भारतीय संस्कृति के सोलह श्रंगारों मे आभूषण बहुत महत्वपूर्ण है। इन्हीं सोलह श्रंगारों में बुन्देलखंड की स्त्रियों के गले के आभूषण (Bundelkhand’s Women’s Neck jewelry) का एक विशेष योगदान है। Striyon Ke Gale Ke Aabhushan सौंदर्य पर चार चांद लगा देते हैं।
बुन्देलखंड की स्त्रियों के गले के आभूषण
बुन्देलखंड मे कण्ठा, वनमाल, तिलड़ीमाल, एकावली, मुक्ताहार ,कंठश्री, कण्ठमाल, गजमुक्तामाल, खंगौरिया, लल्लरी, हमेल, बिचौली, सुतिया, सरमाला, पँचलड़ी, चौकी आदि। कण्ठमाल और कण्ठी- छोटे-छोटे सोने के गुरिया और उतनी ही जरी की गुटियाँ जरी में बरी पहनी जाती हैं। ये Striyon Ke Gale Ke Aabhushan अब इसका प्रचलन नहीं है।
कटमा Katma – सोने या चाँदी के ठोस या पत्तादार चपराभरे लम्बे से फल मढियादार और ऊपर उठे या उभरे होते हैं, जिनके दोनों तरफ कुंदा लगे रहते हैं और जिन्हें पटवा जरी से बर कर तैयार करते हैं । अभी २०-२५ वर्ष पहले तक प्रचलन में था।
कठला Kathla- पुराने सिक्कों में कुंदा लगाकर मजबूत डोरे में बरी माला कठला कहलाती है । करसली Karsali – चाँदी, सोने की उतार-चढ़ाव वाले (छोरों पर पतले) लम्बे से गुरियों की माला मुसलमान स्रियों द्वारा पहनी जाती है।
गौरिया / खँगवारी Goriya/ Khangvari – चाँदी की ठोस बनी उतार-चढ़ाव वाली (छोरों पर पतली) होती है । उसके बीच के भाग पट्टी में बेलबूटी रहती है और छोरों में गूँजें बनी होती हैं । अभी २०-२५ वर्ष पहले तक सभी जातीयों में चढ़ाये में आती और शुभ मानी जाती थी।
गुलूबंद Guluband – सोने के निकासीदार वर्गाकार पत्ता के फलों के नीचे मखमल लगा रहता है और कुंदों में डोरा बरने के बाद छोरों में फुँदना लगाये जाते हैं । यह गले में कसा हुआ-सा होता है।
चंदनहार/चन्द्रहार/चँदेरिया Chandanhar/Chandrhar/Chanderiya – चाँदी की चन्द्रनुमा चपटी छल्ली वाली लरों का हार साँकर या जंजीर की तरह गले में पहना जाता था। चप्पो/ चम्पाकली हार Chappo/Champakalihar – चम्पाकली की तरह पीले सोने के पत्ते के उतार-चढ़ाव के दानों में कुंदा लगते हैं और कुंदों में सोने का तार या डोरा डाला जाता है । पटवा उसे बर देता है।
जलजकंठुका Jalajkanthuka – जलज के अर्थ कमल और मोती-दोनों हैं। भूषण-कला के ज्ञाता से ज्ञात हुआ कि कमल-कंठुका गले का वह हार था, जिसमें कमलाकृति के सोने के गुरिये जरी में बरे रहते थे । यदि जलज का अर्थ मोती लिया जाय, तो फिर जलजकंठुका मुक्ताहार का पर्याय ही सिद्ध होता है।
टकार/ टकावर/ टकयावर Takar/Takavar/Takyavar – कलदारों (चाँदी के सिक्कों) में कुंदे लगाकर बनाया गया आभूषण। पटवा उसे जरी से बरकर सजा देते हैं। कोंदर जैसे आदिवासी और काछी, ढीमर, धोबी, लोदी आदि जातियाँ उसे प्रयुक्त करती थीं। इसे झालरो भी कहा जाता है। ठुसी Thusi – एक पट्टे में कम-से कम पच्चीस और अधिक-से-अधिक पैंतीस सोने-चाँदी के फल तथा किनारी में सोने-चाँदी के गुरिया, बोरा और मोती बरे होते हैं । फलों में निकासी रहती है। ठूँस-ठूँसकर गाँसने से ही ठुसी नाम पड़ा है।
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ढुलनियाँ Dhulaniya – सोने-चाँदी की उतार-चढ़ाव वाली अर्थात् बीच में मोटी और छोरों में पतली ढोलक की बनक की होती है। कुंदों से बरी जाती है। ढुलनिया और तबिजिया मंत्र और टोना के लिए डोरा में बर कर पहनी जाती है।
तिंदाना Tithana – मखमल की पट्टी पर सोने की मोतियों की तीन लड़ें जड़ी रहती हैं और छोरों पर गुटियादार डोरा बरा रहता है। पटवा की कलाकारी होती है । तिंदाने के बीच में लगा जड़ाऊ फल ‘टेकड़ा’ कहा जाता है। सोने के ठप्पादार तिंदाना कहीं-कहीं ‘करमा’ कहलाता है।
धुकधुकू Dhukdhuku – सोने के हार के बीच कमानीनुमा तारों में हीरा जड़ा रहता है और उससे जुड़ा लटकन साँस लेने पर घड़ी के लटकन की तरह हिलता है । हृदय का धड़कन के आधार पर उसका नाम पड़ा है।
पाटिया Patiya – सोने केर जड़ाऊ और निकासीदार टुकड़े (वर्गाकार) मखमल की पट्टी पर जड़े रहते हैं। कुंदों से जुड़कर पटवा द्वारा बरे जाते हैं । छोरों पर डोरा और डोरा से बने गुरिया (सराबो) रहते हैं । गुलूबंद के पहले पाटिया का ही प्रचलन था।
बिचौली Bichauli – सोने के जड़ाऊ या निकासीदार वर्गाकार फल, छोटे-छोटे गुरियों और मोतियों की लरें डोरा में गुबी रहती हैं और बीच में पहनी जाने के कारण बिचौली कहलाती हैं।
मंगल सूत्र Mangal Sutra – आधुनिक प्रचलन में सौभाग्य का प्रतीक बन जाने से काफी प्रसिद्ध आभूषण हो गया है । काली पोत, सोने के गुरिया और निकासीदार या मीनादार फल एक डोरा या साँकर में गँसे रहते हैं और बीच में सोने का कामदार टिकड़ा लटकता रहता है । इस हारनुमा आभूषण को मांगलिक माना जाता है।
मालाएँ malayen – सोने के गोल, चौखूँटे और अठपहले गुरियों को डोरा में बर कर माला बनायी जाती है । यह पुष्पमाला की तरह लम्बी होती है । मालाएँ कई तरह की होती हैं । सोने के लम्बे गुरियों की माला सर या सरमाला कहलाती है और चढ़ाये में चढ़ती है । ऊपर की तरह क्रमा: पतले होते मटर के दाने के आकार वाले सोने की गुरियों की माला मटरमाला कही जाती है।
सोने के मोतियों के बीच-बीच काले मोती लगाये जाने से मोहनमाला बन जाती है । इलायची की आकृति के मोतियों का माला इलाचयी दानों की माला के नाम से प्रसिद्ध है । सोने के छोटे-छोटे गोल गुलियों की माला गटरमाला है । लड़ियों के अनुसार दुलड़ी, तिलड़ी, चौलड़ी पचलड़ी और सतलड़ी मालाएँ होती थीं।
लल्लरी Lallari – सोने के गर्रादार और बीच में रबादार गोल गुरिया के बाद जरी या डोरा की वैसी ही गर्रिया की क्रमिक माला डोरा या जरी से बरी जाती है । दोनों छोरों को सोने की एक गुटिया से निकाला जाता है, जिससे छोर खींचकर उसे छोटा-बड़ा किया जा सके। अभी बीस-पच्चीस वर्ष पहले तक चढ़ाये में चढ़ती थी ।
सुतिया Sutiya – सोने की ठोस खंगौरियानुमा बनी होती है । बीच में निकासीदार रहती है । समृद्धि की नि शानी मानी जाती है। सेली Seli – सोने के छइयाँ-उतार (छाया की तरह धीरे-धीरे उतार वाले) गुरियों की कई लड़ियों की लम्बी माला सेली कहलाती है । उसके छोरों पर डोरा या जरी के सराबो (गुरिया) लगे रहते हैं। अब इसका चलन नहीं है ।
हँसली Hansali – चाँदी की ठोस और ताँबे पर सोने के पत्ता की, सामने के भाग में चौपहली होते हुए चपटी होती हैर। खंगौरिया और सुतिया की तरह। चपटी पहल पर निकासी रहती है। छोरों पर गोल होती हुई गूँजदार बनायी जाती है, ताकि उमकाकर पहनी जा सके।
हमेल Hamel – सोने की मोहरों में कुंदा जड़े जाते हैं और डोरा या जरी में बरे रहते हैं। हमेल लम्बी और छोटी, दोनों तरह की बनती है। कहीं-कहीं इसे मोहर-माल या मोहरों की माला भी कहते हैं।
हार Har – मोतियों के जड़ाऊ और मीनाकारी के तथा नोरत्नी अनेक प्रकार के हार होते हैं। सीतारामी हार काफी लम्बा-चौड़ा होता है और उसके बीच-बीच में सोने के टिकड़ा (जड़ाऊ या निकासीदार) तथा मोतियों की लड़ लगे रहते हैं। शावतारी हार में दस अवतारों के चित्रण में कलाकारी की अनोखी बानगी रहती है। अरस्याऊ हार में आरसी जड़ी होती हैं।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल




