Thakur Bhujbal Singh ठाकुर भुजबल सिंह

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Thakur Bhujbal Singh का जन्म विक्रमी संवत् 1945 (ईस्वी सन् 1888) में ग्राम पनवाड़ी तहसील राठ जिला हमीरपुर (उ.प्र.) में हुआ था। आपके पिता का नाम ठाकुर फूल सिंह परिहार था। ये तीन भाई थे। भुजबल सिंह सबसे बड़े थे। अन्य दो छोटे भाई सुल्तान सिंह तथा वृन्दावन सिंह थे। भुजबल सिंह अविवाहित रहे।

विसम परिस्थितियों के विजेता…  ठाकुर भुजबल सिंह

ठाकुर भुजबल सिंह का बाल्यकाल अनेक विपन्नताओं तथा विपरीत परिस्थितियों में बीता। इनकी शिक्षा केवल दो कक्षा तक ही हुई थी। इन्हें पढ़ाने वाले मुंशी भोलानाथ ने इनकी काव्य प्रतिभा को जगाया। कुछ दिनों बाद परिवार की आर्थिक विषमता के कारण आप अपने थुरट निवासी बहनोई कुंवर

बहादुर सिंह रईस के पास जाकर रहने लगे। यहाँ रहकर उन्होंने अपनी नियमित दिनचर्या बनाकर रचना करना प्रारंभ किया।

थुरट के पास ही छतरवारा गाँव स्थित था, कुछ दिनों बाद आप छतरवारा में रहने लगे। यहाँ पर आपने बच्चों को पढ़ाना प्रारंभ किया। जिससे गाँव के मुखिया ने आपको कुछ काश्त हेतु जमीन एवं निवास हेतु मकान दे दिया। आप लम्बे समय तक यहीं रहे। काव्य सृजन की प्रक्रिया को गतिशीलता देने में छतरवारा का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

इनके बहनोई की मृत्यु के उपरान्त आपको थुरट की गृहस्थी का भार भी संभालना पड़ा था। फलतः आप छतरवारा से पुनः थुरट में रहने लगे लेकिन कुछ दिनों बाद ही सन् 1920 में आपका देहावसान हो गया। भुजबल सिंह द्वारा रचित फागें लोक में बहुतायत में प्रचलित हैं किन्तु हस्तलिखित पांडुलिपि अप्राप्त है। कुछ फागों का संकलन श्याम सुन्दर बादल राठ, डॉ. आशाराम त्रिपाठी आदि ने किया है।

चौकड़ियां

रंग की नई तस्वीर उतारौ, जौ रंग मांय पवारौ।
न धरती न आसमान में, न पाताल विचारौ।।

तीन लोक की बात न करियो, जिये डार दओ तारौ।
भुजबल सिंह आज के फड़ में, ज्वाब देव कै हारौ।।
(सौजन्य : डॉ. आशाराम त्रिपाठी)

इस रंग को छोड़कर नये रंग का चित्र उतारिये। जो रंग न धरती में हैं, न आसमान में और न ही पाताल में। अर्थात् इन तीनों लोकों में ताला डाल दीजिए, इन तीनों लोकों की तो बात ही न कीजिए। कवि भुजबल सिंह कहते हैं कि आज के मुकाबला में या तो उत्तर दीजिए या पराजय स्वीकारिये।

मन में भरी चली गई लाली, भई न बोला चाली।
नारंगी से दोई जुबनवां, माली कैसी डाली।।

हमसें बैर प्रीत औरन सें, जेई करेजें साली।
भुजबल सिंह रजऊ की चूनर, प्रान खान जंजाली।।
(सौजन्य : डॉ. आशाराम त्रिपाठी)

मेरे मन की लाली (प्रेम) मन में ही रह कई, उनसे वार्तालाप तक न हो सका। उनके सुन्दर छराहरे शरीर पर दोनों स्तन नारंगी के समान सुशोभित हो रहे हैं। मुझसे दुश्मनी का भाव रखकर दूसरों से प्रेमभाव प्रदर्शित कर रही है, यह बात मेरे हृदय को साल (कष्ट दे) रही है। भुजबल सिंह कहते हैं कि इन रजऊ (प्रेमिका) की चुनरी हृदय को जलाने वाली जी का जंजाल बन गई है।

बालम हैं निरसई के मारे, ननदी विरन तुम्हारे।
देस-देस के वैद जुरे हैं, रोग टरै न टारे।।

घी शक्कर औ दार फुलकिया, सत बनवा कें हारे।
भुजबल सिंह रजउवा प्यारे, ऊसई हतै इकारे।।
(सौजन्य : डॉ. आशाराम त्रिपाठी)

मेरे पति नामर्दी के शिकार हैं। वह अपनी ननद से कह रही है कि तुम्हारे भाई के रोग के इलाज हेतु अनेक जगह से चिकित्सक आकर एकत्र हुए हैं। घी, शक्कर के साथ दाल और फुलकियाँ (छोटे आकार की पतली रोटी) खिला रहे हैं। उनके लिए सत (दवा) बनवाकर हम थक चुके हैं। भुजबल सिंह कहते हैं कि हे रजुआ! प्यारे वे तो वैसे ही कमजोर थे अब रोग से और कृशकाय हो गए हैं।

अधर की फाग कर से तनक अंत न जाने, जौलों काज सटानें।
धरनी से ताय, लीना उठाय, न देर लाय कारज कीन्हा।

कर के सहाय, लग गई ताय, कारज सटाय, सो रख दीन्हा।।
निस दिन घरन दिखानें।

कथ कही राय, दंगल में राय, ख्यालन लगाय, जे दरसाई।
ये अधरतान, कह राजा आन, गई तेरी शान, हारी खाई।।

जोड़ा दैके जाने।

जब तक कार्य पूरा नहीं होता अर्थात् स्वार्थ सिद्ध नहीं होता तब तक हांथों बनाये रखते हैं। जमीन से ऊपर उठकर तुरंत काम पूरा करके सहायता कर दी और रख दिया। यह रात-दिन घर में ही दिखाई देता है। साहित्यिक अखाड़े में रहकर राय ने यह बात सोच समझ कर कही। यह अधर छंद है राजा कहते हैं कि इसका जोड़ा बनाइये अन्यथा तुम्हारी हार होगी और शान चली जायेगी।

रंगत की फाग

नयन चपल चंचल अमी, समी सरन तलवार।
राधा मन मुस्काय के, दई मोहनी डार।

राधा तिरछे नैन करे हैं, विह्नल श्याम परे हैं।
चल चपल चाल, मुसकाय बाल,

बई सैन घाल जैसे गांसी।
गिरे नंदलाल, गये बिसर ख्याल,

पर गये जाल, तन में आंसी।
ई नैनन में जब से जादू जादूगरिन भरे हैं।

उठा लेव इन धाय कोऊरी, विह्नल श्याम परे हैं।
(सौजन्य : डॉ. आशाराम त्रिपाठी)

उनके चंचल नयनों में अमृत डोल रहा है और बिरौनियों सहित पलकें मानों शमी वृक्ष (एक कांटेदार वृक्ष) के आश्रय में तीखी तलवार है। ऐसी राधिका जी ने श्री कृष्ण को मन में मुस्कराते हुए वशीकरण कर दिया है। पुनः तिरछे नयनों से देखा जिससे श्री कृष्ण व्याकुल हो कर पड़े हुए हैं।

उस नव यौवना ने मुस्कुराते हुए आतुरता से छलने की युक्ति की और संकेतों से कुछ ऐसा प्रहार किया कि श्रीकृष्ण के हृदय में बरछी के नुकीले फल की तरह घाव कर गये जिससे श्री कृष्ण गिर पड़े और मूर्छित हो गये। श्रीकृष्ण उनके फंदे में फंस गये और शरीर भी पीड़ित हो गया। जादू जानने वाली इस नायिका ने अपनी आँखों में जब से जादू की क्रिया को समाहित किया है, तभी से श्रीकृष्ण उससे व्याकुल हो चुके हैं। हे सखी! कोई उन्हें वहाँ से दौड़कर उठा ले।

जहँ तँह दिखा परत पियराई, पवन लतन झक झोरें।
बागन की ओर देख छाई लाली।

फूलन औ कलियन अलि गुंजत आली।
टोर फूल गजरा गुह ल्यावै माली।

कोयल तौ सौत बोल बाँधै वाली।
मौरै वहँ तँह देख रसाल, मैं हौं बिन प्रीतम बेहाल,

कोई समझा ल्यावै लाल, उन ढिग जाकें।
लागो फागुन मईना भारी, होरी खेलें नर उर नारी,

रंग की भर मारे पिचकारी, इक पर धाकें।
बारह मईना बीत गये, खड़ी बाम कर जोरें।

भुजबल सिंह दरस दै जाव, दिखा जाव दृग कोरें।।
(सौजन्य : डॉ. आशाराम त्रिपाठी)

सभी दिशाओं में पीलाहट दिखाई देती है और हवा भी लताओं को अपने झौंकों से झकझोर रही है। हे सखी! बगीचों की ओर देखें तो सब ओर लालिमा छाई हुई है। कलियों और फूलों के ऊपर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। फूल चुन कर माली ने हार तैयार कर दिया है। सौत सी दुखदायी कोयल तो समय बांध कर बोल रही है।

सभी ओर आम के फूलों की बहार देखकर बिना प्रियतम के मैं व्याकुल हो जाती हूँ। कोई उनके पास जाकर उन्हें वास्तविकता बता कर यहाँ ले आये। फागुन माह के प्रारंभ होते ही सभी स्त्री-पुरुष होली का त्योहार मनाते हैं। रंग की पिचकारी भरकर एक दूसरे की ओर दौड़कर रंग डालते हैं और आनंदित होते हैं। भुजबल सिंह कहते हैं कि नायिका हाथ जोड़े खड़ी है एक वर्ष बीत चुका है। अतः हे कृष्ण! यहाँ पर दर्शन दे दो और आँखों की प्यास बुझा दो।

पूस मास लागे सखी, ठंड सतावत अंग।
जो होते प्रीतम घरै, परते उनके संग।।

जाड़े परत सखी री भारी, हो गये वदन मलीना।
जो दुख काऊ खाँ न होवै, हम तौ तलफ तलफ दिन खोबै,

वो तौ कुब्जा के संग सोबैं, सुख उन उन उन।
ऐसौ कीनौ जादू टौना, मोरौ मो लओ श्याम सलौना,

हमखों बिसरे चाँदी सोना, लागी धुन धुन धुन।।
तज दीनों श्रृंगार सखी री, भूले खाना पीना।

उन बिन सौक हमारी बिसरी, हो गये वदन मलीना।।
(सौजन्य : डॉ. आशाराम त्रिपाठी)

पौष माह आ गया अब शीत शरीर के अंगों को प्रभावित करने लगा है यदि प्रियतम घर पर उपस्थित होते तो उनके साथ शयन करके शीत को प्रभावी न होने देती। शीत ऋतु की तीव्रता का ध्यान आने पर मुख उदास हो जाता है। हे ईश्वर! ऐसा दुख किसी को न हो, हम इधर विरह की वेदना से व्याकुल होकर दिन बिता रहे हैं और वे कुब्जा के साथ आनंद विहार कर रहे हैं, सुख उन्हीं के पास है।

कुब्जा ने ऐसा जादू-टोना किया कि हमारे भोले श्याम सुन्दर मोहित हो गये। हमें सोना-चाँदी अर्थात् ऐश्वर्य या वैभव की सामग्री कुछ भी अच्छी नहीं लगती, केवल एक लगन लगी है। श्रृँगार त्याग दिया है भोजन-पानी भी भूल गया। उनके यहाँ न होने पर अपनी सभी रुचियां भूल गये हैं और मुख पर उदासी छा गई है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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