कविवर Shankar Lal Verma ‘Lalitesh’ का जन्म सन् 1933 ई. में छतरपुर में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बेनीकवि था। पिताजी एक अच्छे कवि थे और बेनी कवि के नाम से जाने जाते थे। आर्थिक स्थिति ठीक न होने से शिक्षा-दीक्षा की कोई ठीक व्यवस्था श्री शंकर लाल वर्मा की न हो सकी, फिर भी प्रारंभिक शिक्षा छतरपुर की पाठशाला में पूरी की।
श्री शंकर लाल वर्मा ‘ललितेश’ ने जीवन-यापन के लिये इधर-उधर सेवाकार्य की तलाश करने लगे। फौज में अस्थाई फुटकर कार्य मिला, जिसमें झाँसी, नासिक आदि स्थानों पर रहना पड़ा, किन्तु पिताजी के देहावसान के बाद वापिस घर आ गये और बाल काटने वाला पुश्तैनी कार्य प्रारंभ कर दिया। यही कार्य अंतिम समय तक करते रहे। बाल काटते हुए भी कविता की पंक्ति गुनगुनाते रहना उनका स्वभाव बन गया था।
श्री शंकर लाल वर्मा ‘ललितेश’ की साहित्य में रुचि पिताजी के कवि होने के कारण भी थी और छतरपुर के साहित्यिक अखाड़ों को भी इसका श्रेय जाता है। पं गंगाधर व्यास की पार्टी के सदस्य निकट ही थे, कुछ प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इसी समय बिहारी मंडल में जवाबी कीर्तन लिखे और धीरे-धीरे साहित्य लेखन प्रारंभ हुआ। कई विधाओं में लिखा। मूल रूप से आप श्री कृष्ण के उपासक थे।
श्री शंकर लाल वर्मा ‘ललितेश’ को म.प्र. शासन के सहयोग से दक्षिण भारत-भ्रमण किया। बांदा के डी.ए.वी. इण्टर कालेज में आयोजित (86-87 में) समस्या पूर्ति में प्रथम स्थान प्राप्त किया। एक जनवरी 1988 को संतोष सिंह बुन्देला साहित्य परिषद छतरपुर ने सम्मानित किया। मेला जल विहार के आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में भी सन् 1989-90 में सम्मानित किया गया। आपकी रचनाओं में केवल ‘मीरा रस माधुरी’ प्रकाशित हुई है। शेष सभी रचनायें गायकों के बस्तों में है। कुछ उनके पुत्र के पास देखने को मिली। दिनांक 19-9-1995 में कवि ‘ललितेश’ ने अपना शरीर छोड़ दिया।
ख्याल (रंगत)
करतूत कहा इनकी कइये या दइये दोस समैया को।
कजरारी अंखियन हेर हेर कारो कर कियो कन्हैया को।।
केसर कस्तूरी लेपन कर उपटन कर कर कें हारी मैं
फिर राई नौन लैकर कर में लालन की नजर उतारी मैं,
गुनिया ब्रज के सब बुला बुला गुन के गुनवान विचारी मैं,
उपचार अनेकन करे श्याम को झरा झरा विथ धारी मैं
उन चन्द्रमुखीनन चितवन में चित हर लओ मुकुट धरैया को।
कजरारी अंखियन हेर हेर……..।। 1।।
घर सें लै जातीं टेर टेर अपने घर नैन इसारन में
गैया दुहवे के हेत सखीं लै जातीं पकर उसारन में
तकती तन उनको बेर बेर हंस हेर हेर हिसकारन में
ब्रजवारन जे हाल लखे डूबी मैं विमल विचारन में
गोरी गोरी ग्वालन छोरी निरखे जिम सरद जुन्हैया को।
कजरारी अंखियन हेर हेर………।। 2।।
आतीं नित लाख बहाने कर सब भामिन बन बनकें भोरी,
आपन सज्जन अरु साव बनीं लालन को लगातीं हैं चोरी,
कोउ कहैं हमारे चीर हरे कोउ कहै गगर फोरी मोरी,
कोउ कहै लाज टोरी मोरी कोउ कहती कीनी बरजोरी।
कोउ कहती उचका दइ गइया छोरो घनश्याम लवैया को।
कजरारी अंखियन हेर हेर………।। 3।।
ग्वालन की कहिये चाल ढाल चंचल चितवनियां है बांकी
इतने श्रृंगार सजे तन पै हो इन्द्र अप्सरा की झांकी
झांकी को झांक झीक झिझकी, यैसी न झांकी उपमा की
झांकी श्री कृष्ण राधिका की, मनहरन मनोहर सुखमां की
ललितेश हिये बिच वास करें, वे पार करें मोरि नैइया की।
कजरारी अंखियन हेर हेर…..।। 4।।
यशोदा जी कहती हैं कि इनकी (ब्रजांगनाओं की) करनी को क्या कहें अथवा आज के समय को क्या दोष दिया जाय ? इन्होंने अपनी काली-काली (कज्जलित) आँखों से बार-बार देखकर मेरे श्री कृष्ण को काला कर दिया है। केशर और कस्तूरी का अंगराग बनाकर मैं इसके शरीर पर लेपन कर-कर के थक गई, फिर राई और नमक हाथ में लेकर अपने पुत्र की नजर भी उतारी, इसके बाद ब्रज में जो मंत्र विधा में निपुण हैं ऐसे जानने वालों को और सोच समझकर अन्य जानकारों को बुलाया, उनसे विविध प्रकार की चिकित्सा कराई और झाड़-फूँक भी कराई।
उन चन्द्रमा से सुन्दर मुखवाली ब्रजांगनाओं ने कटाक्ष कर इस मोर मुकुट धारण करने वाले मेरे लाल के मन का हरण कर लिया है। आँखों के संकेत से बुला-बुला कर यहाँ से (घर से) अपने घर ले जाती हैं। गाय लगाने के बहाने से पकड़कर गाय बांधने वाले घर में (एकान्त हेतु) ले जाती है। वहाँ पर ले जाकर उनके सुन्दर शरीर को बारबार निहारती हैं और प्रतिस्पर्धा में देख-देखकर हँसती है। ब्रजवनिताओं का यह हाल देखकर मैं पावन विचारों में डूब जाती हूँ। ग्वालों की सुन्दर नव युवतियाँ भी इस तरह देखती हैं जैसे शरद की पूर्णिमा के चन्द्रमा को देख रही हों।
प्रतिदिन लाखों बहाने बनाते हुए सरल बनकर ये भामिनी (स्त्रियाँ) यहाँ आती हैं। स्वयं तो बहुत सभ्य और साहूकार बनती हैं और मेरे पुत्र को चोरी लगाती हैं। कोई कहती है हमारे वस्त्र को उठा ले गया, कोई कहती है कि हमारा घट तोड़ दिया, कोई कहती है कि मेरी लाज (लज्जा शर्म) तोड़ दी, कोई कहती है कि मेरे साथ जबरदस्ती की है, कोई कहती है मेरी गाय उचका दी, कोई कहती है कि कृष्ण ने बछड़े को छोड़ दिया।
ब्रजांगनाओं की चाल-चलन को क्या कहा जाय ? इनका चंचल नेत्रों से तिरछा देखना बड़ा लुभावना है, शरीर पर इतने श्रृँगार करती हैं, जैसे देवराज इन्द्र की देवांगना हो, इनकी झाँकी को बार-बार देखने पर भी कोई उपमा समझ में नहीं आती – कवि ललितेश कहते हैं कि इससे भी सुन्दर सुखदायी और मन को मोहित करने वाली श्री कृष्ण राधिका की जोड़ी है। वे दोनों मेरे हृदय में निवास करें और मेरी नाव भवसागर से पार करें।
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)