Lok Sahitya Parampara Aur Bundeli Bhajan लोक साहित्य परंपरा और बुन्देली भजन

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लोक का अभिप्राय सामान्य जन-जीवन से है। जन-जीवन के अंतर्गत जो भी आता है वह लोक की धरोहर बन जाता है। लोक परंपरा जन-जीवन के अनुभव गुंफित रहते हैं। बुन्देलखंड की Lok Sahitya Parampara Aur Bundeli Bhajan लोक जीवन का अंग है। लोक में हर अंचल की अपनी परम्परा होती है अपनी संस्कृति होती है और हर अंचल की आत्मा होती है। इसी आत्मा को जीवन मूल्य के सहारे आगे बढाते है और धरोहर के रूप में अगली पीढी  को सौंप दिये जाते हैं।

लोक की दृष्टि स्वच्छंद होने के बाद भी निश्छल होती। लोकमन आस्था और विश्वास के मार्ग पर आगे बढ़ता है। लोककंठ की गनगनार मनोवृत्तियों का परिष्कार करते हुए मनुष्य की संवेदनाओं को बचा सकता है। लोक  के साथ लोक जीवन है। यदि किसी अंचल की संस्कृति का सही इतिहास खोजना है, तो वह उसके लोकाचार में मिलेगा। लोक का इतिहास किंवदंतियों और जनश्रुतियों में ही पलता रहा। लोक जीवन की सरिता सुख और दुःख के दो किनारों के बीच निरंतर बहती रहती है। समूचा लोक, गतिशील होकर एकता की बानगी पेश करता है।

लोक-भजनों और लोकगीतों का जीवन से प्रगाढ़ रिश्ता है। लोक-भजनों की प्रेरणा का सीधा-सीधा संबंध अनुभूति से है और यह अनुभूतियाँ समाज में भावना, सरसता, करुणा और संवेदना की सृष्टि करती हैं। लोक भजन उपासना की एक पद्धति हैं। कबीर से लेकर वर्तमान तक यह परिपाटी चली आ रही है। 15वीं शताब्दी में कबीर ने लोक को केन्द्र में रखा। कबीर ने गुरु की महिमा के भजन गाये। ज्ञान की गंगा प्रवाहित की है। कबीर ज्ञान के कवि हैं। उनकी आत्मा परमात्मा से मिलने के लिये विह्वल है।
चिंतन ने कोई गीत लिखा या गजल कही,
उपजे हैं अपने आप ही दोहे कबीर के।।

कबीर ने साखियाँ लिखीं। दोहे लिखे। पद लिखे। तेरा मेरा मनुआँ कैसे इक होई रे कहकर पाखंडियों को चुनौती दी। वे चुनौतियों के कवि थे। ठसक के  रचनाकार थे। लोक के लिये उन्होंने जो भी लिखा वह अजर-अमर है। माता कागद छुऔ नहि, कलम गही न हाथ वाला समाज सधारक कुरीतियो आडम्मरों और विषमता के खिलाफ है। वह समाज में एकता और सद्भाव की सरिता प्रवाहित करना चाहता है। जगाना चाहता है।

‘सुनो भई साधो’ की आवाज लगाकर चेतावनी देता है। वह झीनी बीनी चंदरिया को बड़े जतन से ओढ़ता है और उसे मैली नहीं होने देना चाहता। दास कबीर जतन से’ ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चॅदरिया। कबीर के भजन सांसारिक मोह-माया में डूबे मनुष्यों को चेतावनी देते हैं। उनकी साखियाँ-गवाही बनकर प्रस्तुत होती हैं। कबीर के भजन आज भी अलाव पर खंजरी के साथ गाये जाते हैं। कबीर लोक के कवि हैं। आम-आदमी के कवि हैं। जीवन का यथार्थ बोध कराते हैं। सामयिक और प्रासंगिक हैं।

अरे हाँ रे बंदे दया तौ राखौ मन में।
दया-धरम और भजन बंदगी, राम जपाकर मन में।
काठ की नांव समुद में डारी, उतर जात पल छिन में।
कोंडी-कोंड़ी माया जोरी, जोर धरी बर्तन में।
सुख-सम्पत्ति सपने की माया, चली जात पल-छिन में।
कहत कबीर सुनौ भई साधौ, रै गई मन की मन में।।

कबीर ने इस तरह के बहुत भजन लिखे जो लोककंठों में आज भी सुरक्षित हैं। ‘बूढा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।’ कबीर के पुत्र का नाम कमाल था। इन्होंने भी भक्ति से सराबोर होकर जीवन की नश्वरता का बोध कराया है और ईश्वर की भक्ति और ध्यान में मन केन्द्रित करने के लिये कहा है

काये ना धुबाई चूनर, काये ना धुबाई रे।
बालापन की मैली चूनर, प्रथम दाग लग जाई रे।
अंत कपट के दाग न छूटे, धुबियन के फिर आई रे।
घूघट के पट खोल बहुरिया, करम रेख मिट जाई रे।
वृद्ध भये तन डोलन लागे, आयौ गमन नगचाई रे।
चालनहार खड़े दरबाजे, करनी कों पछताई रे।
कहत कमाल कबीर के बालक, दृग अंजन दै आई रे।
सत्त नाम की ओढ़ लै चूनर, चली अकेली जाई रे।।
काये ना धुबाई चूनर, काये ना धुबाई रे।।

कमाल ने आत्मा की शुद्धि पर जोर दिया है। हर अंचल के गीत और भजन अलग-अलग हैं। भजन का भाव व्यापक है। जहाँ आत्मा परमात्मा से तदाकार और एकाकार हो जाना चाहती है। लोक द्वारा मनोरंजन चुने जाने की प्रक्रिया सहज रूप से निरंतर गतिशील रहती है। लोक हमेशा युग-चेतना से प्रेरित होकर विकास करता है। भक्ति में समन्वय की व्यापक दृष्टि भी थी। भक्ति आंदोलन का केन्द्र ब्रज क्षेत्र था और ब्रज का रसिया बुंदेलखंड आया। इस अंचल में फाग की

एक अनोखी रीति है। काव्यत्व और संगीत का जितना सुंदर समन्वय फाग में दिखाई पड़ता है। उतना अन्यत्र नहीं। इनकी गायन शैली और निर्धारित लय का यह फागरूप निश्चित महत्त्वपूर्ण है। लोकधुनों की थोडी भिन्नता से स्वांग,ख्याल, रजपूती आदि फागें प्रचलित हो गई। राम रसिक भक्त वृषभानु कुंवरि की लोक कविता 1875 से 1906 के बीच नई लोरी की उद्घोषणाकरती है। रसिक भक्तों की कविता से जुड़ी है। रसिकता के कारण कृष्ण की क्या कहें  राम तक लंगर छैल हो गये।

इसी आंचलिक परम्परा में बुंदेली फागों और चौकड़ियों का अलग-अलग  चमत्कार है। चौकड़िया फाग-रूप इतना लोक-प्रिय हुआ कि गांव- गाँव में उसके स्वर गूंज उठे और लोक-मन में ऐसी हिलोर उठी कि का तन-मन सरबोर हो गया। ईसुरी, ख्यालीराम और गंगाधर व्यास लोक-प्रसिद्ध है।

ईसरी बंदेल-भूमि की अनमोल निधि हैं। ईसुरी का जन्म चैत्र सदी 10 1898 वि. को झाँसी मऊरानी पुर के निकट मेंड़की गाँव में हुआ था। इन्होंने आपने  काव्य में अपनी प्रेयसी के लिए ‘रजऊ का प्रयोग किया है। रजऊ का प्रेम राधामय हो गया था। ईसुरी शृंगार के रससिद्ध कवि के रूप में अमर रहें इनका कृतित्व सहजता, व्यंजकता, रसवत्ता और लोक-चेतना का रसायन है। ये भक्त या दार्शनिक नहीं बल्कि लोक भावनाओं में डूबे हुए सांसारिक व्यक्ति थे।

ईसुरी प्रणय भावों के सफल चितेरे थे। चौकड़िया का उद्भव ‘लाल फाग’ से हआ है। परम्परित होली और होली के लोकगीतों में नये प्राण फूंकने का श्रेय ईसुरी को ही है। उन्होंने चौकड़िया फाग का आविष्कार कर फाग की शैली में परिवर्तन ला दिया और फाग गायिकी को एक नया आयाम दिया। ईसुरी की फागों में भक्ति की भावना है जो लोक-मन में अपना स्थान बनाये हुए है। ईसुरी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि विविध विषयों की फागें लिखी हैं।

वे वृन्दावन में जाकर राधा-कृष्ण का भजन करने के लिए कहते हैं। बाल्यावस्था में ही ईसुरी के माता-पिता का देहावसान हो गया था। ईसुरी के मामा पं. भूधर नायक इन्हें लुहरगाँव कोनियाँ ले आये, जो वर्तमान में जिला छतरपुर के हरपालपुर के निकट हैं।

पं. भूधर नायक के कोई संतान नहीं थी अतः ईसरी को दत्तकपुत्र मानकर पाला-पोसा। नौगाव के निकट ग्राम सींगोन के पं. भोलानाथ मिश्र की पुत्री श्याम के साथ इनका विवाह हुआ। संयोग से उसी समय उनकी मामी ने पुत्र को जन्म दिया और उन्हें अपनी धर्म पत्नी के साथ ससुराल आकर रहना पड़ा। ग्राम धौर्रा के श्री जगजीत सिंह मुसाहिब जू ने बुलाकर ईसुरी को अपना कारिन्दा बना लिया। धौर्रा में ही उनका परिचय रजऊ से हुआ ।

हो गऔ संग हमारो तेरो,
प्यारी मुख न फेरो।
ईसुर जौ मन पूरी हो गऔ,
रजऊ तुमारौ चेरौ।।

ईसुरी के जीवन का अधिकांश भाग बगौरा में बीता। बगौरा के निकट ग्राम मचा में उन दिनों प्रसिद्ध राई गायक श्री धीरे पंडा से उनकी मित्रता हो गई। छतरपुर नरेश ने भी ईसुरी को आमंत्रित किया। चलते समय इन्होंने आशीष के रूप में छंद पढ़ा –‘तुमने राखे मान हमारे, हूँ हैं भले तुम्हारे। ‘मिथ्या नहीं कबिन की बानी, जिव्हा रहत भवानी। कुछ समय पश्चात् छतरपुर नरेश को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।

ईसुरी बगौरा से वृन्दावन चले गये। उन्होंने रजऊ के प्रति अपना प्रेम आदि शक्ति राधा को समर्पित कर दिया। जीवन से विरक्ति हो गई। वे बुंदेली के लोक कवि और जनकवि हैं। ईसुरी अपने कुलगत संस्कारों से परम वैष्णव हैं और भक्ति-भाव से ओत-प्रोत । दे प्रातः उठकर प्रभु का नाम स्मरण करते। प्रभावी गीत गाते । प्रान-पखेरू उड जाने की वास्तविकता से अच्छी तरह परिचित थे।

जिदना मन पंछी उड़ जानें, डरौ पींजरा रानें।
भाई ना जैहैं, बंद ना जैहैं, हंस अकेला जानें।
ई तन भीतर दस द्वारे हैं, की हो के कड़ जानें।
कैवे खों हो जै है ‘ईसुर’ ऐसे हते फलाने।।

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चल मन वृन्दावन में रइये, कृष्ण राधिका कइये।
झाडूदार होय गोकुल के गैलें साफ बनइये।
जे दुआरे देवतन खाँ दुरलभ, तिनें बुहारू दइये।
बचे-खुचे ब्रज जन के दूँका, माँग-माँग के खइये।
‘ईसुर’ कअत दरस के लाने, का का मजा दिखइये।।

कबीर के समान ईसुरी भी स्वर्ग को ससुराल समझते हैं। ‘इक दिन होत सबई कौ गौनों’। इसप्रकार हम देखते हैं कि फाग-साहित्य में लोकजीवन में आध्यात्मिक पक्ष उजागर होता है। लोक-गीत या मानव का उल्लासमय संगीत है। भावनाओं को व्यक्त करने के लिये विकृत आलाप ही लोक-गीत है। लोक-भजनों में भावों का अशेष भंडार है।

ईसुरी के पश्चात् लोक प्रियता में दूसरे स्थान पर कवि गंगाधर व्यास हैं। वि. 1899 में छतरपुर में हुआ था। सिर पर साफा, मिरजई से ढंका बदन, हल्के गुलाबी रंग की धोती तथा पैरों में बुंदेलखंडी पनहियाँ इनके प्रमुख प्रसाधन थे। मउरानीपुर निवासी बालमुकुंद दर्जी इनके गुरू थे व्यास शेर, ख्याल और फागें प्रचलित छंदों में लिखते थे। छतरपुर चरखारी, महोवा, बिजावर आदि नगरों में उनकी रचनाओं के मंडल थे।

गंगाधर और ईसुरी में बडी घनिष्टता थी, अतः गंगाधर प्रायः ईसुरी के यहाँ आया करते थे छोटे होने के कारण ईसुरी की पत्नी को वे भौजी कहा करते थे। छतरपुरनरेश विश्वनाथ सिंह जू देव इनका बड़ा सम्मान करते थे। गंगाधर बडे विनोद प्रिय व्यक्ति थे। लोक जीवन का प्रतिविम्ब उनकी काव्य-धारा मे प्रफुटित हुआ है। नटनागर कृष्ण की मनोहारी छवि देखकर गोपियाँ पनघटी गई। इसी भावना को लोककवि गंगाधर इस प्रकार व्यक्त करते हैं।

झाँकी देखी नागर नट की।
सुधि भूली पनघट की।
भाल विशाल तिलक केशर कौ,  दमकन मोर मुकुट की
आनन अमल कमल दल लोचन,  चितवन चंचल खटकी
अब नई और नजर में भावे, मन मोरे में अटकी,
गंगाधर मोहन में हम पै, अजब मोहनी पटकी,
झाँकी देखी नागर नट की।।

वहत्त्रयी के तीसरे कवि ख्यालीराम जी थे। ये ग्राम अकठोंहा, चरखारी निवासी श्री रामसहाय जी लोधी राजपूत क्षत्रिय के पुत्र थे। इनका जन्म वि. 1906 में तथा मृत्यु वि. 1961 में हुई। जनपदीय जनता के कंठ का हार बनी इनकी रचनायें विशेषकर फागें हैं। फाग साहित्य में इन्होंने श्रृंगार रस का पूर्ण परिपाक तो किया ही है। ये कठोर आलोचक भी थे। इनकी घनाक्षरी की रचनायें अधिक प्रौढ हैं।

राधिका जी के सौंदर्य के न्यायालय में कृष्ण का मन तीन सो बयासी दफा का मुलजिम बनकर बंदी हो जाता है। इनकी लगभग 100 फागें उपलब्ध हैं। तीन वस्तुयें बड़ी दुर्लभ हैं – मनुष्य होना, मोक्ष की इच्छा और महापुरुषों का सत्संग। ईसुरी ने ‘बखरी रैयत है भारे की फाग द्वारा शरीर की नश्वरता को लक्ष्य करके आसक्त न होने का संकेत किया है तथा ख्यालीराम जी ने ऐसे शरीर रूपी गृह पर अनुरक्ति न दिखलाकर कहते हैं कि ऐसे गृह में वास करने के लिए तो सुर, नर और मुनि भी लालायित रहते हैं। इनकी मौलिकता ने इनकी कविता की जनता के हृदय पर अलग छाप छोड़ी है।

ऊधौ मन मोहन ना आवें, निठुर भये सरसावें।
हमकों जोग, भोग कुब्जा कों, जा नई राय चलावें।
जबसें गये खबर ना भेजी, नई संदेश पठावें।
आपुन जाय द्वारका छाये, कुब्जा कंठ लगावें।
कवि ख्याली इतनी ब्रजवाला, मृगछाला को पावै ।।

 ‘पदमाल’ के रचयिता कवि कन्हरदास जी ने लोक साहित्य, लोक संगीत के माध्यम से मानव के लौकिक जीवन को पारलौकिक शक्ति से तादात्म्य स्थापित किया है। यह अनूठी कृति गोप क्षेत्र के इतिहास को गौरवान्वित करती है। कन्हरदास जी का जन्म 18वीं शताब्दी में ग्राम सेंथरी, तहसील भांडेर (ग्वालियर) में हुआ था। बचपन में गायें चराते थे। गाने में रुचि थी। उन्होंने भक्तिमय, संगीतात्मक पदों की रचना की है।

हरि बिन कौन करै हित मेरौ।
तुम बिन नाथ और नहिं कोई. सरन तकौं अब तेरौ।
भरमत जन्म व्यतीत गयौ है, कबहुँ मैं तुम हे रौं।
कन्हर कोई काम नहिं आवत, तातें समुझ सबेरौ।।

कन्हरदास ग्वालियर जनपद के अंतर्गत पिछोर क्षेत्र के यशस्वी भक्त एवं लोक-कवि हैं इनके पद गेय हैं। राधा-कृष्ण की लीलाओं के चित्र हृदय को आनंदित करते हैं। इनके पदों में लोक जीवन की आस्था है। चन्द्रसखी का लोक कवि के रूप में अपना विशेष स्थान है। सूरश्याम तिवारी ही चन्द्र सखी के नाम से लिखते थे। ये पुराना गंज, पठान पुरा राठ के निवासी थे। इनका जन्म वि. 1914 को हुआ था तथा मृत्यु 1973 वि. में हुई थी।

इन्होंने अपनी रचनाओं में राठ को राधापुर के नाम से अभिहित किया है। ये मोटी खादी पहिनते थे। इन्होंने अपनी रचनाओं में राठ को राधापुर या राधानगरी के नाम से अभिहित किया है। इनके पूर्वजों को बुंदेलखंड केशरी महाराजा छत्रसाल की ओर से तुलसीपुर (करगुवाँ) ग्राम लगा हुआ था।

सन् 1857 ई. की क्रांति के समय उस पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था। फिर भी इन्हें मुआवजे के रूप में राठ के खजाने से बारह आने रोज मिलते रहे हैं। ये संस्कृत के विद्वान, कर्मठ, ज्योतिषी और पुराणवक्ता थे। घर पर रहकर व्यापार भी कर लेते थे। काष्ठकला में पारंगत थे। इनकी बनाई हुई एक विशिष्ट बैलगाड़ी अभी सुरक्षित है जिस पर निकाले गये बेलबूटे बहुत सुंदर हैं। अभ्रक की दस्तकारी का काम तथा वस्तुकला में भी कुशल थे।

इन्होंने चारो धाम की यात्रा पैदल की थी। इनकी ‘मन आनंद करन फाग’ पुस्तक में सूरश्याम, चन्द्रराखी तथा जमुनादास के नाम की फागें संकलित हैं। ये सभी इन्हीं की रचनायें हैं। चन्द्रसखी नाम पर काफी लिखा जा चुका है। ‘सूरश्याम’ की सभी फागें श्रृंगार, भक्ति और शांत रस से ओत-प्रोत हैं। इनकी भाषा सरल, सुबोध और माधुर्य गुण से परिपूर्ण हैं। चन्द्रसखी स्त्री है या पुरुष? कोई अभी तक निश्चित रूप से नहीं कह सका।

विद्वानों ने इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि सूरे (सूरश्याम तिवारी थे। इन्होंने (1) अधर फाग (2) मन आनन्द करन फाग और (3)पाली तीन पुस्तकें लिखी हैं। ये रचनायें श्रृंगार, भक्ति और शांत रस से परिपूर्ण हैं।

सजनी हरि बिन फागुन फीके, हमें लगें ना नीके
लिख राखी विरहा की पाती, हाथ भेजिए की के।
उन बिन बाहर काटिए कैसें, रंज आपने जी के।

‘चन्दसखी’ आवें मन मोहन, स्याम लगनियाँ जी के चन्द्र सखी की झूलना की फागें भी प्रचलित हैं। खडीफाग लिखी हैं।
आये ना श्याम सखी द्वारे में ठाड़ी रई केसर घोरें।
कुमकुम वीर अबीर धरें रई. लाल गुलाबी रज जारें।
तरसत रई उनें तकवे कौं, नेह भरी दोऊ दृग कोरें।
करती भेंट गरे लग-लग के, जेई लालसा रई मोरें।
चन्द्रसखी मोहन से कइयो, प्रीति लगाकें ना टोरें।।

चन्द्रसखी लोक कवि हैं। सूरश्याम ने प्रायः अधर की फागें चन्द्रसखी के नाम से बनाई हैं। बहुत लम्बी परम्परा है लोक कवियों की। इसी क्रम में राधेश्याम रामायण के रचनाकार पं. राधेश्याम जी का नाम लोक में रचा-बसा है। 18वीं सदी के मध्य में राधेश्याम जी मथुरा के पास किसी गाँव में पैदा हुये थे। इन्होंने खडी बोली ब्रजभाषा में लोक में लय के साथ प्रभाव डालने एवं समझने की दृष्टि से रामायण लिखी और लोक की पसंद के भजन लिखे।

ये ब्राह्मण थे। अवधी का प्रभाव तुलसीकृत रामायण में था। बुंदेलखंड, ब्रज और उत्तर प्रदेश की जनता के लिये लोक की भाषा में अमूल्य निधि प्रदान की। आज भी भजन मंडलियों में इनके भजन गाये जाते हैं। भाषा सरल एवं प्रभावपूर्ण है। लंगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व राधेश्याम जी नौटंकियों में ढोलक बजाते थे। रामलीला में ढोलक बजाने का प्रभाव यह हुआ कि उनके भीतर का कवि सीधी-सरल भाषा में आमजन के लिए लोक की कविता लिखकर अमर हो गया।

कैसे बैठे हौ आलस में, तुमसें राम कही न जाय।
भोर भयौ मुख मल-मल धोयौ, दिन चढ़ते ही उदर टटोरौ,
बातन-बातन सब दिन खोयौ, साँझ भई पलका पै सोयौ,
सोबत-सोबत उमर बीत गई. काल सीस मंडराय,
लख चौरासी भरम गंवायौ, बड़े भाग मानुष तन पायो,
अबकी भूल न जाना भाई, लुट ना पावै नहीं कमाई।
‘राधेश्याम’ समय फिर ऐसा, बार-बार नई पाई।।


इसी प्रकार राधेश्याम जी का यह भजन, भजन मंडलियों में गाया जाता है…


निर्बल के प्राण पुकार रहे, जगदीश हरे, जगदीश हरे।
श्वासों के सुर झनकार रहे, जगदीश हरे, जगदीश हरे।।
जब दया दृष्टि हो जाती है, जल्दी खेती हरियाती है।
इस आस में जन उच्चार रहे, जगदीश हरे, जगदीश हरे।
तुम हो करुणा के धाम सदा,
सेवक है राधेश्याम सदा,
बस इतना तुम्हें विचार रहे, जगदीश हरे, जगदीश हरे।

भक्ति की यह अविरल धारा हर अंचल में प्रवाहित होती रही है। भक्ति का भाव, भजनों के द्वारा लोक में समाया हुआ है। हर लोक कवि की अपनी निजता है पहचान है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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