हमाई बीती से कोऊ खौं, नई गैल मिल सकत, काऊ की बिगरी बन सकत तो फिर जरूर सुनाओ चाहिए। काये… ? आज सबई खों सुनने Gauri Ki Kahani Gauri Ki Jubani भौत कठिन है … हारियो न हिम्मत बिसूरियो न राम। हमाओ पूरो गाँव पढ़ लिख गओ। हमाए गाँव को नाँव, पूरे देश में जाहिर हो गओ।
हम…गौरी….! काये, नई जान पाए….? अरे….! हम, तुमाई गौरी….!! दद्दू सरपंच की बिटिया….काए…. का सोचन लगे….? हम रेडियो से कैसे बोलन लगे? अरे….! जे रेडियो बाले नई माने। कहन लगे-‘गौरी….तुमाई बीती, तुमाए मों से सब खों सुनवावनें!’ हमने कही-‘सो ई सें का हू है? सो जे बोले-‘गौरी तुमाई कहानी, तुमाई जुबानी , सुनकें पता नई कितेक जनन खों नई गैल मिल जाय, कितने जनै, तुमसे प्रेरना लें कें, आगे बढ़बे की हिम्मत बाँध लेवें….।’ सो, हम भी चले आए।
आकाशवाणी के रिकार्डिंग रूम में मद्धम स्वर उभर रहा था। गौरी अत्यन्त नाटकीय, आरोह-अवरोह के साथ, बोलती जा रही थी। रिकार्डिस्ट और आकाशवाणी के अधिकारी, सम्मोहित से गौरी की प्रस्तुति को सुन रहे थे, रिकार्ड कर रहे थे। गौरी ने फिर से साँस साधी और बोलना शुरू किया-“हम कंचनपुर की गौरी, दद्दू सरपंच की बिटिया। आप तो जानत हो….बिना पढ़े-लिखे….ऊँठा छाप दंदू सरपंच।” एक लम्बी पश्चाताप भरी साँस गौरी की वाणी में सम्मिलित हो गई।
“उनके मन में कितनी ललक हती के गाँव में स्कूल खल जाय। गाँव वाले पढ लिख जाँयँ, संगे हम सोई कछू सीख लइये। उनने अपनी तरफ से बड़ी कोशिश करी, पै उनकी जा साध पूरी न हो पाई। वे हमाओ दुख देख-देख, जनम भर घुटत रहे और ऐई घुटन में उनके प्रान निकरे।”
“हमें का दुख हतो? लेव! काए तुमें अबै लौं पता नइयाँ? अरे….! हम बिना पढ़े-लिखे…अनपढ़….ऊँठा छाप….सो हमाई ससुरार वालन ने हमें घर से निकार दओ। और हम आ गए कंचनपुर। अपने मायके। अब सोचो….जीकी ब्याही बरी….जवान-जवान बिटिया मायके में बैठी रहे, ऊके बाप-मताई पै का बीत है?”
“हमने अपनी ऐई आँखन से अपनी बाई खों चूल्हें के सामू बैठकें किलपत देखो। दद्दा की आँखन में अपमान की जोन पीरा हमने देखी….ऊहे देख के हमाओं करेजो फटत तो….। हमें लगत तो-“धरती माता एक बेर और फट जाँय तो हम ऊ में समा जइये।” पै, हम ऐसी अभागन के चाह के भी उनको दुख दूर न कर पाए। एक तो कोऊ समझावे वारो न हतो, ऊपर से पढ़ाई के नाव पै हमाई बुद्धी में पथरा धरे ते। हम दो बोल रामायन बाँच के सुना दइये और ससुरारा वाले हमें लिवा जाँए, . एई साध लए….दद्दा के प्रान निकरे।”
गौरी का स्वर प्रकंपित हो उठा, उसमें इतनी करूणा भर गई, कि सामने रिकार्डिंग • रूम में बैठे, लोगों की आँखे नम हो गई। गौरी अपने आप में इतनी डूब गई थी कि अपने आस-पास के वातावरण का उसे कोई भान नहीं रह गया था-“भगवान ऐसो दुख काऊ के बाप मताई खों न देवे।” गौरी ने एक लम्बी साँस ली-“दद्दा के बिना हम बिल्कुल अकेले हो गए। बाई की बीमारी, खेती-बारी, घर के पूरे काम, सब हमाए मूड़ पै। ऊपर सें अपमान भरी जिन्दगी।
जाने के बैर मन में आओ कै कौनऊ नदियाँ-कुआँ में जाकें डूब जइए….। डूबई गए होते, कै एक दिना हमाए गाँव में एक मास्साब आ गए….विकास मास्साब । उन्ने न केवल हमें मरवे से बचाओ…. हमें पढ़ाई की गैल दिखा के हमाई जिन्दगी बदल दई।”
अबै जैसो अपुन सब जनै सोच रहे, पैले हम सोई एसई सोचत ते के पढ़वौ भौत कठिन काम है। जो हमसे कभऊँ न हो पाहे। अकेलें मास्साब ने समझाओ-कोनऊ काम होय जब तक शुरू न करो तबइ तक कठिन लगत। श्री गनेश कर देव, फिर सब सरल हो जात। फिर ऐसे रो-रो के जिन्दगानी काटबे से अच्छो है कै हिम्मत करी जाय।
‘बस….! हमने कर लई हिम्मत और पढ़न लगे। मन में एकई लगन हती के पढ़-लिख के ससुरार वालन खों दिखानें। और विकास मास्साब, वे तो जैसे हमाए लाने और गाँव वालन के लाने भगवान बनके आए तो हमें एई लगत रहो के कछू दिना पैले आए होते तो दद्दा किलप-किलप न मरते।
हाँ….तो हम पढ़न लगे। पढ़त चले गए। बस मन में एकई लगन हती के पढ़ लेवी तो ससुराल वाले बुला लेंहें। हमें चाहन लगहें। पै हमाए सोचे का होने तो। होत तो ओई है जोन विधाता खों मंजूर होत। हम ऐसी अभागन के नाँय हमाई पढ़ाई पूरी भई और माँय ससुरार में उनके मरबे की खबर आई। ससुरार के सुख तो जैसे हमाए करम में विधाता ने लिखे न ते। हमने फिर प्रान देबे की सोची। अगर जिन्दगानी को मतलब ऐई है तो हमें नई जीने ऐसी जिन्दगानी….।
अकेलें मास्साब ने हमें फिर बचा लओ। उन्ने हमें दूबा दिखाई…. । कहन लगे-“देखो गौरी, दूबा जहाँ-जहाँ से टूटती उतई-उतई से कनखा फोरलेत….।” ओर हम दूबा बन गये। मन में ठान लई, चाहे जितनी दिक्कतें आहे, हारवे को नाव न लेवी। जहाँ-जहाँ से टूटबी, उतई-उतई से कनखा फोरवी… और विकास मास्साब, वे तो हमाए लाने दद्दा बन गए। हमाए लाने लड़का ढूँढ़ो, दूसरो ब्याव कराओ, अपने हाँतन से कन्यादान करो….।
आज हम भौत सुखी हैं, प्रसन्न हैं। हम…! जी से एक अच्छर लिखत-पढ़त नई बनत तो, आज अपने गाँव में मास्टरनी हैं…मैडम…मे…..म…बहन जी।” गौरी की खनकती, आशा और उत्साह भरी हँसी स्टूडियो में गूंज उठी- “हओ….गौरी मैडम….?”
हमाओ पूरो गाँव पढ़ लिख गओ। हमाए गाँव को नाँव, पूरे देश में जाहिर हो गओ। “हम ऊँठा छाप दद्दू सरपंच की अनपढ़ बिटिया गौरी….।” एक क्षण के लिए गौरी ने विराम लिया, जैसे सोच रही हो, बात पूरी हो गई, या अभी कुछ शेष है, और फिर से साँसों पर नियन्त्रण करके बोलने लगी ‘भगवान ने जैसी हमाई सुनी, वैसी सबकी सुनें । जैसी बुद्धि हमें दई ऊसई सब खों देय। जैसी लगन हमाए भीतर पैदा करी, वैसी सबके भीतर करे….।’
काए तुमें नई लग रहो के तुम भी पढ़ो-लिखो। नाँव कमाव। अपनी जिन्दगी सुख से जियो। दुखन से लड़वो सीखो….?
“लगत है?” तो फिर बैठे काए हो? चलो! उठो!! उठाव सलेट बत्ती और कर दो श्री गनेश आज सें….अबई सें। सब बनन लगहै, और कछू न बने तो हमसे पूछियो। जब हिम्मत टूटन लगे, तो हमाए एँगर आईयो। हम कंचनपुर की गौरी। ऊँठा छाप दद्दू सरपंच की पढ़ी-लिखी बिटिया गौरी, गाँव की बहन जी गौरी की तरफ से सबई सुनबे वालन खों, पढ़वे वालन खों-‘जै राम जी की।