Guchchu Gariya  गुच्चू गरिया

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गुच्चू नौकरी के साथ –साथ छुट्टी के दिनों में या ड्यूटी के बाद वह शादी-ब्याह से लेकर नौटंकी तक में नाच-गाकर अच्छा कमाने लग गया। अब उसे लोग Guchchu Gariya  के अलावा गुच्चू या गुच्ची नचैया के नाम से भी जानने लगे थे। गुच्चू के जीवन मे पहिये लग गये थे पर उसके मन की अंतर्वेदना को समझना आसान नही था।

गुच्चू मेरे ननिहाल के पास के गाँव गरिया का रहने वाला था। बचपन के उन दिनों में जब मैं ग्रीष्म की लंबी छुट्टियों में या दशहरा, दिवाली और मकर संक्रांति के अवकाश में अपने ननिहाल में होता था, उन दिनों मेरे हम उम्र मामा रामनिहोर गुच्चू को बहुत सताते थे। उस समय मुझे समझ में नहीं आता था कि गुच्चू रामनिहोर मामा की ताड़ना सहन क्यों करता है? वह ऐसा क्यों है? वह मामा की न केवल ताड़ना बर्दाश्त करता अपितु हर वक्त उन्हीं की खुशामद में लगा भी रहता था।

हम लोग अच्छे खासे समझदार किशोर हो चुके थे। उस समय चौदह या पन्द्रह वर्ष के रहे होंगे। मामा यद्यपि मुझसे उम्र में कुछेक माह ही बड़े थे, तथापि वह मुझसे स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत आगे थे। वह कसरती व मजबूत शरीर के थे। पहलवानी उनका शौक था, पर वह कुश्ती से कोसों दूर रहते थे। उनके लंबोतर चेहरे पर बकरे जैसी दाढ़ी उगने लगी थी और उनके दोनों गाल पके मुहाँसों से भरने लगे थे। भोर दण्ड-बैठक के बाद स्वयं ही बकरी को दुहते और लगभग एक लीटर से भरे लोटे का सारा निपनिया दूध पी जाते, फिर बाड़े में बने शौचालय को छोड़ गाँव से लगी पहाड़ी पर अपने खास पड़ोसी मित्र रामदेव को साथ लिए दिशा-मैदान को जाते और वहीं पहाड़ी की तलहटी पर स्थित कमल-सरोवर में दातून-स्नान आदि करते।     

समय पर जाग गया तो मैं भी उनके साथ जाता। यदि नहीं जगा तो घर में ही शौचादि से निवृत हो, अपनी मौसी के बेटे लालता के साथ कमल-सरोवर मामा के स्नान के समय पहुँच जाता था। काँच की छोटी शीशी में बचे हुए सरसों के तेल से मुझे अपने पूरे शरीर की मालिश मामा के कहने से करनी पड़ती। मेरे ना-नुकुर करने पर मामा और रामदेव दोनों मिलकर मेरे शरीर पर तेल मालिश करने लग जाते, जिससे गुदगुदी होती।

अतः स्वयं ही शरीर पर तेल लगाना श्रेयस्कर समझता। मामा अपनी कसरती देह और बांहों पर उछलती मछलियाँ जरूर दिखाते और पहलवानों की तरह ताल ठोंकते हुए तालाब के पानी में कूद जाते। पानी चाहे कितना भी ठंडा क्यों न हो, वह वहाँ तक जरूर जाते, जहाँ कमल के फूल लगे रहते थे। वह ढ़ेर सारे कमल के फूल तोड़ लाते, फिर उन कमल-पुष्पों को वह पहाड़ी में स्थित महामुनि आश्रम की अँधेरी गुफा में प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग पर जल के साथ चढ़ाते।

ग्रीष्माकाश में खेतों में अक्सर हम लोगों का जाना होता था। ऐसे समय गुच्चू हमारे साथ होता। मामा गुच्चू को खेतों से कुछ दूर स्थित जंगल के पास नाले में लेकर चले जाते थे। ऐसे समय हम लोगों का उनके साथ जाना निषिद्ध रहता था। मैं शहर का पढ़ा-लिखा होनहार व मेधावी छात्र समझा जाता था। मामा पढ़ने में नितांत कमजोर किंतु बुद्धि, विवेक व देह से काफी परिपक्व व मजबूत थे। उस उम्र में ट्रैक्टर व जीप चला लेना, उनके बाएं हाथ का काम था। मोटरसाइकिल तो वह ऐसे नचाते, जैसे वह मदारी और मोटरसाइकिल उनकी बंदरिया हो। ठीक इसी तरह गुच्चू भी मुझे उनका पालतू बन्दर लगता था, जो उनके इशारे पर हर वक्त नाचता रहता था।

गुल्ली-डंडा बुंदेलखंड का एक लोकप्रिय खेल है। जिस किसी ने भी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘गुल्ली-डंडा’ पढ़ी है, वे इस खेल को भली-भाँति जानते होंगे। गुल्ली और डंडा लकड़ी से बनाए जाते हैं और जिस जमीन की सतह पर गुल्ली रखी जाती है, उस नाव के आकार के छोटे गड्ढे को बुन्देलखण्ड में गुच्चू या गुच्ची कहते हैं, जिस पर से गुल्ली डंडे से अन्य खिलाड़ियों के ऊपर उछाली जाती है। गुल्ली लोप ली गई तो दाँव गया, अन्यथा खेल आगे बढ़ता है।

यह मुझे पता नहीं था कि गुच्चू का नामकरण किसने किया था? हम किशोर बच्चों के साथ गुच्चू भी गुल्ली-डंडा, चोर-सिपाही, विष-अमृत, छुआ-छुहाल, आइस-पाइस-धप्पा या सिलोर-माई-डंडा जैसे खेल बहुत लगन के साथ, घण्टों, बिना थके खेलता था। दोपहर की गर्मी व उमस से बचने के लिए हम सभी घण्टों कमल-सरोवर में लोरते, कमल फूल को तोड़ना और उसकी जड़ों (मुरार) को खोद-खोद कर खाना हम लोगों का यह गर्मियों की छुट्टी का एक आनंददायक समय होता था।

नानाजी के यहाँ बीसियों गाय व अन्य पालतू मवेशी थे। बड़ी-बड़ी सारें, भूसा अटारियाँ, कोठरियाँ हम लोगों के छिपने-छिपाने के अड्डे हुआ करते थे। ऐसे खेल के दौरान अक्सर गुच्चू को न केवल मेरे मामा बल्कि उनकी हम-उम्र के अन्य युवा होते लड़के भी तंग किया करते थे। जिसकी शिकायत वह अपने स्त्रैण-स्वभाववश बड़ी अदा से मामा से करता। मामा की छद्म नाराजगी में वह अपनी जीत समझता और पुनः खेलने में मशगूल हो जाता।

उन दिनों मैं उन आशयों को समझ नहीं  पाता था। उन्हीं दिनों की बात है जब एक बार मैंने भूसा की अटारी में मामा को गुच्चू के साथ गलत हरकत करते देख लिया था, तब मुझे बहुत गुस्सा आई थी और मुझे याद है, मैंने मामा की जमकर पिटाई भी की थी और वह पिटते रहे थे। अंत में उन्होंने घर में किसी को न बताने का मुझसे वचन लेते हुए भविष्य में ऐसा न करने की सौगंध ली। मैंने उन्हें बख्श दिया था, पर उसी दिन से मेरे मन में गुच्चू के प्रति हमदर्दी भी पनप आई थी।

वह एकांत में मेरा हाथ पकड़ते रोते हुए बोला था,”मन्नू भैया! क्या करूँ मेरी मनोवृति ही ऐसी है। मेरे पुरुष शरीर में एक स्त्री की आत्मा बसती है। तुम्हारे मामा से मुझे बहुत प्रेम है, मैं उन्हें अपना आदमी और स्वयं को उनकी लुगाई समझता हूँ।” उसकी स्वीकार्यता ने मुझे अवाक कर दिया था, बल्कि यह सुन उस समय मेरा माथा ठनक गया था। गुच्चू के माता-पिता नहीं थे। सौतेली विधवा माँ उसे भरपेट खाने को भी नहीं दे पाती थी। वह अक्सर हमारे यहाँ बरेदी के खाने के लिये आई हुई रोटियों में अपना हिस्सा बना लेता था। सूखी रोटी, आम का अचार या कभी-कभी सत्तू के लड्डू वह भी नमक वाले वह इतने चाव से खाता, जैसे बनारसी मिठाई लौंगलता हो।

शनै:-शनै: हम लोग कुछ और बड़े होते गए और अगली गर्मियों में जब मैं अपने ननिहाल गया, तब मुझे गुच्चू बड़े नए अंदाज में मिला। फुल पैंट-शर्ट पहने वह कुछ अधिक उम्र का लगने लगा था। दाढ़ी-मूँछें उसके चेहरे पर न तो पहले थी न ही अभी जमीं थीं और न ही भविष्य में जमने के आसार ही थे, पर इस बार वह पहले से कुछ अधिक समझदार लगा।

मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसकी नौकरी महाराजा छत्रसाल ग्रामीण बैंक में चपरासी के पद पर अस्थाई रूप से लग गई है। ढाई सौ रुपया महीना मिलता है। सुबह नौ बजे से शाम को छः बजे तक की ड्यूटी उसे करनी होती है। नौकरी के अलावा अवकाश के दिनों में या ड्यूटी के बाद वह शादी-ब्याह से लेकर नौटंकी तक में नाच-गाकर अच्छा कमाने लग गया है। अब उसे लोग गुच्चू गरिया के अलावा गुच्चू या गुच्ची नचैया के नाम से भी जानने लगे थे।

ननिहाल की हमारी पहले की जो वानर टोली थी, उसमें से कुछ लोग अब छूट गए थे, जो बड़े हो चुके थे, उन पर ब्याह-काज की नकेल डलने लगी थी, तो कई जो कम पढ़े-लिखे थे, वे बड़े शहरों में जाकर मिल मजदूर बन गए या सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करने लग गए थे।

गाँव व देहात में शादियाँ पहले जल्दी हो जाती थीं, जो आज भी कानूनी प्रतिबंधों के बावजूद बरकरार है। बारात जाने, जीमने के अलावा किसे समय है कि थाने जाकर रपट लिखाए और अपने ही लोगों से पंगा ले। मामा भी अठारह बरस के हो चुके थे और उनके विवाह की तैयारियाँ भी शुरू हो चुकी थी। लड़की देखी और पसंद की जा चुकी थी।

मुझे इस बात का मलाल अभी भी रहता है कि हमारे ग्रामीण-अँचल के युवाजन कम उम्र में विवाह के लिये राजी ही क्यों हो जाते है? भले ही वह इक्कीस की उम्र सीमा पार कर लें, पर रहते तो अपरिपक्व ही हैं, यानि माता-पिता की आय पर निर्भर रहते हैं। मेरा स्पष्ट मत है कि आर्थिक दृष्टि से पूर्ण निर्भर रहने वाली युवती व युवक को वैवाहिक जीवन में प्रवेश करना चाहिए। गुच्चू ने इस बार की छुट्टियों में एक दिन बड़े गम्भीर अंदाज में मुझसे कहा कि, “मन्नू! मैं तुम्हारे मामा से शादी करूँगा। उस समय मैं समझा कि वह मजाक कर रहा है, मैंने उसकी बात मजाक में उड़ा भी दी थी, बल्कि भूल भी गया था। गर्मियाँ बीतीं, मैं वापस अपने शहर लौट आया, फिर अगले वर्ष गर्मियों में कोचिंग क्लास की ट्यूशन करनी पड़ी और मैं ननिहाल नहीं जा पाया। इधर मेरा ग्रेजुएशन पूरा हो रहा था, उधर सूचना आई मामा के ब्याह की।

मामा की बारात बैलगाड़ियों से भी गई थी। बहुत आनंद आया। ऊँची बैलगाड़ी भूसे से भरी गद्देदार। रास्ते में खाने के लिए बेसन के मोटे सेव, आटे के खुरमे और काली मिर्च वाले बूँदी के बड़े-बड़े लड्डू, क्या बारात थी। आज भी मेरी जिह्वा पर बूँदी के लड्डू उस पर काली मिर्च का वह स्वाद ज्यों का त्यों बरकरार है।

नानाजी के पास तीन ट्रैक्टर थे और एक महिंद्रा जीप भी थी। स्वयं घुड़सवारी करते थे। बारात ट्रैक्टर, जीप और बैलगाड़ियों में गई, बैलगाड़ियाँ बाकायदा सज-धजकर गई थीं। सम्भवतः बीसेक बैलगाड़ियाँ रही होंगी। एक से बढ़कर एक। बैलों को रंग-बिरंगे कपड़े  पहनाए गए थे, उनके सींग रँगे हुए थे।

गले पर घन्टी और जुओं पर बेलबूटे लगाए गए थे। रास्ते में बैलगाड़ियों की दौड़ भी हुई। जहाँ कहीं किसी पीपल के पेड़ की छाँव, कुआँ और मंदिर मिलता, बैलगाड़ियाँ ढील दी जातीं और हम लोग नाश्ता-भोजन जो भी होता, उसे बड़े मजे से खाते। भरपूर मजे करते। हमारे बड़े मामा तो फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’, जिस पर राजकपूर ने फ़िल्म ‘तीसरी कसम’ बनाई थी, के हीरामन लगें, अगर उनके गोरे चेहरे से मूँछ हटा दी जाए।

एकदम राजकपूर की तरह दोहरे बदन के गोरे-चिट्टे मामा। हीरामन की तरह भोले नहीं, बल्कि उसके उलट आक्रमणकारी आक्रांता अधिक लगते थे। उस पर बड़ी-बड़ी आँखें और गरजती हुई आवाज। हम बच्चे उनसे दूरी बनाकर रखते थे। उनकी कमर के पास छिपा कट्टा (देशी तमंचा) कंधे पर टँगी दुनाली से कहीं अधिक खतरनाक दिखता था।

गुच्चू भी समझदार हो गया था। वह समझ चुका था कि मामा से उसकी शादी किसी सूरत में नहीं हो सकती थी। उन दिनों बारात तीन दिन की हुआ करती थी। नाचने वाली पतुरियाँ दूसरी रात आईं। रात भर गाना बजाना और पतुरियों का नाच होता रहा। उनके बीच एकदम महिलाओं के कपड़ों में गुच्चू को नाचते देख कोई न पहचानने वाला कह नहीं सकता था कि वह पतुरिया नहीं बल्कि भांड है।

अधिकांश यही समझ रहे थे कि वह भी उस नाच गाने की मंडली की कोई नृत्यांगना है। उन दिनों जो शादियाँ होती थीं, बारातियों के मनोरंजन के लिए नौटंकी या ऐसे नाचने-गाने वाली पतुरियों की मंडली को रात भर के लिए बुला लिया जाता था। रतजगा होता हँसी-ठिठोली चलती। बाराती हुज्जत में रुपए लुटाते हुए खुश होते थे।

बड़े मामा को गुच्चु की हरकतों का पता था, साथ ही उनसे दूल्हा बने बैठे अपने अनुज के साथ गुच्चू के अंतरंग सम्बन्धों की बात भी छुपी नहीं थी। यही कारण था कि गुच्चू को बारात का आमंत्रण नहीं दिया गया था, फिर भी वह नृत्य मंडली के साथ वहाँ स्त्री वेश में पहुँच गया। बड़े मामा को जब गुच्चू की मौजूदगी का पता चला, तो वह उस पर भड़क उठे। इंतेहा तो तब हो गई जब गुच्चू ने दूल्हा बने बैठे मामा को नाचते हुए न केवल माला पहना दी बल्कि उनकी गोद में बैठ उनके होंठ चूम लिए। गुच्चू द्वारा बेमौके की गई इस बेहूदी हरकत से वहाँ हड़कम्प मच गया। बड़े मामा तक खबर गई। नृत्य रुक गया, विषय परिवर्तन हुआ नौटंकी शुरू हुई सभी ‘सुल्ताना डाकू’ देखने लगे।

देर से सोने के कारण मैं  सुबह देर तक सोया पड़ा रहा। दूल्हा बने रामनिहोर मामा ने मुझे जगाते चिंतित स्वर में कहा, “मन्नू! गुच्चू की खबर लो। बड़े भैया ने कहीं….” गुच्चू को तलाशा गया वह न तो जनवासे में मिला न ही पूरे गाँव में। यह संभावना व्यक्त की गई कि गुच्चू भी नृत्य-मंडली संग भोर में निकल गया है। मामा का तीन दिवसीय ब्याह सम्पन्न हुआ। ब्याह हो चुकने के बाद बारातियों की भी वही दशा होती है, जो गुजरे गवाह की होती है। मेरी वापसी इस बार जीप से हुई। नव-दम्पति और कुछ परिवार के बच्चे, जो नवविवाहिता को अपना परिचय दे उससे अपना रिश्ता बता रहे थे, जीप में सभी खुश बैठे थे।

बडी-बडी आँखों वाली सुकोमल मामी को पारदर्शी घूँघट में देख मैं सोच में पड़ गया कि अपने मामा के भाग्य की सराहना करूँ, जो उन्हें ऐसी रूपसी धर्मपत्नी मिली या अपनी नयी-नवेली मामी के भाग्य पर तरस खाऊं, जिसे मुहाँसों से भरे गालों वाले बीहड़ से बेडौल जीवनसाथी मिले। खैर! मैंने अपना परिचय देते मामी से कह दिया, “भान्जा हूँ, पर गाढ़ी दोस्ती है मामा से  अपने सारे राज बचा कर रखियेगा, चाहो तो कसम-वसम दे देना नहीं तो सुबह होते ही मुझे सब पता चल जाएगा।”

घराती-बाराती कैसे आए? कब आए? यह मायने नहीं रखता, पर गुच्चू वापस नहीं आया, यह मायने रखता था। इस बात को सिवाय मामा और मेरे किसी ने महत्व नहीं दिया। विवाह की शेष रस्में भी निपट गईं। सुहागरात भी बीत गई और सुबह-सबेरे रात में क्या कुछ घटा मामा यार ने मुझसे यारी निभाते सब बखान भी दिया।

देर शाम अप्रत्याशित सूचना आई। गुच्चू ने गाँव के बाहर कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी है। हम लोग सूचना पा गाँव के बाहर उपेक्षित से उस कुएं के पास दौड़े गए। कुआँ प्रयोग में नहीं था, गंदा बदबूदार पानी, जिस पर कूड़ा-करकट भरा पड़ा था। पुलिस आ चुकी थी। गुच्चू की लाश फूल चुकी थी। लाश से आ रही बदबू से लोग अंदाजा लगा रहे थे कि वह तीन-चार दिन पहले कुएं में कूदा होगा। गुच्चू की फूली लाश देख मन विचलित हो उठा, आख़िर उसने ऐसा कदम क्यों उठाया? किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। गुच्चू की सौतेली माँ और उसके सौतेले भाई-बहनों को उसकी मौत से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था।

गुच्चू का दाह-संस्कार पोस्टमार्टम के बाद हो गया। उसने आत्महत्या की थी, पर क्यों? यह प्रश्नचिन्ह मेरे मन-मस्तिष्क में अंदर तक पैठ बना चुका था। ब्याह के माहौल से निकलने के कुछ दिन तक मैं अपने ननिहाल में रुका रहा।  जिस दिन मैं अपने शहर की ओर जाने लगा, उस दिन रामनि होर मामा ने बड़े अधीर होकर बस में मुझे बैठाते हुए मेरा हाथ दबाया और कहा, “मन्नू! किसी से कहना नहीं गुच्चू ने मुझसे कहा था कि, ‘अगर मैंने उससे शादी नहीं की तो वह आत्महत्या कर लेगा।’

अजीब सनक थी उसकी। भला मैं उससे शादी कैसे कर सकता था? यह उसे सोचना चाहिए था। बचपन और किशोर वय की बात अलग थी अब हम बड़े हो चुके थे। कई आदतें जो समाज के लिए ग्राह नहीं हैं। वह बड़े होकर या ब्याह के बाद नहीं की जा सकती हैं। गुच्चू ने भावुकता में आकर  सनक में अपनी जान दे दी, जो उसे नहीं देनी चाहिये थी। अच्छा नहीं किया उसने! अरे एक बार ऐसा करने के पहले मुझसे मिल तो लेता…”

रामनिहोर मामा की सजल हो आईं आँखों को मैं पहली बार देख रहा था। मैंने धीरे से मामा से मन में उपजी शंका कहनी चाही, ‘कहीं बड़े मामा ने तो नहीं?’ परन्तु उस समय कह नहीं सका था। बस चल दी थी। मामा मुझे विदा कर जा चुके थे। मैं उस उम्र में बहुत समझदार हो चुका था और गुच्चू की समलैंगिकता की प्रवृत्ति के प्रति संवेदना के भाव रखते हुए उसकी मन:स्थिति को स्वयं में उतार कर उसके साथ न्याय करने की सोच में बहुत समय तक डूबता-उतराता रहा था।

अब जबकि समलैंगिकता के पक्ष में देश की सर्वोच्च अदालत ने भी अपनी मुहर लगा दी है। समलैंगिकों को भी अपनी प्रवृति के अनुसार जीवन जीने का अधिकार मिल चुका है। संभवत: यह अधिकार गुच्चू गरिया की भटकती आत्मा को दिलासा दे जाए।

लेखक-महेन्द्र भीष्म

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