Madaugadh Ki Ladai- Kathanak  मांडौगढ़ की लड़ाई – कथानक 

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करिया राय से उदल ने अपने पिता और चाचा बच्छराज और दस्सराज  की मौत  का बदला लेने के लिये Madaugadh Ki Ladai- Kathanak हुई और विजय प्राप्त की । सातों लड़के वीर थे, परंतु ऊदल कुछ विशेष था। वह अपने बैंदुल घोड़े पर सवार होकर दूर-दूर तक दौड़ लगाता था। हिरण के पीछे दौड़ता हुआ उरई के एक बाग में जा घुसा था।

तब उरई नरेश ने राजा परिमाल के पास शिकायत करते हुए पत्र भेजा था। एक दिन फिर ऊदल घोड़ा दौड़ाते हुए उरई के किसी गाँव में जा पहुँचा। महिलाएं कुएँ पर पानी भर रही थीं। ऊदल ने घोड़े को पानी पिलाने को कहा।

उन्होंने पूछा, तुम कहाँ के राजकुमार हो, यहाँ किसकी इजाजत से घुस आए? ऊदल ने अपना परिचय दे दिया, “मैं आल्हा का छोटा भाई हूँ। महोबा के राजा परिमाल का राजकुमार हूँ।” कुएँ पर माहिल की बाँदी भी थी। वह बोली, “तुम जो भी हो, अभी वापस भाग जाओ। राजा माहिल को पता चलेगा तो तुम्हारा घोड़ा भी छीन लिया जाएगा और सजा मिलेगी सो अलग।”

इतनी बात सुनकर ऊदल ने गुलेल से मारकर सभी पनिहारिन महिलाओं के घड़े फोड़ दिए। अपने घोड़े पर सवार होकर महोबा की ओर चला आया। बाँदी ने माहिल से जाकर नमक-मिर्च लगाकर शिकायत की। इस बार माहिल ने पत्र लिखा तो बड़ा व्यंग्य भरा था। प्रणाम के पश्चात् घटना का वर्णन करते हुए कहा, “तुम्हारे घर जो ऊदल नामक अनाथ लड़का (टहुआ) रहता है, वह स्वयं को बड़ा बहादुर समझता है।

उसने उरई में आकर स्त्रियों से छेड़छाड़ की, सबके घड़े फोड़ दिए। उसमें इतना बल है तो मांडीगढ़ में जाकर बाप का बदला क्यों नहीं लेता, उसके बाप और ताऊ की खोपड़ियाँ वहाँ बरगद पर टॅगी हैं। तुम्हारी रानी का जो नौलखा हार छीनकर ले गया। वहाँ करिया राय पर अपनी शक्ति दिखाए। यहाँ उरई में आकर क्यों उत्पात मचाता है?”

पत्रवाहक पत्र लेकर महोबा में जा पहुँचा। राजा परिमाल के दरबार में जाकर प्रणाम किया और पत्र सौंप दिया। राजा ने पत्र सभा में पढ़कर सुनवाया। राजा परिमाल ने भी तुरंत जवाब लिखा, “माहिल! ये लड़के (आल्हा, ऊदल, ब्रह्मानंद, मलखान आदि) जैसे मेरे लिए हैं, वैसे ही तुम्हारे लिए भी हैं।

जितने घड़े ऊदल ने फोड़े हैं, उतने सोने के कलश भिजवा देता हूँ। मांडौगढ़ की बात मत करो। जिस लड़के की शिकायत कर रहे हो, वह दस्सराज का ही पुत्र है। यदि वह सुनेगा तो मांडौगढ़ पर अभी चढ़ाई कर देगा। वह अभी किशोर है। जवान होने पर तो बदला लेने जाएगा ही।

पत्र को लेकर धामन/ हरकारा (पत्रवाहक) उरई पहुँच गया। माहिल ने पत्र पढ़ा। इस घटना को अभी तीन महीने ही बीते थे कि हिरणों का पीछा करते हुए ऊदल फिर उरई जा पहुँचा। हिरणों के एक जोड़े का ऊदल ने शिकार कर लिया, पर बगिया तहस-नहस कर डाली। माहिल के पास शिकायत पहुँची तो माहिल ने तुरंत ही वहाँ अभई को भेजा। वह जाकर बोला, “यहाँ ऊधम क्यों मचा रखा है? जल्दी यहाँ से भाग जा, नहीं तो घोड़े से नीचे गिरा दूंगा।

ऊदल को इतना सुनकर क्रोध आ गया। घोड़े से उतरकर अभई के पास पहुँचा। एक दाव मारकर अभई को भूमि पर गिरा दिया। फिर एक झटका दिया और दुल पर सवार होकर हिरणों की जोड़ी लेकर महोबा की ओर रवाना हआ। माहिल को अभई की बाँह टूटने और बगिया को नष्ट करने की सचना मिली तो उसे भारी गस्सा आया। माहिल अपनी घोड़ी पर चढ़कर तुरंत महोबा के लिए चल पड़ा।

राजा परिमाल का दरबार लगा था। राजा तो माहिल का हाल पूछ रहे थे, परंतु माहिल ने ऊदल की शिकायत शुरू कर दी, “ऊदल इतने बहादुर हो गए तो क्यों न मांडौगढ़ जाकर युद्ध करते? जहाँ करिया राय ने दस्सराज और बच्छराज का सिर काटकर बरगद पर लटका दिया था। तुम्हारा धनमाल और नौलखा हार लूटकर ले गया था।

बार-बार उरई में आकर क्यों उत्पात मचाता है? राजा परिमाल बोले, “माहिल! जो भी हानि ऊदल ने पहुँचाई है, मैं उसका दुगुना धन एवज में देने को तैयार हूँ, पर मांडौगढ़ की बात मत करो। यदि ऊदल के कान में पड़ गई तो वह अभी मांडौगढ़ जा पहुँचेगा। ऊदल को मरने से डर नहीं लगता। हम जब ठीक समझेंगे, तब करिया राय से निबट लेंगे।

तब तक ऊदल के कान में बात पड़ ही गई। वह दरबार में आ पहुँचा और बोला, “दादा! मुझे बताओ, वह मांडौगढ़ का करिया राय कौन है, हमारे पिता और चाचा की खोपड़ियाँ कहाँ टॅगी हैं? जल्दी सारी बात बताओ।” परिमाल ने बात बदली, “पैरागढ़ की लड़ाई में तुम्हारे पिता रण में मारे गए थे।

उसी गढ़ का दूसरा नाम सिलहट है।” तब ऊदल ने माहिल से ही पूछा, “आपने मांडौगढ़ की चर्चा की है तो आप खुलकर सारी घटना बताओ।” माहिल ने उत्तर दिया, “सब घटना तुम्हारी माता दिवला को पता है, जाकर उसी से पूछो।

ऊदल यह सुनकर क्रोध से काँपने लगा, पसीने से तर हो गया और आँखें लाल हो गई। मामा माहिल को ललकारकर बोला, “मैं अवश्य अपने पिता का बदला लूँगा। उस करिया राय का सिर अपने हाथ से काढूँगा।” फिर ऊदल अपनी माता दिवला के पास गया और घटना की सच्चाई पूछी। माँ से कहा, “सच बताओ, यह करिया राय कौन है, उसने हमारे पिता को क्यों मारा? यदि अपने पिता का बदला नहीं लिया तो हमारे जीवन को धिक्कार है।

माता अभी ऊदल को युद्ध के लिए भेजने को तैयार नहीं थी, परंतु ऊदल ने तलवार निकाल ली और कहा, “या तो सच बता दो अन्यथा मैं आत्महत्या कर लूँगा।” तब विवश होकर दिवला ने बताया जंवे का राजकुमार करिया राय महोबे पर आधी रात को चढ़ आया।

इससे पहले भी वह आक्रमण करने आया था, तब तुम्हारे पिता, चाचा और ताल्हन ने मारकर भगा दिया था। वह अपनी उसी हार का बदला लेने दोबारा आधी रात को आया और सोते हुए दोनों वीरों को बाँध ले गया। अपने यहाँ उनके सिर काटकर बरगद पर लटका दिए। यहाँ से मल्हना रानी के गहने और नौलखा हार भी ले गया। वह राजकुमार नहीं, लुटेरा है।”

माता की बात सुनकर ऊदल बोले, “मैं अपने पिता और चाचा का बदला अवश्य लूँगा। मांडौगढ़ को खोदकर तालाब बना दूंगा। करिया राय का सिर काट दूंगा। उसका वंश ही मिटा दूंगा।” इस पर देवी ने कहा, “बात ठीक है। मैं भी यही चाहती हूँ, परंतु अभी घर में बैठो। मांडौगढ़ को जीतने का समय अभी नहीं आया। गढ़ मांडौ से पहले बारह कोस का बीहड़ जंगल है, फिर लोहागढ़ का भयानक किला है। अभी तुम्हारी उम्र कम है। अनुभव भी नहीं है।

ऊदल बोला, “जब से सुना है, मेरे मन में आग लगी है। जब तक बदला नहीं ले लूँगा, मैं आराम से बैठ नहीं सकता।” माता दिवला ऊदल को लेकर रानी मल्हना के पास गई और सारी बात बताकर कहा कि ऊदल को आप समझा सकती हैं। मल्हना ने बड़ी चतुराई से ऊदल को समझाने का प्रयत्न किया, परंतु उसने कुछ भी मानने से इनकार कर दिया। तब रानी मल्हना ने विचार किया कि ऊदल को मांडौगढ़ जाने की अनुमति दे देनी चाहिए। फिर तो रानी मल्हना ने अनुमति के साथ विजयी होने का आशीर्वाद भी दिया।

फिर माता ऊदल को साथ लेकर आल्हा के पास गई। वहीं पर सैयद ताल्हन भी बैठे थे। दिवला बोली, “आप हमारे जेठ लगते हैं। आपका भतीजा ऊदल हमारी बात नहीं मान रहा। यह मांडौगढ़ जाने को मचल रहा है। आप इसकी रक्षा के लिए साथ जाओ।” आल्हा ने भी समझाने का प्रयास किया कि “अभी अनुभव की कमी है।

ऐसा नहीं कि पिताओं की तरह हमारी खोपड़ी भी बरगद पर टाँग दी जाएँ।” ऊदल ने कहा, “अब हम बदला लेने में समर्थ हैं तो क्यों न लें? जहाँ तक मृत्यु की बात है तो जब आएगी तो सात तालों में भी नहीं छोड़ेगी और नहीं आई तो कोई नहीं मार सकता। अब जल्दी से कुछ फौज साथ लो और मांडौगढ़ पर चढ़ाई करो। आप में से कोई न जाना चाहे तो मैं अकेला ही जाता हूँ।

ऊदल की बात सुनकर मलखान ने कहा, “चिंता मत करो, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।” फिर ऊदल ने ताला सैयद से कहा, “चाचाजी! आपने हमें पाला और सँभाला है। आप ही रास्ता बताओ, जिससे हम अपने उद्देश्य में सफल हों।” ताला सैयद ने उत्तर दिया, “बेटा ऊदल! जब तक बनारस वाला ताला सैयद जीवित है, तब तक तुम्हें चिंता करने की क्या जरूरत? जहाँ मोरचा सबसे कठिन समझो, वहाँ मुझे लगा देना।

अब तो सब उत्साहित हो गए। मलखान ने ढेवा (देवपाल) से कहा, “मांडौगढ़ जाने के लिए शुभ घड़ी-मुहूर्त का पता करो।” ढेवा ने पंचांग उठाया और ठीक समय बता दिया, साथ ही सलाह दी “जोगियों का वेश धारण करो।” गुदड़ी रँगवाई तथा बनवाई गई। जगह-जगह हीरे-मोती जड़े गए। भीतर पाँचों हथियार छिपाने की जगह गुदड़ी में रखी गई।

यह वेश इसलिए बनाया, ताकि मांडौगढ़ का असली हाल मालूम किया जा सके।  तब योजना बनाई कि पहले महोबा में ही अलख जगाएँ और माता दिवला और रानी मल्हना के सामने जाएँ। देखें, वे पहचान सकेंगी या नहीं।

मलखान की यह योजना सबको भा गई। सैयद ताला ने सारंगी पकड़ ली। आल्हा ने डमरू उठा लिया। मलखान इकतारा बजाने लगा। ढेवा ने खंजरी बजानी शुरू कर दी। ऊदल ने बाँसुरी बजानी शुरू कर दी। सब मंडली साथ चल पड़ी और तरह-तरह के भजन, राग गाने लगी। रानी मल्हना के द्वार पर अलख जगा दिया। बाँदी ने सूचना दी कि बड़े पहुँचे हुए जोगी आए हैं।

मल्हना जोगियों को देखने द्वार पर आई। मल्हना ने उन्हें नहीं पहचाना और पूंछा, “जोगी कहाँ से पधारे हैं। भिक्षा में क्या लेने की इच्छा है?” तब ऊदल ने कहा, “माता, धोखे में मत रहना। मेरा नाम उदयसिंह राय है। हम अपने पिता का बदला लेने मांडौगढ़ जा रहे हैं।” माता मल्हना ने आशीर्वाद दिया। फिर वे सब दिवला के महल पर पहुँचे। माता दिवला ने भी नहीं पहचाना।

दिवला बोली, “योगियो! कहाँ से आए हो? बड़े सुंदर लग रहे हो। आज यहीं विश्राम करो और हमारा आतिथ्य स्वीकारो।” तब ऊदल ने कहा, “माता, हम तो तुम्हारे ही पुत्र हैं। यह देखो, चाचा सैयद हैं, इन्हें भी आप नहीं पहचान सकीं।” तब माता दिवला ने सबको टीका करके विदा किया। सबकी पीठ ठोंकी तथा आशीर्वाद दिया। माता दिवला ने भी मांडौगढ़ साथ चलने की तैयारी कर ली।

फिर फौज को साथ लिया। तोपें सजवाई, हाथी और घुड़सवार सेना तैयार की और युद्ध की तैयारी करने लगे। तोपों के भी नाम मनोहर थे। कालिका तोप, संकटा तोप, सूर्य लपक्कनि, चंद्र अपक्कनि, बिजली तडपवि, किला तुडावनि, तोप लछमना, तोप भैरों सब ले लीं।

हाथी भी एक दंता, दो दंता, भोरा गज, धौला गिरि, भूरा हाथी, मुकुल मुडिया हाथी, सब पर गद्दे डलवाए और हौदे सजाए। इसी प्रकार घोड़ों के दारोगा ने घोड़े सजवा लिये। कच्छी, मच्छी, ताजी, सुस्मी, लक्खा, गीं, हरियल, सब्जा, सुर्खा और दरियाई घोड़े, श्याम कर्ण और सुखभावन घोड़े तैयार कर लिये।

सब फौज तैयार हो गई। ऊदल तब बोले, “आप सब हमारे भाई लगते हो, कोई नौकरचाकर नहीं हो। जिनका घर में पत्नी में मोह हो, वे हमारे साथ न चलें। हमारे साथ वे चलें, जो मरने से न डरते हों।” सैनिकों ने विश्वास दिलाया कि हम पूरी तरह साथ हैं।

फिर भगवती जगदंबे का स्मरण करके पूजन करके, भगवान् शिव को पूजकर तथा कुल देवता मनिया देव को मनाकर राजा परिमाल के पास पहुँचे। राजा ने तब पीठ ठोंककर आशीर्वाद देकर उनको विदा किया। ऊदल ने विजय का विश्वास दिलाया। राजा परिमाल ने फिर कुछ स्मरण रखने योग्य बातें बताई।

राजा परिमाल बोले, “जो रीति-नीति का ध्यान रखते हैं, उनकी कभी हार नहीं होती। पहली नीति है कि जो घायल है और हाय-हाय कर रहा है, उस पर वीर वार न करे। महिलाओं पर हाथ और हथियार न उठाए। बालकों और बूढ़ों को न मारे। डरकर भागते हुए पर पीछे से वार न करे। वीर पहली चोट कभी न करे।

निर्बल और बीमार पर चोट न करे। जिसके पास हथियार न हो, उन पर किसी भी प्रकार से वार न करे। युद्ध में बढ़ने पर पाँव पीछे न हटाए तो उस वीर की जीत निश्चित होती है। युद्धभूमि में क्षत्रियों को यही रीति-नीति बरतनी चाहिए। राजा का ऐसा नैतिक उपदेश सुनकर ऊदल ने कहा, दादा! हम इन सब बातों का पालन करेंगे।

फिर राजा को प्रणाम करके वे सभी रानी मल्हना के पास गए। सबने रानी से हाथ जोड़कर आशीर्वाद माँगा। रानी मल्हना ने उन सबकी पीठ थपथपाई और पूछा, अब कब तक वापस आकर मिलोगे? ऊदल ने आठ महीने का अनुमान बताया, तब माता ने एक बार फिर विजय का आशीष दिया।

इसके पश्चात् अपनी फौज के पास पहुँच गए। ढोल-नगाड़े बजने लगे। मांडौगढ़ के लिए ऊदल की टोली फौज के साथ बढ़ने लगी। ताला सैयद सिंहनी नामक घोड़ी पर चढ़े। उनकी दाढ़ी पेट तक लटकी हुई थी, परंतु जोश जवानों जैसा था और भी सब अपने-अपने निश्चित घोड़ों पर चढ़कर चल पड़े।

उनकी सेना तीन कोस तक फैली हुई थी। तोपें, बारूद, हाथी, घोड़े और पैदल सब प्रकार की सेना जा रही थी। ढेवा ने फिर सगुन पंचांग में देखकर बताया। उनको कहा कि क्षत्रिय वेश उतारकर जोगीवाला चोला पहन लो। पाँचों योद्धा जोगी बन गए। रामनंदी तिलक लगा लिया। अपने-अपने साज सारंगी, इकतारा आदि सँभाल लिये।

इसी वेश में बबूल के जंगल को पार किया और फाटक पर पहुँच गए। वहाँ तैनात रक्षकों ने परिचय पूछा। आल्हा ने उत्तर दिया, “हमारी कुटी गोरखपुर में है। अब हम बंगाल से आ रहे हैं। देवी हिंगलाज के दर्शन के लिए जा रहे हैं। जल्दी फाटक खुलवा दो। रास्ते का खर्चा खत्म हो गया है। इसलिए नगर में भिक्षा माँगनी पड़ेगी।

रक्षकों ने कहा, “द्वार खोलने से पहले हम राजा की अनुमति लेने हरकारे को भेजते हैं।” तब तक जोगियों को द्वार पर ही रुकना पड़ा। हरकारा राजा अनूपी राय के दरबार में गया। हरकारे ने जोगियों की सारी बात कह दी। राजा ने उनको नगर में प्रवेश की अनुमति दे दी। जोगी राजा अनूपी के दरबार में पहुँचे।

बाएँ हाथ से प्रणाम करने पर राजा कुपित हो गया और उन्हें बाहर निकालने का हुक्म दिया। तब ऊदल ने कहा, “राजन! दाएँ हाथ में सुमरनी (माला) से राम भजन चल रहा है। उससे भला प्रणाम कैसे करते?” राजा की समझ में बात आ गई। राजा के दाएँ बैठे टोडरमल ने सलाह दी। साधु-संतों से न तर्क करो, न इनकी बद्दुआ लो। जो माँगें, देकर विदा करो।

राजा ने कहा, “जोगी अपना कुछ करतब दिखाएँ। सबने तुरंत अपने साज सँभाल लिये। ढेवा ने खंजरी बजाई और ऊदल ने बाँसुरी। मलखान ने अपना एकतारा बजाया तो आल्हा डमरू ही बजाने लगे। दाढ़ीवाले ताला सैयद ने सारंगी पर गाना शुरू किया। ऊदल मस्त होकर नाचने लगे तो राजा देख-देखकर मोहित हो गए।

राजा ने उनसे कुछ दिन अपने यहाँ ठहरने का आग्रह किया। इस पर ऊदल ने उत्तर दिया, “बहता पानी और रमता जोगी चलता-फिरता ही अच्छा रहता है। राजा ने सोने के कड़े मँगवाकर जोगी जन को भेंट किए और विदा किया।

अब जोगी दरबार से निकलकर मांडौगढ़ को चल दिए। यहाँ भी द्वार पर ठहराकर पूछा गया। यहाँ भी आल्हा ने वही उत्तर दिया कि हम बंगाल से आए हैं और देवी हिंगलाज के दर्शन के लिए जा रहे हैं। दरबानों ने जोगियों से बरसात के चौमासे में यहीं विश्राम करने की सलाह दी।

ऊदल ने फिर वही कहा कि बहता पानी और रमता जोगी कहीं रुकते नहीं हैं। दरबान ने दरवाजे खोल दिए और योगियों की टोली बाजारों में घूमने लगी। जो भी नौजवान योगियों पर दृष्टि डालता, तुरत मोहित हो जाता। महिलाएँ तो उनकी सुंदरता की आपस में चर्चा करतीं। कोई उन्हें अँगूठी देती तो कोई माला देती। पनिहारिन पानी भरना भूल गई और जोगियों को ही देखती रह गई।

रानी कुशला की बाँदी भी उन पर मोहित हो देर तक उनके रूप-सौंदर्य में खो गई, सो लौटने में देर हुई; महलों में देर से पहुँची तो रानी कुशला ने डाँटकर देरी का कारण पूछा। बाँदी ने योगियों के नगर में घूमने की जानकारी दी तो रानी कुशला ने बाँदी को आदेश दिया कि उन्हें हमारे महल में बुलाकर लाओ।

बाँदी आदर के साथ उन्हें लिवा ले आई और द्वार पर ठहराकर सूचना देने गई, तब पपीहा घोड़ा और गज पचशावद को द्वार पर बँधे देखकर आल्हा रोने लगे। पूछने पर आल्हा ने अपने पिता के घोड़े और हाथी दिखाकर बताया कि करिया राय इन्हें लूटकर ले आया था।

ऊदल ने कहा, आप कहें तो मैं अभी कूदकर घोड़े पर चढ़ जाऊँ और अपनी फौज में जा पहुँचूँ। मलखान ने कहा, भैया! अक्ल से काम लो। जोगी वेश में हो। धीरज रखो। इस घोड़े पर अवश्य चढ़ना, परंतु जिस दिन पिता और चाचा का बदला पूरा हो जाए।

पाँचों आगे बढ़े तो दूसरे द्वार के पास पत्थर पीसने का कोल्हू और बरगद दिखाई पड़े। आल्हा ने बरगद पर टँगी खोपडियाँ भी देखीं और पहचान ली कि यही उन दोनों की खोपड़ी हैं। आल्हा से दस्सराज की आत्मा की आभा ने कहा, हमें अब तक आशा थी कि एक दिन हमारे पुत्र अवश्य बदला लेंगे, पर ये तो जोगी बन गए हैं।

यह बात सुनकर आल्हा रोने लगे। ऊदल ने पूछा तो आल्हा ने उसे खोपड़ी दिखाई। ऊदल ने खोपड़ी झट छाती से लगा ली और बोले, अब रोने की नहीं, खुश होने की बात है। अब तो हम बदला पूरा करने ही वाले हैं। तब तक भीतर से दासी लौट आई। उसे रोने का आभास हुआ तो बोली, सच बताओ, तुम किसी राजा के राजकुमार हो क्या? अभी राजा को सूचना देकर पकड़वाती हूँ।

मलखान ने बात सँभाली; बोले, “बाँदी! इस बरगद पर भूत-चुडैल रहते हैं, उनकी आभा डरा रही है। इसीलिए छोटे योगी को रोना आ गया।” मलखान की बात सुनकर दासी उन्हें महल में ले गई। महल की सुंदरता देखकर वे चकित रह गए। खिड़की-दरवाजे सब चंदन की लकड़ी के बने थे। वह झील थी, जिसमें हंस के जोड़े तैर रहे थे। छज्जों पर मोर नाच रहे थे। खंभों पर रत्न जड़े हुए थे। बाँदी ने उन्हें वहीं रोककर रानी कुशला को सूचना दी।  

रानी ने परदे में से पाँचों योगियों को ध्यान से देखा तो बाँदी से कहा, तूने धोखा दिया है, मैं अभी तुझे दंड दूंगी। ये जोगी नहीं हैं। ये तो कहीं के राजकुमार हैं। इनकी छवि ही बता रही है कि ये जोगी नहीं हैं। यह सुनकर ऊदल बोले कि हमारे राज्य में सूखा पड़ गया। हमारे पिता बचपन में ही काल का ग्रास बन गए। माता ने हमें जोगियों को बेच दिया। रूप तो परमात्मा का दिया हुआ है। इसे हम छिपा नहीं सकते। रानी ने कहा, तुम्हारी गुदड़ी में भी हीरे-मोती जड़े हैं। मलखान ने जवाब दिया, हम राजा जयचंद की राजधानी कन्नौज से आ रहे हैं। हमारा भजन सुनकर राजा ने हमें ये गुदड़ियाँ पुरस्कार स्वरूप दी हैं।

तब रानी ने कहा कि आप गाते-नाचते हैं तो वह हमें भी दिखाओ। फिर तो पाँचों ने अपने-अपने वाद्य-यंत्र सँभाले और गाना-बजाना शुरू कर दिया। राग-रागिनी ऊदल ने सुनानी शुरू की, फिर मस्ती में ऊदल ने नाचना शुरू किया। उनका संगीत व नृत्य देखकर सारा रनिवास मोहित हो गया, यहाँ तक कि रानी ने परदा हटा दिया।

रानी ने नौलखा हार पहन रखा था, जिसे देखकर ऊदल को अपने लक्ष्य की याद आ गई। क्रोध से नयन रक्तिम हो गए। तभी ताला सैयद ने कुहनी मारकर चेताया कि यहाँ कुछ गड़बड़ मत कर बैठना, नहीं तो सबकुछ चौपट हो जाएगा और हम सब भी यहीं मारे जाएँगे।

ऊदल के नैनों में आँसू देखकर रानी ने पूछा, “यह छोटा जोगी क्यों रो रहा है?” सैयद ने रानी को जवाब दिया, “बाहर बरगद पर टँगी सूखी खोपड़ियाँ देखकर यह डर गया है। इसे लगता है कि पेड़ पर भूत-चुडैलों का वास है।” तब रानी ने पुराना किस्सा सुना दिया। एक दिन करिया राय ने महोबे में जाकर लूट मचाई थी।

वह अपने साथ दस्सराज और बच्छराज को बाँधकर ले आया था। उन्हें पत्थर के कोल्हू में पिसवा दिया और दोनों की खोपड़ी बरगद पर लटका दी। उन्हीं की आत्मा की आभा कभी-कभी बोलती है कि महोबे में जो कोई क्षत्रिय हो, इनको ले जाकर गंगा में बहा दे और गया में जाकर इनका पिंडदान कर दे तो इनकी मुक्ति हो जाएगी।

जोगियों को डरने की जरूरत नहीं। तुम महलों में अपना संगीत-नृत्य दिखाओ। आभा तुमसे कुछ नहीं कहेगी। जोगियों ने अपना संगीत शुरू किया। ऊदल तीन घंटे तक नाचे। रनिवास की रानियाँ, दासियाँ सब मोहित हो गई। फिर रानी ने उनको चंदन की चौकियों पर बिठाकर पूछा, तुम सबने जोगी बनने का इरादा क्यों किया, तुम्हारा असल निवास कहाँ है और अब कहाँ जाने का विचार है? ऊदल ने बताया, हम बंगाल के रहने वाले हैं। गोरखपुर में आश्रम है, गुरु गोरखनाथ के ही शिष्य हैं। अब हम हरिद्वार जा रहे हैं। वहाँ गंगा में डुबकी लगाकर हिंगलाज माता के दर्शन करने जाएंगे।

इसके बाद सेतु बंध रामेश्वरम् जाएँगे।” रानी ने कहा, “वर्षा के चार मास यहीं गढ़मांडौ में विश्राम करिए। मेरी बेटी विजया और बेटा करिया आपकी सेवा करेंगे। जब मांडौगढ़ से जाओगे तो छकड़ों में भरकर माल तुम्हारे साथ भेज दूंगी। राजपाट चाहिए तो राज दे देंगे। विवाह की भूख हो तो विवाह करवा दूंगी।” मलखान ने कहा, “रानीजी! आपकी अक्ल कहाँ मारी गई है, हम तो बंगाल से आए हैं। हमें राजपाट या विवाह-शादी से क्या लेना है, हम तो रमते जोगी हैं। जोगी और बहते पानी को कौन रोक सकता है?

इतना कहकर जोगी चल पड़े तो रानी ने मोती-रत्नों से भरा थाल देकर कहा, “अब तीन जन्मों तक भिक्षा मत माँगना।” ऊदल ने एक मुट्ठी मोती लेकर सूंघे और पूछा, “वाह! ये किस वृक्ष के फल हैं, पहले कभी नहीं देखे?” रानी बोली, “ये फल नहीं, मोती हैं।” ऊदल ने उन्हें बिखेरते हुए कहा कि चोर-लुटेरे पीछे लग जाएँगे। कन्नौज की रानी ने हमें ये सुंदर गुदड़ियाँ दी हैं। आप यह नौलखा हार दे दो, ताकि तुम्हारी निशानी बनी रहे।

तभी रानी ने बाँदी भेजकर अपनी बेटी विजया को बुलवाया। बाँदी ने जाकर विजया को योगियों के रूप का वर्णन किया तो वह समझ गई कि महोबे के राजकुमार ही जोगियों के वेश में आए होंगे। वह तैयार होकर आई। उसे देखकर ऊदल मर्छित हो गया। विजया भी होश खो बैठी। रानी ने तब बाँदी से कहा, जा करिया राय को बुलाकर ले आ। ये जोगी नहीं, राजकुमार हैं। तब मलखान ने कहा, यह छोटा जोगी अगर मर गया तो मैं शाप दे दूंगा। अभी महल में आग लग जाएगी और राज्य भी नष्ट हो जाएगा। यह छोटा योगी तंबाकू वाले पान की पीक से बेहोश हुआ है।

रानी ने विजया से पूछा, “तुम्हें मूर्छा क्यों आई?” तब विजया ने कहा, “ये छोटी उम्र के योगी हैं। इन्हें क्यों सिर मुंडवाना पड़ा। यह सोचते हुए सीढ़ी पर पाँव फिसल गया।” रानी ने कहा, “विजया बेटी तो अब आई है, तुम लोग दोबारा अपना गाना-बजाना शुरू करो। फिर क्या था, जोगियों ने फिर से नृत्य-संगीत शुरू कर दिया।

ऊदल की तान और नृत्य से सब रनिवासी महिलाएँ मोहित हो गई। कोई अपनी अंगूठी, कोई माला उपहार में देने लगी। कुशला रानी ने नौलखा हार उतारकर ऊदल को दे दिया। जब जोगी चल पड़े, तो विजया ने खिड़की के पास ऊदल की बाँह पकड़ ली और अपने साथ ऊपर ले गई। उसने कहा, तुम महोबे के राजकुमार हो, तुम्हारा नाम उदयसिंह है। तुम छिपकर जोगी बनकर यहाँ आए हो।

ऊदल ने कहा, “इस शक्ल के बहुत लोग होंगे। मैं ऊदल नहीं हूँ।” तब विजया ने बताया कि तुम माहिल के पुत्र अभई की शादी में बरात में बैंजनी पगड़ी पहनकर आए थे। हमने तुम्हें वहाँ अच्छी तरह देखा था। ऊदल मान गया कि विजया ने सही में पहचान लिया।

विजया का आग्रह था। मैं ऊदल से अभी विवाह करने को तैयार हूँ। ऊदल ने कहा, “मैं चोरी से विवाह नहीं करूँगा। पहले अपने पिता का बदला लेने के बाद ही तुमसे सारे समाज के सामने विवाह करूँगा। विजया बोली, “आप गंगा की कसम खाओ।” ऊदल ने कसम खाकर विजया से विवाह करने का वचन दिया।

फिर विजया ने बताया कि मांडौ राज्य के चार किले हैं। एक में अनूपी भाई राज करता है। दूसरे में बड़े भाई सूरजपाल का शासन है। एक में करिया राय राजा है तो लोहागढ़ में स्वयं मेरे पिता जंबै राज करते हैं। लोहागढ़ का तो मार्ग ही बहत कठिन है। आप पहले ववुरी वन को मैदान बनाकर अपनी सेना वहाँ एकत्र करो, फिर नीतिपूर्वक योजना बनाओ।

अब ऊदल द्वार की ओर चल पड़ा। जोगी बने सब बनाफर द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे थे। पूछने पर ऊदल ने सच-सच बतला दिया कि उसने विजया से विवाह का वायदा कर लिया है। इस पर आल्हा और मलखान ने कहा, “पहले जिस काम के लिए आए हैं, उस पर ध्यान दो।” तब सब लोग आगे चले। चलते हुए लोहागढ़ पहुँच गए।

द्वारपाल ने जाकर जंबै राजा को सूचना दी और उनके भीतर आने की अनुमति माँगी। जंबै ने उन्हें अंदर बुलवा लिया। अंदर जाकर दरबार की शोभा देखकर वे हैरान रह गए। यहाँ भी उन्होंने बाएँ हाथ से प्रणाम किया। करिया राय भी राजा जंबै के साथ बैठे थे। राजा ने जैसे ही बाएँ हाथ से सलाम करते देखा तो वह क्रोधित हो गया। ऊदल ने तुरंत कहा, “जिस हाथ से हम माला जपते हैं, उससे आपको प्रणाम करेंगे तो योग भंग हो जाएगा।

राजा यह सुनकर प्रसन्न हो गया, परंतु दूसरा प्रश्न उसने पहने हुए जड़ाऊ चोलों के विषय में पूछा। मलखान ने उत्तर दिया, “पहले हम कन्नौज गए थे। राजा जयचंद हमारा संगीत सुनकर मोहित हो गया तो उसने पाँचों के लिए मोती-रत्नों से सजाई हुई गुदड़ियाँ बनवाकर दीं। हमारे हाथों में सोने के कड़े भी पहनाए। राजा ने तीसरा प्रश्न कर दिया, तुम्हारे माथे पर पगड़ी का निशान नजर आ रहा है।

ऊदल ने ही बात बनाई, हे महाराज! कन्नौज से हम महोबे आए। वहाँ हमारे तमाशे से प्रसन्न होकर आल्हा, ऊदल आदि राजकुमारों ने हमें पगड़ी और कलगी ईनाम में दी। महीनों हम उन पगड़ियों को पहने रहे, इसीलिए निशान पड़ गए। राजा दलील सुनकर संतुष्ट हो गया और फिर अपना खेल प्रारंभ करने को कहा।

जोगियों ने अपने-अपने वाद्य-यंत्र बजाने शुरू किए। ऊदल ने कुछ देर बाँसुरी बजाई, फिर गीत-राग गाए और आखिर मस्त होकर नाचने लगे। सारा दरबार मोहित हो गया। सब कुछ-न-कुछ भेंट देने लगे। राजा जंबै ने चौकी मँगवाकर उन्हें बिठाया और विस्तृत परिचय पूछा। मलखान ने कहा, “हम दौलत के भूखे नहीं हैं।

बंगाल के निवासी हैं तथा गोरखपुर में हमारी कुटी है। हम गुरु गोरखनाथजी के शिष्य हैं। अब गंगाजी में हरिद्वार जाकर डुबकी लगानी है, फिर हिंगलाज भवानी के दर्शन करने जाएँगे।” राजा ने सोने का मुकुट देकर विश्राम करने का आग्रह किया। ऊदल ने वही जवाब दिया, “बहता पानी और रमता जोगी सदा आगे बढ़ता है। आज यहाँ हैं तो कल और कहीं।

फिर ऊदल बोले, “हमें पता चला है कि लाखा नाम की नर्तकी आपके दरबार में है। उसके नाच की प्रशंसा हमने काशी में सुनी थी।” राजा ने तुरंत संदेश भेजकर लाखा पातुर को बुलवाया। नाच फिर शुरू हुआ। जोगियों ने अपने साज बनाए। नाचते-नाचते लाखा जोगियों के बहुत करीब चली गई। ऊदल ने रानी से प्राप्त नौलखा हार लाखा पातुर को दे दिया। सोचा, हम उसे कहाँ लिये फिरेंगे।

लाखा पातुर महोबा की है, अतः यहाँ हार सुरक्षित रहेगा। लाखा महोबे के लड़कों को पहचान गई। उन्होंने भी बता दिया कि हम पिता का बदला लेकर ही महोबा लौटेंगे। लाखा ने लाख छिपाया, पर जंबै राजा को हार दिखाई पड़ ही गया। जोगी चल पड़े थे। अपना शक मिटाने को राजा ने करिया राय को रानी कुशल के पास हार लाने को भेजा। रानी ने पहले तो कुछ बहाना बनाया, फिर सच-सच बता दिया कि उसने जोगियों के संगीत पर प्रसन्न होकर नौलखा हार ईनाम में दे दिया।

जब करिया राय ने राजा जंबै को जाकर बताया तो राजा ने अपने को ठगा महसूस किया। राजा ने करिया राय से कहा, “जल्दी जाकर जोगियों को पकड़ो। वे जोगी नहीं, महोबा के राजकुमार हैं।” करिया राय पिता की आज्ञा से जोगियों के पीछे चला। कुछ दूर जाकर उसने आवाज देकर उन्हें रोका और वापस चलने को कहा।

ऊदल बोला, जहाँ से आगे बढ़ आए, हम फिर लौटकर नहीं जाते।” करिया राय ने तलवार खींच ली और रुकने को कहा। फिर तो ऊदल, मलखान, आल्हा, ढेवा, चारों ने तलवारें निकाल लीं। मलखान बोला, “जोगियों के धोखे में न रहना, अगर एक कदम भी आगे और रखा तो जान से हाथ धो बैठोगे।” करिया राय वापस चल दिया।

उसने आकर जंबै राजा को सारी घटना बता दी और समझा दिया कि ये जोगी नहीं, महोबा के कुमार हैं। राजा जंबै ने अपने बड़े पुत्र सूरज को बुलवा लिया और फौजें सजाने के लिए कहा। इधर पाँचों जोगी वेशधारी ववुरी वन पहुँच गए। वहीं रानी दिवला का डेरा था। माता ने सबका स्वागत किया। उन्होंने माता को मांडौगढ़ और लोहागढ़ की सारी घटना खोलकर बता दी।

ऊदल ने नर्मदा नदी की कम गहराईवाली जगह का पता लगाया और बड़े भाई आल्हा को बताया कि ववुरी वन को सेना कैसे पार कर पाएगी। नर्मदा पर मैंने बाँस गाड़कर झंडे लगा दिए हैं, वहाँ से पार करेंगे। आल्हा ने कहा, “चंदन नामक बढ़ई को बुलाकर ववुरी वन काटने पर लगाओ।” चंदन के साथ नौ सौ बढ़ई और लगे, परंतु ताला सैयद ने अपने सभी लड़कों को भी इस काम में लगा दिया तो चार-पाँच घंटे में सारा वन साफ हो गया।

ऊदल के संकेत के अनुसार घास और छोटे पौधे घोड़ों के चरने के लिए छोड़ दिए गए। आल्हा को जब यह समाचार मिला तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। जंबै के राजकुमार अनूपी अपने दरबार में बैठे थे। टोडरमल भी उनके दाहिने हाथ विराजमान थे। तभी एक हरकारा दौड़ता हुआ आया और सीधे अनूपी के सामने जा पहुँचा। उसने कहा, “महाराज! महोबा की सेना आ रही है। उसने सारा ववुरी वन काट डाला है।” अनूपी तनकर खड़े हो गए और तुरंत अपनी सेना को तैयार होने का आदेश दिया।

जितने प्रकार की तोपें उनके पास थीं, उन्हें साफ करके तैयार किया गया। हाथियों के हौदे सजाए गए। घोड़े काले, सफेद, लंबे, ऊँचे, चितुला, नकुला, सब्जा, कुब्जा, तम्खा, अरबी सब सजवाए गए। टोंडरपुर से सारी सेना सज-धजकर चल पडी।

सैनिक तो यदध वस्त्र पहनकर चले ही, स्वयं अनपी ने भी हरी वर्दी पहन ली। ऊपर कवच सहित एक अचकन पहनी, जिसमें हथियार गड़ते ही नहीं। दोनों ओर कमर पर दो पिस्तौलें लटका दी गई। बाई ओर ढाल और दाई ओर तलवार लटकाई। फिर वह सुर्खा (लाल) घोड़े पर सवार हुआ। तब समरभूमि की ओर चल पड़े।

दूसरी तरफ महोबावालों की भी फौज युद्ध के लिए तैयार ही थी। वैदुल घोड़े पर ऊदल और मनुरथा पर ढेवा चढ़े। दोनों ही अपने लश्कर में पहुँचे और डंका बजवा दिया। नर्मदा को पार करके चार घंटे में फौजें मैदान में जा पहुँचीं। ऊदल ने अपना घोड़ा आगे बढ़ाया तो अनूपी के सामने जा पहुँचा।

अनूपी ने पूछा, “कौन हो तुम, ववुरी वन क्यों कटवाया?” ऊदल ने परिचय दिया, “महोबा वाले चंदेले राजा के हम बेटे हैं। मेरा नाम उदय सिंह राय है।” अनूपी ने ऊदल को लौट जाने को कहा। ऊदल ने अपना इरादा स्पष्ट बता दिया कि नौलखा हार, हाथी गजशाबद, घोड़ा पपीहा, लाखा पातुर और तुम्हारी विजया का डोला लेकर जाऊँगा, साथ में करिया राय का सिर काटकर ले जाऊँगा। अपने पिता का बदला लिये बिना महोबा नहीं लौट सकता।

अनूपी ने टोडरमल को आदेश दिया कि तोपें चला दो। इधर ऊदल ने भी तोपों में बत्ती लगवा दी। दोनों ओर से गोले छूटने लगे। जिस हाथी को गोला लग जाता, वह चक्कर खाकर गिर जाता। पैदल सैनिकों को भी दबाकर मार देता। चार घड़ी तक गोले चलते रहे, पर कोई दल पीछे न हटा। फिर चार कदम मैदान रह गया।

दोनों ओर सांग, भाले और तलवारें चलने लगीं। कौन किसके सामने पड़ गया और किसे कौन मार रहा है? जगह-जगह लाशें कटकर गिर रही हैं। हाथी पहाड़ से मैदान में पड़े हैं। वैदुल घोड़े पर सवार ऊदल हर मोर्चे पर जा-जाकर कह रहा है, “जीत के चलोगे तो महोबा जाते ही सबकी पगार दुगुनी कर दी जाएगी। तुम लोग नौकर-चाकर नहीं, सब हमारे भाई लगते हो।

अनूपी की तीन लाख सेना महोबा वालों ने आधी मार गिराई। अनूपी की सेना मैदान छोड़ भागने लगी। ऊदल और अनूपी राय फिर एक दूसरे के सामने पहुंच गए। अनूपी ने खींचकर तीर चलाया, ऊदल बच गए। फिर अनूपी ने सांग उठाकर फेंकी। घोड़ा वैदुल ने पैंतरा बदलकर ऊदल को बचा लिया। अनूपी ने कहा, “अभी महोबा को लौट जाओ।” अनूपी को ऊदल ने उत्तर दिया अपनी तलवार खींचकर।

दोनों ओर से खटाखट तलवारें बजने लगीं। अनूपी की तलवार टूट गई, उधर ऊदल ने जो तलवार का वार किया, ढाल तो अड़ाई, पर ढाल ही कट गई। तलवार का पूरा वार अनूपी पर लगा और वह मैदान में गिर गया। तभी टोडरमल ने मोर्चा संभाला। टोडरमल ने वार किया तो वैदुल घोड़ा ऊपर उड़ गया। टोडमल की तलवार की मूठ हाथ में रह गई। वह बेबस खड़ा रह गया। ऊदल ने तुरंत उसे बाँध लिया और ढेवा से कहा कि इसे बाँधकर जेल में डाल दो। ढेवा टोडरमल को बाँधकर ले गया। इस प्रकार अनूपी और टोडरमल की सेना रण छोड़कर भाग गई।

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बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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