Siddh Gopal Saxena ‘Satyakrishna’ Ki Rachnayen सिद्ध गोपाल सक्सेना ‘सत्यकृष्ण’ की रचनाएं

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कवि Siddh Gopal Saxena ‘Satyakrishna’ का जन्म सन् 1901 में हमीरपुर जिले के ग्राम अकौना (राठ) में हुआ था। इनके पिता जी का नाम श्री राम प्रसाद सक्सेना था। इन्होंने हिन्दी व उर्दू मिडिल पास किया था। इसके बाद अंग्रेजी शासन में शिक्षक के पद पर नियुक्त हो गए थे। ये गणित के भी अच्छे ज्ञाता थे। इनका विवाह राठ के समीप स्थित ग्राम देवरा की शिवरानी देवी के साथ हुआ था। आप प्रधान अध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हुए थे। इनका निधन सन् 1988 में हो गया है।

कवित्त

जगत को तमासो है भाई बहिन पुत्र नारि,
काका और बाबा या मामा और नाना है।

बहू और बेटी सब स्वारथ की पेटी है,
परत जब झपेटी सब झूठे होत माना है।।

रहते दम बातैं सब करते हैं झूठ मगर,
मरते ही घर से निकार देत आना है।

‘सत्यकृष्ण’ केवल सहायक हैं धर्म होत,
अन्त समय सबको अकेला पड़े जाना है।।

संसार में भ्राता, भगिनी, पुत्र, स्त्री, काका, बाबा, मामा और नाना के रिश्ते मात्र दिखावे के हैं। बहू और बेटी के रिश्ते भी स्वार्थ के भंडार हैं, जब काल की मार पड़ती है तो सभी रिश्ते झूठे साबित होते हैं। शक्ति रहते सभी झूठी बातें करके मिथ्याभिमान करते हैं। जब मौत हो जाती है तो शरीर को घर से बाहर निकाल दिया जाता है। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि मात्र धर्म ही सहायक बनता है और अन्तिम समय में सभी प्राणियों को अकेला ही प्रस्थान करना पड़ता है।

जाहिर है जग में की प्रीत रीत होत बड़ी,
प्रीत वान बातैं अति भाषै मन माना है।

साथ नित्त खेलै सर डारकर फुलेलै और करे
बहु कुलेलैं तो झूठा बहलाना है।।

भरते हैं दम की दम देंगे हम दमके संग,
कढ़ते ही दम क्या बात का ठिकाना है।

‘सत्यकृष्ण’ केवल सहायक है धर्म होत,
अन्त समय सबको अकेला पड़े जाना है।।

सभी लोग जानते हैं कि संसार में प्रेम की रीति ही बड़ी होती है। प्रेम करने वाले मनमोहक बातें करते हैं। सिर में सुगंधित तेल डालकर प्रतिदिन साथ खेल करते हैं तथा अनेक प्रकार के झूठे बहलावे करते रहते हैं। सभी यह दम भरते हैं कि हम साथ-साथ दमकेंगे किन्तु दम निकलते ही इनकी बात का कोई ठिकाना नहीं रहता है। कवि सत्य कृष्ण कहते हैं कि मात्र धर्म ही सहायक बनता है और अन्तिम समय में सभी प्राणियों को अकेला ही प्रस्थान करना पड़ता है।

बचपन को खेल में गवांवत है बालक सब,
ज्वानी में लगत सबै मोह मदन चारी है।

याहीं सौं ऐंठ ऐंठ चलत है अजब चाल
तेरी सुध नेक नारि कोउ चित्त धारी है।।

वृद्ध भये माया में चित्त फँस जात नहीं
काहू कौ लखात कबै टूटै स्वांस तारी है।

‘सत्यकृष्ण’ कृष्ण चन्द्र तेरी फुलवारी में,
जान नापरत कछू परत कब तुषारी है।।

सभी लोग बाल्यावस्था को खेलने में तथा युवावस्था को कामदेव के प्रभाव में आकर अजीब तरह की चालों में किसी नारी हेतु सजते-सँवरते रहते हैं। वृद्ध होते ही माया के मोह में मन फँस जाता है, तो किसी को लगता है कि अब श्वाँस टूटने वाली है। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि हे कृष्ण! आपकी इस जीवनरूपी वाटिका में यह समझ में नहीं आता है कि इसमें कब तुषार पड़ता है अर्थात् जीवन कब खत्म होता है?

मरत नर कैसे और कहाँ जात बाके प्राण
कौन सी मारग से जीव यह पधारी है।

पैदा होत बालक कहो कैसे यह देह बनी
काहू की गोरी और काहू की कारी है।।

जान न परत कछू स्वामी कौ अनौखो खेल,
तार सो टूटत तनक होत ना अबारी है।

‘सत्यकृष्ण’ कृष्ण चन्द्र तेरी फुलवारी के भेद नहीं
जाने जात बलिहारी है।।

मृत्यु होने पर आदमी कैसे और कहाँ जाता है? उसके प्राण किस मार्ग से जाते हैं? जन्म होने पर बालक कहा जाता है। किसी का काला और किसी का गौर वर्ण शरीर कैसे बनता है? स्वामी का यह अद्भुत खेल है, जो समझ में नहीं आता है। अन्त समय में बिना विलम्ब किए तार सा टूट जाता है। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि हे कृष्ण! आपकी जीवन रूपी वाटिका का रहस्य नहीं समझ में आता है।

समर में अड़े हैं शान्ति धारण करे हैं नहीं जेल में
डरे हैं वीर देश हिन्द वाले हैं।

आराम सब बिसारे निज भ्रात गण सुधारे औ
सहे दुख सारे जे देश भक्त प्यारे हैं।।

‘सत्यकृष्ण’ मंत्र पढ़े सब हैं स्वतंत्रता को,
होंगे स्वतंत्र ये प्रतिज्ञा हिये धारे हैं।

किये हैं संगठन और प्रीति अति आपस में
पियें प्रेम प्याले सब हुये मतवाले हैं।।

युद्ध में संघर्षरत हैं, शांति को ग्रहण किये हैं, जेल में भय नहीं खाते हैं – ये बहादुर देश हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता सेनानी है। इन्होंने विश्राम का परित्याग कर, अपने भाई-बंधुओं को सुधार कर, स्वयं दुखों को सहा है – ये हमारे प्रिय देश भक्त हैं। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि ये सभी स्वतंत्रता का मंत्र ग्रहण कर भारत को स्वतंत्र कराने हेतु प्रतिज्ञाबद्ध हैं। ये आपसी सामंजस्य, प्रेम के साथ संगठन को चाहते हैं।

सुरा का प्याला पाकर सभी मस्त हैं।

माता के प्यारे औ दुलारे हैं भारत के
आरत के हरैया हिन्दोस्तान वाले हैं।

धर्म के धरैया परोपकार के करैया
दीन दुःख के हरैया और उत्तम लतवाले हैं।।

‘सत्यकृष्ण’ योग साध ईश्वर के ध्यान राख
मोक्ष प्राप्त करके उत्तम गत वाले हैं।

आन पर मरैया निज मर्याद के रखैया हैं
वे पियें प्रेम के प्याले सदा रहत मतवाले हैं।।

ये हिन्दुस्तान के निवासी अपनी माँ के प्रिय और भारत का कष्ट हरण करने वाले हैं। धर्म को धारणकर, परोपकार को करने, दूसरों के दुखों का हरण करके उत्तम आदतों वाले हैं। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि योग की साधना से, ईश्वर को याद करके ये मोक्ष प्राप्त करने वाले उत्तम कोटि के व्यक्ति हैं। मर्यादाओं की रक्षा हेतु, स्वाभिमान हेतु मरने वाले ये प्रेम रूपी सुरा का प्याला पीकर सभी मस्त हैं।

साज रस आलैं में बना कै सेज चन्दन की,
पुष्प पंकज बिछाकै नीर झारी लै सींचिये।

परदा लगा कै खस खस कै भराकै हौज
पिचकै लगा कै इत्र किवड़ा कंछ दीजिये।।

होत बाला के अंग कोक ढंग से अनंग
प्रकट मैन वाण मार नार वीर कर लीजिये।

काम कला कुशलि कोमल ‘सत्यकृष्ण’ होय,
नैनू से सुकुमार नार विधि से रति कीजिये।।

रस युक्त चंदन की शैय्या को सजा उसपर कमल पुष्पों का बिछौना कर ठंडा पानी सिंचित करके, खस-खस के परदा लगाकर, हौज के पानी में केवड़ा की सुगंध डालकर उसको छिड़क देना चाहिए। नायिका के अंग-प्रत्यंगों से काम की आभा प्रकट होती है। कामदेव का तीर मारकर ही उस नायिका के दुख का हरण करके वीर कहलाइये। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि जो नायिका नवनीत के समान सुकोमल, काम कला में प्रवीण हो उससे ही रतिक्रिया करना चाहिए।

सोलह श्रृंगार साज बारह आभूषण तन मन में
मनोज की उमंग को मरोरै ना।

चन्द्र सो प्रकाश करें काम को विकास सेज,
कर से निज कंचुकी के बंधन को खोलै ना।

हाव भाव चितवन कटाक्ष मृग नैनी सी बैनी
कोकिलान सी पै माननी सी बोलै ना।

‘सत्यकृष्ण’ प्राप्त होत पूर्ण रस नायक को
रीति रस रंगन में नेत्र अंग डोलै ना।।

जो नायिका सोलह श्रृँगार करके शरीर पर बारह प्रकार के आभूषणों को धारण करके अपने शरीर व मन को काम की उमंग से दबाये ना, उसके मुख से चन्द्रमा के समान प्रकाश फूटकर काम को शैय्या पर विकसित करे और स्वयं अपने हाथों से वह कंचुकी के बंधन न खोले।

उसकी भाव-भंगिमायें, तिरछे ढंग से देखने की कलाओं में प्रवीण, मृगनयनी, जिसकी वाणी कोयलों जैसी मीठी हो किन्तु वह कुछ वचन न बोले। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि ऐसी नायिका से रति करने पर ही नायक पूर्ण आनंद की प्राप्ति होती है तथा नायिका आनंद में डूबकर आँखों को बन्द कर लेती है।

अमृत धर तारा ईश शिव के ब्राजत शीश,
दधि सुत है तौ भी गरल ही कौ भैया तू।

शीतल है एक एक चन्द्रिका की किर्ण तेरी,
तौ भी तो लगाती है विरही को घुन्हैया तू।।

‘सत्यकृष्ण’ कृष्ण चन्द्र उभयकर्म चन्द्रमन्द,
या सौ याहि लेने की ठान मत धुन्हैया तू।

शान्ति तप्तकारी उजयारी विष प्यारी अरी,
काहे को खिझावे बृज चन्द्र जुन्हैया तू।।

विरहित नायिका चन्द्रमा से कहती है कि तू अमृत धारण करने वाला तारा है, शिव के शीश पर विराजता है, दधि सुत है फिर भी तू मुझे विष का भाई लग रहा है। तेरी ज्योत्स्ना की एक-एक किरण सभी को शीतलता प्रदान करती है किन्तु मुझ विरहिन को आग लगाती है। कवि सत्यकृष्ण कहते हैं कि तू कृष्ण की ही तरह दोनों तरह के कर्मों वाला है इसलिए प्राण लेने की धुन मत ठान। सखी कहती है कि हे ब्रज के चन्द्रकृष्ण! मुझे क्यों परेशान करते हो ? यह ज्योत्सना तो शांतिदायी, उष्णताप्रदायी, उज्ज्वलतामुक्त विषयुक्त है।

सिद्ध गोपाल सक्सेना ‘सत्यकृष्ण’ का जीवन परिचय

शोध एवं आलेख- डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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