बुन्देलखंड मे महाकवि ईसुरी के पश्चात लोक प्रियता में द्वितीय स्थान कवि गंगाधर व्यास का है। Gangadhar Vyas Ka Jivan Parichay कवित्त, शैर, ख्याल और फाग के रचनाकार के रूप मे है। वे छन्दों में रचनायें करते थे। वे फड़ (प्रतिद्वन्दी) साहित्य के सृजन में अधिक रुचि रखते थे।कवि श्री गंगाधर व्यास की विलक्षण प्रतिभा ने सोलह वर्ष की आयु में ही आपको कवि बना दिया था।
कवि श्री गंगाधर व्यास -व्यक्तित्व और परिचय कवि श्री गंगाधर व्यास का जन्म वि. १८९९ में बुन्देलखण्ड
कवि श्री गंगाधर व्यास की शिक्षा दीक्षा प्राथमिक पाठशालाओं के अध्ययन तक ही सीमित रही है, पर आप की विलक्षण प्रतिभा ने सोलह वर्ष की आयु में ही आपको कवि बना दिया था। मऊरानीपुर निवासी श्री बालमुकुन्द दर्जी इनके कविता-गुरु थे, पर व्यास जी ने जब इन्हें गुरु-दक्षिणा देने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने इन्हें पं० हेमराज को गुरु बनाने की सलाह दी क्यों कि प्राचीन संस्कारों से प्रभावित रहने के कारण ये ब्राह्मण से दक्षिणा नहीं लेना चाहते थे।
व्यास जी कवित्त, शैर, ख्याल और फागें आदि सभी प्रचलित छन्दों में रचनायें करते थे। वे फड़ (प्रतिद्वन्दी) साहित्य के सृजन में अधिक रुचि रखते थे। इनके समय बुन्देलखण्ड के कोने कोने में ऐसे साहित्यिक समारोह होते रहे हैं, जिनमें दो-दो तीन-तीन रातों तक अपने-अपने सहायक दलों के साथ दो प्रमख दलों में प्रतिद्वन्द्विता चलती रहती थी।
जब तक जय -पराजय का निर्णय नहीं हो जाता था तब तक यह प्रतिद्वन्द्विता बराबर चलती रहती थी। कवित्तों, शैरों और ख्यालों के अलग-अलग मण्डल होते थे। श्री व्यास जी का सभी क्षेत्रों पर समानरूप से अधिकार था । छतरपुर, चरखारी मऊरानीपुर, महोबा, विजावर आदि नगरों में उनके उक्त तीनों प्रकार की रचनाओं के मण्डल थे।
छतरपुर में पं० परमानन्द पांड़े का तथा मऊरानीपुर में श्री दुर्गाप्रसाद पुरोहित का दल इनसे मोर्चा लेने में अधिक प्रसिद्ध रहे हैं। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार लोग इनमें भाग लिया करते थे । फाग-साहित्य का तब उतना प्रचार नहीं था। जब ईसुरी की चौकडिया फागों ने जनता के हृदय पर स्थान बना लिया था, तभी से गंगाधर फागों की ओर आकर्षित हुये। चौकडिया के अन्तर्गत खड़ी फाग के जन्म दाता यही थे।
गंगाधर व्यास और महाकवि ईसुरी
छतरपुर नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह जू देव इनका बड़ा सम्मान करते थे, वैसे तो समस्त बुन्देलखण्ड में उन्होंने अपना एक सम्मानपूर्ण स्थान बना लिया था। ये नायिका भेद के कुशल-पारखी और चतुर-चितेरे थे। इस लिये उनकी फागों में जो विभिन्न नायिकाओं के चित्रण हए हैं, उनमें हम कवि प्रकृति की परख में कोई गलत धारणा नहीं बना लेना चाहिये ।
इन कवियों की फागों में जहाँ जिनके नामो का उल्लेख हुआ है, उनसे ऐसा प्रतीत होता है, मानों ये सभी अपनी जीवन की अनुभूतियों की व्यंजना कर रहे हैं। ईसुरी और गंगाधर के बीच घनिष्ट मित्रता थी । आयु में ईसुरी इनसे कुछ बडे थे इस लिये ये उनकी पत्नी से भावज कहा करते थे। कहा जाता है कि ईसुरी की पत्नी राजाबेटी ने उनसे एकबार अपनी रुचि की कविता करने का आग्रह किया, तो उन्होंने उन्हीं की नथ का इस प्रकार वर्णन कर दिया।
बिसरे ना मोय हलन दूर की, बेसर की गूज तनक मुरकी।
दस उंगरी दस मुन्दरी सोहैं, बजन पैजना के सुर की।
कानन भर भर करनफूल हैं, गोरे गाल सांकर लरकी।
नैनन भर भर सुरमा सोहै, सेंदुर मांग भरी मुरकी।
गंगाधर के संग चलौ हो, मारें मजा छतरपुर की।
ईसुरी ने जिन जिन विषयों की रचनायें की हैं, प्रायः गंगाधर ने उन सभी विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है। अपनी राधा विषयक फागों में भी उन्होंने फाग-साहित्य के प्रिय विषय नेत्र-वर्णन को प्रमुखता दी है।
नैना वारे से ना ठांसे, देखत बनत तमासे ।
छोबा करत चलत तिरछौहें सुखी रहें जे सांसे ।
जित खां चलत रुकत ना रोके, दै दै जात झमांसे ।
इनको पीर भई है भारी, के उ जनन खांआंसे ।
गंगाधर कयें इन नैनन खां, मनमोहन ने गांसे ॥
नैना भये प्रान के भूके, चूंघट में हो ढूंंके ।
लागी लगन चोट हाड़त में, रक्त मास सब सूके ।
नहीं मिलत मीजान मरज कौ, आयें वैद कहूं के ।
जत्र – मंत्र कैयक करवाये, बहतक झारे फूंके।
गगाधर खंजन मद – गंजन हैं दृग राधा जू के ।।
नैना लज्जित भये प्यारी के देखें गिरधारी के ।
सोहन सरस सलौनें लौंने, मोहन नर-नारी के।
तनक कटाक्ष परत जा ऊपर, सरबस सुखकारी के ।
काम कृसान जगत जुवतिन के, करन कृपा भारी के ।
गंगाधर सोखन रस – पोखन, मोखन सिंसारी के ॥
तीसरी फाग की अन्तिम कड़ी में वृत्यनुप्रास का अल्प प्रयास-साध्य सजन तो वास्तव में रस-पोखन बन गया है । ‘अमिय हलाहल मद भरे’ रूप की बांकी झांकी यहां भी दिखाई पड़ती है।
राधा – माधव के नैन लगे, सुख चैन न दिन रैन लगे।
डारत डीठ जुगल आनन पै, तानन तिरछे सैन लगे।
दोर करत मनो मृग खंजन, छीन मीन मद लैन लगे।
बरबस करत प्रान बस सरबस, पियन सुधा-रस ऐन लगे।
इछन में तीछन गंगाधर, चरसन बर सर मैंन लगे ।
दोई नैना विष वारे हैं, चूंघट से काये निकारे हैं।
ज्वानी भरे ज्वान मस मीजत, दीन दीन के मारे हैं।
जब से सुरत सभारी इन ने प्रानन प्रान अहारे हैं ।
चल तन चोट चुभी चितवन की, भए पाखान दरारे हैं ।
गंगाधर कये इन नैनन सों, नंदनादन लौं हारे हैं ।।
नैनन में नैन समान लगे रस भरन करन कलकान लगे।
जानन लगे जुगत तक छक की, तानन भोह कमान लगे।
सोहें होन लगे पीतम के, तिर छौहें कड़जान लगे।
लोयन के दोऊ कोयन सें, लौं, कर कटाक्ष छहरान लगे ।
भये मन मुदित स्याम गंगाधर, मोहन तन अकुलान लगे।
नेत्रों को किसी भी शस्त्र की उपमा दे देने में कौन सा अनौचित्य है। ईसुरी ने तो खड्ग, भाला, बरछी और बन्दूक आदि शस्त्रों को नेत्रों में आरोपित किया ही है, ब्यास जी ने भी उनसे बनैती और पटैती के खेल खिलाए हैं।
तुमरे नैन करें बमनौती, मानों हूलत सेती।
चंचल चपल चलत चारउ दिश, मानों भमें बनती।
जितखां झकत, थकत ना उतसें, सीके सुघर पटती।
गंगाधर आशिक भये तुम पै, चितवन देख बनैती ।।
दोऊ नैनन की तरवारें, जात बिदरदन मारें।
लम्बी खोर दूर लौं डाट, टांड़ी हती उवारें।
दुबरी दशा देह की हो गई, हिलत चली गई धारें।
गंगाधर बस होत सुघर पै, बेरहमन से हारे ।।
ऊधौ जा कैयौ उन हर से, नन्दनदन गिरधर से।
कीसें कब कियै पौंचानें आवे कौनऊ कर सें।
का न बनी बिगर गई हम से, काये निकर गये धर से।
कै गय ते दस-पांच रोज की बीत गई हैं बरसें।
गङ्गाधर राधे के असुआ, चौमासे से बरसें ।।
गंगाधर के नायक का मन-भ्रमर कली-कली के रस-पान की चाह लिए, दर-दर की खाक छानता फिरता है, उसे एक जगह कल ही नहीं मिलती। यदि वह एक के प्रति मिलन कामना लिए तड़प रहा है, और उसकी निम्नांकित छलपूर्ण व्याजोक्तियों में उसे नीरसता दिखाई पड़ती है।
बिन देखें तुमारे कल नइयां, जियरा खां चैन इक पल नइयां।
तलफत प्रान तनक विछुरे से ज्यों मछरी खां जल नइयां।
उड़ उड़ के छाती से लगते, सो छाती में बल नइयां ।
यरियत कौल तुमारी सौगंद, इन बातन में छल नइयां ।
‘गगाधर’ हस मिली न जौलौं, तौलौं जनम सुफल नइयां ।
बेदरदिन दरद नहीं तोरें, हेरी न चली गई मुख मौरें।।
हम तो चाह करें तन मन से, तुम राती बिस सौ घौरें ।
तुमरी नेह निघा के साथी, होत भोर ठाड़े दौरे ।
कैयक खड़े तुमारे लाने, होस नहीं खाली खौरे ।
गंगाधर कयें चैन परै ना, नैनन से नैना विना जौरें ।।
जैसे केश राधिका जी के, और न काह तीके ।
सटकारे अति स्याम सचिक्कन, रंग में अलि सेनी के ।
तम के तार हार हिय मानत, खेचे काम जती के ।
मन बस करन कहत गंगाधर, करन कान के टीके ।।
इसी प्रकार नायिका के मुख पर अवस्थित तिल के चिन्ह का वर्णन करने में कवि ने कितनी ऊंची उड़ान भरी हैं।
जौ तिल लगत गाल को नीको, मन मोहत सब ही कौ।
कै पूरन पूनों के ससि में, कुरा जमों रजनी कौ ।
कै निरभल दरपन ऊपर, सुमन परी अरसी कौ ।
गरल कण्ठ लै आन विराजो, कै पति पारवती को।
गंगाघर मुख लखत सांवरो, राधा चन्दमुखी कौ ।
इन्होंने ईसुरी के अत्यन्त प्रिय एवं सुमधुर सम्बोधन पद रजऊ’ को लेकर किसी नायिका के गोदना का वर्णन भी कितना सुन्दर किया है।
गुदना लगत गाल पै प्यारौ, हम खां रज उ तुमारौ।
गोरे वदन गाल के ऊपर, बन बैठौ रखवारौ।
देखन देव नजर भर हमखां घंघट पट ना डारौ ।
ठाड़ी होव देखले चितसे, जी ललचात हमारौ।
गंगाधर की तरफ देख के,दैदओ तनक इसारौ ।।
स्त्रियों में मेला देखने की प्रबल इच्छा देखी गई है. वे बड़ी सज-धज के साथ इनमें भाग लेती हैं। खजुराहे के मार्ग से गुजरती हुई किसी ऐसी ही बुन्देली युवती का उन्होंने कितना स्वाभाविक चित्रण किया है ।
बिसरे न घलन कदेला की, दयें झोंक जूवन अलबेला की।
गोटादार हरीरी अंगिया, बेल भरी चौबेला की।
आड़ी डरो भुजन के ऊपर, कोर लदाऊ सेला की !
उड़-उड़ परत थमत ना थामी, पवन चले झकझेला की।
गंगाघर कयें राह चली गई, खजुराहे के मेला की ।
भक्त-सम्प्रदाय में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि वृन्दावन के सेवाकुञ्ज में आज भी भगवान कृष्ण का रास-नृत्य होता है, उसे देखने के निमित्त ब्रह्मा और शंकर तक जाया करते हैं, उसी का चित्रण किया है ।
मोहन ने मुरलिया झनकारी, सुन चौंक परी सब व्रज-नारी ।
पग में पैर पटेला ककना, हाथन में धुंघरू धारी ।
सिर से ओढ़ घांघरा लीनों, कटि में पहिर लई सारी ।
बूदा लगा कपोलन ऊपर कानन में नथनी धारी।
गंगाधर सर नर मुनि मोहे, संकर की खुल गई तारी ।
मधुवन में वीन बजी हर की, कुवर राधका के वर की।
पशु पंछी सुर नर मुनि मोहे, कौन बात नारी नर को।
जब से सुनी स्रवन व्रज वनिता, मिलवे काज भुजा फरकी।
उलट पलट सिंगार पैर लए, सुरत भूल गई है घर की।
देव दरस जन जन आपनों, विनय सुनों गंगाधर की।
गंगाधर बड़े हस-मुख और विनोद प्रिय व्यक्ति थे. वे हास लिखने में बड़े सिद्धहस्त थे । यात्रा आदि के लिए ग्रामीण नर-नारियों का प्रयाण कालीन चित्रण कितना स्वाभाविक, सजीव और सुन्दर हैl
करिके तयारी फेट बांध कर कमरा की,
दै दै के कछोटा झुण्ड देखे लुगैयन के।
गड़ई डोर टांगे बड़ी बिन्नू खां आगे कर ।
गठरी पीठ बाधे झन्ड देखे गमैयन के ।।
कैसी हुनगारू हो आई, हती तनक सी बाई ।
बहुतक माल बाप के खाये, सो काँ जाय चराई।
दिपन लगी दिन पै दिन दिहिया जैसें रंग दरयाई ।
तिहरी ओले परे पेट में, थोंद सोउ बड़ आई ।।
गंगाघर चलतन में होवे, लचर लचर करहाई ॥
बालिका या अज्ञात-यौवना बाला के लिये मुनइयां शब्द का प्रयोग बुन्देली में बड़ा मधुर माना गया है l
तुमखां कैसें मिलें मनइयां, बस मोरो कछु नइयां ।
मसकिल परत द्वार हो कड़तन, घर के होत लरइयां ।।
एसा लगत लगौं छाती से, झपट उठा ले कंदयां ।
फेरे हात ल रम गालन पै, डार गरे में बंइयां ।।
कसा कर कहत गंगाधर, प्रान लेत लरकइयां ।।
पछी भए न पंखनवारे, इतनी जांगां हारे ।
भीतर घरे घोंचआ धरते, काये खां परते न्यारे ।
जां तुम होतीं तां उड़ जाते, करते मिलन तुमारे ।
राते बिडे प्रेम पिंजरा में, कबउं न टरते टारे ।
गंगाधर परन हो जाते, मन के काम हमारे ।।
अनुआं कैसे मिटत मिटायें, लगे उपत के आयें ।
हजम न होत सुनी कउं मांछी, आंखन देखत खायें ।
ऐसी प्रवल होत है होनी, बरकत ना बरकायें ।
सो तो आन परी सिर ऊपर, मारे चाय बचायें।
गंगाधर ससि का गिनती में, गगन छिपत धन छायें।।
मीन और पतंग जैसा इकतरफा प्रेम गंगाधर को पसंद नहीं, वे जहां प्रेम देखते है वहीं अपनी हदय – धारा उड़ेल सकते हैं अन्यत्र नहीं l
अपनो ओरे चाल बताबी, अब ना तुमें सताबी।
तुमरें चाय हमारी नइयां, हम तुम खां ना चाबी ।
बदली नजर तुमारी हमसे, अब बखरीं ना आबो ।
गंगाधर कयें अपने मनखां, कउ अन्ते समझाबी ।।
किसी परकीया को प्रलोभन देने के लिये नायक द्वारा भेंट की जाने वाली वस्तुओं का वर्णन…
सौदा ल्याये तुमारे लाने, जैसी तमखां चाने ।
बंदा ल्याये डांक के पंचरंग, देखत चित्त लुभाने ।
जारीदार पोत के झटा, बने बहुत सोफानें ।
थोरी सी सिन्नी ले आये, दोरे हो ले जाने ।
गंगाधर मिल जाव प्रेम से, जब जा लगी बुझाने ।।
गृह – कलह से परेशान हुई स्वकीया को सान्त्वना देता हुआ कवि कह रहा है l
बाबा भए तुमारी दम पै, कपट न करियो हम पै ।
सर्वस प्रान सोंप दये रजुआ, तुमरे धरम-करम पै ।
रइयो बनी सुचार हिये की, जइयौ ना अधरम पै ।
लगियो नहीं कहें काऊ के, कोउ कहै कछ तुम पे ।
कर का सके कोउ गंगाधर, तुमें चाहये गम पै ।
किसी अधीरा प्रोढ़ा का चित्रण निम्न फाग में देखिए l
मारग आधी रात लों हेरी, यार विदरदी तेरी।
कैयक बेर पौर देरी लौं, दे दे आई फेरी।
कल ना परी चौंक लों दौरी, काउ पंछी की टेरी।
गंगाधर निरदई सांमरे, कहां लगाई देरी ।।
समाज में काले वर्ण की महिलाओं की उपेक्षा ईसुरी की भाँति गंगाधर को भी सहन नहीं होती। निम्न दो फागों में उन्होंने इनके विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं :
हू है जान तुमारे कारी, मोरी प्रानन प्यारी।
कारिन की कउं देखी नइयां. बसत बसीकत न्यारी।
कौन बात कारी के नइयां, का गोरी के भारी।
अपने भागन मिलत सबई खा, कारी गोरी नारी।
गंगाधर मन बपी हमारे, सांवरिया रंग वारी॥
हम खां है कारी धन नोंनी, तुमें तुमारी नोनी ।
कारी खां कउं खान न जाने, तुमरे संग कालोनी।
गोरी देखत की खच सूरत, लाज शरम की खोनी ।
जोन काम कारी से कड़ने, गोरी से है जौनी ।
गंगाधर मतलब से मतलब, करनें कौन दिखौनी ।।
फड में यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि भौरा चम्पा के फल पर क्यों नहीं बैठता । प्रश्न हार-जीत के निर्णय का था, इस पर श्री गंगाधर जी का निम्न उत्तर आया l
चंपक वरण राधिका को है, ई को कारण जो है ।
जग-जननी को रंग समज के, भौंर नहीं परसो है ।
अन्तान भये हरि जबही, प्रफुलित ताहि लखो है।
हरि विछ रत फलो अलि-द्रोही, गोपिन साप दओ है।
गंगाधर ता दिन से भोरा फिर नहिं पास गओ है।
सुनते ही तालियां बज उठती और जय – जय कार की ध्वनि के साथ विजय-माला उनके गले डाल दी जाती है।
किसी सामान्या नायिका का चित्रण भी कितना स्वाभाविक है –
ससुरै ना जैबी अखत्यारें, लगवारन के मारें।
आगे नहीं एक डग देबी, चाय चलें तरवारें।
लिखवादेब बलम खां पाती बैठे रये झक मारें।
धरबौ करे नांव सब कोऊ, कछ न सोंच हमारें।
गंगाधर छैलन के संगे, अपनी उमर गुजारें।
तुम तो भोर सासुरे जाती का कऔ हम से काती।
तुमखां चैन चौगुनों होने लगौ बलम की छाती।
जो जा बाँह गही ती तुमनें किये गहायें जातीं ।
देत असीस व्यास गंगाधर बनी रही ऐवाती ।
जौ जी कैसे लगत ठिकानें, बलम मजा ना जाने ।
आधी उमर बीत गई अबलों, हसके नहीं बताने ।
कर सोरा सिंगार बताये, तनक उ नहीं अघाने ।
रूप, शील, गुन देख हमारे, गेलारे ललचानें।
गंगाधर हिम्मत ना हार एक जनम के लानें ।।
ताके कमल वरन पद ताके ता वृषभान सुता के।
ताके पाप दूर हो जैहें उड़ हैं पुन्य पताके ।
ताको जस दुनिया में फैले कहें कवीश्वर ताके ।
ताके फाग कहत गंगाधर ज्ञान देत रसता के ।
इनका प्रकृति चित्रण बड़ा मनोहर है । ‘दिन ललित वसन्ती आन लगे।’ टेक वाली फाग को बुन्देलखण्ड कोकिल स्व. श्री घासीराम जी व्यास बडी मस्ती के साथ गाया करते थे। इन्होंने वीर रस की रचनायें कम लिखी है।
हरि ने अजन के रथ हाके बने सारथी बाँके ।
दहिनी चौकी हनमान को ध्यान शारदा मां के ।
छकछकात रथ जात गगन में धरनि लगें ना चाकें।
गंगाधर बाजू के ऊपर महाभारत रंग भांके ।
फाग के क्षेत्र में आचार्यत्व के सिंहासन पर विराजमान कर ईसुरी का अभिषेक करने वाले स्वयं गंगाधर ही हैं । वे ईसुरी की फागों में जादू का आरोपण करते हुए कहते हैं ।
सुनतन लगे लुगाइन आँदू बूड़ों गिनें न सादू ।
सुनतन ही मोहित हो जावें क्या गरीब धन माँदू ।
विशकर्मा से कोउ बचे ना फना खोल रये दादू ।
गंगाधर ईसूर रसिया ने फाग कही के जादू ।।
गंगाधर का जीवन अपरिग्रह शील रहा है । उन्होंने धन के संग्रह को कभी महत्व नहीं दिया। वे उसके दानोपभोग-पक्ष के ही हामी रहे हैं। उन्हें अपने उस प्रभु जिसने, “दाँत न थे तब दूध दियो, जब दांत भये किमु अन्न न दैहै।” पर अटल विश्वास है। उनकी इन भावनाओं और अनुभूतियों की व्यंजना निम्न फाग में हुई है।
जिन खाँ खाने और कमानें कैसें जुरत खजानें।
मायः जोर धरी घर भीतर कहो काये के लानें ।
चलती बिरिया संग न जाबे देख-देख पछतानें ।
जीने देह दई मानुस की तिये फिकर में राने ।
गंगाधर ईसुर लये ठाढ़े जी खाँ जितनों चानें।
विषय-निर्वाचन, उक्ति वैचित्र तथा उपमान और प्रतीकों की कल्पनायें इनकी ईसुरी के पद-चिन्हों पर उभरी हुई दिखाई पड़ती हैं।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल