Tulasi Maharani Vrat Katha तुलसी महारानी व्रत कथा

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अपनें बुन्देलखण्ड में बिरछन खौं देवता मान कै समय – समय पै उनकी पूजा करी जात । ऊसै तौ सबई बिरछन में देवतन कौ वास है । जैसे अकौवा उर धतूरे में शंकर जी कौ वास, तुलसी-पीपर उर बरिया में भगवान विष्णू कौ वास, उर ऊमर में प्रेतन कौ वास मानों जात । ओई हिसाब सैं बिरछन की पूजा करी जात । जैसे चौदस खौं अकौवा, वसंत खौं आम कौ मौर, बरसात खौं बरिया, कातक में सोम्वा अमाउस उर शरद पूने खौं तुलसी की पूजा करी जात उर Tulasi Maharani Vrat Katha होत

तुलसी खौं तौ पूजा में धरऊ जात। बिना तुलसी दल के भगवान खौं भोग नई लग सकत। कातक के पुनीत मईना में तौ कातक अनाऊत में सबसैं पैला तौ तुलसिअई की पूजा करी जात । औरतें ऊ बेरा एक सुर में गाँउन लगतीं तुलसी महारानी नमों – नमों । सोम्मा अमाउस खौं तौ तुलसी घरूवई खौं परकम्मा दये जात । शरदपूने खौं सत्यनारायन भगवान के लडुवन की पूजा तुलसी घरा के सामनई हुन करी जात।

बुन्देलखण्ड के हर भरे पूरे परवार के घरन के आँगन में तुलसी धरूवा बनें रत। बउयें बिटिया सपर खोर कैं सबसैं पैंला तुलसी के बिरछा की पूजा करकैं ऊदबत्ती लगावत उर आरती करत हैं। फिर घर कें कौनऊ दूसरे काम काज करत हैं । ऐसई तुलसी माता की पूजा करत में इतें की बऊयें बिटियां एक कथा सुनाउन लगत हैं ।

एक गाँव में एक ननद भौजाई रत्तीं । ननद भौजाई की कैऊ ठऊआ कानियाँ कई जात है। उन दोईयन में खुट पुट तौ होतई रत । ननद रोज भुन्सरा नहा धोके सबसै पैला घर कै तुलसी घरा नौ जाकैं तुलसी महरानी की पूजा मन लगाकै करत ती फिर पछारीं कोनऊ और काम करवे की सोसत तीं। ऊकौ मन तुलसी की पूजा में भौतई लगत तौ । ऊकी पूजा देख-देख भौजाई खौं भौतई चिड़ होत ती । ननद भौजाई की नोक झोंक तौ भोतई होत रत ।

एक दिना हँसी- मजाक में भौजी ने ननद सैं कई कै तुमाये सबई काम ऐई तुलसी घरूआ सै पूरे हुइयै । का ब्याव होवे पै तुमई तुलसी घरा खौं सासरे लै जैव । ननद तौ भौतई भोरी भारी हती । वा कनलई कै भौजी हम का जाने, बेई तुलसी मइया जाने । हमसै तौ जैसी लटी दूबरी बनत सो सेवा पूजा में लगे रत। ऊकी भौजी तौ भौत चालू हती । वा ननद खौं नैचो दिखावै के चक्कर में हती । उर वा मौका की बाठ हेरे बेंठी ती।

पूजा करत-करत ननद बाई स्यानी हो गई । उर ब्याव लाख हो गई, ऊकौ भइया ने एक गाँव में अच्छौ सौ लरका देख कै बैन कौ ब्याव तैकर दओ । ब्याव कौ समय आवे पै बाजे- गाजे सैं बरात आ गई। टीका हो गओ उर फिर भोजनन के लाने आँगन में पंगत बैठ गई। मौका देख कै भौजी खौं खुरापात सूझी। जईसै बरतयन खौं पत्तले परसी गई, सोऊ भौजी ने अपने आदमी बुलाकै पातरन पै तुलसी घरूवा की माटी परसुवा दई ।

अकेले भगवान की ऐसी कृपा भई कै पातरन पै माटी की जगा पै छप्पन बिंजन बन गये । बरतयन ने खूब छककैं भोजन करे। उर भोजन की भौत तारीप करी । जौ सब देख के भौजी ता करकैरै गई । ऊकी जा चाल बेकार चली गई, उर वा हात मीड़त रै गई । अकेले भौजी ने हार नई मानी । ऊनें बिदा की बेरा दायजे में तुलसी घरूवा धर दओ। उर उये पैरवै खौं तुलसी की मंजरी उर माला धर दई । भगवान की ऐसी कृपा भई कै तुलसी धरूवा के तौ सोने चाँदी के ढेरन बासन भाड़े बन गए ।

उर तुलसी की माला उर मंजरी के कैऊ तरा के हीरा-मोती उर सोने के जेवर बन गये । वा अपनौ करम ठोक कै रै गई । उर सोसन लगी कै मैं तो ईको कछूअई नई बिगार पाई। साँसऊ ईकै ऊपर तुलसी माता की पूरिअई कृपा है।

कछू दिना में ओई भौजी की बिटिया ब्याव लाख हो गई । ऊनें सोसी कै धर के तुलसी धरा में तौ भौतई जादू है । बिनई कछु करे धरे पूरे काम बन जात। हम काय खौं ब्याव के लाने कोनऊ इंतजाम करबे। वा तनक कैवे सुनवे खौं अपनी बिटिया सें तुलसी की पूजा करवाउन लगी। ऊने बिटिया कौ ब्याव पक्कौ करवा दओ । दोरे बरात आ गई, उर जईसै बरात की पंगत बैठी सोऊ ऊनें पातरन में ननद की घाई तुलसी धरूवा की माटी परसुवा दई ।

अकेलै होत का हतो जौतो ऊकौ ढोंग धतूरों हतो । पातरन में भोजन की जगा माटी देखकै बरतया नाराज हो-हो कै पातरै छोड़-छोड़ के वायरे भग गये । और भौजी के घर की भौत निंदा भई | ऐसई जब बिटिया की बिदा होन लगी सो भौजी ने दायजे की जगा तुलसी धरा धर दओ । बिटिया की ससुरार में ऊके बाप मताई की भौतई थू-थू भई । उर फिर जीवन भर खौं बुराई की गाँठ बंध गई । उर हमेशा के लाने बिटिया कों मायको छूट गओ ।

कजन कोऊ काऊयें गड़ा खोदत तौ भगवान की कृपा सें दूसरे को कछू नई बिगरत। अकेले वे गड़ा खोदवे वारे खुदई गड्डा में गिरत । देखो ऊने ननद कौ तो कछू नई बिगार पाओ, उर भौजी की बिटिया को जीवन भर के लाने मायकों छूट गओ । जो साँसे मन सैं तुलसी मइया की सेवा करत । उनकी ऊपै हमेसई कृपा बनी रत । ढोंग ढकोसला से कछू नई होत। जौ तौ हतो ऊ भौजी को हाल ।

अकेले ऊकों भइया तो अपनी बेन खौं भौत चाऊत तो। जब बिलात दिना से बेन नई मिली तो एक दिन भइया ने अपनी घरवारी से कई के देख री बिलात दिना हो गये। हम अपनी बेन की खबर – दबर लैन जा रये । कछू भेंट के लाने धरें होव तो दै देव। वा तौ पैलऊ सैं ऊसे जरी भुनी बैठी ती सोस रई ती कै मैं ऊरडवाल कौ कछू बिगार नई पाई। हमने ऊकौ बुरओ करो उर ऊकौ भलो होत गओ । उर हमाई बिटिया सों खड़न खपरन मिल गई ऐसी सोच कैं ऊने एक पुटइया में जुनई के कनूँका बाँध कैं कई कै जाव चले जाव अपनी लाड़ली बैन के घरै।

बिटिया के ना जाबे की तौ तुम कभऊँ चर्चई नई करत । भइया मौगो चालौ जातनई ऊने वा पुटइया बैन की सास खौं गुआ दई । तुलसी मइया की कृपा सैं वे जुनईके कनूँका हीरा उर जवाहरात बन गये। देखतनई सबखौं भारी हाल फूल भई । बैन भइया सैं मिलकै फूली नई समा रईती। भइया की भौत खातर दारी भई। दो चार दिना रैके अपनी बैन खौं लुआ कै घरै लौट आये। देखो जो होत भक्ति कौ फल । भक्ति कभऊँ निरफल नई होत ।

भावार्थ

बुंदेलखण्ड में वृक्षों को देवता मानकर उनकी पूजा की जाती है। वैसे तो अनेक वृक्ष पूज्य हैं और उनमें देवताओं का निवास रहता है, जैसे ‘अकौआ और धतूरे में शंकर जी का वास, तुलसी-पीपल और बरगद में भगवान विष्णु का वास और गूलर के वृक्षों पर प्रेतों का वास माना जाता है। इसी कारण हिन्दू संस्कृति में वृक्षों की पूजा का विशेष महत्त्व है ।

चतुर्दशी को अकौवा, बसंत पंचमी को आम्र का बौर बरसात को वट-वृक्ष, सोमवती अमावस्या और शरद पूर्णिमा को तुलसी के पौधे की पूजा की जाती है। भगवान को प्रसाद लगाते समय तुलसी दल रखकर पूजा की जाती । पूरे कार्तिक माह में महिलाएँ तुलसी पूजा करके परिक्रमा लगाती हैं, और गाती हैं- ‘ तुलसा महारानी नमो नमो।’

सोमवती अमावस्या को तुलसी के गमले अथवा तुलसी- -घरा की परिक्रमा की जाती है। हिन्दू संस्कृति में तुलसी का विशेष महत्त्व है । शरद पूर्णिमा के दिन तुलसीघरा के सामने भगवान सत्यनारायण के लड्डुओं की पूजा की जाती है। बुंदेलखण्ड के हर घर के आँगन में तुलसीघरा स्थापित करने की परम्परा है। स्नान करके परिवार की महिलाएँ सर्वप्रथम तुलसी की पूजा करती हैं, तत्पश्चात् घर-गृहस्थी के अन्य कार्यों का संचालन ।

इसी प्रकार तुलसी माता की पूजा समय परिवार की वयोवृद्ध महिलाएँ इस प्रकार की एक कथा सुनाया करती हैं –

एक ग्राम के एक परिवार में ननद-भाभी रहा करती थी । ननद-भाभी की नोंक-झोंक पर आधारित अनेक लोक कथाएँ कही जाती हैं । ननद बहुत ही सहज और सरल स्वभाव की थी। भाभी बात-बात में ननद की गल्तियाँ खोज – खोजकर ताने मारती रहती थी। वह उसकी सरलता का दुरुपयोग करती रहती थी ।

इस कारण से परिवार में उन दोनों की सदा खट-पट बनी रहती थी। आये दिन भाभी का क्रोध अपनी ननद पर भड़कता ही रहता था । उसकी ननद बड़े ही सात्विक धार्मिक स्वभाव की थी । प्रात:काल स्नान करके सर्वप्रथम तुलसी माता की पूजा करती, तत्पश्चात् घर के अन्य कार्य । ये सब देखकर भाभी को अच्छा नहीं लगता था । वह सोचती थी कि ये कब यहाँ से टले और मैं चैन की वंशी बजाऊँ ।

ननद का सर्वाधिक लगाव तुलसी की पूजा में ही था, किन्तु भाभी को उसकी पूजा देख-देखकर मन ही मन चिड़-चिड़ाहट सी भरी रहती थी। एक दिन उसकी भाभी ने ननद से कहा कि तुम्हारे तो सारे कार्य इसी तुलसीघरुआ के द्वारा ही पूरे होंगे। तुम अपनी शादी के समय इसी तुलसीघरुवे को साथ में लेकर अपनी ससुराल चली जाना। ननद तो बहुत ही भोली भाली थी ।

उसने कहा कि मैं तो कुछ जानती ही नहीं हूँ, वही तुलसी माता जाने। मैं तो उन्हीं की कृपा पर जीवित हूँ । मुझसे तो जैसी बनती है सो मैं तो उनकी उल्टी-सीधी पूजा करती रहती हूँ । किन्तु भाभी बहुत चालाक थी । वह ननद को नीचा दिखाने की कोशिश करती रहती थी । वह सदा अवसर की तलाश में रहती थी कि कब मौका मिले और मैं इसे नीचा दिखा दूँ।

पूजा करते-करते ननद का सारा बचपन बीत गया और धीरे-धीरे युवाकाल आ गया। ननद विवाह के योग्य हो गई। भले ही भाभी उससे ईर्ष्या रखती थी । किन्तु भाई का अपनी छोटी बहिन पर अत्यधिक प्यार था । भाई अपनी छोटी बहिन का संपन्न घर – परिवार में विवाह करना चाहता था। उसने एक समीपवर्ती ग्राम में एक अच्छा सा घर और वर तलाश कर अपनी बहिन की शादी निश्चित कर दी।

समय आने पर बाजे-गाजे के साथ बारात उनके घर पर आ गई। बारात का अच्छी तरह से स्वागत-सत्कार हुआ । विधिवत् द्वार – चार हुआ। इसके बाद आँगन में बारातियों की पंक्ति बैठ गई। उसकी भाभी तो ननद से जली – भुनी बैठी ही थी । वह ननद के शुभकाज मे बाधा उत्पन्न करना चाह रही थी । उसने बारातियों की पत्तलों पर भोजन के स्थान पर तुलसीघरे की मिट्टी परसवा दी । वह सोचती थी कि पत्तलों पर मिट्टी देखकर बाराती नाराज होकर उठ जायेंगे और ननंद का विवाह संपन्न नहीं हो पायेगा, जिससे ननद को कुलक्षणी मान लिया जायेगा।

किन्तु ननद पर तो तुलसी माता की पूर्ण कृपा थी। उनकी कृपा से बारातियों की पत्तलों पर उस मिट्टी से छप्पन व्यंजन बन गये । बारातियों ने जी भरकर भोजन किया और प्रीतिभोज की बहुत प्रशंसा की। ये सब देखकर भाभी मन मारकर रह गई, किन्तु वह तो उसे नीचा दिखाने पर तुली ही थी। उसने ननद की विदाई के अवसर पर दहेज के स्थान पर तुलसीघरुआ रख दिया।

गहनों के रूप में उसे उसने तुलसी की माला और मंजरी पहना दी। किन्तु तुलसी माता की कृपा से तुलसीघरूआ के स्थान पर सैकड़ों सोने-चाँदी के बर्तन बन गये और माला – मंजरी के स्थान पर सोने और हीरों के हार बन गये । वह सोचने लगी कि वास्तव में इस पर तो तुलसी माता की पूर्ण कृपा है, जिसके कारण मैं इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी ।

कुछ दिन बाद भाभी की लड़की विवाह के योग्य हो गई। उसने अपनी लड़की का विवाह निश्चित कर दिया। वह ननद के विवाह में तुलसीघरुआ का प्रभाव तो देख ही चुकी थी, किन्तु उसके मन में तुलसी माता के प्रति रंच मात्र भी भक्तिभाव नहीं था । उसने सोचा कि मैं अपनी लड़की की शादी में तुलसीघरुआ का उपयोग करूँगी और उसी से मेरे सारे काम पूर्ण हो जायेंगे । यह सोचकर उसने कोई विशेष तैयारी नहीं की और थोड़ी बहुत वह अपनी पुत्री से तुलसी माता की पूजा करवाने लगी, किन्तु यह तो केवल प्रदर्शन ही था ।

ऐसा कहा जाता है कि भगवान तो केवल भाव के ही भूखे होते हैं। बाबा तुलसी भी कुछ इसी तरह की बात कह गये हैं-
निर्मल जन मोरे मन भावा ।
मोहि कपट छल छुद्र न भावा ।।

उसकी लड़की की बारात आ गई और टीका के बाद बारात भोजन करने के लिए आँगन में बैठ गई। उसके घर में भोजन की तैयारी तो थी नहीं, उसने बारातियों की पत्तलों पर तुलसीघरुआ की मिट्टी परसवा दी । किन्तु उस मिट्टी से व्यंजन तैयार नहीं हुए और बाराती नाराज होकर पत्तलें छोड़कर बाहर निकल गये, जिसके कारण भाभी को नीचा देखना पड़ा।

इसी प्रकार लड़की की विदा के समय भाभी ने दहेज के स्थान पर तुलसीघरा रख दिया। जिसे देखकर लड़की की ससुराल में उसकी बहुत किरकिरी हुई और जीवनभर के लिए ससुराल वालों के मन में बुराई की गाँठ बन गई । ससुराल वाले इतना ज्यादा नाराज हो गये कि उन्होंने लड़की को मायके नहीं जाने दिया। प्रायः ऐसा कहा जाता है कि जो किसी के मार्ग में गड्ढा खोदता है तो उस पथिक का कुछ भी नहीं बिगड़ता, बल्कि गड्ढा खोदने वाला ही गड्ढे में गिरता है ।

देखिये भाभी तो ननद का कुछ बिगाड़ नहीं सकी और दुर्भावना के कारण उसकी लड़की का जीवन संकटमय हो गया। ये बात सोलह आने सत्य है कि जो सच्चे मन से तुलसी माता की पूजा सेवा करता है, तुलसी माता की सदैव उस पर कृपा रहती है। उसका कभी अकल्याण नहीं हो सकता।

ये तो था व्यवहार उस ननद की भाभी का, किन्तु उसका भाई अपनी बहिन से बहुत प्यार करता था । एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा कि बहिन को ससुराल गये बहुत दिन व्यतीत हो गये मैं अपनी बहिन को देखने के लिए उसकी ससुराल जा रहा हूँ । यदि कुछ उपहार के लिए हो तो मुझे दे दो ।

उसकी पत्नी तो पहले से ही जली-भुनी बैठी थी । वह सोच रही थी कि मैं तो उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी। जैसे-जैसे मैंने उसका बुरा किया, वैसे-वैसे उसका भला होता गया और हमारी लड़की का सारा जीवन दुखःमय हो गया । अंत में उसने एक पोटली में ज्वार के थोड़े से दाने देकर कहा कि अब आप चले जाइये, अपनी लाड़ली बहिन के घर पर। तुम अपनी लड़की को बुलाने की तो कभी चर्चा ही नहीं करते हो?

भइया वहाँ से चुपचाप उस पोटली को लेकर चल दिया और बहिन की ससुराल पहुँचकर उसने वह पोटली बहिन की सास के हाथ में दे दी। किन्तु तुलसी माता की कृपा से वे ज्वार के दाने हीरा और जवाहरात बन गये, जिसे देखकर सारे परिवार ने पुत्रवधू के मायके वालों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। अपने प्यारे भाई से मिलकर बहिन को बहुत आनंद प्राप्त हुआ। भइया का बहुत आदर सत्कार हुआ। तीन चार दिन बहिन की ससुराल में रहकर अपनी बहिन को लिवाकर भइया घर लौट गये ।

देखिये, ये होता है, भाव भक्ति का सुफल भगवान की भक्ति कभी निष्फल नहीं होती। अपने भक्त को भगवान सदा सुखी और सानंद रखते हैं।

बुन्देलखण्ड के लोक देवता -वर्गीकरण 

 

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