Parmal Raso परमाल रासो-बुन्देलखंड की शौर्यगाथा

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Parmal Raso परमाल रासो
Parmal Raso परमाल रासो

बुन्देलखंड की शौर्य गाथा का यह Parmal Raso ग्रंथ ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। सम्पूर्ण ग्रंथ आल्हा-उदल की वीरता पर केन्द्रित है। आल्हा महान योद्धा दल के ज्येष्ठ भ्राता थे। इसलिए यह ग्रंथ आल्हा के नाम से प्रसिद्ध हो गया। बुन्देलखंड  में आल्हा इतना अधिक लोकप्रिय और प्रसिद्ध हो गया कि पाठक और श्रोतागण परमाल रासो का नाम भूल ही गये हैं। इस ग्रंथ की रचना संवत् 1230 वि. में चारण कवि ‘जगनिक’ ने की थी। जगनिक कालिंजर के राजा परमाल के दरबारी कवि थे। इसी कारण से राजा परमाल की प्रशस्ति में रचे गए ग्रंथ का नाम ‘परमाल रासो’ पड़ा है।

बुन्देलखंड की शौर्य-गाथा परमाल रासो
Bundelkhand Ka Shaurya Parmal Raso

इसकी लोक ध्वनि और घटनाएँ इतनी अधिक रोचक हैं कि सारे उत्तर भारत के हर जनपद में यह बड़े चाव से गाया जाता है। कथानक में कोई विशेष अंतर नहीं हैं। केवल लोक ध्वनियों और भाषा का ही अंतर है। मूल कथानक में विशेष अंतर नहीं है, किन्तु रासो का मूल जन्म स्थान बुन्देलखंड ही है।

वीरछंद अपने नाम के अनुकूल ओजस्वी और प्रभावकारी होता है। जिसकी लोक ध्वनि और ढोलक के कड़क स्वरों को सुनकर श्रोताओं के अंग-अंग में जोश आने लगता है। प्रायः पावस ऋतु में इस गाथा का गायन किया जाता है।
बारह बरस लों कूकर जीबैं, उर तेरह लों जियें सियार।
बरस अठारह छत्री जीबैं, आगे जीवन को धिक्कार।

यदि इस ग्रंथ को बुंदेली का प्रथम गाथा काव्य कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें आल्हा- दल के पौरुष से लड़ी गईं 52 भयंकर लड़ाइयों का वर्णन है। चाहे इस ग्रंथ का ऐतिहासिक और साहित्यिक मूल्य भले न हो, किन्तु यह उत्तर भारत की ग्रामीण जनता के कंठ का हार बना हुआ है। आज भी यह गाँव-गाँव में प्रमुख मनोरंजन का साधन बना हुआ है। एक हजार वर्ष के बाद भी लोग इसे उसी चाव से गाते जा रहे हैं।

राजाश्रित चारण  भाट कवियों का इस क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। उन्हें राजकीय कोषालयों से वृत्ति प्राप्त होती थी। इस कारण से वे निश्चिंत होकर ग्रन्थों की रचना किया करते थे। ऐसे ग्रंथ लेखन की परंपरा रीतिकाल तक संचालित रही।

इस ग्रंथ के शौर्य पर आधारित कुछ अंश देखने योग्य हैं। दिल्ली पति पृथ्वीराज चैहान की सेना प्रायः महोबा नरेश परमाल पर आक्रमण किया करती थी। युद्ध का एक रोमांचक दृश्य का चित्रण…।

इतनी सुनिकैं राय लंगरी, नैना अगन लाल हो जाय।
ऐसों देखो न काहू  को,  डोला  लै  दिल्ली  को  जाय।।
बातन-बातन  बात  बढ़  गई,  उर  बातन  में  बढ़   गई  रार।
दोनों दल में हल्ला हो गओ, छत्रिन खैंच लईं तलवार।।
पैदल के संग पैदल भिड़ गये,  औ  असवारन संग  असवार।
चली सिरोही तीन पहर लों, औ बह चली रकत की धार।।
अपन परायो ना पैचानों, सबकें मारि-मारि रट लाग।
सेना में फिर भगदड़ मच गई, गेरँ मच गई भागम भाग।।
आठ हजार घोड़ सब जूझे, दिल्ली वारन दियो  गिराय।
महुबे वारन की  सेना  में,  विजय पताका  रई  फहराय।।
तेगा चटके बर्दवान के, कट-कट गिरें सुघरूवा ज्वान।
कज्जल-दल सी सेना उमड़ें, जोधा काट करें खरयान।।
धरती धमकें दल-बादर सें, धूरा आसमान गहराय।
अकले उदला की धमकन में, सबरौ दल रैंन-बैंन हो जाय।।

आल्हा का विवाह होने के बाद रानी सुगना की पालकी राज भवन में पहुँची तो सारे राजभवन में आनंदोत्सव होने लगा।

चली पालकी रानी सुनमा की, महुबे अंदर  पहुँची  जाय।
परछिन करकैं फिर बहुअर की, मोहन  महलन गईं लिवाय।
मौं दिखलाई में हो पंचो, हार नौलखा दओ पहराय।
मुँह दिखलाई सबरे देबैं, सुनमा मन में रही सिहाय।
मोतिन चैक पुराये रानी, किले पै नौबति दई घहराय।
श्री गणेश की पूजा करकैं, आल्हा खौं दओ पहराय।
बाँधौ मोर बनायौ बरना, नारी मंगल रहीं हैं गाय।
राजा परमालें गये कचहरी, दए खजाने मुँह खुलवाय।

उन दिनों कोई भी विवाह युद्ध के बिना पूरा नहीं होता था। नैनागढ़ में आल्हा की बारात पहुँचते ही युद्ध प्रारंभ हो गया। ज्यों ही नाई संदेश लेकर पहुँचा तो राजा नैपाली युद्ध करने के लिए तत्पर हो गया…।
ताही समया नैपाली ने, क्षत्रिन  को  लीनों  बुलवाय।
इतनी बात सुनी रूपना की,  राजा  रोसवंत  होय  जाय।
बोला अब बैठे देखो, जाकैं लेव मूँढ़ कटवाय।
जीवित नाई जान न पाबैं, जाकौ नेंग दे निपटाय।
इतनी बात सुनी जब क्षत्रिन, खैंच लई सरसर तरवार।
चली सिरोही बँगला भीतर, होन लगी फिर मारा-मार।
पूरन ठाकुर एक पटना कौ, बानें मारौ गुर्ज सम्भार।
बार बचा गऔ रूपना बारी, अपनी साँग दई है मार।

भोजन करते समय भी युद्ध प्रारंभ हो गया…।
पैलों ग्रास लिया आल्हा ने, जोगा  दई  तलवार चलाय।
बाँह पकड़ लीन्हीं उदल ने, उर जोगा खौं दओ गिराय।।
दूसर ग्रास लियो  आल्हा  ने, भोगा  लई  खींच  तलवार।
हाथ पकड़  के तब देवा  ने,  भोगा  दओ  धरनि  पै  डार।।
तब तक विजया हाथ गहो है, लीनी अपनी खैंच तलवार।
बाँह पकर कैं जा विजया की, तब जागन नें दिया पछार।।
हुकम दै दओ सब क्षत्रिन कौं, क्षत्री सुनलो कान लगाय।
जब ज्वोंनार जियेंमन आबैं, सबकी कटा लेउ करवाय।।

नैपाली राजा की पुत्री राजकुमारी सुनमा विवाह के पूर्व देवी जी के मंदिर में जाकर पूजा करती हैं और निर्विघ्न विवाह संपन्न होने की कामना करती है…।
सपनौ दयो रात देवी नें, मठ पर ढोल देव पहुँचाय।
जो न भेजो अमर ढोल को, सारौ राज नष्ट होय जाय।।
ऐसौ सपनों सुनिकैं भैया, राजा गयों सनाकौ खाय।
कहन लगो बेटी सुनमा सें, उनखौं अपनें हियें लगाय।।
अमर ढोल लै जाव लाड़ली, मठ के भीतर पहुँची जाय।
पूजा कीनी जग-जननी की, बेटी बोली वचन सुनाय।
जग-जननी मैं सुता तुमारी, सेवा करों चरण सिर नाय।
देव वरदान हमें हे माता, मोय वर मिलें बनाफर राय।।

महोबे के सारे बनाफर महान वीर थे। उनके रण कौशल के समक्ष बड़े से बड़े शत्रु योद्धा तक नहीं टिक सकते थे। उनके नौकर-चाकर और कर्ता कामदार तक बहुत शक्तिशाली थे। जरा देखिये उनके रूपना बारी के शौर्य और साहस को…।
रंग-बिरंगौ हो गओ रूपना, दोनों हाथ करैं तलवार।
कछु मारे कछु भाग खड़े भये, क्षत्री डार-डार हथियार।।
चल दओ रूपना नैनागढ़ सें, अब तक सुनियों कान लगाय।
देख माजरा नैपाली नें, सब क्षत्रिन सें कहा सुनाय।
जिनके घर में ऐसो बारी, तिन जोधन सें कहा  बताय।
तनक सो छोरा बारी वारौ, गयो यहाँ पर गजब दिखाय।

विवाह के पूर्व नैपाली की पुत्री आल्हा के सौन्दर्य और पौरुष का समाचार सुनकर उनके प्रेम-प्रसंग में अधीर हो जाती है और पाती लिखने के लिए तत्पर हो जाती है…।
ऐसी सोसत सुनमा  बेटी, कर  में  कागद  लियो  उठाय।
पाती लिख दई सुनमा बेटी, सुनियो पंचो ध्यान लगाय।।
जैसी रुकमिनि की सुधि लीनी, सुनिये किसन चंद भगवान।
तैसई लाज बचइयों मोरी, प्यारे पती यहाँ पै आन।।
पाती अस लिख दीनी भइया, उर सुअना सें बोली नार।
सुअना एक सहारौ तोरौ, मोरी नईया कर दे पार।।
उड़ जा सुअना गढ़ महुबे कों, जाँ बे बसें बनाफर राय।
मोरी पाती लै जाकैं  तूँ, नर दल खौं दइयों जाय।।

आल्हा- दल के मन में अपने सैनिकों के प्रति बहुत प्रेम रहता था। वे उन्हें अपने भाई से भी बढ़कर मानते थे…।
नौकर-चाकर तुम नईं मोरे, भइया लागों बड़े हमार।
आज लाज है हाथ तुमारे, ल बलइयाँ भ्रात तुमार।।
जो तुम जोधा मनें करों तो, वीरन कौन करें जे काम।
लोक हँसाई हुयै जगत में, हम सब हुइयैं फिर बदनाम।
इतनी  बात  सुनीं  दल की, गयो रोस रूपना को  आय।
तमक कैं बोलो रूपना बारी, भइया सुनों उदै चंदराय।

राजा नैपाली ने राजाओं को संदेश देते हुए कहा…।
नाई भाट बुलाये भूपति, ऐसो कहन लगो समझाय।
वर के लायक बेटी हो गई, भइया सुनलो कान लगाय।।
कठिन लड़ाई नैंनागढ़ की, सब भूपों को देव बताय।
अमर ढोल जिनके घर कहिये, दुश्मन नाम सुनत दहलाय।।
जोगा-भोगा जोधा बाँके, तिनकी मार सही ना जाय।।
जो नैनागढ़ को आकैं जीतें, ताको दूं सुता हरसाय।
टीका लैकैं तीन लाख कौ, नैंगी चल रये खुशी मनाय।
सुरति लगाय दई देहली की, जाँ पै बसैं पिथौरा राय।।
पहुँचे नैंगी जब देहली में, पृथ्वी राज के  शुभ दरबार।
पढ़ी पत्रिका नैपाली की, साफ-साफ कर दई इंकार।।
चल दये नेंगी फिर देहली से, गढ़ कनबज में पहुँचे  जाय।
आठ पेंड़ सैं मुजरा करकैं, जयचंद को दई पाती  जाय।।
पाती पढ़कैं अजय चंद नें, टीका  दिया  तुरत  फिरवाय।
नैनागढ़ के नैंगी लौटे, पहुँचे नैपाली ढिंग जाय।।

आल्हा ने यह चुनौती स्वीकार कर ली। नैपाली की सेना ने घमासान युद्ध किया, किन्तु वह सेना आल्हा- दल के सामने कैसे टिक सकती थी। दल ने सारी की सारी सेना को हरा दिया और अमर ढोल छीन लिया। यह समाचार पाते ही राजा नैपाली घबड़ा गया। गाथाकार ने इस स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है…।
इतमें सुनमा महलन आई, बोली नैपाली सें जाय।
कहा  कहूँ सुनिये दादा जी, दल लै गयौ ढोल छिनाय।।
इतनी बात सुनत  नैपाली,  इक  दम  गयो  सनाकौ  खाय।
बोलों बेटी तूने मेरा, जीवन दीना आज डुबाय।।
पायो ढोल इन्द्र से मैंने, अब सुरपति सें कहूँ मैं जाय।
इतनी सुन नैपाली चल दओ, पहुँचो इन्द्र पुरी में जाय।।
जाय वंदना की इंदुल  की,  बोला  इंदल  बचन  सुनाय।
कारन कवन यहाँ आये हों, नैपाली  वा  कथा  सुनाय।।
तब नैपाली कहन लगो है, सुनियो स्वामी कान लगाय।
अमर  ढोल  को लै गये दल, प्रभु सुनमा के हाथ छिनाय।।
तब ही इंदुल कहनें लागो, उर राजा सें कहीं सुनाय।
धीरज राखों अपने मन में, हाल ढोल मैं दूं मंगाय।

आल्हा के विवाह के समय नैनागढ़ में घोर संग्राम हुआ। नैपाली राजा के पुत्र जोगा से दल ने कह दिया कि पहले तू अपने तीन वार कर ले और इसके बाद मेरी बारी है। तीन वार पूरे होने के बाद फिर दल ने कहा…।
वार तीन कर चुका सूरमा, अब ले मेरा वार बचाय।
तेगा खींच लयो दल ने, फिर घुरवा के लागो जाय।।
मर गओं घुरवा उत जोगा कौ, दूजा अश्व चढ़ो है आय।
बंद लड़ाई दोनों दल भई, संध्या समय गयो है आय।।
चर चर चारा पंछी लौटे, अपनें घोंसलु पहुँचे  जाय।
चमके तारे आसमान में, सज्जन सुन लो कान लगाय।।
जोगा पौंचो नैनागढ़ में, सभी पिता से कहा  हवाल।
रात वितीत भई बातन में, भैया भयो सुबह तत्काल।।
हुकम सबेरे लै जोगा फिर, रनकौ डंका दियो बजाय।
नैंनागढ़ सें जोधा चल दये, पौंचे रन खेतन में जाय।।

उन दिनों सैनिक अपने स्वामी के  लिये जान देना अपना परम धर्म मानते थे। रण बाँकुरे दल का कथन  कितना सटीक और  सार्थक  है।
दल तब ही कहने लागे, लूं बलइयाँ भ्रात तुम्हार।
नौकर-चाकर तुम नईं मोरे, भइया लागों बड़े हमार।।
जो तुम जोधा मनें करें तो, वीरन कौन करें जो काम।
लोक हँसाई करें जगत में, हुइयैं अपुन सबई बदनाम।।
इतनी बात सुनीं दल की, गयो रोस रूपना को आय।
तमक कैं बोलो ऐंपन बारी, भइया सुनों उदै चंदराय।।
देर न करों करिलिया घोड़ी, भइया जल्दी देव सजाय।
ढाल तेग दै देव आल्हा की, देव बैजन्ती पाग बँधाय।।
जो  जो  चीजै  रूपना माँगी, सो दल ने दईं गहाय।
ऐंपन बारी लैकैं कर में, घोड़ी चढ़ो गनेस मनाय।

आल्हा खण्ड में अनेक स्थलों पर युद्ध के सजीव चित्र अंकित किये हैं, जिनमें से अनेक स्वाभाविक और कुछ अस्वाभाविक से प्रतीत होने लगते हैं। आल्हा खण्ड की यह मान्यता है कि…
मरबौ इक दिन होय  जरूरी,  सदा  अमर  कोउ  रहता  नाय।
रन खेतन में जो कोउ मर गओ, सुर्ग लोक में पहुँचो जाय।
दोनों दल में चली सिरोही, जीकौ हाल कहो ना जाय।
खट-खट खट-खट तेगा चल रओ, बाजी छपक-छपक तलवार।
सर-सर सर-सर सरही चल रई, जीके लगें निकरबैं पार।।
कंता चलो बिलायत वालो, घोड़ा काटैं मय असवार।
भाला चल रओ नाग-दमन कौ, जीपै छैं अंगुल की धार।।

युद्ध के वीभत्स दृश्य के…।
पैर काट लये काउ-काउ के, कोउ के धड़ पै सिर है नांय।
कोउ के बाजू कटे पड़े हैं, रन में डरो-डरो चिल्लाय।
लोथ काउ की गज पै लटकी, कोउ घुरवा पै लटको जाय।।
हाती कुचल रहे लासन खौं, ठोकर लग कैं गिर-गिर जाय।
सुना परैं नईं कान बुचक गये, गूँगा उर बैरा हो जाय।।

उन दिनों प्रायः नीति प्रधान युद्ध हुआ करते थे। संध्या होते ही दोनों ओर का युद्ध स्वतः ही बंद हो जाता था…।
जब दिन मुंद गओ अनी बदल गई, वक्त शाम कौ पौंचो आय।
बंद लड़ाई की ज्वानों ने, सारे रहे खून से न्हाय।।
लाल-लाल सब उन्ना हो गये, घुरवा रहे खून से न्याय।।
फटी-पपीड़ी जब दिन निकरौ, वक्त सुबह कौ पौंचो आय।
आल्हा पौंचे दरबार में, तब सब भये इकट्ठे आय।।
हाथिन वारे हाथिन सज गये, औ घोरन  पै  घुरल  सवार।
हाती इक दन्ता मँगबाऔ, जी पौं चढ़ों पिथोरा राय।।
चैड़ा धाँधू तुरतै सज गये, भाँत-भाँत के लै असलाह।
तीजे घंटा के बाजत खन, लश्कर कूच दिशा करवाय।।
खाइ-इनामें अरे बढ़-बढ़ कैं, तुमने समसर भुगते राज।
आज के दिन खौं तुमें सेवतो, सो मिल जुरें समारों काज।।
नौन हरामी अरे चाकर मरैं, यारो मरैं बैल गरयार।
चढ़ी अनी  पै  जो कोउ बिचलै,  की मरें गरभ की नार।।

आल्हा- उदल और राजा परमाल के स्वामी भक्त सैनिकों का मंतव्य देखने योग्य है- नौन तुमारो हमनें खायो, हमनें समरस भुगते राज।

आज की बेरां रन खेतन  की,  राखैं सदा भवानी  लाज।।
चाहें छिंगुरी कटबैं अंगुरी, उर  कट  जाय छितंरियन  मांस।
टारे टरें न रह खेतन सें, जोलों चलें देह में सांस।।
सिंह  की  बैठक क्षत्री  बैठे,  जे  सब धरें  नगन तरवार।
मुँह नहिं देखो जिन तिरिया को, जिनकैं मार-मार रट लाग।।
पंगति-पंगति सें दल बैठो, भस्मा भूत लगो दरबार।।
दुर्गा लोट रही पल्थी पर, जैसें लौटें करिया नाग।।
पृथ्वीराज गरजा खेतन में, गुस्सा रहो बदन में छाय।
तीर-शब्द भेदी जब मारौ, बार न जीकौ खाली जाय।।
विजय सिंह दक्खिन  में  लड़  रओ,  पूरब  लड़ै  वीरसिंह  ज्वान।
विजय भान पच्छिम में लड़ रओ, कोउयें खबर का की  नाय।।
जाति बनाफर की ओछी है, कोउ न पियें घड़ा कौ नीर।
दया भाव काँ धरो उनन में, को जानें    मन   की   पीर।।

रासो काल में आल्हा-शैली और वीर छंद को छोड़कर इसी प्रकार की अन्य लोक गाथाओं की रचना की गई थी, जो रासो परंपरा से हटकर है। हालाँकि आदिकाल के अधिकांश रासो ग्रंथ डिंगल (राजस्थानी) में लिखे गये थे। इस काल का बुंदेली साहित्य का केवल एक ही ग्रंथ ‘परमाल रासो’ (आल्हा खण्ड) ही महत्त्व पूर्ण था, जिसमें बुंदेली साहित्य और संस्कृति की झाँकी भलीभाँति दिखाई दे रही है।

यह विशाल ग्रंथ 52 लड़ाइयों का संकलन है। सेना की साज-सज्जा, अस्त्र-शस्त्रों का प्रकार, अस्त्र-शस्त्र संचालन, समर-भूमि की स्थिति, हाथी-घोड़े और सैनिकों की लाशों का ढेर। सुन्दर राजकुमारियों को प्राप्त करने हेतु विविध प्रयत्न और विवाह के अनेक अवसरों पर घोर संग्राम। इस युग में श्रृँगार और वीर जैसे रसों का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया था। हालाँकि इतिहास और साहित्य की दृष्टि से ये अधिक मूल्यवान तो नहीं हैं, किन्तु मनोरंजन की दृष्टि से इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’