जीवन का संग्राम अद्भुत होता है। जहाँ हम कभी जीतते हैं कभी हारते हैं । और कभी-कभी ना हार होती है ना जीत होती है बस एक तटस्थ स्थिति होती है। Dr. Ramshankar Bharti एक तटस्थ व्यक्तित्व।
बुंदेली माटी के लाल – साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी
जहाँ जीवन की सार्थकता अनेक रूपों में मुखरित होने लगती है। अनेक सुखद सत्य उद्घाटित होते हैं और अनेक झूठ भी अपने लुभावने स्वरूप में उपस्थित होते हैं। इन सब में से जो श्रेयस्कर होता है, जो महत्वपूर्ण होता है वह है अपने आपको जानना, अपने आप को समझना । इसे हम दूसरे शब्दों में आत्मानुभूति भी कह सकते हैं ।
सन 1960 का दौर मेरे जीवन का बहुत महत्वपूर्ण दौर है। ऐतिहासिक नजरिए से भी साठ का दशक अनेक उथल-पुथल से भरा रहा है । साहित्य में जहाँ साठोत्तरी कविता का जन्म हुआ। हिंदी खड़ी बोली का नया उद्भव और नए आयाम स्थापित हुए। वहीं हमारा जो सांस्कृतिक जीवन है , जो हमारी ललित कलाएं हैं उन सब का जो सौंदर्यबोध है , वह अपने मूलाधार की ओर गया। वह मूलाधार है गाँव । जिसे महात्मा गाँधी भारत की आत्मा कहते थे । वह गाँव जहाँ सदानीरा हुआ करती थी ।
तालाब थे,पोखर थे, हरे – भरे खेत थे । खलिहान और बाग – बगीचे थे ।अनेक पशु -पक्षी और वह सब कुछ था जो लोकमानस को, लोक जीवन को, लोक संस्कृति को प्राणवान बनाए रखने के लिए आवश्यक था । वह सभी कुछ गाँव में अपने संपूर्ण सौंदर्यता के साथ उपस्थित था। गाँव में हमारे बाबा माने हुए किसान और कास्तकार थे।जमींदारी का दौर समाप्त हो गया था। मगर जमींदारी के कुछ अवशेष और खंडहर अभी भी मौजूद थे। जो मुझे अचंभित करते थे और निराश भी।
मकर संक्रांति के दिन 13 जनवरी 1960 को जनपद जालौन के क्योलारी गाँव में मेरा जन्म हुआ। पिता श्री गंगादीन मास्टर उस जमाने के माने हुए गवैयों में शुमार थे। रामलीला, नौटंकी, राधेश्याम रामायण, तथा शास्त्रीय व उपशास्त्रीय संगीत के अनेक दिग्गज कलाकारों का घर पर आना -जाना लगा रहता था। बड़े भाई सरयू भारती जवान हो रहे थे।वह फिल्मी संगीत से प्रभावित होने के साथ बड़े मजे हुए गले से गाने वाले गायक थे। आकाशवाणी के वह बी. हाई ग्रेड के कलाकार थे ।
कादिम्बनी, नवनीत, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं वह शहर खरीद का पढ़ने वाले गाँव के पहले आदमी थे। मुझे बचपन से ही साहित्य को पढ़ने का अवसर तथा अनेक कलाकारों को सुनने समझने का अवसर मिला। यहीं से मैं साहित्य की ओर मुड़ गया। मगर यह सभी काम उजागर करने में डरता था।
खैर इण्टरमीडिएट तक आते – आते मैं मुखर हो गया था। 1977 में मुंशी प्रेमचंद की कहानी “नमक का दारोगा” का नाट्य रूपांतर करके पहली बार कालेज के मंच पर पं.अलोपीदीन का किरदार निभाया। लेखन के साथ – साथ अभिनयात्मक अभिरुचि भी बढ़ती गयी। जो आगे चलकर मेरे शिक्षक जीवन में बहुत काम आयी।
अस्सी का दशक आते – आते अध्ययन और अध्यापन से जुड़ गया। 1983 में डा.धर्मवीर भारती के संपादन में मुंबई(तब बम्बई ) से निकलने वाली पत्रिका ‘धर्मयुग ‘ में मेरी कविता छपी। फिर क्या था “छपास रोग “ का शिकार हो गया। अनेक अखबारों में दूसरों के लिए रिपोर्टिँग करने लगा। खूब जमकर लिखा ।कभी अपने लिए कभी अखबार के लिए। 1990 से लेकर 2000 तक अनेक विभूति पुरुषों से मिलने का पुण्य मेरे हिस्से आया।
उनमें प्रमुख हैं राजनेता व साहित्यकार आदरणीय अटल बिहारी बाजपेयी , संघ के पूर्व सरसंघचालक मा. सुदर्शन जी, मा. केसरीनाथ त्रिपाठी, विचारक डा. विद्यानिवास मिश्र, अमृतलाल नागर, अमृता प्रीतम, डा. धर्मवीर भारती, डा.नरेन्द्र कोहली जी, रामेश्वर शुक्ल अंचल, डा.जगदीश गुप्त , डा. कैलाश गौतम , अंबाप्रसाद श्रीवास्व जी, डा.सुशीला टाकभौरे इत्यादि।
साहित्यकारों से पत्र संवाद करने क्रम भी इसी के साथ चलता रहा। उच्च शिक्षा में जिन्होंने बहुत प्रभावित किया और मुझे प्रत्यक्ष कक्षा में पढ़ाया वह हैं देश के प्रख्यात साहित्यकार डा.रामशंकर द्विवेदीजी व डा. रामस्वरुप खरे साहब। उस जमाने में हिन्दी में परास्नातक होने का जो मायने थे अब वह बदल गए हैं।प्रकाण्ड विद्वान थे उस काल के गुरुजन। उनकी सादगी देखते ही बनती थी। आज वह भाषाई लगाव समाप्त हो गया है। यों तो जिंदगी का हर पल कुछ न कुछ सिखाता है। बस अपनी सोच कैसी है बहुत कुछ उस पर निर्भर करता है।
जब बी. ए. में था तो डा. धर्मवीर भारती के उपन्यास “सूरज का सातवाँ घोड़ा” से प्रेरित होकर “तुम्हारे लिए “ उपन्यास लिखा। कविता संग्रह “अभिसार के क्षण” पर सम्मति आदरणीय अटल जी ने लिखी। ललित निबंध लेखों का संग्रह “फागुन देहरी पर” को आदरणीय विद्यानिवास मिश्र जी का आशीर्वाद मिला। इसी बीच संस्कार भारती , अखिल भारतीय साहित्य परिषद , हिन्दी व्यवहार संगठन , हिन्दी साहित्य सम्मेलन , राष्ट्र भाषा प्रचार समिति , गाँधी शांति प्रतिष्ठान आदि प्रसिद्ध संस्थाओं से जुड़ने का सौभाग्य भी मिलता रहा।
लगभग चार दशक के अपने सांस्कृतिक जीवन के अपने अमूल्य क्षणों को हर रोज जीता हूँ। वस्तुतः कलाजीवी व्यक्ति का जीवन बड़ा संघर्ष भरा होता है।वह अपने आस – पास बिखरे वीभत्स अँधेरों से लड़ता रहता है..।उजालों के लिए सूरज बोता रहता है।अपने जीवनमूल्यों के लिए। लोकसंस्कृति की प्रतिष्ठा के लिए। शायद अपनी धरोहर को सँवारने से महत्वपूर्ण और कोई काम नहीं है।
बस , यही हूँ मैं। ” जो कुछ हूँ , जैसा भी हूँ , आपका हूँ।”
डॉ. रामशंकर भारती
उपनाम : भारती
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जन्म : 13 जनवरी 1960 (प्रमाणपत्रों में 10 दिसम्बर 1962)
जन्मस्थान : ग्राम-पत्रालय कैलाशनगर (क्योलारी) जनपद-जालौन (उ.प्र.)
शिक्षा : परास्नातक (हिन्दी, अंग्रेजी) विद्यावाचस्पति,
शिक्षाशास्त्री उपाधि : पी.एच.डी. (हिन्दी) साहित्यरत्न, साहित्यावाचस्पति
सम्मान : डॉ अम्बेडकर फैलोशिप अवार्ड, नई दिल्ली, 1995, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, मथुरा-2000, तुलसी सम्मान (रामायणम्-जबलपुर)-1998.
सारस्वत सम्मानोपाधिः
‘सरस्वती पुत्र’, पारथ प्रेम परिषद्, उरई, ‘नगर निधि’ सम्मान-1996, नगरपालिका जालौन, ‘कला साधक’ सम्मान संस्कार, भारती औरैया-2008, नवांकुर साहित्य एवं कला परिषद, झाँसी-2010, सारस्वत सम्मान-2013 नागपंचमी महोत्सव खातीबाबा मन्दिर झाँसी , श्री सरस्वती काव्य कला गंग प्रेमनगर झाँसी (सारस्वत सम्मान), अखिल भारतीय काव्य क्रान्ति परिषद्, झाँसी-2011 ‘काव्य-मणि उपाधि’, जिला विज्ञान क्लब, झाँसी-2011, महावीर दिगम्बर जैन पंचायती मंदिर नगरा, प्रेमनगर झाँसी सारस्वत सम्मान-2013, डॉ. जगदीश शरण बिलगैया ‘मधुप सम्मान-2015, काव्य कलाघर सममन-2017,सरल साहित्य एवं कला संगम, झाँसी, सावित्री देवी सम्मान-2015 (दतिया). श्री राधेश्याम सक्सेना स्मृति समारोह सम्मान-2016 स्योढ़ा (दतिया), लाजवन्ती साहित्य कला संगीत संगम द्वारा सारस्वत सम्मान 2017, नवचेतना झाँसी द्वारा शाकुन्तल सम्मान-2016।
सृजन (गद्य) :
‘तुलसी समाज और राम’ (निबंधात्मक कृति), ‘मानस में दलित चेतना’ (शोधात्मक लेख), फागुन बेहरी पर (ललित निबंध), ‘ठंडी धूप’ (चिंतन)। स्वदेश, दैनिक भास्कर, ‘तुलसी मानस भारती’, अमर उजाला, दैनिक जागरण, हनुमत साधना’, ‘अरिहन्त एक्सप्रेस’ सहित देश की पत्र-पत्रिकाओं में लेखों तथा समीक्षा लेखों का प्रकाशन।
सृजन(पद्य) :
‘वसंतिका’, ‘गीत सप्तक’, कृष्ण की मीरा (प्रबन्ध काव्य), ‘कगार का पेड़’ (नवगीत)
प्रसारण :
आकाशवाणी लखनऊ एवं छतरपुर से कविताओं तथा लेखो का प्रसारण।
सम्पादन :
बुन्देलखण्ड बुलेटिन एवं बुन्देलखण्ड ब्यूरो (मासिक)
सम्बद्धता :
अखिल भारतीय साहित्य परिषद, नवांकुर साहित्य एवं कला परिषद, हिन्दी व्यवहार संगठन, विश्व संस्कृति संस्थान, विजय श्री साहित्य परिषद, संस्कार भारती एवं / श्री सरस्वती काव्य कला संगम इत्यादि।
दायित्व निदेशक :
बुन्देलखण्ड सांस्कृतिक अकादमी, लोक कला प्रमुख-संस्कार भारती (कानपुर प्रान्त) संरक्षक- नवांकुर साहित्य एवं कला परिषद, प्रधानाचार्य – भारतीय शिक्षा समिति कानपुर प्रान्त। सम्प्रति : अध्यापन और स्वतंत्र लेखन
नाम- डा. रामशंकर भारती
मोबाइल नं.-9696520940(व्हाट्सप) 8004404710
व्यवसाय-अध्यापन/लेखन
पता-ए–128/1,दीनदयाल नगर ,झाँसी (उ.प्र.)
प्रणेता
रामलीला व्यास गंधर्व गंगादीन मास्टर
मुख्यालय उरई से करीब आठ – नौ कोस दूर दक्षिण – पश्चिम के कोणार्क में बसा है मेरा – अपना गाँव क्योलारी , जिसे कैलाशनगर के नाम से भी जानते हैं । बड़ा अद्भुत और विलक्षण गाँव है क्योलारी। बस, इतना समझ लें गाँव के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि यहाँ हर दस जनों में एक व्यक्तित कुछ खास है। उनमें कोई गायक है , वादक है , रंगकर्मी है , प्रगतिशील कृषक है , कुशल शिल्पी है , प्रसिद्ध चित्रकार है या समाजसेवी हैं।
तमाम जातिगत संकीर्णताओं से परे , सामंतवादी सभ्यताओं से दूर , शिक्षा से भरपूर मगर विकास से बहुत दूर अद्भुत और अनूठा गाँव है क्योलारी। जिसे मैंने सुरीलों का गाँव संबोधन दिया है।
बस ,इसी अनूठे सुरीलों के गाँव क्योलारी की सरगमी माटी की उपज थे मेरे पूजनीय पिताजी कीर्तिशेष श्री गंगादीन मास्टर । मास्टर याने उस्ताद , गवैया , गंधर्व और
कलाकार। पूरे जिले में क्या उस जमाने में आस – पास के अनेक जनपदों में उनका आना – जाना था अपनी संगीत मंडली के साथ। रामलीला , राधेश्याम रामायण , नौटंकी के कार्यक्रम हों या नवदुर्गा महोत्सव की अचरी ( देवीगीत ) , जन्माष्टमी के झूला गीत हों या जलविहार के मल्हार , होली में काफी – पीलू राग में गायीं जाने वालीं फागें हो या रमटेरा भजन पिताजी सभी विधाओं को पूरी सिद्दत और मस्ती से गाते – बजाते थे।
अनेक आयोजनों में मुझे उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला है। उनके दोनों हाथों से बजाने वाले हरमोनियम पर नाचतीं उँगलियाँ देखीं हैं। मैंने उन्हें मस्ती में गाते हुए सर हिलाते और आँखों से असुँआ बहाते जीभरकर देखा है।
आज से तीस वर्ष पहले वो हमसे ऐसे रूठे और चले गये हैं बहुत दूर वहाँ , जहाँ से कभी कोई लौटकर वापस नहीं आता …………..
मगर उनकी आनंदगंधी यादें मेरी साँसों में
आज भी महकतीं हैं मोगरे की तरह , चंदन की तरह इन्हीं सुवासित सुधियों के कुछ पल साझा कर रहा हूँ ….
क्योलारी गाँव के राजमंदिर की मंगलवारी साँझ में मास्टर गंगादीन जी की मंडली जमी है। ग्राम सुधार के अगुवा पंडितजी (पन्नालाल त्यागीजी ) सूत्रधार बने हैं , श्री बद्रीप्रसाद श्रोत्रिय बापू सहायक हैं किंतु व्यास की भूमिका में हैं मास्टर गंगादीन। पिताजी की उस समय उम्र 60 – 65 के बीच रही होगी। लम्बे – गोरे साधुओं – से लम्बे केश । गर्दन को छूते हुए पीछे की ओर समेट कर
सँवारे हुए। प्रशस्त ललाट और चमकतीं आँखें , पतले होंठ मुस्कराते हुए चेहरे को और भी सुदर्शन और सौम्य बना रहे हैं। धोती – कुर्ता में खूब जँच रहे हैं। मैं अपने पिता के सुदर्शन व्यक्तित्व को देखकर गौरवान्वितवत हो रहा हूँ। उनकी लम्बी अँगुलियाँ हरमोनियम का पर्दा उठाकर उसके सुर संतुलन में व्यस्त हैं। साथ में उम्रदराज बाबू बब्बा (श्री बाबू बरार ) ढोलक की रस्सी तान रहे हैं ।फिर धिरकिट बजाते हुए धा !..धा!!..धा.!!!.की थाप देते हैं …
मास्टर गंगादीन सगुण उपासक हैं सो मंगलाचरण गणेश वंदना से शुरू करते हैं-
गाइये गणपति जग वंदन
शंकर सुवन भवानी नंदन…
संगीत की नदिया बह उठी है…आलापचारी हो रही है। मैं अचंभित – सा पिताजी की गले की तनतीं नसें देख रहा हूँ।वे विना माइक के श्रोताओं के सामने भावमग्न गा रहे हैं। मंजीरा , ढोलक और हरमोनियम के सुर – ताल के साथ उनका उन्मुक्त गायन मंदिर की सीमाएँ लाँघकर चारों दिशाओं में बहता जा रहा है । मंगलाचरण पूर्ण करके मास्टर साहब माथे पर आए पसीने को अपने सफेद गमछे से पोंछते हैं। अभी पानी भी नहीं लेंगे । संत परंपरा का पालन करते हैं।फिर मीराबाई का दीवानगी भरा यह पद शायद राग यमन में अलापने लगते हैं-
हेरी मैं तो प्रेम दिवानी मेरौ दरद न जाने कोय..
मैं उनकी उम्र और सुरों पर उनके नियंत्रण को देखता ही रह जाता हूँ। मीराबाई के प्राणों की पीर उनकी आँखों में असुँआ बनकर बह रही है। विरह वेदना मीड़ बनकर कराह उठी है ……
एक ओर सरगम की लयकारी है , गले की कई हरकतें श्रोताओं में कसक पैदा कर रहीं हैं तो वहीं दूसरी ओर ढोलक पर उस्ताद बाबू बब्बा विभिन्न प्रकार के कायदों , रेलों , मुखड़ों , टुकडो़ं और परन बजाते हुए तिहाइयों की चमत्कारिक शानदार अदायगियों से सभी को मंत्रमुग्ध कर रहे हैं ।.आस्था भरी मस्ती से लवरेज़ हैं बूढे़ – बारे और जुवान….
मास्टर गंगादीन क्या नहीं गाते थे !
होरी…फाग….अचरी …चैता… बहरतवील … ध्रुपद और न जाने कितने राग वे बड़ी मस्ती में गाते थे। दोनों हाथों से हरमोनियम बजाने वाले उस ज़माने भी कम कलाकार थे , उनमें से वे एक थे । आज के दौर में तो अब पैरदानवाला हरमोनियम किसी संग्रहालय में ही मिलेगा…
बजाने वाला तो मिलने से रहा …
आज शहर में बैठकर सोचता हूँ तो लगता है……..
यह किस लोक की मिट्टी और राग – रंग में पला – बढ़ा कौन – सा संगीत स्कूल है , जिसके घराने की पहचान इन गाँवों के धूल धूसित ऊबड़ – खाबड़ रास्तों से होकर हमारे
गाँव में आती है और जन्म दे जाती है एक सुरसाधक को , एक कलाकार को , एक संपूर्ण मनुष्य को जो अपने हितों के लिए कम , दूसरों के भले के लिए ज़्याद़ा जीता है।
आँचलिकता के सद्भाव से भरा गाँव का यह स्वस्थ सांस्कृतिक जीवन है , जहाँ लोग जीवन का रस बाँटने के लिए बटोरते हैं , उतने ही सहज भाव से जैसे खेतों में जुताई , बोवाई , रोपनी,गोड़नी , कटनी करते हैं। सब कुछ साँझा है यहाँ जीवन की रसमयता को जीने के लिए….
आज भी गाँव की माटी की महक को अपनी साँसों के साथ जी रहे अनेक कलाकार हैं जो लोकसंस्कारों के साथ ही समकालीन संगीत , कला , शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में कीर्तिमान हैं , तमाम अभावों , विरोधाभासों को धता बताते हुए…..।
धन्य है सुरीलों का गाँव क्योलारी !!
जहाँ ऐसे गुणी कलावंत रामलीला व्यास
सनातन स्वर – साधक , गंधर्व और गृहस्थ – संत पूजनीय पिताश्री गंगादीन मास्टर ने जन्म लिया …
उनकी पावन स्मृतियों को कोटिशः प्रणाम !
चरणों में विनयावनत
( डा. रामशंकर भारती )