सन् 1840 ई. में जैतपुर नरेश पारीछत ने सर्वप्रथम अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति का शंखनाद किया था। Raja Parichhat ko Rachhro मे बुंदेलखंड के सर्वप्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत का वर्णन है। उनकी रगों में अपने पूर्वजों का शौर्य रक्त प्रवाहित हो रहा था तथा अंग्रेजों के अन्याय से तिलमिला उठे थे। क्रोधित होकर सन् 1834 ईं. में विरोध का बिगुल बजा दिया था।
बुन्देलखंड की लोक-गाथा राजा पारीछत कौ राछरौ
राजा पारीछत जैतपुर नरेश थे। ऐतिहासिक दृष्टि से यह भलीभाँति स्पष्ट है कि राजा पारीछत महाराज छत्रसाल के वंशज थे। महाराज छत्रसाल के पुत्र जगतराज के तीसरे पुत्र का नाम पहाड़ सिंह (सन् 1758-65 ई.) था। उनके पुत्र का नाम गजसिंह और गजसिंह के पुत्र का नाम केशरी सिंह था और केशरी सिंह के पुत्र का नाम ‘पारीछत’ था। जो सन् 1839 ईं. में जैतपुर के राजा थे।
उन दिनों बुंदेलखंड में अंग्रेजों का अनाचार और अन्याय बहुत बढ़ चुका था। बुंदेलखंड के राजा उनके विरोध में खड़े हो गये थे। उन्होंने ‘बुढ़वा मंगल’ उत्सव का आयोजन करके राजाओं और जागीरदारों को एकत्रित किया था। उन्होंने सरीला, जिगनी, ढुरबई, विजना, चिरगाँव, ओरछा, छतरपुर, पन्ना, बिजावर, शाहगढ़, बानपुर, दतिया, समथर, अजयगढ़, गौरिहार, कालिंजर और बाँदा नरेश को सम्मिलित करके क्रान्ति का बिगुल फूँका था। राछरे का आभारंभ माँ सरस्वती और गणेश वंदना से प्रारंभ हुआ है-
दोहा- पती प्रबल प्रहार के, सब राजन सिरताज।
जाहिर जम्बू द्वीप में, पारीछत महाराज।
सोरठा- बुड़वा मंगल कीन, श्री रतनेश नरेश ने।
जुड़े सकल परवीन, कौल भगौती शीश पै।
दोहा- जब दीछत विनती करें, सुनो नाथ इक बात।
कैनो कितने आपके, पैसा कितनौ रात।
सोरठा- तुरत उठे खिसयाय, तुम मरबे को डरत हो।
गौरीनाथ सहाय कैउ, खजानें समझ लखाय।
दोहा- दीछत कहूँ जोई कीजिए, जैसो आप दिखाय।
हम हारे हर भाँत हूँ, अपनी समझ लखाय।
सैर- समझ कहीं दीछत नई आन तोड़ियों।
कलकत्ता से हुकम गिरे जोंन बाँटियों।
अंग्रेज मुलक मालिक तासों ना रूठियो।
लाहौर धनी केते कछू नईं करत है।
होलकर समेत सिंधिया हिये डरत हैं।
राजा रईस बड़े-बड़े डंड भरत हैं।
गोरन की कठिन मार टारे न टरत ळै।।
इस छंद में अंग्रेजों की शक्ति और सामर्थ का चित्रण किया गया है-
दोहा – दीछत डगर डाग का, इनसे भी मजबूर।
राव साव नानर के, दाखिल हाल हुजूर।।
राजा पारीछत ने आसपास के राजाओं और जागीरदारों को एकत्रित करके अंग्रेजों की छावनियों को लूटने की तैयारी कर ली। सेनाओं को सुसज्जित कर लिया-
सैर- कर पास रची राजा फौजें हरावली।
धौसा पै हुआ धौसा पकरी सुगम गली।
बगमेला उठी रार कटीला की अत भली।
पनवारी के नगीच राव से धली।।
सब कहैं चलो चलिए का अजब दाव है।
ललकार सुनी लौट परे धन्य राव है।
राजपूत से सपूत जौन जो उछाव है।
लर गये मर्द मर गये नहीं बचाव है।।
समस्त बुंदेली वीरों ने एक साथ मिलकर अंग्रेजों के खजानों पर हमला बोल कर लूट लिया।
दोहा- गिरी डाक अंग्रेज की, लियो खजानों लूट।
मन भाई सी कर गये, गये तिलंगे फूट।।
सैर- हुरदंग हल्ला हुल्ल कछु अये घाट में।
अंगरेज चला झाँसी से का करना हाट में।
पैला मुकाम किया आन मउ सहार में।
दिन रात दौर दाखिल भये कुल पहार में।।
तियै रतन सिंह लिखी किलों छोड़ दीजियो।
जो लड़ना मंजूर अगर जंग लीजियौ।
हुसयारी से अपनौ बंदोबस्त कीजियौ।
भली कहै डंगई के नाहक न सीजियौ।।
संदेश प्राप्त होते ही सारे बुंदेला राजा अपने-अपने किलों से सुसज्जित होकर बाहर निकल पड़े-
जा खबर सुनी किलों छोड़ बाहर निकर परे हैं।
सजे साज-बाज तोप ज्वान जोस भरे हैं।
समज लई जिनने जे करम करे हैं।
कोई पंचम पारीछत क्या रन में भरे हैं।।
इक खबर पाई फौज परी कोई ठौर पै।
रम पुरिया हैं दौरे बढ़े-चढ़े छोर पै।
बंद हुआ लाम लसकर साहब की गौर ना।
महराज किया कूच परें मोरो जोर ना।।
पारीछत महाराज की क्रान्तिकारी गतिविधियों को देखकर अंग्रेजों की सेना ने जैतपुर के किले को घेर कर हमला कर दिया-
दोहा- आई फौज अंग्रेज की, लियो जैतपुर घेर।
खड़ा छबीला साह का, इकट-विकट चहुँ फेर।।
गाथाकार ने कितने सुंदर ढंग से अंग्रेजों की सेना की साज-सज्जा का वर्णन करते हुए लिखा है-
चारउ फेर चमचमाती किरचें नंगी।
चकबंदी सा घेर लिया किलो फिरंगी ।।
लाला दिमान आन मिलो उनको अंगी।
कोई विगट बगौरा में परा बंका जंगी।
अंगरेजन की फौजें आई बहुतई घनी।
दोनउं दल-दंगल की जुर आई अनी।
काल का उर जोगिनी आनंद की सनी।
छत्रसाली खुसयाली काली रहै बनी।।
आ गई लिखा लाट की पाती विलात से।
इत कुछ किया सरजंट दोपहरण रात से।
बाँधे हैं विकट नाका महाराज घात से।
पैरी पसार क्लांत भई सिपाई हैं सात सैं।।
थैली का ज्वान गाफिल छरीदा दिया गया।
नौ बेर दई बत्ती अपने हिया डगा।
आया हरीफ हर बल तब छोड़ कै भगा।
तासे हुसेन बगस तोप ने दई दगा।।
इत फौज डगमगानी जित दिया चाल कौ।
अंग्रेजन की लोथें गई लाल-बाल कौ।
नैचें जिमी में पुरादेत जियत चाल कौ।
जे जखमी जस भागे ते असपताल कौ।।
दोहा- खप्पर भरती कालका, शंभू भरते बैल।
विकट बगौरा समर में, जो गिनती जरनैल।।
सैर- जरनैल कहूँ गिरतो नदी बहै रूछछी।
तरवार तुबक तीर चलै बल्लम बरछी।
जा मगर तोप ढाल कच्छ तेगा मछ्छी।
रूंड मुंड सुंड बिना हो गयो कछ्छी।।
लाखौ ज्वान पूरब कौ सब कुछ भरतो।
जरनैल जंग जगी सो कैसो लरतो।
पंचम नरेस नख भर नई याखों डरतो।
देती न दगा तोपैं तौ भौ भारथ परतो।।
दोहा- काट छबीना कट गये, उर छत्रिन कौ रंग।
पारीछत महाराज को, दओ पारीछत संग।।
राजा पारीछत के क्रांति समर में केवल उनके स्वामी भक्त सिपाही ही सहयोग दे सके। अधिकांश लोग तो अंग्रेजों से भयभीत होकर उनका साथ छोड़कर चले गये।
सैर- जिन संग दियो उनकौ जिनकरी नौन की।
राखी न खबर आगर अपनें भवन-भौंन की।
अंगरेज जिमी जब्त करी जाजलौन की।
पारीछत की सुमी करें दम कौन की।।
दोहा- लड़ई-गड़ई सी फूटकें देस नकियाउ कोस।
लिडुआ पैलें पार के, गये राजा को गोस ।।
सैर- मजबूत सिंघ मूलका झाँसी में किया है।
छत्री न होई छत्री को सौंप दिया है।
अंगरेज लिख तीन महीने के टिया पर है।
दुरजन बिचार भजौ राम सिया पर है।।
अंग्रेजों से भयभीत और अंग्रेजों की फूट नीति के कारण सारे बुंदेला राजाओं ने पारीछत का साथ छोड़ दिया और अब वे अकेले ही रह गये।
दोहा- कैसो दिन कैसी घरी, लओ बाम ने पूंछ
बन मृगया कौ मिस करो, राजा कर गये कूच।।
राजा पारीछत जैतपुर छोड़कर बगौरा चले गये। इतनी भारी अंग्रेजों की सेना का सामना करना कठिन था।
सैर- कर कूच जैतपुर से बगौरा पै मेले।
चैगान पकर गये मंत्र अच्छौ खेले।
बगसीस भई ज्वानन खौं पगड़ी सेले।
सब राजा दगा दै गये नृप लड़े अकेले।।
कर कुमुक जैतपुर पैचढ़ आयों फिरंगी।
हुसयार होउ राजा दुनिया है दुरंगी।
जब आन परी सिर पै भये कोउ न अंगी।
अरजट खात जफा हाथ राजा है जंगी।।
दोहा- एक कोद अरजंट गओ, एक कोद जरनैल।
डांग बगौरा की घनी, भगत मिलें ना गैल।।
सैर- अंगरेज कुमुक करी अगर आया चढ़कैं।
जेरिन को मिला नकसा आगे सें लड़कैं।
सूरन के मनै चैन खड़े कायर भड़कैं।
कर त्यारी भारी पारीछत ने मारे बड़कैं।
जंगा खौं जपत कर लेव न जानौ मरा।
अंग्रेज कहैं राजन खौं चढ़ गओ गरा।
पौंचे हैं डांग बीच कामदेव के करा।
तब एक बेर तोप कौ भर मारौ छरा।।
दोहा- परजा में बैठे हते, कर राजा असनान।
बिगुल बजी अंगरेज की, भीर पौंच गई आन।।
सैर- दो मारे कवि तान बिगुल बाँसुरी वालौ।
चढ़ आये ते लरबे को करें मन में लालौ।
मंत्रन नें मंत्र करो नहीं बोलो चालौ।
ना जियत जान पाबैं जौ टोपी वालौ।।
इक इक बड़गैनिन ने दो दो फोरे।
दो हते तरवार घालैं मन में मोरे।
मंत्रिन ने मंत्र करो हाथ प्रभु से जोरे।
लागा के लगत भगे कटी पूँछ के घोरे।।
दोहा- नृप पारीछत के लरें, गयो निखर कैं तेज।
जात हतो लाहौंर खौं, टक रहौ अंग्रेज।।
सैर- सब सोच चलो राजा मन के बिचार में मरबे खौं नई डरनै।
करबे की रार में।। मंत्रिन ने मंत्र करों भीर रहें हार में।
चैदया गये अंग्रेजन बुंदेलन की मार में।।
तक लये पहार जिननें, खंदक करील ते।
भारत के सूरवीर खाँ ना हीन को हते।
कई को कैउ गवनें की करी है गतैं।
पैल बगौरा में राजा की भई हैं फतैं।।
दोहा- सब राजा राजी लये, पर पारीछत भूप।
जात हती हिंदुवान की, राखौ सबकौ रूप।।
पारीछत की पराजय का कारण उनके ही कामदार थे। उनके ही कर्ता-कामदारों ने उनके साथ धोखा किया था। प्राचीन काल से ही भारत की यही परंपरा रही है-
सैर- प्रथम जो नसाओ काम कामदार नें।
सुभ सोध चला राजा जप पूँछ बामनें।
टारे से न टरहै जो लिखी रामनें।
अंगरेज मुलक मालिक के लरों सामनें।।
सुभ हुइहै नृपत कौ खरग लेत में।
अब चढ़ आयो अंगरेजई पै ज्वाब देत में।
मिलनें ना कछू हमकौ निसचर के हेत में।
तब सात सौ जवान चढ़ रहे हैं खेत में।।
राजा पारीछत ने निर्भीक होकर अंग्रेजों की छावनियों में आग लगाकर तहलका मचा दिया था-
एक बेर फुकी छावनी, सब जुर मिल तापौं।
लरबे की सान मन में न कठरोई चापौ।
रघुवीर है सहाइ नाम हर कौ जापौ।
दूसरे सिमरिया पै डारौ छापौ।।
छोरे ना हतयार नृपत दिना सात लौ।
तक-तक कै डारे छापें चूकैंना घात लौ।
सब कदू पास अपने जौ रही बात लौ।
राजा ने जंग मारी खबर है बिलात लौ।।
दोहा- बसत सरसुती कंठ में, जस-अपजस कवि गाइ।
छत्रसाल के छत्र की, पारीछत पर छाइ।।
सैर- जोलों ना लक्ष्य डगा भरी सवनें हामी।
जब काम परो सरक गये नमक हरामी।
माँ रच्छा करी आनकै और गरुण गामी।
जय राजा जैतपुर के भये ग्रामी नामी।।47।।
रन के निसान देखो चैगान में गड़े।
सूरवीर देखौ दोइ-कोद हो खड़े।
उनसे विमुख भये जो दरजे पै ना चढ़े।
तुम पारीछत राजा अंगरेज से लडे।।
दोहा- द्रुपद केसरी सिंह ने, कछू न राखो मेर।
आन परी ती सीस पै, काटी बल्लम टेर।।
सैर- जो प्रथम जंग मारी तो दई बावनी।
जोलौ हाँतन पूजी लगती सुहावनी।।
काहू ने सैर भाखे काहू ने लावनी।
अबके हल्ला में फुकी जात छावनी।।
दोहा- परसराम बावन भये, मच्छ रूप धर कच्छ।
हरि कीनों हर-भांति सौ, परीछत कौ पच्छ।।
सुरभि चरावन हरि सुनें, कालिन्दी के तीर।
पारीछत महाराज की, पच्छ करी रघुवीर।।
पारीछत कौ राछरौ साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से एक मूल्यवान कृति है। वे जन-जन के लिए एक लोकप्रिय और प्रजापालक शासक थे। जन-जन के मन में उनके प्रति अटूट श्रद्धा का भाव रहा है। लोक गाथा में सत्य ही कहा गया है-
बसत सरसुती कंठ में, जस-अपजस कवि गाइ।
छत्रसाल के छत्र की, पारीछत पर छाइ।
पढ़ते किसोर सैर, ढुलक बाजैं गतकी।
दिन-दिन सवाई साहवी, श्री पारीछत की।
वीर वंस छत्रसाल कौ, कीरति सुकवि सुकाहि।
पारीछत नर नाहि की, सब नृप जोहैं राहि।।
अनेक लोक कवियों ने उनके देश-प्रेम, शौर्य की प्रशस्ति का गायन करते हुए लिखा है-
पारीछत बड़े महाराज, किले के लानें जोर भांजई राजा नें
चरखारी मंगल रची, सब राजा लये बुलाय।
पारीछत मुजरा करें, राजा रये मुख जोर।
गुर्जन-गुर्जन रोई पतुरियां, गजमाला रोई खवास।
ठाँढ़ी बिसूरें मानिक चैक में, कोउ नइयाँ पीठ रनवास।
किले पार खाई खुदी, दोरे हते मसान।
भैसासुर छिड़िया थपें, दरवाजे पवन हनुमान।
कै सूरज गाहन परे, ना नगर में मच गई हूल।
कोउ ऐसों दानों पजो, सूरज भये अलोप।
ना सूरज गाहन परे, ना नगर में मच गई हूल।
महाराज उतरे किलें सें, सूरज भये अलोप।
पैली न्यांव धंधूवा भई, दूजी री कछारन माँह।
तीजी मानिक चैक में जहाँ जंग नची तलवार।
अरे बावनी में जोर भंजा लओ राजा ने।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त