छतरपुर जिले के ग्राम बमनी में फाल्गुन शुक्ल पक्ष पंचमी संवत् 1974 को पंडित श्री प्रमोद कवि का जन्म हुआ। Pandit Pramod Kavi के पिता जी का नाम श्री चतुर्भुज शर्मा तथा माता का नाम श्रीमती राधिका रानी शर्मा था। इनका मूल नाम श्री बहादुर शर्मा है, लेकिन ‘प्रमोद’ नाम से कविता लिखने के कारण यही प्रसिद्ध हो गया।
श्री बहादुर शर्मा… पंडित प्रमोद कवि
पंडित श्री प्रमोद कवि ने साधारण शिक्षा प्राप्त कर बिजावर स्टेट के राजकवि
अभी गीता ग्रंथावली, मानस मंजरी, सामयिक चरित्रावली तथा चित्त चेतावनी रचनाएँ अप्रकाशित हैं। इनको अनेक बुन्देली के मंचों पर सम्मानित किया गया। बुन्देली विकास संस्थान, बसारी ने आपकी सुदीर्घ बुन्देली काव्य सेवा हेतु 2003 में सम्मानित किया।
चौकड़ियाँ
बेंदा दँय माथे पै न्यारौ, नैन कजलवा कारौ।
दांतन लसै पांन की लाली नथनी कौ नग न्यारौ।
हँसतन परें कपोलन गड़का जब घूँघट पट टारौ।
हरत ‘प्रमोद’ हरेकन के मन हार हजारन वारौ।।
इस छंद में नायक अपनी नायिका के बारे में बताता है कि उसके माथे पर जो बड़ी बिंदी लगी हुई है वह बहुत ही अलग ढंग की है और आँखों में लगा काजल उसकी शोभा बढ़ाता है। पान खाने के कारण उसके होंठ ऐसे लगते हैं जैसे मानो किसी ने उनपर लाली लगा दी हो एवं उसकी नथुनी का जो नग है वह भी सभी से अलग है, सुन्दर है, आगे कवि कहते हैं कि नायक कहता है कि जब मैंने उसके मुख से घूँघट हटाया तो उसके हँसने के कारण गालों पर हल्के-हल्के गड्डे पड़ते थे और उसका हजारों रुपयों का हार तो हरेक के मन का हरण करता है।
अबना लगै मायकौ नोंनों, पिया करा लेव गोंनों।
ज्वाँनी ओज उरोंज रोज ये उमछा रय हैं दोनों।
मैं दिन रात लुकाँय फिरत हों लोभी जैसौ सोंनों।
व्यंजन त्याग ‘प्रमोद’ काय हम खइये साग अलौनों।।
एक पत्नी अपने पति को संदेश भेजती हुई कहती है कि अब मुझे मायका में अच्छा नहीं लगता इसलिए जल्दी से द्विरागमन करा लो ताकि मैं तुम्हारे पास आ सकूँ। जवानी और शरीर के अंगों का उभार प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। हमेशा मुझे इन सभी को ऐसे छुपाये रहना पड़ता है जैसे कोई लोभी सोना को छिपाये रहता है। आगे का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि नायिका कहती है कि मैं व्यंजनों के त्याग के बिना नमक की सब्जी क्यें खाऊँगी, अर्थात् मुझे आप जैसे पतिदेव मिले हैं तो दूसरों की तरफ क्यों देखूँ?
नैयाँ निधि नारी सी पावन, काम कलेस नसावन।
सौंप शरीर देत स्वाँमी को प्रेम-पियूस पिलावन।
अँग-अंग सें सगौ संग है जैसौ चोली दाबन।
प्राण ‘प्रमोद’ बसें नारी में लगे हैं वैद्य बतावन।।
कवि नीतिपरक बातें बताते हुए कहते हैं कि नारी के समान पावन कोई नहीं है वह काम व विपत्तियों को समाप्त करने वाली है। वह (नारी) अपने पति को तन समर्पित करके प्रेमरूपी अमृत पिलाती है, उसके प्रत्येक अंग का आपस में सगा संबंध है जैसा चोली दामन का साथ रहता है। कवि प्रमोद जी आगे कहते हैं कि प्राचीन ज्ञानियों, वैद्यों ने यह बताया है कि नर के प्राण नारी में ही बसते हैं।
छाई बन बागन पियराई, सखि बसन्त ऋतु आई।
अभ्यन मोरन भोंरन की फिर बजन लगी शहनाई।
फूले कुन्द कुसुम चहुँ ओरन मनसिज सेंन सजाई।
ऐसे में का जान पिया ने प्रांण प्रिया बिसराई।
अति विनोद मय कीर कोकिला देत ‘प्रमोद’ बधाई।।
बसन्त ऋतु के आगमन पर नायिका अपनी सखी से मनोभावों को व्यक्त करती हुई कहती है कि हे सखी! बसन्त ऋतु के आने के कारण धरती में चहुँओर पीलापन छा गया है। फिर से बागों में मयूरों एवं भौरों का संगीत गुँजायमान हो रहा है। अनेक प्रकार के फूल चारों तरफ खिलने से ऐसा लगता है मानो कामदेव ने अपनी सेना सजाई हो।
पर हे सखी! ऐसे समय में प्रियजन ने क्या समझकर मुझे भूला दिया है ? अर्थात् मिलन के लिए वह ऋतु सबसे उपयुक्त मानी गयी है। तो फिर क्यों पतिदेव ने मेरा ध्यान अपने मन से हटा दिया है, कवि कहते हैं ? कि कोयल अपनी मधुर आवाज में सभी को इस ऋतु की बधाई दे रही है।
ऊधौ प्रेम पन्थ अति पावन, जगत कलेश नसावन।
हम जाने कैं तुम आये हौ नीकी सीख सिखावन।
तुम तौ निपट स्वार्थी लगे योग विराग पढ़ावन।
प्यास ‘प्रमोद’ ओस की बूँदन ब्रज की आये बुझावन।।
जब उद्धव गोपियों को ज्ञान के बारे में बताते हैं तो गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! यह जो प्रेम का मार्ग है वह अति पवित्र है, इससे जगत् के समस्त दुःख दर्द समाप्त हो जाते हैं। अरे! हम तो समझ रहे थे कि तुम हम सभी को अच्छी बात बताने आए होगे लेकिन तुम तो बिलकुल स्वार्थी निकले जो हमें ज्ञान (विराग) का पाठ पढ़ाने आये हो। आगे कवि प्रमोद कहते हैं- गोपियाँ कहती हैं कि उद्धव तुम ब्रजवासियों की प्यास को ओंस की बूँद से बुझाने आये हो, जो असंभव है।
अपनी करी कौंन सै कइये, की खां का समझाइये।
मन की बिरह व्यथा की ऊधौ की खाँ कथा सुनइये।
नंद नंदन बिन कौंन हमारौ कीलौ बृज में रइये।
बन्शीधर ‘प्रमोद’ नटबर कौ किये उलहनों दइये।
इस पद में गोपियाँ कहती हैं कि अपना किया हुआ काम किससे कहें और किसको क्या समझाएँ ? हे उद्धव! हम अपने मन की व्यथा की कहानी किसको सुनाएँ ? अर्थात् जो सुनने वाला था वही यहाँ पर नहीं है, नंद के नंदन् अर्थात् श्री कृष्ण के जाने के बाद इस ब्रज में हमारा और कोई नहीं रह गया है। कवि कहते हैं वंशीधर नटनागर कृष्ण का उलाहना अब किसे दें?
अबना पिता के पेट समानें, देश पिया के जानें।
जन्मी पलीं गोद में जीसें कछु ना मतलब रानें।
हिलमिल लेव सहेली जानें को काँ लगत ठिकानें।
जी भर भेंट ‘प्रमोद’ लेव री मिलबी कबै कुजानें।
नायिका अपनी सहेलियों से बिछुड़ने से पहले अच्छी तरह मिल लेना चाहती है और कहती है कि अब बाबुल के घर में रहने को नहीं मिलना है क्योंकि अब पति के घर जाना पड़ेगा। जिसके यहाँ जन्म हुआ, पाल-पोसकर बड़ा किया उन्हीं से अब कोई मतलब नहीं रह जाना है। आखिरी बार सभी आपस में मिल लें, पता नहीं किस जगह जाना पड़ जाये? आगे कवि प्रमोद कहते हैं कि दिल खोलकर भेंट करलें भविष्य में कौन जानें मिलना हो कि ना हो ?
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)