मुझे उठाया और बाहर के कमरे में पड़े दीवान पर बैठाते रोते हुए मुझसे बोला, ‘‘बाबूजी! मुझे माफ कर देना। मैं जानता हूँ आप निर्दोष हैं। आप ने मेरे पाप की सजा अपने ऊपर लेकर भुगती है। आप अपनी बहू को कुछ नहीं बताना, नहीं तो बाबूजी! सब खत्म हो जायेगा।’’

बेटा घुटनों के बल मेरी गोद पर सिर रखे बिलख रहा था। अपने अंदर घुमड़ रहे जज्बातों को दबा, अपने आँसुओं को रोक मैंने उसके सिर पर हाथ रखते हुए धीरे से कहा था, ‘बेटा! तुम मुझे वृद्धाश्रम छोड़ आओ!’ अगले दिन से मैं यहीं पर हूँ।’’ सभी नानक दास की व्यथा-कथा सुन मौन रह गए, पर पूर्व जनपद न्यायाधीश हरीश कुमारजी की सजल हो आईं आँखें बहुत कुछ बयां कर रहीं थीं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

कथाकार-महेंद्र भीष्म

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