Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिLoksahitya Ka yogdan लोकसाहित्य का योगदान

Loksahitya Ka yogdan लोकसाहित्य का योगदान

किसी भी  लोक  संस्कृति को जन मानस मे जीवित रखने मे  Loksahitya Ka yogdan अति आवश्यक ही नही  अतुलनीय है। लोकसाहित्य ही लोकसंस्कृति का चित्रण करता है। उसके लोकगीतों, लोकगाथाओं, लोककथाओं, लोकनाट्यों, लोकोक्तियों आदि में हर जनपद के भोजन पेय और वस्त्राभरण से लेकर लोकदर्शन या लोकचिन्तन तक के क्रिया-कलापों और विचारों का अंकन हुआ है। इस तरह राष्ट्र से सभी जनपदों की विविध लोकसंस्कृतियों को सुरक्षित रखने का महत् कार्य लोकसाहित्य ने किया है।

बुन्देलखंड की संस्कृति मे लोकसाहित्य का योगदान

व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार, परिवार के सम्बन्ध और रिश्ते, समाज के जोड़ने वाले लोकोत्सवों से लेकर सामाजिक समस्याओं तक के सुख-दुख, धरती की प्रशंसा से लेकर राष्ट्रीय स्वतन्त्राता-संग्राम तक की राष्ट्रीय चेतना तथा सांस्कृतिक एकता से लेकर विश्वबन्धुत्व तक की व्यापक वैचारिकता का इतना विशाल फलक लोकसाहित्य में वर्णित विषय-वस्तु का है, जिसे रेखाँकित करने के लिए लोकसाहित्य की कलम हर युग में सक्रिय रही है।

लोकसाहित्य में संस्कृति का इतिहास मिलता है। बुन्देलखंड का उदाहरण लें। कारसदेव, धर्मा साँवरी और गहनई लोकगाथाओं में चरागाही संस्कृति का चित्रण है और दिनरी, बिलवारी, पसर, वर्षा, अकाल (सूखा) आदि कृषिपरक गीतों में किसानी संस्कृति का।

श्रमपरक लोकगीत और लोककथाएँ चक्की या जँतसार के श्रम से लेकर भिखारियों के संगीतात्मक श्रम तक श्रमिक संस्कृति को उजागर करते हैं। उनमें एक तरफ कर्मठता और नैतिकता है, तो दूसरी तरफ निर्धनता की व्यथा और सामन्ती शोषण से उपजी विवश निराशा है।

संस्कारगीतों में पुराने रीति-रिवाज, संस्कार, कार्यकलाप, पारस्परिक सम्बन्ध, रूढ़ियों, लोकविश्वास और करुणामयी भावुकता एवं उल्लासमयी आस्था के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन, विघटन और नये मूल्यों के संकेतों की विकास-रेखा स्पष्ट दिखाई देती है। जातिगत गीतों या जातिपरक लोकसाहित्य में भी पुरानेपन के साथ नये परिवर्तनों की रेखाएँ उभरी हैं।

भक्तिपरक गीतों में लोकचेतना का ऐसा ज्वार उमड़ा है कि उसने सम्प्रदायों के तंग घेरों को तोड़कर समता का समुद्र तरंगायित कर दिया है। चाहे चर्म कारीगर का घर हो, चाहे ब्राह्मण का, बच्चे के जन्मते ही बसोरन गा उठती है….
‘‘घर आनन्द भए, रानी के रमैया भये।’’

उसके लिए हर माता कौशिल्या है और हर पुत्र राम। राम या कृष्ण लोक के प्रकृत मानव बन गए हैं, जबकि सीता या राधा सहज निश्छल नारी। मानवत्व का इतना सम्मान लोकसाहित्य में ही मिलता है, अन्यत्र नहीं। यहाँ मैं कुछ विशिष्ट उदाहरण देकर संस्कृति के प्रतिबिम्बन और विकास का आभास-चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। बुन्देली लोकसाहित्य के लोकगीतों या लोकगाथाओं की कुछ पंक्तियाँ उस चित्र की रेखाएँ हैं ।

पहला उदाहरण कारसदेव की गाथा का है। जिसमें चारागाही संस्कृति का महाकाव्य लिखा गया है। यहाँ उसकी एक झलक पर्याप्त है। राजू दाऊ के परिवार में उसकी पत्नी और बेटी है, जो प्रातः उठकर पशुओं की सेवा में मग्न रहते हैं। बेटी ऐलादी का प्रातः जागना और लोई एवं दोहनी लेकर जंगल में बने खोड़ में जाना, पिता को सुखकर नींद से जगाकर धौरी की खबर न लेने से दोष का संकेत करना और खोड़ी में डंगुरी (भागने वाली गाय जिसकी गर्दन में गतिरोध के लिए लकड़ी बाँध देते हैं), धौरी (धवल) और लबाई (हाल की ब्यानी गाय) गायों का पुकारना चारागाही संस्कृति का बोलता चित्र प्रस्तुत करता है… ।

राजू की बेटी सोउत में जागी, भई तय्यार, हो ओ ओ…।
लोई दौनिया हाँतन लै लई, माँझे हार में, हो ओ ओ…।
इक बन चाली दोबन चाली, तीजे खोरन द्वार, हो ओ ओ…।
दाउ सोय रये सुखनिंदिया, खोरन धौरी गाय हो ओ…।
बोली बेटी दाउ का सोबै सुखनिंदिया, धौरी के चढें अपराध, हो ओ…।
खोरन सें रमाबै लबाई डेंगुरी धौरी गाय, हो ओ ओ…।

इसी से मिलता-जुलता दूसरा उदाहरण एक कृषिपरक गीत का है, जो मध्ययुग में रचा गया था। इसमें ननद-भौजी का संवाद नाटकीय मोड़ लेता है। पंक्तियाँ देखें… ।
अनबोलें रहो न जाय, ननदबाई, बीरन हू भाबै अनबोला।
गइया दुहाउन तुम जइयो, उतै बछड़ा खों दइयो छोर,
भौजी मोरी बीरन हमारे तब बोलें।

यहाँ पशुपालन संयोग का माध्यम है। भक्तिपरक गीतों में गाय दुहने में ही राधा-कृष्ण का मिलन, प्रेम और लीलाएँ होती हैं। लेकिन उत्तर मध्ययुग में जब हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में काव्यत्व की प्रतिष्ठा होती है, तब गाँव की गोरी भावुकता में डूबकर गा उठती है…. ।
चन्दा पै खेती करों, सूरज पै करों खरयान।
जोबन के बरदा करों, मोरो पिया पसर खों जायँ।।

इन पंक्तियों में यौवन को बैलों का प्रतीक बनाकर ‘पसर’ की सार्थकता सिद्ध की गई है, लेकिन विद्वान इसे समझ नहीं पाए और ‘‘बरदा’’ की जगह ‘‘बदरा’’ कर गए। बादल और पसर का कोई जोड़ नहीं। ‘पसर’ चरने बैल ही जाते हैं। प्रियतम रूपी कृषक यौवन-रूपी बैलों को लेकर पसर चराने जाए, तो उसकी प्रियतमा नायिका को बहुत खुशी होगी। वही गाँव की नायिका अकाल के बाद अपनी व्यथा कहती है… ।
जुन्डी हो गयी मन भर की।
मुंसी आये पटवारी आये होन लगी कुरकी।
लाँगा बिक गओ नुगरो बिक गओ,
बिक गयी अंगिया जेई तन की।
राजा के बाँधत कौ सेला बिक गओ,
फजीयत हो गई घर भर की।।

इन पंक्तियों में जमींदार द्वारा कुर्की में ‘अंगिया’ का बिकना गरीबी का और ‘सेला’ का बिकना प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इस प्रकार इन उदाहरणों से सुख-समृद्धि की संस्कृति के बाद अंग्रेजों के समय की गरीबी कृषकों की संस्कृति सांस्कृतिक पिछड़ाव को व्यक्त करती है। शोषण से लाई गई निर्धनता से समाज की जुझारू शक्ति तक चुक गई थी।

चन्देल-काल में यानी कि नौंवीं शती से बारहवीं शती तक बुन्देलखंड की संस्कृति का निर्माण हुआ है, लेकिन तेरहवीं शती के प्रारम्भ में ही एक बहुत शक्तिशाली विदेशी आक्रमण के कारण उसे एक झटका लगा। उसके पूर्व ग्यारहवीं शती से विदेशी आक्रमणों से पूरा देश आक्रान्त था और 1182 ई. में पृथ्वीराज चौहान के आक्रमणों ने बुन्देलखंड की भूमि पर तुषारपात किया था। लोकमहाकाव्य आल्हा के रचयिता जगनिक ने लिखा था…. ।
खटिया परकें जे मर जैहें, नॉउ डुब पुरखन कौ जाय।
जे मर जैहें रनखेतन मा, साखौ चलो अँगारूँ जाय।।

रण में जूझकर मरने से यश फैलाने का लोकमूल्य 12वीं शती की सांस्कृतिक चेतना का प्रमुख आधार था। असल में, मध्ययुग की लड़ाई का अधिकतर सांस्कृतिक थी। मध्ययुग की लोकसंस्कृति ने ही विदेशी संस्कृतियों के हमलों से सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा की थी और उस अहिंसक संघर्ष का मोर्चा सँभाला था लोकगीतों ने।

वे लोकगीत, जो हर आदमी को राम-कृष्ण बनाते रहे, जो हर नारी को कौशिल्या-यशोदा और सीता-राधा बनाकर परिवार और समाज का संगठन करते रहे तथा जो हथियारों से घिरे हुए बिना भी किसी मतवाद और आग्रह के ममता और प्रेम के स्तूप खड़े करते रहे। कोई उन्हें भले ही पुरातत्त्व की काँटेदार बाड़ से सुरक्षित बना दे अथवा सामन्ती नाम देकर खँडहर कर डाले, लेकिन इतना तो इतिहास भी मानेगा कि सांस्कृतिक संघर्ष का एक कठिन मोर्चा लोकगीतों ने ही लड़ा है।

‘कजरियन कौ राछरौ’ में ‘हाँत काऊ के परियों नईं लग जैहै कुल में दाग’ और ‘मारत-मारत भुज्जें रै गईं ललकारत रै गई भाँस’ से स्पष्ट रै कि नारी की रक्षा के लिए भाई, पति और पिता को युद्ध करना पड़ता था। मध्ययुग की ‘मानों गूजरी’ और ‘मथुरावली’ की मुगलकालीन गाथाओं में भारतीय नारी के पतिव्रत की चिन्ता केन्द्र में रही है।

पहली में पति ने स्वयं युद्ध कर शत्रा का विनाश किया है, लेकिन दूसरी में मथुरावली भाई की पगड़ी की और पति के फेरों की लाज रखने के लिए खड़ी-खड़ी जल जाती है। ‘बिजौरी की कुँवरि की गाथा’ में बेला अपनी सहेलियों के साथ कुएँ में डूब जाती है। तात्पर्य यह है कि यह संघर्ष हिंसा से अहिंसा की ओर चला है।

बुन्देलखंड के हरबोलों की कहानी उनके द्वारा गाए गए लोकगीतों की कहानी है। 1840 ई में जैतपुर-नरेश पारीछत ने अंग्रेजों से युद्ध किया था, बाद में मधुकरसाहि, जवाहर सिंह, गणेश जू, दौलत सिंह, लक्ष्मण सिंह आदि बागी बनकर अंग्रेजों को परेशान करते रहे।

लेकिन सबसे अधिक जुझारू कतार थी लोकगीतों की, जो लगभग दो-तीन दशक आजादी की लड़ाई लड़ते रहे। 1857 ई. के स्वतन्त्राता-संग्राम के पहले हरबोलों के लोकगीतों और लोकगाथाओं ने एक सेना तैयार कर दी थी। लोककवि ने लिखा है…।
काऊ नें सैर भाषे काऊ नें लावनी।
अबके हल्ला में फुँकी जात छावनी।।

‘हल्ला’ का अर्थ है आक्रमण। वास्तव में, यह सैर, लावनी जैसे लोकगीतों का आक्रमण था, जिसने फौज की छावनी को नष्ट कर दिया था। लोकगीतों को जन-जन तक पहुँचाने की जिम्मेदारी सँभाली हरबोलों ने। हरबोले अर्थात् रचनाधर्मी लोकगायकों की नई फौज, जिसने हर द्वार को जगाने की ठानी थी।

धोती या सूतना, कुर्ता या मिरजई और साफा या पगड़ी या मुड़ासा पहने, कन्धे से गुदरी लटकाए और एक हाथ से सारंगी बजाते तथा मंजीरों के सुरीले स्वरों के साथ कोई कथागीत गाते ये योगियों की तरह फेरी देते यायावरी। गले में माला और जोगिया रूप, गीत की पंक्तियों में जुड़ा ‘‘हर गंगा हर गोपाल, हर के बचन सुनौ दो चार’’ से भक्त का बाहरी आभास, लेकिन भीतर से लोकजागरण का संकल्प।

गाँव-नगर में फैले दल के दल घर-घर, द्वार-द्वार लोकधुन में बंधी कोई वीरगाथा सुनाते न कोई दस्तक और न कोई सवाल। बिना माँगे जिसने जो दिया, उसी में सन्तुष्ट। कोई भेदभाव नहीं, कोई स्वार्थ नहीं, एक अयाचित याचना और क्रान्ति को जगाने का अनुष्ठान। इसी तरह संघर्ष का यह चक्र निरन्तर घूमता रहता है। कभी हथियारों को लेकर जूझने का आह्नान-निमाड़ी लोकगीत की दो पंक्तियों से…।

भारतवासी कठिन सूरमा, कठिन जात बलवान गा।’
मरना जीना नाहि डराबे, तेग दिहे परान गा।।’
कभी अंग्रेजों के शोषण को उजागर करते हुए उन पर आरोप का हमला करना छत्तीसगढी़ ददरिया लोकगीत की लोकप्रिय पंक्तियाँ…।

‘‘धूँकी साही अंगरेज भुइयाँ म छाइगे। मोर सोन के चिरैया माटी होइगे।।’’ (अँग्रेज महामारी की तरह धरती पर छा गए और हमारी सोने की चिड़िया माटी हो गयी।) कभी गुलामी की विरासित पर व्यंग्य करते हुए बुन्देली लोकगीत की कुछ पंक्तियाँ ‘बुन्देलखंड की जनता रोबै, भये राजा अत्याचारी।

अँगरेजन के गुलाम राजा, तिनके हम गुलामी भारी।।’
तथा कभी गांधीजी को स्वराज लाने के लिए आतुर होना एक राष्ट्रीय लोकगीत, जो हर जनपद में प्रचलित रहा…।
गाँधीजी महात्मा नेंग में मचले, दायजे में माँगें सुराज।
ठाड़ी गवर्नमेंट बिनती सुनाबै, जीजा, गौने में दैबी सुराज।।’’


अंग्रेज शासन के द्वारा गौने में स्वराज देने में अंग्रेजों की कूटनीति का सफल चित्राण हुआ है। इसी जूझारू भावना से एक तरफ देशप्रेम का अंकुर फूटा है, तो दूसरी तरफ सांस्कृतिक एकता का। देशप्रेम या राष्ट्रीयता केवल हृदय की वस्तु नहीं है, वरन् मस्तिष्क की भी है। इसलिए लोककवि को राष्ट्र के अंग-अंग प्रिय लगते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह पुत्रा को माता और भाई को बहिन। एक लमटेरा गीत देखें…।
नरबदा अरे माता तो लगै रे,
अरे माता लगै रे, तिरबैनी लगै मोरी बैन रे, नरबदा हो…।


लोकगीत सांस्कृतिक एकता के सहज माध्यम हैं। यह सही है कि नर्मदा नदी माता की तरह और त्रिवेणी बहिन की तरह प्रिय लगती हैं। यह वैचारिकता संकीर्ण नहीं है, क्योंकि वह धरती माँ की स्तुति तक विकास करती हैं।

हर अंचल के लोकगीतों की अपनी निजता है, इसलिए उनमें विविधता स्वाभाविक है। लेकिन लोकवातावरण और लोकभाषा में लिपटा अन्तरंग एक है। सभी अंचलों के लोकगीतों में संस्कारों की एकरूपता है, एक-से मानवीय रिश्तों की व्यंजना है और लोककल्याण का एक ही लक्ष्य है।

प्रेम-त्याग, वीरता-बलिदान, भाग्य-कर्म, शील-सतीत्व जैसे लोकमूल्य सभी में मिलते हें। सभी में एक-सा लोकधर्म है, जो किसी भी स्तर पर साम्प्रदायिक नहीं है और जिसमें हर देवता सामान्य मानव बनकर अवतरित हुआ है। कुछ लोकगीत, गाथाओं, कथाओं, लोकोक्तियों ने कई अंचलों में भावयात्रा की है। आल्हा, श्रवणकुमार, भरथरी, ढोलामारू, देवगीत, विदागीत आदि पूरे उत्तर भारत में प्रचलित हैं। मध्यप्रदेश में विदा गीत का एक उदाहरण देखें…।

बुन्देली : माई के रोये सें नदिया बहत है, बाबुल के रोये बेलाताल, मोरे लाल।
बीरन के रोये छतिया फटत है, भौजी के जियरा कठोर, मोरे लाल।।


बघेली : बापा के रोये नदिया बहत हैइ, माया के रोये तलबा।
भइया के रोये हिया फटत हइ, भउजी के बइना कठोर।।


छत्तीसगढ़ी : दाई तोला रोवै नोनी हरर हरर ओ, दादा रोबै गंगा बोहाबै।
भइया तोला रोवै नोनी भींजै पिछौरी, भौजी के नैना कठोर है।।


मालवी : मैया की अँखियन से गंगा बहत है, बाबुल की अँखियाँ तलाब।
भैया की अँखियन से नदिया बहत है भाभी को हृदय कठोर।

 

लोकसाहित्य में मन की उत्फुल्लता, आशा, उत्साह और आस्था के आवेग उतराते रहते हैं जिनसे पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जुड़ाव के रिश्ते बनते हैं। लोकसाहित्य में व्यक्त संस्कार उत्सव, रीति-रिवाज, लोकमूल्य आदि व्यक्ति को व्यक्ति से बाँधते हैं। लोकगीत इस एकत्व का साक्षी है…।
एक पेड़ मथुरा जमो, डार गयी जगन्नाथ रे।
फूल जो फूलो द्वारका, फल लागे बद्रीनाथ रे…।।

मथुरा, जगन्नाथ, द्वारका, बद्रीनाथ की एकता को प्रदर्शित करनेवाली उक्ति कितनी सरल सहज है। वृक्ष की जड़ मथुरा में, डाल जगन्नाथ में, फूल द्वारका में और फल बद्रीनाथ में। इस एकता का बिम्बन करने के साथ-साथ लोकसाहित्य सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करता है, जिससे संस्कृति के विकास को परखने का अवसर मिलता है। लोककवि कभी वास्तविकता को प्रकट करने से नहीं चूकता…।
चट्टिन-चट्टिन बनिया लूटै, सोरा नार फिरंगी।
ठाकुर दोरैं पंडा लूटै, जात्रा भये उदासी।।

जगन्नाथ स्वामी जू के पूजा-गीत में इन पंक्तियों की क्या आवश्यकता थी। बहुत गहराई से सोचें कि बनिया और पंडा के लूटने की सत्यता तो उजागर है, पर उनके बीच फिरंगी कहाँ से आ टपके। सोरा नार का अर्थ है सोलह शृंगार किए हुए नारी।

स्पष्ट है कि फिरंगी सुन्दर नारी को लूटता था। इसीलिए लोककवि ने इस तथ्य को जन-जन तक और विशेष रूप में नारियों तक पहुँचाने के लिए एक पूजागीत चुना था। लोकसाहित्य इसी तरह जागरण का कार्य करता रहा है।

कला के क्षेत्र में भी लोकसाहित्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। लोकगीतों और गाथाओं ने लोकसंगीत की रचना की है और लोकसंगीत शास्त्राय संगीत का उत्स रहा है। इसी तरह लोकगीत और लोकनृत्य का भी जोड़ रहा है।

सत्य यह है कि लोकसाहित्य में लोकगीत और लोकनाट्य दोनों लोक कलाओं से घनिष्ट रूप में जुड़े रहे। मैं बुन्देलखंड के एक लोकोत्सव या लोकखेल का उदाहरण देना प्रामाणिक समझता हूँ। नौरता या सुअटा लोककलाओं का गुरुकुल है, जिसमें लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोकचित्रा और लोकमूर्ति कलाओं की शिक्षा खेल-खेल में मिल जाती है।

नौरता के सभी सामूहिक गीत हैं और घर के चबूतरे या अस्थाई पर अथवा गली में गाए जाते हैं। सभी कहरवा और दादरा दोनों तालों में गाए जाते हैं, पर कुछ मध्य लय में और कुछ द्रुत में। गीतों के गायन में अनुभवी गायिकाएँ नई कुमारियों को सीख देती हैं।

ढिरिया गीत के साथ ढिरिया नृत्य भी चलता है और उसमें ढिरिया सिर पर लिए कन्या के साथ-साथ अन्य सभी कन्याएँ भी नृत्य करती हैं, जिससे नृत्य का आभ्यास हो जाता है। सुअटा की तैयारी वस्तुतः लोककला की तैयारी है।

कन्याएँ सबसे पहले रंग तैयार करना सीखती हैं। पहले खसकीला, दुद्दी, चीलबटा जैसे पत्थरों को बाँटकर और कपड़े से छानकर रंग के लिए प्रयुक्त किया जाता था, पर अब पिसे चावल और महीन बुरादे से रंग बनाए जाते हैं। रंगों को डिब्बों में भरकर रख लिया जाता है और उनसे प्रतिदिन रंगों की छीप भर ली जाती है। इन रंगों का प्रयोग चबूतरे की भूमि पर बनाए जानेवाले धूलिचित्रों के लिए होता है।

इन चित्रों को बुन्देलखंड में ‘चौक पूरना’ कहते हैं, क्योंकि अधिकतर तरह-तरह के चौक ही बनाए जाते हैं। चबूतरे को ढिक देकर गोबर से लीप दिया जाता है। सूखने पर चारों किनारों में कंगूरे अंकित किए जाते हैं। फिर बीच में चौक और अन्य आकृतियाँ बनती हैं। कहीं-कहीं प्रथम दिन एक ही चौक बनता है, तो कहीं-कहीं नवें दिन। बिजावर की कु. कल्पना ने बताया कि उनके यहाँ गौरा के नाम का एक चौक और फिर चन्दा-सूरज के लिए एक बनता है।

दोनों रूपों में बड़े चौक सामूहिक आलेखन से बनते हैं और सह-आलेखन की बानगी प्रस्तुत करते हैं। शेष दिनों हर कन्या अपने-अपने चौक बनाकर एक दूसरे को चुनौती देते हुए रूपांकों (डिजाइन्स) की अनोखी झाँकी लगा देती हैं। पहले सफेद रंग द्वारा रेखांकन किया जाता है, बाद में सूखे रंगों की जमावट होती है।

चौकों की ज्यामितिक आकृतियों के प्रतीकात्मक अर्थ होते हैं और विभिन्न रंगों के संकेतात्मक अभिप्राय। कुछ विद्वान इन प्रतीकों के अंकन में तन्त्राविद्या की प्रेरणा मानते हैं, लेकिन मेरा अपना मत यह है कि लोकचित्रों की ज्यामितिक आकृतियों को समझने में लोकप्रतीकों की अर्थवत्ता ही लेना उचित है।

आजकल बेलिया और फूल चौक अधिक बनने लगे हैं और अलंकरण के लिए फूल-पत्ती के रूपांक प्रयुक्त हो रहे हैं। साँतिए (स्वास्तिक) भी लिखे जाते हैं। यह चित्रांकन लोकगीतों की लयानुगति के साथ होता है। दीवाल पर पहले सूर्य-चन्द्र और सुअटा की मूर्तियाँ बनती थीं, लेकिन अब उनकी जगह पर उनके चित्रा लिखे जानें लगे हैं। इन भित्तिचित्रों के लिए गीले रंगों का प्रयोग होता है, जो खड़िया, गेरू, नील, रज आदि से तैयार किए जाते हैं। पट चित्रों का चित्राण भी होता है, जिसका साक्षी है एक लोकगीत। कुछ पंक्तियाँ देखें…।
ऊँची कगर की पीयरी, नारे सुअटा, महोबे लगे हैं बजार।
बिरजी हैं गौरा, बेटी, नारे सुअटा, बाबुल मोरी चुनरी रँगाव।
ढिग-ढिग लिखियो मोरो मायको, अँचरन माई के बोल।
मझधरा लिखियो मोरे बीरन, नारे सुअटा, बाबुल पौंर दुआर।।

ढिरिया (घट) में या तो कोई ज्यामितिक रुपांक या बेलबूटेदार चित्रांकन किया जाता है, जिसे हम कलशचित्रा कह सकते हैं। ये चित्रा रेखांकन ही होते हैं। भित्तिचित्रा और कलशचित्रा दोनों में रेखाओं और उनसे ही बनती विभिन्न आकृतियों में सार्थक अर्थों की ‘व्यंजना’ होती रहती है। पट चित्रों में रेखाएँ उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती, जिनती रेखाओं से बनी आकृतियाँ। सभी तरह का चित्रांकन गीतों की तालानुगति से हुआ है।

दीवालों पर सूर्य, चन्द्र और सुअटा की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। काली मिट्टी में कागज और गोबर चूर्ण मिलाकर मिट्टी तैयार की जाती है। मूर्तियाँ सभी कन्याओं के लिए होती हैं, अतएव सभी उनकी रचना में रुचि लेती हैं। इन लोकमूर्तियों में कला की बारीकी पर ध्यान नहीं दिया जाता, वरन् उनकी अर्थमय प्रतीकात्मकता की चिन्ता की जाती है। वे स्थूल और भदेस भली हों, पर कथा के अभिप्रायों के अनुरूप होती हैं। गौरा और महादेव कहीं रोज बनते हैं, कहीं पंचमी से। अष्टमी को महागौर की प्रतिष्ठा होती है, जो दानव का वध करती है।

मूर्तिकला की सीख के लिए ‘सुअटा’ एकमात्रा मनोरंजक माध्यम है। इस मनोविज्ञान को पहचानकर ही कहीं-कहीं कन्याओं द्वारा मूर्तियाँ बनाना अनिवार्य कर दिया गया है। खेल-खेल में लोकगीत गाते हुए लोककलाओं का प्रशिक्षण पा लेना एक उपलब्धि है। वह भी बिना किसी गुरू या प्रशिक्षक के। लोककला में रुचि जाग्रत होने से और उसमें तनिक-सा कौशल अर्जित कर लेने से शास्त्राय कला का द्वार भी खुल जाता है।

इन साक्ष्यों से स्वतः सिद्ध है कि लोकसाहित्य ने लोकसंस्कृति के विकास और प्रसार में जितना योग दिया है, उतना ही लोककलाओं के पनपने और फैलने में। यहाँ यह कहना भी उचित है कि लोकसंस्कृति भारतीय संस्कृति की जड़ है। जिस तरह जड़ पूरे वृक्ष और उसके हर अंग को अपने रस से पुष्ट करती है, उसी तरह लोकसंस्कृति से ही भारतीय संस्कृतिक पल्लवित, पुष्पित और फलित होती है। वस्तुतः लोकसंस्कृति राष्ट्र की अन्दरूनी शक्ति है, जो अन्दर-ही-अन्दर राष्ट्र को मजबूत करती है और अन्तर्राष्ट्रीय तत्त्व उसके लौह कवच को भेद नहीं पाते।

इसी तरह लोककला शास्त्राय कला की प्रेरणा शक्ति है। संगीतज्ञ लोकसंगीत को शास्त्राय संगीत का जनक मानते हैं। लोकचित्रों ने चित्राकला को हर बार नयापन, ताजगी और नई प्राणवत्ता दी है। लोकमूर्तियों से मूर्तिकला को प्रेरणा और नवीनता मिली है। इस रूप में, लोकसाहित्य, लोकसंस्कृति और लोककला को ही नहीं, वरन् संस्कृति और कला को भी पालता-पोसता और विकसित करता है।

अन्त में, एक महत्वपूर्ण बात आज के प्रजातन्त्रा में ग्राम और नगर के सम्बन्धों की स्थिति के विषय में है। ग्राम और जनपद भारतीय संस्कृति और कला की परम्पराओं को सहेजकर रखते रहे हैं, जबकि नगर और महानगर बाहरी संस्कृतियों के प्रभाव से संस्कृति और कला के मूल्यों को बदलते रहे हैं।

लोकतन्त्राय व्यवस्था में दोनों बराबरी के भागीदार हैं। वैसे बहुसंख्यक गाँवों की महत्ता अधिक होनी चाहिए, लेकिन चतुर अल्पसंख्यक नगर ही बाजी मार ले जाते हैं। आजादी मिलने के बाद उसका अधिकतर लाभ नगरों के खाते में जमा हुआ है। नगरों में साहित्य की संस्थाएँ हैं, केन्द्र हैं, साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं, और कई रूपों में सम्मानित करने वाले अभिजन हैं, इसलिए नगर का साहित्यकार अनेक सुअवसर पा जाता है और गाँव का उपेक्षित रहता है, इसी मानसिकता से प्रेरित गाँव का कालिदास नगर की ओर दौड़ता है, अथवा गाँव की चौपाल में ‘ईसुरी’ की तरह अपनी रचना गुनगुनाता हुआ कहता जाता है…।

‘गंगा जू लौं मरैं ईसुरी दाग बगौरा दइयौ।’ आखिर क्यों ? ईसुरी जैसे लोककवि को बगौरा गाँव गंगा जी से अधिक प्यारा क्यों था ? क्या वह या उसकी लोककविता राष्ट्रीय नहीं है ? क्या वह गाँव का कालिदास नहीं है? वह क्यों नगर की ओर दौड़े ? वह क्यों राजाश्रय के लोभ में गाँव को छोड़ दे ?

जब हमारे देश में पचहत्तर-अस्सी प्रतिशत गाँव हैं, तब गाँवों के लिए साहित्य की रचना होना अति आवश्यक है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है। यदि एक अंचल के लोकसाहित्य में जनपद व्यक्त होता है, तो सभी जनपदों के लोकसाहित्य में पूरा राष्ट्र। लोकसाहित्य राष्ट्रीय साहित्य है, राष्ट्र के साहित्य का अनिवार्य अंग। सच्चा राष्ट्रीय साहित्य वहीं है, जो लोक का हो, लोक को व्यक्त करता हो और लोक के लिए हो। फिर ऐसे राष्ट्रीय साहित्य की उपेक्षा क्यों ? लोककवि ईसुरी बगौरा में प्राण होम दे, और नगरों के कान में जूँ तक न रेंगे। क्या यही साहित्य का लोकतंत्र है?

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास - डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य - डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य - श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन - मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य - डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा - डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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