Faggeet Aur Fagkar फागगीत और फागकार

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बुन्देलखंड के लोकोत्सवी Faggeet Aur Fagkar के लिये सुनहरा काल खंड था  इस कालखंड के फागगीत ‘चौकड़िया’ फागों की गायकी के आविष्कार का श्रेय लोककवि  ‘ईसुरी’ को है। चार कड़ियाँ (चरण) होने के कारण इसे ‘चौकड़िया’ नाम से अभिहित किया गया है। हर कड़ी में 16 और 12 मात्राओं की यति से 28 मात्राएँ होती हैं, पर उसके प्रथम चरण की यति में अन्त्यानुप्रास का सौष्ठव होता है।

बुन्देलखंड के फागगीत और फागकार

लोककवि ईसुरी की चौकड़िया फागें सार या नरेन्द्र छन्द

में बँधी हुई हैं। हर कड़ी का तुकान्त जितना सटीक होता है, उतना ही चमत्कार उत्पन्न करता है। फागुन माह के प्रारम्भ में ही फागों का गायन शुरू हो जाता है और रंगपंचमी तक निरन्तर चलता रहता है।  इन्हें ढोलक, नगड़िया, मंजीरा, झाँझ और रमतूला लोकवाद्यों के साथ सामूहिक रूप से गाया जाता है। कभी-कभी दल का प्रमुख गायक फाग की कड़ी शुरू करता है और पूरा दल उसका अनुसरण करता रहता है।

फागकारों का व्यक्तित्व
पुनरुत्थान-काल में नई फाग में पुरस्कर्ता ईसुरी एवं कवित्रायी के भागीदार गंगाधर व्यास और ख्यालीराम, तीनों गाँव के वातावरण में या तो पले-पुसे थे या उससे घनिष्ट रूप में सम्बद्ध। ईसुरी मेंढकी ग्राम के थे और ख्यालीराम का जन्म अकठोंहा ग्राम में हुआ था। लेकिन गंगाधर व्यास का जन्म छतरपुर (राज्य) में हुआ। इनके अलावा लगभग 20 फागकारों का राठ, कुलपहाड़ और चरखारी जैसे क्षेत्रों में हुआ था।

चरखारी भी रियासत की राजधानी थी, अतएव चरखारी नरेश महाराज मलखान सिंह की रानी रूपकुँवरि भी नागरी थी, परन्तु उनका जन्म दतिया के एक गाँव सलैया में हुआ था। तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति गाँव से किसी भी रूप में जुड़े थे, वे गाँवों की जलवायु से भलीभाँति परिचित थे। चरखारी या छतरपुर के राजपरिवार के या राजकवि तो ‘फाग’ के लोकप्रिय माध्यम से आकर्षित हुए थे।

इस प्रकार फागकारों को दो वर्ग थे एक तो गाँव से जुड़ा फागकार, जैसे ईसुरी, ख्यालीराम, खूबचन्द रमेश, ‘रामप्रसाद’ आदि और दूसरा ‘काग’ के माध्यम से या अखाड़े से जुड़ा फागकार, जैसे छतरपुर राज्य के राजकवि गंगाधर व्यास, चरखारी की रानी रूपकुँवरि, लुगासी रियासत के राजगुरु परशुराम फटैरया अथवा अखाड़े से जुड़े ताँतीलाल देवपुरिया और उनके मंडल के पाँच-छः कवि। स्पष्ट है कि इस युग में फाग की फड़बाजी की काफी धूम थी और फागों की रचना करने वाला समाज में सम्मान का पात्रा माना जाता था।

ईसुरी गाँव के मध्यम वर्ग के अपनी ही परिस्थितियों से संघर्ष करते अर्द्धशिक्षित व्यक्ति थे, जिन्होंने धौरी और बगौरा के जमींदारों के यहाँ कामदारी की थी। जीवनभर गाँवों में रहने के कारण उन्होंने गाँव का जीवन जिया था, सारे अनुभव भोगे थे और गाँव तथा किसानी समस्याओं पर विचार किया था।

इसलिए उनकी फागों में जहाँ वासन्ती उल्लास, प्रेम और शृँगार की विविधताएँ मिलती हैं, वहाँ गाँव के जीवन के यथार्थ चित्रों की बानगी भी है और समस्याओं के संकेत भी। बहरहाल, ईसुरी का व्यक्तित्व गाँव के उस आदमी का प्रतिनिधित्व करता है, जो भावुक है और रसिक भी, भक्त है और दार्शनिक भी तथा आदर्श का समर्थक है और यथार्थ का भोगी भी।

सब कुछ उतनी ही सीमा में, जितनी गाँव के एक समन्वित व्यक्तित्व के लिए आवश्यक है। गंगाधर व्यास ने गाँव के जीवन की अपेक्षा रियासती ऐश्वर्य के ठाट देखे थे और दरबारी लोकव्यवहार भोगे थे। साथ ही तत्कालीन ब्रजभाषा में काव्यग्रन्थ रचकर समकालीन काव्य-चेतना को समझा था। इसलिए उनकी फागें अपेक्षाकृत अधिक साहित्यिक बन पड़ी हैं।

यह बात अलग है कि उस समय रियासतों में बुन्देली का ही प्रचलन था और बेमेल विवाह तथा अपसंस्कृति के विरोधी सोच का प्रसार अधिक था। इसलिए उनकी फागों की भाषा टकसाली बुन्देली है और उनका कथ्य तत्कालीन वैचारिकता से मेल खाता है।

ख्यालीराम में गाँव और रियासती संस्कारों का मेल मिलता है। ग्राम अकठोंहा (रियासत चरखारी) में लोधी घराने में जन्मे और बिजावर रियासत की सेवा थानेदार के रूप में करते ख्याली ने रीतिकाव्य से भी सम्पर्क रखा था। इस कारण उनकी फागों में रीतिचेतना का प्रभाव अधिक है और रियासती संस्कृति की अभिव्यक्ति में ठकुरासी ठसक भी है।

कवि गंगाधर और लोककवि ख्याली की फागों में उतना ही अन्तर है, जितना उनके व्यक्तित्वों में। ईसुरी तो गाँवों के लोककवि है, अतएव उसकी फागों में जो लोकसहजता, लोकव्यापकता और लोकभावुकता है, वह गंगाधर और ख्याली की फागों में दुर्लभ है।

फागों का वस्तुगत विशेषता
इस कालखंड की फागों की प्रधान प्रवृत्ति लोकशृँगारिकता की विशिष्टता है, जो रीतिकालिक शृँगारिकता की रूढ़िबद्धता के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप फूटी है। साथ ही गाँव और नगर की शृँगारिकता में बहुत अन्तर होता है। ग्रामीण शृँगारिकता सहज, स्वाभाविक, मुक्त और बनावट-बुनावट से परे होती है।

जबकि नागरी तड़क-भड़क और फैशनवाली बनावटी, शिष्ट और रूढ़ होती है। इसी अन्तर को ध्यान में रखकर मैंने फागों के शृँगार को लोकशृँगार (लोकसिंगार) कहा है। लोकशृंगार रूढ़ियों से परे स्वच्छन्द होता है, इसी कारण उसमें दुराव-छिपाव न होने से ग्राम्य उन्मुक्तता की गुंजाइश अधिक रहती है। ‘ईसुरी’ की एक फाग का उदाहरण पर्याप्त है….
हम खाँ बिसरत नईं बिसारी, हेरन हँसन तुम्हारी।
जुबन बिसाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी।
भोंय कमान बान से तानें, नजर तिरीछी मारी।
‘ईसुर’ कात हमारी कोदीं, तनक हेर लेव प्यारी।।

उक्त फाग की तीन कड़ियों में रूप-सौन्दर्य का सहज लोकचित्रा है, पर चौथी कड़ी में प्रेमी का आमन्त्राण ग्राम्य स्वच्छन्दता को दर्शाता है। दूसरे, इन फागों में दैहिक मांसलता और ऐन्द्रिकता की अधिकता है। डॉ. रामविलास शर्मा जैसे समीक्षक ने तो लोककवि को ‘मदन महीप’ के चारण कहा है और उनकी कविता को ‘कामातुर प्राणी की विह्नल पुकार है’ कहकर अपने निर्णय को दुहराया है। वस्तुतः कामातुरता में एकनिष्ठता न होकर भटकन होती है, जबकि ईसुरी में एक संकल्पित मानसिकता है, एक मन को दूसरे मन से जोड़ने की दृढ़ मानसिकता, जो निम्नांकित फाग से स्पष्ट है….
करकें नेह टोर जिन दइयो, दिन दिन और बढ़इयो।
जैसें मिलै दूद में पानी, ऊसई मनै मिलइयो।
हमरो और तुमारो जो जिउ, एकई जानें रइयो।
कात ‘ईसुरी’ बाँय गहे की, खबर बिसर जिन जइयो।।

रंगत की फागों की पांडुलिपियों में रूप-सौन्दर्य के चित्रा नखशिख की पद्धति का ही अनुसरण करते हैं। शिख से लेकर नख तक क्रमिक चित्राणों में देह के सभी अंगों, आभूषणों और शृँगार-प्रसाधनों के अलंकृत वर्णन रीतिकालीन नखशिख-चित्राण से होड़ करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि रीतिकालिक चित्रा परिनिष्ठित भाषा में अधिक साहित्यिक हो गए हैं, क्योंकि उनमें नागरी कल्पना की रेखाओं में चमत्कारी रंगों का जड़ाव है, जबकि फागों के चित्रों में लोककल्पना और लोकसहज रंगों की बुनावट है। पहले में नागरीपन है, तो दूसरे में लोकसुलभ प्रकृत रूप। ऐन्द्रिकता में दोनों बढ़चढ़कर है। गंगाधर व्यास की एक फाग देखें….

जौ तिल लगत गाल को नीको, मन मोहत सबही को।
कै पूरन पूनों के ससि में, कुरा जमो रजनी को।
कै निरमल दरपन के ऊपर, सुमन परो अरसी को।
गरल कंठ लै आन बिराजो, कै पति पारबती को।
‘गंगाधर’ मुख लखत साँवरो, राधा चन्द्रमुखी को।।

उक्त फाग में मुख और तिल के उपमान पूर्णिमा के चन्द्र पर रात्रि का अँकुआ, स्वच्छ दर्पण पर रखा हुआ अरसी का सुमन तथा कंठ पर शिव का पिया विष है। सभी उपमान नए हैं और चन्द्रमुखी राधा के सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं। फागें प्रेम के विविध रूपों की अलबम हैं।

मिलन और बिछोह के विविध आलेखनों में आनन्द और पीड़ा के अनेक रूप और रंग हैं। गाँव का लोकसहज प्रेम निश्छल और खरा होता है। उसमें न तो गम्भीरता और उदात्तता का बोझ रहता है और न दुराव-छिपाव तथा कुंठा की साजिश। बनावटी शिष्टता उसे छू नहीं पाती।

ईसुरी का प्रेम यही लोकप्रेम है। प्रेम के शास्त्राय रूपों से भिन्न लोककलम से लिखा हुआ प्रेम का लोकचित्रा है। लोकसंस्कृति के मूल्यों से रंजित। स्थिर और एकनिष्ठ। फाग की दो पंक्तियाँ देखें….
बिधना करी देह ना मेरी, रजऊ के घर की देरी।
आउत जात चरन की धूरा, लगत जात हर बेरी।

ख्याली कवि तो रियासती न्याय की बानगी देते हुए कृष्ण के मन को राधा के सौन्दर्य की मुद्रा की अदालत में खड़ा कर देते हैं। न्याय के रूपक द्वारा राधा के प्रेम की ठसकीली मुद्रा देखें…..
तोरी बेइंसाफी आँसी, सुनो राधिका साँसी।
कायम करी रूप रियासत में, अदा अदालत खासी।
पठवा दये नैन के सम्मन, चितवन के चपरासी।
मन मुलजिम कर लओ कैद में, हँसी हतकड़ी गाँसी।
कबि ख्याली बेगुना लगा दई, दफा तीन सौ ब्यासी।।

उक्त फाग में रियासती न्याय की पद्धति भी स्पष्ट हुई है और तत्कालीन रूप-सौन्दर्य का प्रभावी प्रभाव भी आभास देता है। इस पुनरुत्थान के नैतिक और मानवतापरक दृष्टिकोण का असर इस जनपद के फागकाव्य पर भी पड़ा। अब फागें केवल शृँगारी या भक्तिमयी नहीं रही थीं, उनमें नैतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति होने लगी थी।

ईसुरी ने तो दया-धर्म, कर्म और मनुष्यत्व का ही सन्देश नहीं दिया, वरन् युद्ध में जूझने और मातृभूमि के प्रति प्रेम के नवीन आदर्शों के पालन को अनिवार्य समझा। उनके उदाहरणों में फागों की वही पंक्तियाँ दी गई हैं, जो साक्ष्य के लिए जरूरी हैं….

दीपक दया-धरम को जारौ, सदा रात उजयारौ।
धरम करें बिन करम खुलै ना, बिना कुची ज्यों तारौ।
मानस होत बड़ी करनी सें, रजउ सें कइये तीसैं।
नेकी बदी पुन्न परमारथ, भक्ति भजन होय जीसें।
अपने जान गुमान न करिये, लरिये नहीं किसी सें।
बे ऊँचे हो जात कहत हैं, नीचे नबै सभी सें।
जो कोउ समर भूम लड़ सोबै, तन तरवारन खोबै।
देय न पींठ लेय छाती में, घाव सामनें होबै।
ऐसे नर के मरें ‘ईसुरी’, जस गंगा लौं होबै।

फागों में पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं की वास्तविकता के संकेत भी हैं और नए आविष्कारों के वर्णन भी। पारिवारिक समस्याओं में सौतिया डाह से घर की टूटन और सामाजिक समस्याओं में बाल या अनमेल विवाह के दो उदाहरण गंगाधर व्यास की फागों से प्रस्तुत हैं….
जो घर बिगरो बिन बिगरायें, सौत सौत के आयें।
मगरे सें कौआ ना उतरो, राती न्याँव मचायें।
हमकों बलम मिले हैं बारे, दूजे बदन इकारे।
हँस मुसक्यान तनक ना कबहूँ, मिलबे हाँत पसारे।


ईसुरी ने तो उस समय के अकाल और ऋणग्रस्त होने का वर्णन किया है। सम्बन्धित पंक्तियाँ देखकर यथार्थ का अनुमान लगाया जा सकता है।

आसों दै गओ साल करोंटा, करो खाव सब खोटा।
गोऊँ पिसी कों गिरुआ लग गओ, मऊअन लग गओ लौंका।
ककना दौरी सब धर खाये, रै गओ फकत अनोटा।
संवत् उनइस सौ छब्बिस में, बुथे धरे ते रिन कें।
जनम जनम के रिन चुकवा दय, परी फादली जिनकें।

संयोग, वियोग, भक्ति और प्रकृति-सम्बन्धी फागों में लोकसहज भावुकता बगरी पड़ी है। कवि ने नए-नए लोकउपमानों द्वारा कल्पना की नई-नई छवियों से सजाकर नवीन मूर्तरूपों में ढाल दिया है। प्रेमी कभी प्रेमिका की अँगुली का छला हो जाना चाहता है, तो कभी पंखों पर उड़नेवाला पंछी, दोनों की भावदशा का अन्तर देखें…
जो तुम छैल छला हो जाते, परे उँगरियन राते।
मौं पोंछत गालन खाँ लगते, कजरा देत दिखाते।
घरी घरी घूँघट खोलत में, नजर के सामूँ राते।
‘ईसुर’ दूर दरस के लानें, ऐसे काए ललाते।।
बिध ना दये पापी पंख हमें, उड़ उड़ के मिलते मिंत्रा तुमें।
तन तो राम जुदा कर दीनो, अंतस में दुई एक दमें।
परबस भए कछू बस नइयाँ, ज्यों पिंजरा में बिहंग भमें।
‘गंगाधर’ तुम बिन मन ब्याकुल, दरसन हूहैं कौन समें।।

दोनों फागों में प्रेमी के दर्शन की प्यास से उत्पन्न पीड़ा की भावना प्रधान है, पर ईसुरी की फाग में ऐन्द्रिकता और भोगमूलकता है, जबकि गंगाधर व्यास की फाग में अंतस की एकप्राणता के कारण लोकभाव की दृढ़ता से पिंजड़े में बार-बार भ्रमता पंछी भी एकनिष्ठता से सम्बल पाता रहता है। वस्तुतः वैचारिकता का पारस स्पर्श फागों की भावुकता को नित नई दीप्ति प्रदान करता है।

कवियों की सहज बुद्धि भावना की सहचरी बनकर उसकी सेवा-टहल करती रही है। उसे सजाती-सँवारती और राह दिखाती है। लोक की रीति-नीति सिखकार और लोकसंस्कृति का पाठ पढ़ाकर लोकोन्मुखी कर देती है। वैयक्तिक भाव को लोकभाव में ढालने का काम वैचारिकता की क्रियाशील उपस्थिति में होता है। एक उदाहरण देखें….
रइयो मनमोहन से बरकी, तुम नई भईं अहिर की।
होत भोर जमुनें ना जइयो, दैकैं कोर कजर की।
उनको राज उनइँ की रैयत, सिर पै बात जबर की।
‘ईसुर’ कात तला में बसकें, सइए सान मगर की।।

उक्त फाग की कहावत का अर्थ यह है कि जिस राजा के राज्य में रहे, उसकी हर बात मनना पड़ती है। ईसुरी के समय गाँव के राजा जमींदार थे और उनके सामने गाँव के लोग विवश थे। ईसुरी ने इस सामन्ती एकाधिकार के विचार को मनमोहन से जोड़कर उसे सरस भावुकता प्रदान कर दी है। इस प्रकार लोकविवेक लोकभावक को सन्तुष्ट कर लोकरस का लोकानन्द अनुभूत कराता है।

फ़ाग की शिल्पगत विशेषता
चौकड़िया के आविष्कार ने गायकी और फड़बाजी, दोनों को गति प्रदान की है। ईसुरी ने पुरानी ‘लाल’ फाग से अन्तरा की 28 मात्राओं की चार कड़ियों से फाग गायकी को नई रंगत में ढालने का कार्य किया है। प्रथम चरण में 16 मात्राओं पर यति और दोनों अर्द्धालियों को तुकान्त देने से फाग की संगीतात्मकता बढ़ गई है। चौकड़िया का यह भी चमत्कार है कि उसके प्रथम चरण की अर्द्धाली में एक उक्ति का कथ्य सूत्राशैली में होता है, जिसे उसकी दूसरी अर्द्धाली उसे निखारती है।

दूसरे और तीसरे चरणों में उक्ति का फैलाव रहता है और चौथे में कथ्य की सिद्धि पूरी फाग को अन्वित कर देती है। इस प्रकार चौकड़िया के फागकाव्य को एक नई भंगिमा और शिल्पकौशल दिया है। संगीत, नृत्य और काव्य के त्रिबिध रसों की त्रिवेणी प्रवाहित करने में चौकड़िया बेजोड़ साबित हुई है। चौकड़िया की बनक ही सब कुछ नहीं है, उसकी अभिधा का सौन्दर्य भी गजब का है। ईसुरी की अभिधाओं में व्यंजनाएँ छिपी रहती हैं। एक फाग देखें…
ऐंगर बैठ लेव कछु कानें, काम जनम भर रानें।
सबखाँ लागो रात जियत भर, जो नइँ कभउँ बड़ानें।
करियो काम घरी भर रैकें, बिगर कछू नइँ जानें।
जो जंजाल जगत को ‘ईसुर’ करत करत मर जानें।।

उक्त फाग के ‘कछु कजानें’ में इतनी व्यंजना है कि फाग के सभी चरणों में वही गूँजता रहता है। थोड़े में अधिक कहने का आसान नुसखा है उक्ति का बाँकपन, जो अभिधा की सहजता में दुके होने से पहचान में नहीं आता। वह अभिधा को ही पैना बना देता है, जिससे वह तीर जैसी हृदय के भीतर तक धँस जाय। नखशिख-चित्राण में लोक उपमानों, लोक उत्प्रेक्षाओं और लोकरूपों के प्रयोग से अलंकृत फागें मिलती है, बल्कि यह कहना सही है कि उनकी संख्या अधिक है। यहाँ दो उदाहरण देखें…
ऐसे अलबेली के नैना, कबि सों कहत बनैं ना।
मधुकर मीन कंज की लाली, कटसाली के हैं ना।
औसर पाय पराने खंजन, डर सें डगर बसैं ना।
कबि ख्याली आली नैनन सों, बनमाली उतरैं ना।।
लख तव नैनन की अरुनाई, रहे सरोज छिपाई।
मृग सिसु निज अलि भय खाँ तजकें, बसे दूर बन जाई।
चंचल अधिक मीन खंजन सें, उनईं न उपमा आई।
‘ईसुर’ इनकी काँनों बरनों, नैनन सुन्दरताई।।

ईसुरी की फागों की पहचान व्यंजना की अपनी निजता है। कवि की व्यंजना की खासियत यह है कि वह बहुत ही सरल शब्दों में गहरी बात कह जाता है। कहीं दो-चार शब्दों में, कहीं एकाध चरण में और कहीं पूरी फाग में। यहाँ दो पंक्तियाँ देखें…
हंसा उड़ चल देस बिराने, सरवर जायँ सुखाने।
इतै रए की कौन भलाई, जितै बकन के थाने।

इनमें बकन या बगुलों के थाने से एक चुटीला व्यंग्य उभरता है। एक तो बगुले, जो बाहर से सज्जनता का प्रदर्शन करते हैं और भीतर से कुटिल हैं, दूसरे उनके थाने, जो रक्षा के स्थान कहे जाते हैं। जब रक्षक ही भक्षक बने हैं, तब ऐसी जगह रहने में भलाई नहीं है।

फाग फड़ का गीत रहा है। ईसुरी के पहले फाग की फड़बाजी मन्थर गति से चलती थी, क्योंकि उसकी सीमित वस्तु और समय उसे शिथिल बनाए थे। ईसुरी ने उसे इस जड़ता से उबारकर नई वस्तु और गति प्रदान की, जिससे एक तरफ फाग की समृद्धि का द्वार खुल गया और दूसरी तरफ फड़ों में नया उत्साह जगा।

चौकड़िया ने गायकी का नया स्वर दिया और अपनी संक्षिप्तता, गतिशीलता तथा लालित्य से फड़बाजी को लोकप्रिय बनाया। फागों के फड़ ख्यालों और सैरों के फड़ों से अधिक प्रभावी बनाने का पूरा श्रेय ईसुरी को ही है। चौकड़िया फाग के फागकारों की परम्परा आधुनिक काल तक विद्यमान है, क्योंकि उसे एक मुक्तक की तरह प्रयोग करने में अधिक उपयोगी समझा गया है।

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