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Gunsagar Sharma Satyarthi Ki Rachnayen गुणसागर शर्मा सत्यार्थी की रचनाएं

Gunsagar Sharma Satyarthi Ki Rachnayen अनेक विश्वविद्यालयों मे हिन्दी स्नातक के छात्रों को पढ़ाई जाती हैं । साहित्य तीर्थ चिरगांव जिला झांसी उत्तर प्रदेश में श्रावण शुक्ल एकादशी 1994 विक्रमी को जन्मे shri Gunsagar Sharma ‘Satyarthi’ को साहित्य संगीत एवं सांस्कृतिक विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी की वंश परंपरा से सहज ही प्राप्त हुई आपके पितामह श्री प्रेम बिहारी जी जो कि हिंदी जगत में मुंशी अजमेरी प्रेम नाम से विश्रुत  है एक महान बहु आयामी साहित्यकार होने के साथ ही संगीतज्ञ और रंगकर्मी रहे।

 बरबै छंद (प्रारोषित पतिका नायिका)
कमल सरीखे लीले चंचल नैन।
असुवा बै रये जिनसैं, दिन अरु रैन।।

बिंब फलन से उनके अधरन लाल।
उन असुवन सैं, गीले हो रये गाल।

ई मौका जिनके पिया न पास।
कीसैं कबैं विचारी, रतीं निराश।।

कर कर खबर पियन की रोजऊ रोय।
कीके संगै सुख की, निदियन सोय।।

नील कमल के समान जिनके चंचल नेत्र हैं। उन नेत्रों से रात-दिन अश्रु बह रहे हैं। उनके अधर कुंदरु (रक्तफल) के समान लाल रंग के हैं। उनके अश्रु-जन से दोनों गाल गीले हो रहे हैं। इस अवसर पर उनके प्रियतम पास में नहीं है। वह अपने मन की बात कहे, अतः उदास रहती है। पति के बिना आनंद की नींद कैसे संभव है अतः पति की याद में नित्य रोती रहती है।

चौपई छद
कमलन कैसे कोरे हात, चम्पा कैसो पीरौ गात।
उनकी उम्दा मुइयाँ होत, चंदा की फीकी भई जोत

जितै जितै हुन कड़ती जाय, फूल सरीसो तन माँकाय
धरें पिया हातन पै हात, कैसी घुर घुर कर रई बात।

तिरियँन के मन चुलबुल होंय, कब प्रीतम के संगै सोय।
मनई मनई मन हँसत दिखाय, भौगी चाली भीतर जाय।।

उसके कमल के समान स्वच्छ हाथ और चम्पा के समान पीले रंग में सभी अंग हैं। मुँह का सौन्दर्य इतना अच्छा है कि चन्द्रमा की आभा भी फीकी लगती है। जिसके पास से निकल जाती है सुगंधित पुष्पों की सुगंध फैल जाती है। प्रियतम के हाथ पर हाथ रखकर मधुर भाव में बातें कर रही है।

सखियों के मन में एक चुलबुलाहट है कि कब वह अपने प्रियतम के साथ शयन करे ? मन के भीतर की प्रसन्नता दिखाई दे रही है। चाह और चंचलतावश कभी-कभी भीतर जाती है। एक आगत पति का नायिका के सौन्दर्य और प्रेमालाप करती हुई सुन्दरी की आतुरता का चित्र प्रस्तुत है।

अमात्रिक छंद
दमकत कमल बदन पर श्रमकन, घट भर सर पर धरतन।
झमक-झमक जब चलत डगर पर, पगन बजत तब छन-छन।

हटकत पवन बसन जब सरकत, लगत सरम तन लखतन।
लचकत नरम डगन भग चलतन, हरषत हम लख मन-मन।

लखतन लखत करत मन नरतन, दसनन अधर करतन।।

(कवि ने महानायिका श्री राधेरानी का सुकुमार व श्रृँगारिक चित्रण किया है) महानायिका जमुना (पनघट) से जल लेकर आ रही हैं, सिर पर भरे घट के कारण सुकुमार देह प्रभावित है। मुख मण्डल पर श्रमकण बिन्दु दीप्तिमान है। वह झूमती इठलाती-गुठलाती जब चलती है तो पैरों के आभूषणों की झनकार वातावरण में रस घोल रही होती है।

वायु के एक झोंके ने मानों उसे मार्ग में रोकने का प्रयास किया, तो अंचल पट उड़ने से अंगों की तनिक झलक महानायक को दीख जाती है। वह लचकते हुए यह भाव देखकर मन ही मन हर्षित तो था ही अंचल पट उड़ने से महानायिका का अमुक अंग उघड़ा देखकर मुग्ध होता है। महानायक का यह देखना देखकर महानायिका लजा जाती हैं और अपने दाँतों से अपने अधर को दबाकर रह जाती हैं।

सार छंद
हमखों हेर-हेर हरसाई, हेरन है हरजाई।
पाती पैलऊँ पैल पठैकें, प्यारी पीर पियाई।

रंग रतनारौ, रस की रसना, रग-रग रंगी रंगाई।
छैल छबीली छलनी छतियां, छैलन छैंक छकाई।

गेरँऊँ गेर गए गुनसागर, गलिन-गलिन गसयाई।।

कवि नायक के मनोभावों को व्यक्त करते हुए उसकी नायिका से कहता है कि मुझे देख-देख कर तुम तो प्रसन्न हो रही हो परन्तु तुम्हारी यह दीठ (हेरन) बड़ी अनुचित प्रेम स्थापित करने वाली है। तुमने सबसे पहिले प्रेम-पत्र भेजकर मुझे प्रेम की पीड़ा का रस पिला दिया है।

तुम्हारा सम्पूर्ण रतनारा वर्ण रसभरी रसना और तुम्हारी नस-नस में प्रेम का एक ही रंग दीख पड़ता है। छबीले छलने वाले तुम्हारे उन्नत उरोज न जाने कितने रसिकों को नहीं छका चुके हैं। ऐसा लगता है कि चारों ओर से तुम्हें मदन-रस ने घेर लिया है और प्रेम की हर डगर में नायक के द्वारा आलिंगनबद्ध होना ही तुम्हारी इति है।

निरोष्ष्ठ छन्द (सिंहावलोककन)
साँसऊँ हँस-हँस डोरा डारे, लगा नेंन कजरारे।
कजरारे नेंनन की गाड़ी, चका चलत हैं कारे।

कारे केस घुंघरियाँ डारें, घटा घोर अँधयारे।
अंधयारे हारे गाने सें, चिलक करे उजयारे।

उजयारे हो गए गुनसागर, घुंघटा आन उगारे।।

नायिका से कहता है कि सचमुच तुमने हँस-हँस कर शनैः-शनैः प्रेम-रस के डोरे डाल दिए हैं। कजरारे नयनों के कटाक्ष से नयन से नयन मिलाकर तुम्हारे कजरारे नयन भी प्रेम की ऐसी दौड़ती हुई गाड़ी के समान है जिसमें काले रंग की पुतलियाँ, गाड़ी के पहियों की भाँति नाच रही हैं, मानों प्रेम की गाड़ी प्रेम की डगर पर दौड़ रही है।

तुम्हारे काले-काले घुँघराले केश मानो घनघोर अंधकार को फैलाना चाहते हैं, मगर आभूषणों की चमक-दमक ने उन मनमोहक अंधयारों को विफल करके ऐसे प्रकाश फैला दिया है कि  घूँघट खुलते ही नायक उस अलौकिक प्रकाश का दर्शन पाकर धन्य हो गया है।

फाग
हम-तुम मइंनां के पखवारे, तुम गोरीं हम कारे।
मोरे रातन हिलबिलान भइं, हंसी करत रये तारे।

जब हम गए आन इठलानीं, चौदस सी चन्दा रे।
ऐसौई होत जुगान जुग कड़ गए, भए न पलका चारे

गुनसागर जौ आँख मिचोंनी, खेल-खेल कें हारे।।

हम और तुम एक माह के दो अलग-अलग पक्ष हैं – शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। कृष्ण पक्ष आने पर प्रकाश की रात्रि चली जाती है और तारों की चमक अधिक हो जाती है। वे व्यंग करते हैं। काली रात्रि (कृष्ण पक्ष के जाने पर प्रकाश से भरी रात्रि आ जाती है) में चन्द्रमा की प्रसन्नता देखने को मिलती है। इसी प्रकार होते हुए युग बीत गया कभी मिलन नहीं हुआ। गुणसागर कहते हैं कि यह आँख, मिचौनी का खेल है, जिसे खेल-खेलकर हम थक चुके हैं। जब तुम लहर न पै लहरानी, छिन-छिन नईं दिखानी।

नील बरन जे निरमल लहरें, देख तुमें इठलानी।
ऐंनाँ-सी इन लहरन पै तुम, दिखकें तुरत बिलानी।

तुम हौ इनमें कै जे तुममें, जौई भई हैरानी।
पै तुम माया गुनसागर की, साँसंऊँ बड़ी सयानी।।

नायिका सरोवर में स्नान कर रही है वह सरोवर के तट पर बैठी स्नानरत है और उसका प्रतिबिम्ब सरोवर की लहरों पर लहराता हुआ देखकर नायक कहता है कि लहरों पर लहराती-इठलाती तुम प्रत्येक क्षण नई और भी नई दीख पड़ती हो। यह नीली-नीली निर्मल जल की लहरें अपनी गोदी में तुम्हारे सौन्दर्य को पाकर इठला रही हैं, गर्वित है।

दर्पण के समान इन लहरों पर तुम दिखती भी हो और विलीन भी हो जाती हो। यह निश्चय नहीं हो पा रहा है कि तुम लहरों में लहरा रही हो या कि लहरें ही तुम में ऊर्मित हैं? बेशक यह स्थिति नायक के रसिक मन को परेशान करती है। लेकिन तुम गुणसागर नट नागर की वही चिर परिचित माया हो, जो बेशक बहुत ज्यादा सयानी हो, तुम्हें मार पाना आसान नहीं है।

अब तौ हो गये उनके नेंनाँ, दूजौ रंग चड़ैना।
जब सें बे नेंनंन में आये, परत न अँखियंन चैनां।

हेरत रइये उनखों नेंनन, लगी लगन दिन रेंना।
नेंनन में अब उनकी मूरत, देखत लैकें ऐंना।

घायल करत नेंन गुनसागर, जिनसें कोऊ बचैना।।

अब तो यह नयन उन्हीं के (प्रियतम के) हो गये हैं इन पर दूसरा रंग असम्भव है। जब से वे इन नयनों में आकर बसे हैं इन आँखों को पल भर का भी चैन नहीं। बस निसि-वासर उनको ही देखते रहने की एक मात्र लगन लगी हुई है। इसलिए प्रियतम की मूर्ति अपनी ही आँखों में दर्पण लेकर देखती हूँ। सच में वे नयन ही ऐसे हैं जो घायल करने वाले हैं उनसे कोई बचकर नहीं निकल सकता।

जो कऊँ बे काजर हो जाते, नेंनन उनें लगाते।
तिल-तिल बार प्रीत की बाती, हिय-पारें पा जाते।

तन-मन की डबिया में नोंने, भरकें उनें दुकाते।
पलकन की कोरन पै निसदिन, आँज-आँज सुख पाते।

गुनसागर बे स्याम सलोने, हेरन में घुर जाते।।

नायिका की बेबसी (विवशता) है कि वह अपने प्रियतम से मिलने को आतुर तो है परन्तु मिलन न होने पर वह भी कल्पना करती है कि यदि मेरा प्रियतम काजल हो जाता तो आँखों में ही रहता। (काजल बनाने की प्रक्रिया का बखान) तिल-तिल प्रीति की बाती जलाकर हृदय रूपी पारे में वह काजल प्राप्त कर लेती और तन एवं मन रूपी डिबिया में भरकर उसे छिपाकर रख लेती। एकान्त में बैठकर पलकों की कोर पर आँज-आँज कर अपूर्व सुख का अनुभव करती। फिर तो वे गुणसागर श्याम सलोने प्रियतम मेरी दृष्टि में घुलकर एक हो गए होते।

तुमने कोंन रागनी गाई? हियरै पीर जगाई।
उठत भुन्सरें चकिया ओरत, रस में ढार सुनाई।

गाबे में तुम सब कै देतीं, गा कैं प्रीत जगाई।
मचल उठौ मन गाबौ सुनतन, मारू चीज उठाई।

कोयल-सी कुहकत भुन्सारें, गुनसागर खों भाई।।
(बुन्देलखण्ड के ग्राम्यांचल में प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में स्त्रियाँ उठकर हाथ चक्की से आटा पीसती थीं और मधुर लोकगीत गाती थीं। यह परम्परा अब कहीं देखने को शायद ही मिले) चक्की के साथ लोक स्वर सुनकर नायक कहता है – तुमने यह कौन सी रागिनी गाई है? हृदय में पीड़ा जाग गई है।

उठकर प्रातःकाल चक्की चलाते हुए रस में ढाल-ढाल कर अन्योक्ति में सुनाए चली जाती हो। गाने में तुमने सब कुछ कह डाला यानि गा करके प्रीति को जगाया है। इस मधुर भोर में गायन सुनकर मन मचल उठा है क्योंकि प्रभावी भाव प्रस्तुत किया है। कोयल सी मीठी स्वरांजलि सबेरे-सबेरे मन को अच्छी लगती है।

ओजू ! हमें लगत है प्यारौ, कंचन-आंग तुमारौ।
बिन सिंगारें दमकत ऐसें, चिलकत जैसें पारौ।

गोरी मुँइँयाँ लगै जुन्हैया, घर भीतर उजयारौ।
सपरत में पानूँ नइं ठैरत, कमल बदन पै न्यारौ।

गुनसागर जा कोंरी काया, जैसे नेंनूं प्यारौ।।
(बुन्देली संस्कृति में प्रियतम द्वारा प्रियतमा का और प्रियतमा द्वारा प्रियतम का नाम नहीं लिया जाता इसलिए) ए जी! तुम्हारी स्वर्णिम देह मुझे बहुत प्रिय लग रही है। बिना किसी श्रृंगार के भी ऐसे दीप्तिमान है मानो पारे की चमक हो। गौर वर्ण मुखड़ा तो शरद जुन्हाई है। जो मेरे हृदय रूपी गृह को आलोकित करने वाला है। स्नान करते समय इस देह पर कमल पत्र की भांति पानी की एक बूँद भी नहीं ठहरती है। तुम्हारी यह कोमल देह तो उत्तम नवनीत की तरह है।

तुम तौ नाहक आँग सुकारइं, हिय की बात दुका रइं।।
महुआ-सी हौ ऐन गुरीरीं, रस-बूंदा टपका रइं।

रंग भरे नेंनां भये प्याले, इतै-उतै लुड़का रइं।
जोबन के घामे में तपकें, दारू-सी छलका रइं।

झोंकन नसा चड़ोगुनसागर’ मन मोरौ भटका रइं।।
कवि नायिका को सम्बोधित करते हुए कहता है कि प्रिये! तुम व्यर्थ में ही (जो किसी के भी हित में नहीं-नाहक) अपनी देह सुखा रही हो और अपने हृदय की असली बात को बलात् छिपाने का प्रयास कर रही हो। महुए के समान अत्यन्त मधुर मद भरी हो और रस की बूँदे भी टपका (एक-एक बूँद गिराना) रही हो।

तुम्हारे रतनारे नयन मानो मद भरे प्याले हैं जिन्हें तुम इधर-उधर लुढ़का रही हो। यौवन की तेज धूप में तप कर मानो मदिरा की भाँति छलक रही हो। तुम्हें स्पर्श करके आने वाले हवा के झोंकों ने ही मेरे मन को मदहोश कर दिया है, इस प्रकार मेरे हृदय को तुमने ही वह बहक (भटकाव) प्रदान की है, अर्थात् अस्थिरता प्रदान की है।

मोरौ – हँराँ-हराँ मन लै गइं, सेंनन सें सब कै गइं।
मन मुसक्यात कनखियंन हेरीं, चोट करेजें दें गईं।

मोरी कहीं अनुसुनी करकें,हंस कें बात पचै गइं।
अपनों दाव लगाकें नोंनें – मोरौ दाव चुकै गइं।

गुनसागर की हिय बगिया में, रस के बीजा बै गइं।
कवि नायिका को सम्बोधित करते हुए कहता है कि धीरे-धीरे मेरा हृदय ही तुम ले गई (हृदय चुरा लिया) इशारों में तुमने सब कुछ तो कह डाला, अब बाकी कहने-सुनने को कुछ भी शेष नहीं है। मन ही मन मुस्काते हुए तुमने कटाक्ष से मेरी ओर देखा तो सच मानो मेरे कलेजे पर गहरी चोट पड़ गई है।

प्रिये! तुम मेरे सम्पूर्ण कथन को अनसुना करके हँसते हुए मेरे प्रणय निवेदन को हजम कर गईं? केवल स्वयं अपना ही दाँव लगाकर मेरा दाँव तुमने चुका दिया? जो कुछ भी हो, कुल मिलाकर तुम्हारे हाव-भावों ने कवि रूपी नायक के हृदय रूपी उद्यान में रस का बीज बो दिया है।

तुम काँ चले गए मन लैकें, बीज प्रेम के बैकें।
हियरा में रस-प्रीत जगाई, लिंगां चार दिन रैकें।

जबलों रये मोय भरमाई, मीठीं बतियाँ कै कें।
तड़प रई प्यासी हिन्नी-सी, पीर करेजे सै कें।

लूट गए हमखों गुनसागर, दिन छित डॉकौ दैकें।।

(एक वियोगिन नायिका के मनोभाव इस वियोग श्रृँगार में कवि के द्वारा कुछ नये अन्दाज में व्यक्त हुए हैं) हे प्राण प्रिये! मेरे हृदय में प्रेम के बीज बोने के उपरान्त मेरा मन लेकर कहाँ चले गये? चार दिन (कुछ ही समय) का सामीप्य मेरे हृदय में रस भरी प्रीति को जगा गया है।

जब तक तुम मेरे समीप रहे तो मीठी-मीठी बातों के शब्दजाल में मानो मुझे भ्रमित ही करते रहे हो? (आकर एक बार तुम देख तो लो) मैं तुम्हारे वियोग में प्यासी हिरनी के समान तड़प रही हूँ और जो पीड़ा तुम देकर गए हो उसे अपने कलेजे पर सह रही हूँ, हाँ! (सच में तुम बड़े निष्ठुर हो) तुमने दिन रहते हुए मेरे हृदय पर डकैती डालकर मुझे लूट लिया और मैं अब विपन्न हूँ।

लगतन उनसें नेह नजरिया, बिसरी निजी खबरिया।
कंचन बरन देह दमकत है, मानों लरम भुंजरिया।

लता सरीसी भांस सुहावै, गाउत रोज ददरिया।
नैंनां उनके रस के सागर, मन की भरत गगरिया।

दोरें ठाँड़े नित गुनसागर, कऊँ खुल जाय किबरिया।।

उनसे प्रेम होते ही (नेह नयन लड़ते ही) अपनी सुध भूल गई। सोने के समान चमकती देह (शरीर) में भुजरियों (नव अंकुरित गेहूँ के पौध) के समान लचक है। लता-(मंगेशकर) के समान उनका कंठ है जिससे वे नित्य दादरे गाती हैं। उनके नयन रस भरे सागर जो मन की गागर को भर देते हैं। गुणसागर कहते हैं कि हम उनके दर्शन की आशा लिये द्वार पर खड़े हैं कि संभवतः कभी किवाड़ खुल जाय।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

गुणसागर शर्मा सत्यार्थी का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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