Chhatrasal Ka Muglon Se yuddh छत्रसाल का मुगलों से युद्ध

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By admin

बुंदेलखंड के वर्तमान समय मे  Chhatrasal Ka Muglon Se Yuddh करने मे  सबसे बडी चुनौती थी यहां के  छोटे-छोटे राजाओं को समझाना और उन्हे एक जुट करना । बहुत से राजा डर के कारण औरंगजेब के अधीन थे । कुछ राजा औरंगजेब से दुशमनी नही लेना चाहते थे वे औरंगजेब की सहायता भी करते थे और चौथ भी देते थे । उन्हे छत्रसाल अपने साथ कैसे शामिलकरे ताकि बुंदेलखंड मुगलों से स्वतंत्र हो सके ।

जब ग्वालियर का सूबेदार मुनौवरखां छत्रसाल से हार गया

तब उससे इसकी खबर औरंगजेब बादशाह को दी। औरंगजेब को यह बात सुनकर बहुत अचम्भा हुआ और उसने छत्रसाल को दबाने के लिये बड़ी तैयारियाँ की। इस समय औरंगजेब की बादशाहत को तीनों ओर से आफतें थीं। दक्षिण में शिवाजी महाराज के मारे बादशाहत की रक्षा करना कठिन था । मध्यभारत में छत्रसाल अपना राज्य जमा रहे थे। दूँदी के राजा ने भी औरंगजेब को बहुत तंग किया था।

बि० सं० 1714 में राजा छत्रसाल हाड़ा की मृत्यु होने के पश्चात्‌ उनके पुत्र भी औरंगजेब को भरपूर तंग कर रहे थे । छत्रसाल का कमजोर करने के लिये बादशाह औरंगजेब ने दिल्ली दरबार के बाईस वजीरों और आठ सरदारों को सेना तैयार करने का हुक्म दिया। इस सेना का अधिनायक रणदूलहखां नाम का एक सेनापति हुआ ।

छत्रसाल के पास भी एक बड़ी सेना तैयार हो गई थी । इनके पास भी 72  सरदार अपनी -अपनी सेना लेकर जमा हो गए थे। इन सरदारों में मुख्य थे… रतनसाह, अमरदीवान, सबलसिंह, केशवराय पढ़िहार, धारूशाह प्रमार, दीवान दीपचंद बुंदेला, पृथ्वीराज, माधवसिंह, उदयभानु, अमीरसिंह, प्रतापसिंह, राव इंद्रमन, उग्रसेन कछवाहा, जगतसिंह, सकतसिंह, जामशाह, बखतसिंह धंधेरे, देवदीवान, भरतशाह, अजीतराय, जसबंतसिंह ( बलदिवान के पुत्र), राजसिंह, जयसिंह, यादवराय, करणसिंह, गाजीशाह, गुमानसिंह दौआ ।

इन सब की सेना मिलकर एक बढ़ी सेना तैयार हो गई थी । ये लोग अब पहाढ़ियों में न रहकर शहरों और  महलों में रहते थे तथा मुसलमानों की विशाल सेना का सामना करने के लिये अच्छी तरह से तैयार थे । रणदूलहखां अपनी बड़ी सेना लेकर दक्षिण-बुंदेलखंड में युद्ध करने को पहुँचा। इसके पास 3000 सवार और  पैदल सिपाहियों की सेना और कई तोपें भी थीं । इसके सिवाय ओरछा, सिरौंज, कांच, घमौनी और चंदेरी के भी बुंदेले अपने भाइयों के विरुद्ध मुसलमानों को सहायता देने के लिये तैयार थे ।

छत्रसाल को मुसलमानों की सेना के आक्रमण का हाल मालूम हो गया। ये सेना के पहुँचने के पहले छत्नमऊ से चलकर गढ़ाकोटा पहुँचे । उस समय गढ़ाकोटा में थोड़ी सी मुसलमानों की सेना थी। छत्रसाल ने वह किला ले लिया और उस किले में अपने मंत्री बलदिवान को कुछ सेना के साथ छोड़ आप खुद शेष सेना को लेकर युद्ध के लिये तैयार हो गए।

मुसलमानों की सेना भी बहुत वेग से आ रही थी पर जिस समय मुसलमानों की सेना शाहगढ़ के समीप थी उस समय छत्रसात ने उस सेना पर एक समीपस्थ पहाड़ की घाटी पर से गोली बरसाना आरंभ कर दिया। मुसलमानी सेना का पांचवा भाग यहीं पर सतुआनाश हो  गया। फिर मुसलमान सेना ने घाटी पर चढ़ने का प्रयत्न किया, परंतु उसी समय छत्नसाल अपनी सेना लेकर वहाँ से दूर चले गए।

मुसलमानों की सेना फिर गढ़ाकोटा के पास तक बढ़ती आई और जब सेना गढ़ाकोटा के किले के पास पहुँची तब एक ओर से राजा छत्रसाल ने गोली चलाना शुरू कर दिया और दूसरी ओर से किले के भीतर से बलदिवान गोली चलाने लगे। बादशाह औरंगजेब की सेना इस दुहरी मार को न सह सकी और रणदूलहखाँ को सागर की ओर भागना पड़ा । इस युद्ध में रणदूलहखां के दस सरदार और  सात सौ सिपाही मारे गए और दस तोपें छत्रसाल के हाथ लगी ।

रणदूलहखां का भगाते हुए छत्रसाल ललितपुर होते हुए नरवर आए । मार्ग में मुसलमानों के गाँव लूट लिए। नरबर मे पता लगा कि दक्षिण से मुगलों का बहुत सा खजाना आ रहा है ।  छत्रसाल ने तुरंत रास्ता रोककर बादशाही खजाना लूट लिया।

रणदूलहखाँ की हार की खबर सुनने पर बादशाह औरंगजेब को  बहुत दुख हुआ । इसी समय बादशाही खजाने के लूटे जाने की खबर मिली । औरंगजेब ने अब तुर्क लोगों की सेना छत्रसाल से लड़ने के लिये भेजने का निश्चय किया। तुर्क लोग बड़े जवॉमर्द समझे जाते थे और मुगल बादशाह के पास इन लोगों की भी एक विशाल सेना थी।

मुगल बादशाह औरंगजेब को पूरा विश्वास था कि यह सेना छत्रसाल को अच्छी तरह से हरा देगी। तुर्क सेना अपनी तैयारी करके रवाना हुईं और उसने छत्रसाल को अचानक बसिया नामक स्थान पर आ घेरा। इस समय छत्रसाल के पास फौज  ज्यादा न थी इससे उन्होंने तुर्की सेना का सामना नही  किया और  थोड़ी लड़ाई करके वे पीछे हट गए।

फिर छन्नसाल के एक विश्वस्त ने जाकर तुर्की सेना के तोपखाने में आग लगा दी । तुर्की सेना का तोपखाना जलने लगा। ऐसी दशा मे छत्रसाल की सेना ने मुसलमानी सेना पर आक्रमण करके उसे छिन्न- भिन्न कर दिया। इस प्रकार इस युद्ध में भी बुंदेलों का विजय प्राप्त हुई ।

मुगल बादशाह की तुर्की सेना को हराकर छत्रसाल जिगनी आए। यहाँ के जागीरदार सिंहजू पढ़िहार ने इनका स्वागत किया और अपनी लड़की भगवान कुँवरि का ब्याह छत्रसाल के साथ कर दिया ।जब बसिया के युद्ध के बारे मे मुगल बादशाह औरंगजेब को मालूम हुआ तब वह बहुत फिकर मे पड़ गया। उसे अब यह डर लगने लगा कि कहीं छत्नसाल आकर दिल्ली भी न लूट ले । उसके सरदारों में से तहवरखाँ नाम का एक सरदार बड़ा समझदार समझा जाता था। बुंदेलों को हराने के लिये अब यह सरदार नियुक्त किया गया ।

यह सरदार बढ़ा युक्तिवाद और कूटनीति में चतुर था। इस कारण इसने छत्नसाल पर खुले मैदान मे हमला करना ठीक नही  समझता और  छत्रसाल को अचानक किसी स्थान मे घेर लेने की युक्ति सोची। इस समय छत्नसाल मऊ  से अपनी बारात लेकर संडवा वाजने में अपना ब्याह करने आए थे । जिस समय भाँवरें पड़ रहीं थीं उसी समय तहवरखाँ ने अपनी फौज  लेकर छत्रसाल को घेर लिया।

भांवरें पड़ चुकने के बाद छत्रसाल ने अपने थोड़े से सैनिकों को युद्ध करने की आज्ञा दी और आप ख़ुद किसी तरह से निकल भागे तथा दूसरीओर से उसी फौज पर मार करना आरंभ कर दिया । जिस समय सारी फौज ने अपना ध्यान जिस ओर छत्रसाल थे उस ओर किया उसी समय छत्रसाल की बाकी फौज भी, जो दूसरी ओर से लड़ रही थी, छत्रसाल से आकर मिल गई और छत्रसाल अपनी सारी सेना लेकर मऊ चले आए। तहवरखाँ भी छत्रसाल का इस प्रकार कुछ न कर सका ।

छत्रसाल संड़वा-बाजने से ब्याह करके मऊ मे आ गए।  यहाँ पर चार मास बरसात में विश्राम करके विजयादशमी को अस्त्र-शस्त्र सजाकर और सेना लेकर इन्होंने कालिंजर के किले पर धावा किया। कालिंजर का किला मुसलमानों के अधिकार में था । मुसलमानों की एक बड़ी सेना इस किले में रहती थी। यहाँ के किलेदार का नाम करम इलाही था।

छत्रसाल ने अपनी सेना लेकर चारों ओर से कालिंजर का किला घेर लिया। छत्रसाल की ओर से सेनापति बलदिवान थे। किले के भीतर खूब गोली और  बारूद था ।  किले से लगातार गोलियाँ चलती रहीं जिससे बुंदेला सेना की बहुत हानि हुई। परंतु बीर बुंदेले सब सहते हुए लड़ाई करते रहे और चारों ओर से इस प्रकार घेरा डाले रहे कि किले के भीतर की फौज को खाने पीने का सामान न पहुँच सके ।

कालिंजर किले के भीतर की फौज 18 दिन तक भीतर से गोले चलाती रही । परंतु इस समय तक उसके खाने पीने का सामान कम हो गया और किले की फौज को लड़ने के लिये बाहर निकलना पड़ा। जिस द्वार से मुसलमान सेना बाहर निकलने  लगी उसी द्वार को रोककर बुंदेलों ने भीतर घुसना आरंभ कर दिया। फिर किले मे घुसकर बुंदेलों ने उसे अपने अधिकार मे ले लिया। यह युद्ध बढ़ा भयंकर हुआ और इसमे बुंदेले भी बहुत मारे गए।

नंदन छीपी, कृपाराय चंदेल, बाघराज पढ़िहार इत्यादि दस बुंदेलों के सरदार इस युद्ध में काम आए और  27 सरदार धायल हुए । परंतु बुंदेलों ने अपनी वीरता और धैर्य के बल पर किले को ले ही लिया। गढ़ कांलिंजर में छत्नसाल ने अपनी ओर से मान्धाता चौबे को नियुक्त किया। वहाँ पर कुछ फौज छोड़कर वे पन्ना होते हुए मऊ आए। इन चैवेजी के वंश के लोग कालिंजर मे बहुत दिनों तक रहे और अब भी ये समीप के नगरों मे जागीरदार हैं।

मऊ के समीप एक जंगल में छत्रसाल को बाबा प्राणनाथ मिले । बाबा प्राणनाथ जामनगर के क्षेमजी नामक एक धनी  पुरुष के लड़के थे। उन्होंने घर बार  छोड़कर वैराग्य ले लिया था । ये एक पहुँचे हुए योगी थे। छत्रसाल ने इन्हें अपना दीक्षा-गुरु बनाया । छत्नसाल को योग्य पुरुष देखकर बाबा प्राणनाथ ने आशीर्वाद दिया और वे सदा छत्रसाल को धर्म और देश-रक्षा के कार्य में सलाह और सहायता देते रहे ।

छत्रसाल ने विक्रम संवत्‌- 1742  में सागर को लूटा ।  सागर इस समय मुगल बादशाह के अधिकार में था । सागर लूटने के बाद दमोह लूटा और फिर बरहटा के राजा को अपने अधिकार में किया। फिर एरच की ओर धावा किया और एरच, और जलालपुर को लूटा । इनकी लूटमार में प्रजा को  अधिक कष्ट नही  होता था और जो जागीरदार छत्रसाल की अधीनता स्वीकार कर उन्हें दंड दे देते थे उन जागीरदारों को वे बिल्कुल तंग नही  करते थे ।

बेतवा के समीप जलालखाँ नामक सुसलमान सरदार ने छत्रसाल को रोकना चाहा परंतु छत्रसाल ने जलालखां को कैद कर लिया ।  उसकी फौज भागकर सैयद लतीफ नामक मुगल सरदार की फौज में जा मिली ।  

सैयद लतीफ ग्वालियर के समीप ही था। छत्रसाल ने इस पर भी धावा मारा और लतीफ को जान बचाने के लिये दक्षिण की ओर  भागना पढ़ा, उसकी फौज के 100  अरबी घोड़े 70  ऊँट और 13  तोपें छत्रसाल को मिली । छत्रसाल वहाँ से बॉदा की ओर गए । बॉदा के निवासियों छत्रसाल का स्वागत किया इस लिये छत्रसाल ने उन्हें अभयदान दिया। राजगढ़ के समीप फिर तहवरखां की फौज मिली । छत्रसाल ने इस फौज को फिर अच्छी तरह से हराया।

फिर छत्रसाल कालपी की ओर चले । यहाँ के एक सरदार दुर्जनसिंह पडिहार ने छत्रसाल की शरण ली  और छत्रसाल ने उन्हें अभय दान दिया।  जिन लोगों ने छत्रसाल की अधीनता स्वीकार कर ली वे चैन में रहे, पर जिन लोगों ने उनका सामना किया वे सीधे किए गए। काल्पी का थाना छत्रसाल ने ले  लिया और वहाँ से मुसलमानी खजाना लूटकर थानेदार को भगा दिंया। छत्रसाल ने उस थाने पर अपनी ओर  से उत्तमसिंह धंधेरे को नियुक्त कर दिया ।

इसे समय ओरछ  में राजा भंगवंतसिंह राज्य करते थे | राजा यशवंतसिंह का परलोकवास विक्रम संवत्‌ 1741 में हो  गया था। जिस समय भगवंतसिंह राजगद्दी पर बेठे उस-समय वे बालक ही थे । इससे  राज्य का सब काम मंत्री लोग ही किया करते थे। इनकी माता भी, जो  इस समय जीवित थीं, राज्यकार्य में सलाह दिया करती थीं ।

मंत्रियों ने छत्रसाल से अपना संबंध तोड़कर औरंगजेब की अधीनता स्वीकार कर ली। यह समाचार पाते ही छत्रसाल विक्रम संवत्‌ 1742 में कालपी से ओरछा को रवाना हुए उन्होने ओरछा को लूटने का निश्चय कर लिया। यह बात  राजा भंगवंतसिंह की माँ अमरकुंवर ने सुना तो  वे धसान नदी पर छत्रसाल से मिली। उन्होंने छत्रसाल से ओरछा  पर आक्रमण न करने के लिये विनती की और छत्रसाल को धसान के पूर्व की भूमि का अधिपति मान लिया । फिर छत्रसाल को निमंत्रित कर ओरछा ले गई ।  वहाँ छत्नसाल का अच्छा सम्मान किया ।

इसके पश्चात्‌ छत्रसाल ने ग्वालियर पर चढ़ाई की। वहाँ का सूबेदार तहवरखाँ पहले ही छत्रसाल से हार चुका था। छत्रसाल को आते देखकर उसे अपनी जान की फ़िकर पड़ गई। उसने बीस हजार रुपए नकद देकर अपनी रैयत की रक्षा की । तहवरखां ने छत्रसाल को चोथ देना भी स्वीकार फर लिया ।

फिर छत्रसाल ने मिलसे के किलेदार को बुंदेलों की अधीनता स्वीकार करने और बुंदेलों को चौथ देने की प्रतिज्ञा करने के लिये लिखा। परंतु उसने छत्रसाल को कोई उत्तर न दिया, इसलिये छत्रसाल ने मिलसे के किले पर आक्रमण करके किले को  खाली करा लिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया ।इसी समय ग्वालियर के सूवेदार ने छत्रसाल के आक्रमण की खबर दिल्ली दरबार में भेजा और बुंदेलों को चौथ देने से इनकार कर दिया।

काल्पी का किलेदार भी दिल्ली दरबार में पहुँचा । उसने बुदेलों से काल्पी के किले को  वापिस ले लेने के लिये बादशाह से सहायता माँगी। यह खबर जब औरंगजेब ने सुना तब उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। उससे छत्रसाल के विरुद्ध अनवरखां सरदार को बहुत बड़ी सेना के साथ भेजने का निश्चय किया । अनवरखाँ बुंदेलों से युद्ध करने के लिये 12  हजार घोड़े, कई हजार पैदल, बहुत से हाथी, ऊँट पर गोला बारुद का पूरा सामान लेकर चला ।

छत्रसाल उस समय मिलसे से लौट रहे थे। अनवरखाँ ने उन्हें भार्ग मे ही रोकने का विचार किया। बादशाह की इतनी बड़ी सेना देखकर बुंदेले लोग  तनिक भी नही  घबराए। उन्होंने अपनी सेना को कई भागों में बॉटकर युद्ध करने का निश्चय किया । बुंदेलों का छोटा सा झुंड मुसलमान सेना से लड़ने आते  हैं और भाग जाते हैं । र मुसलमान उसका पीछा करने लगते थे।

इस प्रकार बुंदेले योद्धा मुसलमान सेना को ऐसे स्थान पर ले गए जहाँ चारों ओर ऊँची पहाड़ियाँ थीं जिन पर बुंदेले अपनी सेना लिये हुए उपस्थित थे। यहाँ पर बुंदेलों ने चारों ओर से मुसलमान सेना पर आक्रमण कर उस विशाल सेना का बिलकुल नाश कर दिया और मुगलों के प्रसिद्ध योद्धा और  सेनापति अनवरखाँ को कैद कर लिया।

उसने कैद से छुटकारा पाने के लिये सवा लाख रुपये बुंदेलों को दिए। यह खबर सुनते ही  औरंगजेब को जो विस्मय हुआ उसका वर्णन करना असंभव है। वह क्रोध के मारे लाल हो गया । उसने भरे दरबार में अनवरखां की बेईज़्ज़ती की और उससे सरदारी की पदवी छीन ली ।

कालिंजर – अंग्रेजों से संधि 

आधार – बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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