Kavi Tattu Das कवि टट्टू दास

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Kavi Tattu Das का जन्म ललितपुर जिले के ग्राम भोंड़ी में हुआ। इनका जन्म सन् व तिथि ज्ञात नहीं हो सकी है। ये जन्मांध किन्तु प्रतिभाशाली थे। महादेव प्रसाद इनके चाचा थे जिन्होंने इनका लालन पालन किया। इनके एक चाचा ग्याप्रसाद कायस्थ लम्बरदार के मुख्तयार थे। इनकी रचनायें भक्ति विनोद’ तथा विरह व विनय के पद अप्रकाशित हैं। इनका निधन विक्रम संवत् 1932 मे हुआ।

राम  और श्याम के रंगों मे रंगे  कवि श्री टट्टू दास

रागश्री
इन मोह लिया नर नारी प्यारी चितवन में सुख भारी।
कोमल

हँसन दसन शशि की कृण कोट काम छवि हारी।।

बिच बिच पुष्प अड़े जुलफन में देख रहे फुलवारी।
रूप अनूप देख सुध बिसरी मोही जनक दुलारी।।

टट्टू दास गिरजै सिया बिन वन जे अभिलाष हमारी।।

कवि श्री राम के पुष्प वाटिका भ्रमण के समय का सौन्दर्य वर्णन करते हुए कहते हैं कि इन्होंने अपनी मनोहर चितवन से समस्त स्त्री पुरुषों का मन मोहित कर लिया है। इनकी मधुर मुस्कान के सामने चन्द्रमा की करोड़ों किरणों की छवि पराजित हैं।

ये वाटिका का निरीक्षण कर रहे हैं इनके बालों में पुष्प फँसे हुए हैं। ऐसा अनुपम सौन्दर्य देखकर जनकसुता सीता अपनी सुध-बुध खोकर मोहित हो जाती है। कवि टट्टू दास कहते हैं कि माँ गिरजा से सीता वर के रूप में इन्हें पाने की प्रार्थना करती हैं।

दादरा
रघुवर हेती बनी नहि मोसैं।
कोटन जन्म नाथ बिन कड़ गऐ विनती करत बनत नहिं तोसैं।

अब तेरे सरना गत आयौ कर देव छार अनेकन दोसैं।
सुख दुख नहिं चाहत मन मेरौ केवल चित्त लगै चरनों सैं।।

प्रभु पद रस अमृत सागर बिन बुझत न प्यास बूंद की ओसैं।
टट्टूदास अपराध क्षमाकर गहिये बाँह बने हरि पोसैं।।

कवि निवेदन करता हुआ कहता है कि हे राघव! मुझसे आपकी भक्ति करते नहीं बनी। मेरे हजारों जन्म निकल गए किन्तु मुझे विनती करना नहीं आ पाया। अब मैं आपकी शरण में आ गया हूँ अतः मेरे समस्त दोषों का क्षरण कर दीजिए। मैं सुख-दुख न मांगते हुए केवल यह चाहता हूँ कि मेरा मन आपके चरणों में लगा रहे। प्रभु के चरण कमलों से निसृत अमृत के सागर बिना प्यास बूंदों से नहीं बुझती है। कवि टट्टूदास कहते हैं कि मेरे समस्त अपराधों को क्षमा करके मेरा हाथ पकड़कर पोषित कीजिए।

हरी मेरौ मन समझा दियौ शांत करौ जिया मोर।
राम बरन दोउ सावन भादों वेद घटा घन घोर।।

बरषा भक्ति दास के ऊपर सुख उपजै चहुँ ओर।
काम क्रोध अरु लोभ मोह दुख जे बड़ कर रए सोर।।

अर्क जबास समान तकौ प्रभु इनकौं डारौ टोर।
चरन कमल सों प्रीत लगा देव जैसें चन्द चकोर।।

इतनी अरज सुनौ करुणा निध भव नहिं आऊं बहोर।
मैं अनाथ तुम नाथ जगत के चाहत तुमसे डोर।

टट्टू दास सरनागत आयौ सुनियौ श्रवन किरोर।।

कवि कहता है कि भगवन् ने मेरे मन को समझा दिया है जिससे मेरा अशांत हृदय शांत हो गया है। राम जैसे श्यामल ये श्रावण-भाद्रपद हैं जिसमें वेदों की घनघोर घटायें हैं। इस सेवक पर भक्ति की वर्षा कर दी है। जिससे चारों ओर सुख ही सुख उत्पन्न हो गया है। काम, क्रोध, लोभ और मोह ये दुख भी शोरगुल कर रहे हैं।

हे प्रभु ! आक व जवासा के पौधे के समान हे प्रभु! इनको भक्ति वर्षा से नष्ट कर दीजिए। जिस प्रकार चकोर चन्द्रमा को निहारता रहता है वैसे ही आपके चरणों में मेरी प्रीति लगी रहे, ऐसी कृपा करिये। हे करुणानिधान ! मेरी इतनी विनती सुनिये कि मैं अनाथ हूँ और आप संसार के स्वामी हैं, इसलिए इस भवसागर में न पड़ा रहूँ। टट्टू दास कहते हैं कि मैं आपके शरणागत आ गया हूँ, मेरी विनती सुनिये।

हरी तुय रीत कहां गइ दीनन पक्ष करी।
जब तौ घनै घनै जन तारे अब का भूल परी।।

जब तौ वेद मृजाद बड़ाई अब काये सुध बिसरी।।
जब तौ दासन मान बड़ायौ अब मत कौनै हरी।

टट्टूदास चाहत अन पायन भगत सप्रेम भरी।।

हे प्रभु! दीनों के पक्ष करने वाली आपकी रीति कहाँ गायब हो गई है? पहले तो आपने जल्दी-जल्दी भक्तों को मुक्ति प्रदान की अब कहाँ भूल पड़ गई है? पहले तो आपने वेदों की मर्यादा में वृद्धि की अब उसको क्यों विस्मृत कर दिया है? पहले तो आपने अपने सेवकों को सम्मान दिया अब किसने आपकी मति का हरण कर लिया है। टट्टू दास कहते हैं कि मैं पैरों में भक्तिपूर्ण भाव से पड़े रहने की इच्छा माँगता हूँ।

होली
आज सखी नंद जू के द्वारैं होरी रूप धरेरी।
सुभग चाँदनी प्रीत बसन की मुतियन कोर भरे री।।

रेशम सरद खंभ कंचन के चहु दिस बाग लगेरी।
फूल बहु रंग रँगेरी।। आज सखी…………।।

नर अरु नारि हरष उठ धाये देव सुरग उतरे री।
कृष्ण सिंहासन सुख की आसन कोटन भान लजेरी।
कौन सुख जात कहेरी।। आज सखी…………।।

बजत मृदंग मुचंग सताउर और मंजीरन जोरी।
किंनर गान करत सातई सुर गंधर्व नाच नचेरी।।
सुमन बहु बरष रहेरी।। आज सखी…………।।

घलत अबीर कुमकुमा छूटत लाल गुलालन झोरी।
कनक पिचक श्री कृष्ण लियें कर मारत सखिन नबेरी।।
काम जन बान घलेरी।। आज सखी…………।।

ललता बिरजा आदि राधिका प्रेम अंग उमगेरी।
टट्टूदास जन बहत जात मग शंभु बिरंच ठगेरी।
श्याम के चरन गहेरी।। आज सखी…………

हे सखी! आज नन्दबाबा के दरवाजे में होली हो रही है। सौन्दर्ययुक्त ज्योत्सना में पीताम्बर धारण कर मोतियों की माला धारण किए हैं। सोने के खंभे लगे हैं और चारों ओर उद्यान है, जिसमें विभिन्न रंगों के फूल है। नर-नारी इसे देखने के लिए एकत्र हो गए हैं, उन्हें लगता है कि साक्षात् स्वर्ग यहाँ अवतरित हो गया है।

कृष्ण सिंहासन पर सुख पूर्ण बैठे हैं उनके सौन्दर्य को देख हजारों सूर्य लज्जित हो रहे हैं। इस सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता है। मृदंग, मुचंग, सताउर, मंजीरा वाद्य यंत्र बज रहे हैं तथा सातों स्वरों में किन्नर गान कर रहे हैं एवं देव-गंधर्व नृत्य कर रहे हैं । पुष्प वर्षा के बीच एक दूसरे पर लोग झोलियों में अबीर व गुलाल लेकर एक दूसरे पर फेंक रहे हैं ।

सोने की पिचकारी श्रीकृष्ण अपने हाथ में लेकर कुछ सखियों पर रंग डाल रहे हैं जिससे उन्हें लगता है कि ये रंग की धार काम के तीर हैं। ललिता, बिरजा और राधिका प्रेमयुक्त होली खेल रही हैं। टट्टूदास कहते हैं कि जनसमुदाय इस होली को देखने भागा जा रहा है। शिव और ब्रह्मा भी यह दृश्य देखकर आश्चर्य चकित रहकर श्याम के चरणों को गह लेते हैं।

जगत कौ रंग मतवारौ रग भीनी न करौ।
लोक महानद लगत सुहावन ता बिच जीब परौ।

करत किलोल खबर नहिं तन की प्रभु के कर सुधरौ।।
चरन पराग अबीर गुलालै प्रैम कौ राग भरौ।

मनसा बाचा ध्यान सुरत में भक्ति कौ रंग झरौ।।
इतने रंग पिचक मैं भर कैं मोह झपट पकरौ।

अरस परस फिर फाग बनत है तौ हिया सैं लगरौ।।
आसा लाग रही मेरे मन स्वामी बेग ढुरौ।

टट्टूदास भवफन्द निवारौ तुमरे शरन डरौ।।

इस संसार का रंग मतवाला है इसमें अपने को न डुबोओ। संसार रूपी महानद के बीच अच्छा लगता है उसी में जीव पड़ा है। इसी में वह क्रीड़ायें करके मस्त रहता है उसे तन की सुध नहीं रहती वह प्रभु के हाथ से ही सुधर सकता है। चरणों में अनुराग रूपी अबीर-गुलाल लेकर, प्रेम का राग भरकर मन वाणी से भक्ति का रंग लेकर, मोह को झपटकर पकड़ लेना चाहिए।

इस प्रकार से भक्ति की फाग बनती है तो हृदय से लगकर ईश्वर से मिलन की आशा लेकर तेजी से चलना चाहिए। कवि टट्टू दास कहते हैं कि हे प्रभु!, हमें इस संसार के जाल से निकालिए। मैं आपकी शरण में पड़ा हूँ।

जनिक लली के संइयां हमरी खबर नै बिसरै गुंइयां।
छिन दिन मास वरष कल्पन लग नाथ गहैं खो बईयाँ।

भूख न दिवस नींद नहिं जामिन सुनी कै नाथ जिवइयां।
दिल की आस भईं नहिं पूरन कल्प वृक्ष की छइयां।

अब श्री कृष्ण चन्द्र तन धरकैं द्वापर जुग के मइयां।।
टट्टूदास जोइ जोई मन भावै सोइ सोई अंतर नइयां।।

हे जनकसुता के प्रियतम राम ! हमारी सुध न विस्मृत कर देना। क्षण, दिवस, मास, वर्ष और कल्पों तक मैं आपकी बांह पकड़े रहूँगा। जब से यह सुना है कि स्वामी आप ही जीवनाधार हैं तभी से दिन में न भूख लगती है और न रात्रि में निद्रा आती है। मेरे हृदय की आशा कल्पवृक्ष की छाया में पूर्ण नहीं हुई। अब द्वापर युग में श्रीकृष्ण का शरीर धारण कर आप प्रकट होंगे। कवि टट्टूदास कहते हैं कि आपके मन को जो-जो अच्छा लगेगा, मैं वही-वही करूँगा।

दादरा
ब्रह्मसखी आज होरिल राजा दशरथ ग्रह प्रगट भए।
महलन चलौ देख लो द्रग भर जिनके रंग शिव छाक रहे।

कोट मदन सस रबि तन लाजत ऐसे और ना जेहि भये।।
रूप अनूप सेष श्रुत शारद वर्णन वर्णन थाक रहे।

टट्टूदास तिहु लोक मोद भये असुरन के आनन्द गये।।

ब्रह्म सखी री ! आज अयोध्या के राजा दशरथ के घर भगवन् प्रकट हुए हैं। महलों में चलकर दृष्टिभर उन्हें देख लो, वहीं शिव भी उनके रूप को निहार रहे हैं। हजारों कामदेव, चन्द्रमा व सूर्य की शोभा इनके सामने लज्जित है। इस अनुपम रूप का वर्णन करते हुए शेषनाग, वेद-पुराण व स्वयं सरस्वती वर्णन करते हुए थक गई हैं। कवि टट्टू दास कहते हैं कि तीनों लोकों में प्रसन्नता का वातावरण निर्मित हो, राक्षसों का आनन्द गायब हो गया है।

घायल कर दईं रंगीलीं अँखियन।
अधिक प्यारीं हैं रतनारी सो हन मारीं छतियंन।

रूप अपार मार छवि कोटन तन सुध विसरी सखियन।
ठांड़ीं सकल कनक पुतरी सीं लेतीं दरस अगुठियन।।

देख प्रीति बोलें रघुनन्दन बसहु हमारी कठियन।।
टट्टूदास हम तुम संग खैलैं धरहि मोर की पँखियन।।

इन रंगीली (प्रेम के रंग से युक्त) आँखों से इन्होंने घायल कर दिया है। वे आँखें जो लालिमायुक्त हैं उनसे उन्होंने मेरे हृदय को वेध दिया है। असंख्य कामदेव की शोभा से युक्त उनके रूप को देखकर सखियों को अपने तन और मन का होश नहीं रहा। वे उनके दर्शन करके सोने की पुतलियों जैसी क्रियाहीन हो रही है। ऐसी प्रीति देखकर राम ने कहा कि हमारी माला (कठियन) में मोती बनकर बस जाओ। कवि टट्टूदास कहते हैं कि राम कहते हैं कि हम तुम सभी द्वापर में मोर पंख धारण कर संग खेलकर रास रचायेंगे।

जनक लली के सइंयाँ हमरी खबर न बिसरै गुइयां।।
छिन दिन मास बरष कल्पन लग नाथ गहैं रहु बइयां।

हुकुम भयौ सो खबर न बिसरै हैं तुय शरण गुसइयां।
करनीदार नहीं कछु स्वामी जियरा मानत नइयां।

दीन जान प्रभु कृपा करौ अब दुख न कल्प तरु छइयां।
टट्टू दास जिन करहु उदासी प्रनत अनेक सहइयां।।

हे जनकसुता के पति राम! मेरी सुध न बिसार देना। मैं क्षण, दिन, मास वर्ष तथा कल्पों तक आपकी बाँह पकड़े रहा हूँ। आपका आदेश शिरोधार्य रहेगा, मैं आपको कभी विस्मृत नहीं कर सकता। मैं किसी काम का नहीं हूँ फिर भी मेरा मन मानता नहीं है। मुझको असहाय व गरीब समझकर प्रभु कृपा कीजिए और मुझे कल्पतरु की छाया में बुला लीजिये जिससे दुख समाप्त हो जाए। कवि टट्टूदास कहते हैं कि मेरी उदासी को बिना देरी किए आप दूर कीजिए।

सुन्दर भीनी रात रे आबै लाड़ीला बानरा।
अब जिन कोऊ अलस्यावो सखी री लागी सजन बरात रे।

घंटा ध्वनि जांगड़ा अलापत बाज बहुत हिननात रे।।
मधुर मधुर फूलन की बरषा होन लगी शिव साख रे।

नभ अरु नगर कुलाहल भारी विश्नु सहित सुर साथ रे।
चारहिं भ्रात तुरंगन ऊपर कोटन काम लजात रे।

टट्टूदास छवि देख मगन भईं घर अगना न सुहात रे।।
(सभी छन्द श्री हरिविष्णु अवस्थी के सौजन्य से)

कवि राम के दूल्हा बनने का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे सखी ! देखो कितनी सुन्दर रस भरी रात है, आज का दूल्हा कितना प्यारा है। अब तुम लोग आलस मत करो, देखो बारात सजने लगी है। घंटों व जांगड़ां (वाद्य यंत्र) की मधुर ध्वनियाँ निकल रही हैं तथा घोड़े हिनहिना रहे हैं। आकाश से पुष्प वर्षा हो रही है।

इसके साथ साक्षात् शिव हैं। आकाश व नगर में भारी शोरगुल हो रहा है। यहाँ विष्णु साक्षात् देवताओं के साथ पधारे हैं। चारों भाई राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न दूल्हा बनकर घोड़ों पर सवार हैं जिन्हें देखकर हजारों कामदेवों की शोभा लज्जित है। कवि टट्टूदास कहते हैं कि नगर की नारियों को अपना घर-आँगन अच्छा नहीं लगता वे इस छवि को देखकर निहारतीं ही रह गईं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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