बुन्देली फाग साहित्य के शलाका पुरूष खेत सिंह यादव “राकेश” Khet Singh Yadav का जन्म सन् 1907 ई0 में हमीरपुर जनपद के (वर्तमान महोबा) कस्बा कुलपहाड़ में हुआ था । आपके पिता श्री देवीप्रसाद यादव थे, जो पेशे से किसान थे। आपने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने चाचा श्री दुलीचन्द्र यादव के सानिध्य में घर पर रहकर ग्रहण की।
कालान्तर में चाचा श्री दुलीचन्द्र यादव के गिरमिटिया मजदूर के रूप में फिजी द्वीप समूह चले जाने से खेत सिंह की प्रारम्भिक शिक्षा छूट गई और खेती-वाड़ी के काम में लग गये। चाचा पत्राचार से पढ़ाई हाल-चाल पूछते रहे, उन्हें मालूम पड़ा कि पढ़ाई छूट गई है। यह जानकर उन्हें बहुत दुख हुआ, और आगे की पढ़ाई जारी रखने को प्रेरित किया ।
इस तरह आपने चाचा श्री दुलीचन्द्र यादव की प्रेरणा से हिन्दी व उर्दू में मीडिल तक ऑपचारिक शिक्षा ग्रहण की। आपके साहित्यिक गुरूओं में महोबा जिले के ग्राम श्रीनगर के पं०शिवराम जी “रमेश” तथा कुलपहाड़ के सुकवि पं०चतुर्भुज पारासर “चतुरेश” जी रहे। आपको काव्य सम्बन्धी ज्ञान पं०चतुर्भुज पारासर “चतुरेश” जी से ही प्राप्त हुआ।
फाग राग में आपकी विशेष रूचि रही । आप एक बहुत अच्छे चित्रकार भी थे। कवि के रूप में आपने अपना उपनाम “राकेश” रख लिया था । आपने अपने यौवनकाल में 10-11 वर्ष अध्यापन का कार्य किया, इसलिए इन्हें लोग खेत सिंह मुंशी जी भी कहते थे। आप इसी नाम से क्षेत्र में चर्चित थे। तदोपरान्त आप हमीरपुर महोबा सहकारी बैंक लि. महोबा की शाखा में 29 वर्ष तक सहायक सुपरवाइजर रहे । सेवा मुक्त होने पर आप अपनी मातृभूमि कुलपहाड़ में रहकर काव्य सृजन और समाज सेवा में रत रहे। आपका जीवन सादगी भरा रहा, किन्तु सार्वजनिक जीवन के विभिन्न क्षेत्र में विचार सदैव उत्कृष्ट रहे ।
“राकेश जी” का महाप्रयाण 17 अगस्त सन् 1992 में हुआ, और यह संयोग देखिये कि उनके जीवित होने के पूर्व उन्हें रीवा विश्वविद्यालय (महाराजा डिग्री कॉलेज, छतरपुर) खेत सिंह “राकेश” एवं उनका बुन्देली फाग साहित्य पर शोध (शोधार्थी भरत पाठक, ग्रामोदय वि०वि० चित्रकूट) सम्पादित होने की सूचना प्राप्त हो गई थी।
साहित्यिक अवदान श्री खेत सिंह यादव ” राकेश” जी विशाल साहित्यिक फलक पर प्रकाश डालने पर मै स्वतः को बहुत वौना अनुभव करता हॅू और मुझे “मानस” की अर्द्धाली – “सो मैं कुमति कहहुँ कोई भाँति बाज सुराग कि गाँडर ताँति” का स्मरण हो आता है।
लोक कवि “राकेश” जी का रचना – संसार बहुत विस्तृत, वैविध्यपूर्ण, बहुरंगी तथा लोक हितकारी है । आपके काव्य का भावपक्ष राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत है, उन्होंने भारत माता की अनुपम छवि प्रस्तुत की है
“ऐसी कहूँ न सुन्दर झाँकी, जैसी भारत माँ की ।
गंगा जमुना जिसमें बहती, अस है भूमि कहाँ की ।
त्रिभुवन में छवि जा ना पाहौ, परम मनोहर बाँकी ।
‘खेत सिंह’ हरि हरदम प्रकटे, राखी सुरत जहाँ की ।।
जा है भारत भूमि हमारी, जो सब जग से न्यारी ।
संसारी की बात करै को, हमें स्वर्ग से प्यारी ।
प्राण निछावर इसके ऊपर, कर हैं बारम्बारी ।
‘खेतसिंह’ जो छल से तकहै, जै है आँख निकारी ।।
वे देश में व्याप्त रिश्वतखोरी से विपन्न लोगों की समस्या का समाधान न हो पाने के कारण क्षुब्ध हैं।
ऐसे विरले लोग दिखाते, रिश्वत जो न खाते।
जहाँ काऊ से पाओ न कुछ, उनको दूर भगाते
तासे देखो निरधन जन के, काम नहीं हो पाते।
‘खेतसिंह’ जो दशा देश की साँची तुम्हें सुनाते।
आपने दहेज प्रथा का प्रबल विरोध किया-
टेक– लजयात नैयाँ लड़का वाले व्याह करत ठहराकें ।
छन्द– लड़का वाले ना लजयावें, आधी जीभन से कतरातें
मुख से भारी रकम मँगावें
खेतसिंह वौ बिटिया वालौ धरत मूँड़ औंदा कें ।
लजयात नैयाँ..
उन्होंने दहेज के कारण लड़कियों की आत्महत्या, माता-पिता की विवशता, बाल-विवाह करने की मजबूरी का मार्मिक चित्रण किया है। उनके काव्य में सामाजिकता और भारतीय संस्कृति के प्रति अटूट निष्ठा दिखती है । वे परिवारों को बचाने के लिए मदिरा पान का प्रबल विरोध करते हैं, तथा मदिरापान से होने वाली हानि से अवगत कराते हुए कहते हैं-
मदिरा सब औगुण की खानी पीते नर अज्ञानी ।
बिना मौत के वे मर जाते, पी पी विष कौ पानी ।
लाज शरम ना रहै रत्ती भर मान घटै धन हानी ।
‘खेतसिंह’ जो मानत नैंयाँ, दशा होत मनमानी ।
हरे कड़ी आधी-आधी लिखी गई, सीधी फिर उल्टी पढ़िये-
मदिरा ना पीना, नाली जा
पीतम घी खा, ना जीखा
जीवन ना खो, नाशी जा
बन ‘राकेशा’ ना बीखै ।।
उक्त फाग गाने में इस प्रकार है
मदिरा ना पीना ना पीना, नाली जा जाली ना ।
पीतम घी खा, खा घी मत पी, ना जीखा खाजी ना ।
जीवन ना खो, खोना नव जी, नाशी जा जासी ना ।
बन ‘राकेशा’ सा केरा नब, ना बीखै खैबीना ।।
आपने मृत्युभोज का भी विरोध किया है। उनकी अनेक रचनाओं में फैशन परस्ती को पर व्यंग्य किए गए हैं :-
ओठन में लाली लगी, लख होवे आभास ।
अधरन ऊपर आनके, फूलो मनौं पलास ।।
आँखन में चश्मा लगो, नइ उम्मर के छैल ।
गलियन में घूमत फिरैं, कोल्हू कैसे बैल।।
कवि ‘राकेश’ जी ने देश के नव जवानों को कर्मण्य बनाने की शिक्षा दी है। आपने मधुमक्खी से प्रेरणा लेकर महनत कश बनने की सलाह देते हुए लिखा है।
“मानो कहीं बनो कर्तव्यी ध्यान लगाकर ईश्वर में,
मगन रहौ तुम ‘खेतसिंह’ नित विजय माल फिर है कर में।”
आपने मँहगाई, चुनाव में कड़वाहट, राजनेताओं के झूठे वादे, समाज में फैले ऊँच – नीच के भाव, गौबध का विरोध चीन की मक्कारी और पाकिस्तान की आतंकवादी नीति पर खुलकर अपनी लेखनी चलाई। आपकी रचनायें भक्तिभाव और संस्कृति प्रेम से ओत-प्रोत हैं। आपकी रचनाओं में भक्तिरस, श्रृंगार रस, वीर रस का सांगोपांग चित्रण हुआ है
सीताराम नाम मन भजले, आशा तिसना तज ले ।
जा रज से तरह गई अहिल्या, उन चरनों की रज ले ।।
दस इंद्रिन के दश दरवाजे, इसी साज में सज ले।
कवि ‘राकेश’ सुरत कौ बाजौ, प्रेमराग मं बज ले ।।
आपने अपनी अधिकांश रचनाओं में श्रीगणेश जी सरस्वती जी, दुर्गा, महेश, राम-श्याम, गंगा आदि पवित्र नदियों के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रगट की तथा मानव को शरीर की नश्वरता की चेतावनी देते हुए ईश आराधना के लिए प्रेरित किया-
इक दिन परै सबहि कौ जाने, घर फिर वही पुरानें ।
जितने दिन को जो कोउ आओ, उतने ही दिन रानें।।”
तिल भर घटने बढ़ने नइयाँ, लिखो जौन विधना नें ।
‘खेतसिंह’ है जी के जैसे, कर्मन के फल पाने ।।
खेत सिंह यादव ” राकेश’ की प्रमुख रचनायें
फाग सिंह दहाड़ भाग -1 व भाग – 2, श्याम बिछरन (छै: ऋतुओं में) वीर अभिमन्यु समर, जयद्रथ वध, लवकुश समर, सती – सुलोचना, लंका समर, सीता समर, मनभावन (सुबोध चौकड़ियाँ), मोहन की मुरली, राजा हरिश्चन्द्र ( सैर में) वाणी का बाण के अतिरिक्त आपने कीर्तन, ख्याल व गारी में भी अनेक रचनायें की हैं। इनमें – राकेश किरण (छः भाग), गारी सुमन कली (तीन भाग) ख्याल राकेश प्रकाश (तीन भाग ) ।
आपकी युद्ध वाली रचनाएं खण्ड काव्य हैं, तथा वीर रस से युक्त है । फाग सिंहदहाड में अनेक रसों व रंगो की विविधता देखने को मिलती है।
कवि राकेश जी पिंगल शास्त्र के उद्भट विद्वान थे, इसलिए आपकी रचनाओं का कलापक्ष विविध छन्दों जिनमें चौकड़िया, लावनी, दोहा, सोरठा, कुण्डलिया, ख्याल आदि का सफल प्रयोग हुआ है।
आपकी भाषा में सर्वत्र प्रवाह व सौष्ठव विद्यमान हैं । आपने बुन्देली, ब्रज, अवधी, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया है, उनके बारहमासा में हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी का सुन्दर प्रयोग देखने को मिलता है । जहां आपने ईश्वर के अनेक नाम तथा पर्यायवाची शब्दों की रचना की है, वहाँ भाषा में संस्कृत निष्ठता विद्यमान है । आपने अपनी रचनाओं में विविध शैलियों का प्रयोग किया है। पशु-पक्षी, वस्त्रों के नाम, जातियों के नाम आदि में नाम- परिगणनात्मक शैली और मानवीकरण का प्रयोग हुआ है—
दोहा- सोना से लोहा कहत, तें नहिं मोर समान ।
या विघ दोनों बीच में, झगड़ा बड़ों महान ।
सैर – गुस्सा में होये सोना, जब बोला बानी ।
सुनवे गवार तेरी क्या अकल हिरानी।।
दमरी में बिकत सूज करै, मोरी सानी ।
जैसी है कदर मोरी ना तोरी जानी।।
टेक– धन्य भाग जो मोरे भूषण, पहरत हैं नर नारी ।।
लावनी- भरी सभा में सोहत बैठे गुंज गोफ को डार गरें ।
नर नारी की कौन चलावै, शीश मुकट भगवान धरें ।।
लोहा बोला कहा होत है, अपने मुँह तारीफ करें।
मोरे डर से तोरे भूषण कौने आँतर गड़े सरें ।।
मोटर गाड़ी रेल जहाज, तामें नँग-सँग मोरी साज ।
मोबिन चलै न एकऊ काज जग के यारौ ।।
उड़ान–झगड़ा देखत बोले आकें, चक्र सुदर्शन धारी ।
सौंना लोहा दोई बराबर, प्यारे हैं, मोय भारी ।।
श्री राकेश जी’ स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत काव्य का सुजन किया। जिसमें “प्यारा बापू,” प्रमुख है।
बापू हमें दृगन में झूले, निस वासर न भूलें ।
जुग के देव सुधारक जग के, आती उन बिन शूलें ।।
विद्वानों में साहस नहिं जो, आकर उनसे फूलें ।
‘खेतसिंह’ परदेशी चाहों, कबै चरन हम छूलें ।।
आपने अपनी लेखनी के माध्यम् से लोक जीवन के किसी पक्ष को नहीं छोड़ा। मानव शरीर संरचना बारे में एक जगह लिखते हैं।
दोहा– शारीरिक विज्ञान की सुन लो कथा सुजान।
नई कथनी कथकें कहों, दंगल के दरम्यान ।।
दंगल के बीच गाते अब कथा हुनर की,
क्यों न बढ़ाई करते करतार सुगर की,
धन-धन है कला देखों, उस कारीगर की,
रचना विचित्र कर दई, जिन दुनियाँ भर की,
दो सौ छै: हड्डी हैं तन में, नर के सब अंगन में,
दीजे न नर अंगन पै ध्यान, जे है डॉक्टरी विज्ञान,
गिन-गिन हड्डी करौं बखान, जॉ हैं जितनी हड्डी
आपकी अनेक रचनाओं में इति वृत्तात्मक तथा उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया गया है—
बालक सुधरें बालापन सें, जान लेओ जा मन सें,
पहलौ गुरू मतारी उनकी, सिखा देत बातन सें,
वीर बनावै चाहै कायर, चाहै भरै गुनन सें,
“खेतसिंह” न देखे पढ़तन, बूढ़े सुआ सुजन सें ।
आपकी रचनाओं में ग्रह, नक्षत्र, तिथि वार के वर्णन में ज्योतिष के चूणान्त ज्ञान, का परिचय मिलता है। छः ऋतुओं, बारह राशियों का तथा हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, महीनों का पांडित्यपूर्ण चित्रण किया गया है ।
आपकी रचनाओं में, अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, उदाहरण, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति, विरोधाभाष आदि अलंकारों का यथा स्थान प्रयोग हुआ है-
कवि ‘राकेश जी’ बहुज्ञ थे, संस्कृतिनिष्ठ थे, तथा आशु कवि के रूप में फड़ साहित्य में चमत्कारपूर्ण तथा चुनौती देती रचनाओं का भी प्रयोग करते थे। उनकी रचनाओं में विविध विधाओं का सफल प्रयोग हुआ है ।
राधेलाल यादव, सेवा निवृत्त प्रवक्ता (हिन्दी) कुलपहाड़ जिला – महोबा ( उ०प्र०)