बुन्देलखण्ड का लोकजीवन उसके संस्कार, उनकी मान्यतायें, लोकाचरण, लोकधर्म, लोकसाहित्य, लोकसंगीत इनका समन्वित रूप ही बुन्देलखण्ड की संस्कृति‘ Culture of Bundelkhand कहलाती है। बुन्देलखण्ड की संस्कृति बहुत प्राचीन है। उसमें अनार्य तथा आर्य , दोनों ही संस्कृतियों के जीवन-मूल्यों का समन्वय हुआ है। विशेषता यही है कि उन दोनों संस्कृतियों को आत्मसात कर बुन्देलखण्ड की संस्कृति‘ ने एक अलग पहचान बना ली है।
Folk culture of Bundelkhand
‘संस्कृति’ में व्यक्ति और समाज की वे क्रियायें, व्यवहार, संस्कार तथा परिष्कार सम्मिलित हैं, जिनके द्वारा व्यक्ति तथा समाज के लक्षणों को पहचाना एवं परखा जा सकता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि संस्कृति मानव के आदिकाल से लेकर आज तक की वह संचित निधि है जो निरन्तर प्रगति करती हुई, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को उत्तराधिकारी स्वरूप प्राप्त होती चली आई है तथा भविष्य में भी उसकी यही गति रहेगी।
वस्तुत: जिसे संस्कृति की संज्ञा दी जाती है वह लोक से भिन्न है। संस्कृति लोक से प्रारम्भ होकर कुछ गुण और रूपों में विशिष्ट होकर समाज में आती है। लोक कोई ठहरी हुई वस्तु नहीं है बल्कि उसका क्रमिक विकास Gradual Development होता है तथा उसी के साथ उसकी संस्कृति में भी परिवर्तन होता जाता है।
बुन्देलखण्ड एक धर्म प्रधान क्षेत्र है। खजुराहो के देव मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मन्दिर: सनक -सननन्दन-सनतकुमार का सनुकुआ, चित्रकूट में भगवान राम के वनवास काल से सम्बंधित शैल-शिखर, कुण्डेश्वर का शिवलिंग, उनाव में बालाजी का मन्दिर, ओरछा का रामराजा मन्दिर, सोनगिरि के जैन मन्दिर, कालिंजरं में नीलकंठेश्वर भगवान शिव का स्थान, विन्ध्याचल का विन्ध्यवासिनी देवी तथा मैहर की शारदा देवी आदि सब उसी के प्रतीक हैं।
यहाँ पर विष्णु शिव, दुर्गा, गणेश, हनुमान आदि पौराणिक देवताओं के साथ अनेक लोकप्रचलित देवताओं- मैकासुर या भैसासुर, भैरो बाबा, खाकी बाबा, सिद्ध बाबा, घटोई बाबा, खैरादेव या खेरापति ,ब्रह्मदेव, कारसदेव, दूल्हादेव, लाला हरदौल तथा उजवासा बाबा आदि की पूजा की जाती है तथा उनकी लोकदेवता के रूप में मान्यता है।
इन लोक देवताओं में मैकासुर की मनौती दूध देने वाले जानवरों की भलाई के लिए की जाती है। घटोई बाबा नदी के घाट के देवता हैं। नदी के प्रकोप से तथा आवागमन में ये लोगों की रक्षा करते हैं। खेरापति या खेरादेव एक प्रकार के ग्रामदेवता हैं जो गॉव वालों की परेशानियों से रक्षा करते हैं। भैरो बाबा, खाकी बाबा, सिद्ध बाबा, उजवासा बाबा पूर्व में पहुँचे हुए कोई साधु-पुरुष हैं जो लोक द्वारा कल्याण की कामना से पूजे जाते हैं। ब्रह्मदेव पीपल में निवास करने वाले देवता हैं जिसके नाराज होने पर अनिष्ट की सम्भावना रहती है।
बुन्देलखण्ड के लोक जीवन में कारसदेव व हरदौल ऐतिहासिक महत्व के लोक- देवता हैं। इन देवताओं के साथ उनके सहयोगी देवता हैं- जैसे कारसदेव के सहयोगी हीरामन तथा हरदौल के सहयोगी दूल्हादेव। ‘कारसदेव’ बुन्देलखण्ड में पशुपालक जातियों – अहीर, गूजर आदि के देवता हैं , जिनके प्रकोप से पालतू पशुओं में बीमारियों फैलती हैं, अत: पशुओं को बीमारी से बचाने के लिए इनकी पूजा करते हैं।
लाल हरदौल को बुन्देलखण्ड में विवाह आदि शुभ-कार्यो के अवसर पर सबसे पहले न्योता दिया जाता है, ये बुन्देलखण्ड में एक तरह से गणेश-देवता की तरह मान्य होकर पूजे जाते हैं। बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति Folk culture of Bundelkhand के प्रतीक ये लोक देवता जनमानस के लोकविश्वास पर टिके हुए हैं।
अक्षय तृतीया को चमेली की पतली डाल से मनुष्य और स्त्रियाँ अपने साथियों को मार कर उनके पत्नी या पति के नाम पूछते हैं।। नागपंचमी को नाग देखे जाते हैं,जबकि दशहरा को मछली तथा नीलकण्ठ को देखना शुभ माना जाता है। शकुन-अपशकुन की अनेक मान्यताएं हैं- बिल्ली द्वारा रास्ता काटना, सियार बोलना, छींक होना, खाली घड़े का मिलना आदि अशुभ माने जाते हैं, जबकि दूध पिलाती गाय व पानी भरे हुए घड़े मिलना शुभ माना जाता है।
लोकजीवन को सहूलियत देने में जो चलन मदद करते हैं, उन्हें ‘रीतिरिवाज’ कहते हैं। इनके अन्तर्गत जन्म से लेकर मृत्यु तक के आचार-व्यवहार आते हैं. जिनमें महत्वपूर्ण जीवन- संस्कारों का विकास और उत्कर्ष देखा जा सकता है। जनपदीय -संस्कृति के जीवन-मूल्यों की रक्षा और उसका व्यक्तित्व बुन्देलखण्ड के रीतिरिवाजों में समाया हुआ
संस्कारों में भी कहीं-कहीं उसका निजीपन है। पुत्र-जन्म पर भूतप्रेत भगाने के लिए कांसे या फूल की थाली बजायी जाती है, नजर लगने से बचाने के लिए ‘राइ-नोन salt’ उतारा जाता है, खुशी में बंदूकें छूटती हैं और लड़डू-गुड़ बंटता है। इस अवसर पर ‘सोहर’ गीत गाया जाता है।
बुन्देलखण्ड की अपनी पारम्परिक विवाह पद्धति है, जिसमें कई आनुष्ठानिक रस्में- सगाई, लगुन, द्वारचार, कन्यादान,भावरें, पॉव-पखराई, कुंवरकलेऊ, विदाई मोंचायनों आदि निभाई जाती है और उनसे सम्बंधित गीत गाये जाते हैं। बुन्देलखण्ड में लड़की को विशेष पूज्यनीया माना गया है, इसी से उसके विवाह के बाद ससुराल-पक्ष के सभी लोग पृज्यनीय हो जाते हैं। यहाँ पर सास-ससुर अपने जमाता (दामाद) के पैर छूते हैं।
तीसरा प्रमुख संस्कार मृत्यु सम्बंधी है, जिसमें शवदाह से लेकर तेरहवीं तक कई संस्कार सम्पन्न होते हैं। मृत्यु एक अटल सत्य है किन्तु पुनर्जन्म की मान्यता के कारण दुख में भी आशा के चिह्न दिखायी देने लगते हैं।
बुन्देलखण्ड की संस्कृति की रक्षा और उसके संपोषण में महिलाओं का विशेष योगदान है। यहाँ के लोकाचारों (रीति-रिवाजों) में सुहागिन नारियों के सम्मान और उनके पूजन की रीति है। यहाँ ‘गौरइंयां’ नामक लोकाचार जो कि लड़के के विवाह में बरात जाने के बाद होता है, में सुहागिन महिलाएं आमंत्रित होंती है।
विवाह के बाद लड़की जब ससुराल से लौट आती है, तब ‘सुहागिलें‘ लोकाचार होता है, जिसमें भी केवल सुहागिन स्त्रियों आमंत्रित की जाती हैं। इन दोनों ही लोकाचारों में चौक पूर कर, पूजन करके सुहागमिन स्त्रियां दूध-भात, मिठाई आदि के भोजन करती हैं। यहाँ पर कई जगह ‘मंशादेवी’ की प्रतिमाएं लक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिन्हें महिलाएं अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए ‘दशारानी‘ के रूप में पूजती हैं तथा इस अवसर पर कथाएं भी कही जाती हैं।
बुन्देलखण्ड के लोकाचरण (रीति-रिवाज) में लोक-उत्सवों का अपना स्थान है, जिनमें नौरता या सुअटा, झिजिया, मामुलिया, अकती, जवारे, भुजरियों अथवा कजलियाँ आदि को उल्लास-पूर्वक मनाया जाता है। इन लोक-उत्सवों में बालिकाओं की विशेष भागीदारी रहती है।
‘नौरता या सुअटा’ आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की परवा से नवमी तक मनाया जाने वाला पर्व है जिसमें कुवांरी (अविवाहित) कन्यायें भाग लेती हैं। वे सात दिनों तक प्रात: काल के समय गीत-गाकर सुअटा खेलती हैं, तब आठवें दिन रात्रि में झिंजिया का खेल होता है, जो अगले दिन समाप्त होता है।
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में ही अष्टमी के दिन बालक “टीसू‘ या टेसू’ खेलोत्सव मनाते हैं, इसी समय एक ओर जहाँ कन्यायें झिजिया गीत गाती हुई अपनी सरस स्वर लहरियों द्वारा मानस के मन को मोहती हैं, तो दूसरी ओर ये किशोर बालक टेसू गीत गाकर द्वार-द्वार घूमते हुए जनमानस का मनोरंजन करते हैं। शरद-पूर्णिमा के दिन वीर-टेसू और सुअटा-सुन्दरी के विवाह के उपलक्ष्य में प्रीतिभोज होता है। इस तरह ये लोक-उत्सव बच्चों के भावी जीवन की तैयारी के पर्व हैं।
मामुलिया / महबुलियां भी कुंवारी लड़कियों का खेल उत्सव है जो आश्विन महीने मे कृष्ण पक्ष (कहीं-कहीं भादों शुक्ल पक्ष) में मनाया जाता है, जिसमें लड़कियों काटेदार डाल पर रंग-बिरंगे मौसमी फूल सजाकर नाचते-गाते अपने पुरा-पड़ोस में प्रदर्शन करती हैं तथा बाद में तालाब पहुँचकर उसको सिरा (विसर्जित) देती हैं।
अकती या अक्षय-तृतीया को बालिकाएं पुतलियों Toy से खेलती, गीत गाती हैं। इस दिन पतंगे उड़ाने में बालक बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। बुन्देलखण्ड में भुजरियों अथवा कजलियों का त्योहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है लेकिन महोबा व उसके आस-पास के क्षेत्रों में यह त्योहार अगले दिन भादों मास की प्रथम प्रतिपदा को सम्पन्न होता है।
लोकमान्यता है कि आल्हा-ऊदल के समय महोबा पर पृथ्वीराज चौहान के आक्रमण के कारण कजलियां श्रावण मास की पूर्णिमा को नहीं सिराई जा सकी थी। इसके अगले दिन आल्हा-ऊदल द्वारा पृथवीराज को मार भगाये जाने के साथ भाद्रपद की प्रतिपदा को कजलियां सिराई गयी, तभी से यह परम्परा चली आ रही है।
इसी तरह ‘जवारे’ का उत्सव चैत्र तथा आश्विन महीनों में शुक्ल पक्ष की नवदेवियों में साल में दो बार मनाया जाता है, जिसमें ‘महामाई’ की पूजा होती है। इस अवसर पर पुरुषों के सिर पर देवी माता भी आती है। इस तरह, बुन्देलखण्ड में सामूहिक उत्सव मनाने की एक विशिष्ट लोक परम्परा मिलती है।
बुन्देलखण्ड में ‘खान-पान’ की अपनी विशेषता है। यहाँ की कच्ची समूँदी रसोई तो प्रसिद्ध रही है, जिसमें भात चावल, चने की दाल, कढ़ी, पापर, कोंच-कचरिया, बरा-मंगौरी, चीनी, घी सब मिलाकर अद्वितीय स्वाद वाली कालोनी (मिश्रण) बनती है। यहाँ महुआ और गुलगुच महुए का पका फल मेवा और मिठाई है। ‘महुआ’ बुन्देलखण्ड का जनपदीय वृक्ष है, यहाँ पर पड़ने वाले अकालों से बचने के लिए महुआ और बेर-मकोरा ही लोगों का सहारा रहे हैं।
बुन्देलखण्ड में पान-सुपाड़ी का प्रयोग पुरुष व स्त्रियों दोनों बहुतायत से करते हैं। महोबा का देशी पान खाने में बहुत अच्छा होता है, जिसकी चर्चा दूर-दूर तक फैली हुई है। बुन्देलखण्ड का जनमानस अक्खड़ और साहसी प्रवुत्ति का रहा है। किसी भी विपरीत परिस्थिति में बागी, विद्रोही और अराजक हो जाना यहाँ की भूमि, वन और जलवायु की अद्भुत देन है । इसी कारण यहाँ एक कहावत प्रचलित है- _’सौ डंडी एक बुन्देलखण्डी’।
बुन्देलखण्डी में अतिथि को पूजनीय एवं उसके आगमन को शुभ माना जाता है। अतिथि-सत्कार को यहाँ के निवासी अपना परमधर्म समझते हैं, जिससे यहाँ का जन- जीवन प्रेम, सौहाद्र और पवित्रता से परिपूर्ण है। इन सबके साथ ‘बुन्देलखण्ड संस्कृति’ की अपनी एक खास पहचान है।
विश्वास की द्रढ़ता और टेक रखने की ओजमयता, गाली देने में भी शिष्टता और अतिथि के सम्मान में स्वयं को विसर्जित करने वाली विनम्रता , तथा स्नेह की सरलता और ममता की शीतलता, सबको मिलाकर बोल की मीठी चासनी में ढाल देने में बुन्देलखण्ड की आत्मा साकार हो उठती है। वह चाहे भूखी रहे चाहे प्यासी पर इस जनपद के विशेष व्यक्तित्व को आज तक अमर किए हुए है।