Charua चरुआ – बुन्देली संस्कार पद्धति

Charua चरुआ - बुन्देली संस्कार पद्धति

बुन्देलखण्ड के संस्कार ,परम्पराएं लोक विज्ञान पर आधारित हैं । संतान के जन्म के बाद प्रसूता को पीने के लिए पानी और भोजन की व्यवस्था आवश्यक होती है । इस लिए प्रसूता के स्वास्थ को ध्यान में रखते हुए बुन्देली संस्कार पद्धति Charua चरुआ धराने की प्रथा प्रचलित है।  सामान्य भोजन और पानी, उसे नहीं दिया जा सकता है। प्रसूता के जीवन का यह संक्रमणकाल है । अशुद्ध जल अथवा भोजन देने से प्रसूता का शरीर अनेक रोगों का घर बन सकता है, यह लोक मान्यता है और वैज्ञानिक तथ्य भी ।

इस अवसर पर पास-पड़ोस की, घर परिवार की सुहागिन स्त्रियाँ बुलायी जाती हैं । इस अनुष्ठान की प्रमुख होती है प्रसूता की ‘सास’

। वही सर्वप्रथम अच्छा सुन्दर मिट्टी का घड़ा कुम्हार के यहाँ से मँगवाती है । गाँव का कुम्हार मटका लेकर आता है । सास उसे सम्मान के साथ चावल और गुड़ की बटी दक्षिणा के रूप में देती है, जिसे ‘आखौती’ कहा जाता है । घड़ा खूब अच्छी तरह से देखा-परखा जाता है। ध्यान रखा जाता है कि बर्तन अच्छा पका हो, उसमें पकने के दरम्यान लगने वाली ‘कालिख’ न हो ।

मटके को चारों ओर से गाय के ‘गोबर’ और ‘दूब’ से अलंकृत किया जाता है । मटके में गोबर के सहारे ‘जौ’ (जवा) के स्वस्तिक के प्रतीक की रचना प्रमुख अलंकरण होती है। इस सजावट के बाद वे कुँवारी कन्याओं और सुहागिन स्त्रियों के साथ घड़े को शुद्ध पानी से भरकर चूल्हे पर चढ़ाती हैं, जहाँ सुलभ होता है- वहाँ खैर की लकड़ियों से और जहाँ सुविधा नहीं होती – वहाँ बबूल की लकड़ियों द्वारा चूल्हे को  ‘चेताते’ हैं (प्रज्वलित करते हैं ) बुन्देलखण्ड के लोक जीवन में चूल्हा जलाना जैसे शब्द अशुभ माने गए हैं । बुन्देलखण्ड में अग्नि प्रज्वलन के लिए ‘चेताना’ शब्द का प्रयोग विशेष उल्लेखनीय हैं।

इस अनुष्ठान में सास प्रमुख होती है, वह घड़े के पानी में कुछ छोटी-छोटी खैर की लकड़ियाँ, हल्दी की पाँच गाँठें, पीपर, ताँबे का पैसा और दशमूल की औषधियों को थोड़ा कुचलकर एक नये कपड़े की गाँठ में बाँधकर घड़े में डाल देती हैं। घड़ा चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है। ध्यान रखा जाता है कि आँच न तो अधिक तेज हो और न ही कम हो । इस प्रकार मध्यम आँच में ‘चरुआ’ का पानी पकाया जाता है।

इस बीच स्त्रियाँ सामूहिक रूप में चरुआ से सम्बन्धित गीत गाती रहती है, जो प्रायः पारम्परिक ‘सोहर’ हुआ करते हैं । ये गीत अपने भाव और विचार में अपनी विशिष्टता को संजोये और अनुष्ठान की प्रक्रिया के गूढ़ पक्षों को व्यंजित करते हैं। यहाँ उदाहरण के रूप में चरुआ का एक गीत प्रस्तुत किया जा रहा है..।

पंडत बुलाऔ महूरत पुछाऔ,
सुभ घरी चरुआ धराओ बारी सजनी ।
दसामूर की पुरिया मँगाऔ,
बाके संगे एक ताँबे को पइसा
हल्दी की गाँठे, पीपर डराऔ ।
गउन के गोबर लिपाऔ बारी सजनी ।।
चौक पुराकै आखत धराकै,
चरुआ कौ पूजन करा बारी सजनी ।
सासो जू आवें चरुआ धरावें,
चरुआ धराई नेंग पाऔ बारी सजनी।
सुभ घरी चरुआ धराऔ बारी सजनी ।।

बुन्देलखण्ड की परम्परा के इस अनुष्ठान पर विचार करें कि यह गीत कितने अर्थ पूर्ण है और संकेतों से अनुष्ठान की प्रक्रिया को सूचित करता हैं । सर्वप्रथम हमारे सामने आता है ‘चरुआ’ शब्द ।  यह शब्द सहस्त्रों वर्ष पुरानी पवित्र परम्परा से इस अनुष्ठान को जोड़ता है।

यह ‘चरुआ’ शब्द वैदिक ‘चरु’ शब्द का बुन्देली रूपान्तरण है। वेद में ‘चरु‘ शब्द का अर्थ है मिट्टी का वह बर्तन जिसमें जल रखा जाता है। हम कह सकते हैं कि ‘चरुआ’ शब्द हमारी सहस्त्रों वर्ष की पवित्र परम्परा से आया है । जो आज भी लगभग उसी अर्थ में मिट्टी के जल भरने के पवित्र पात्र को इंगित कर रहा है।

‘चरुआ’ में प्रयुक्त ‘गोबर’ और ‘दूबा’ इस देश में सदा ही पवित्रता और मंगल के सूचक रहे हैं । याज्ञवल्क्य ऋषि ने जो यज्ञ विज्ञान के वेत्ता थे, उन्होंने कहा था कि दुर्वा प्राणरस है । दूर्वा रक्षक है। यज्ञ में दूर्वा का जो प्रयोग करता है, वह यज्ञ में सर्वोषधि का प्रयोग करता है।

‘गोबर’ लक्ष्मी का वास माना जाता है, ऐसी धार्मिक मान्यता है। यह जो गोबर की पवित्रता एवं समृद्धि को सूचित कर रहा है। इसी प्रकार हल्दी आयुर्वेद के अनुसार श्रेष्ठ औषधि है, रक्त शोधक है। पुराणों के अनुसार हल्दी मंगल का प्रतीक है। ‘ताँबा’ भी पुराणों के अनुसार पवित्र ‘पावक अग्नि’ का प्रतीक है। ताँबा आयुर्वेद के ग्रंथ शालग्राम निघण्टु अनुसार ‘विषघ्न’ जल के विषैलेपन को दूर करने वाला, जल को शुद्ध करने वाला कहा गया है।

गीत में यह भी कहा गया है कि ‘पीपर डराऔ बारी सजनी’, आयुर्वेद के अनुसर पीपर रोगी के लिए अति उपयुक्त है । यह एक ही औषधि नियमित रूप से लेने पर अनेक रोगों को दूर करने के लिए पर्याप्त है ‘उन्माद’ और वात विकार की सर्व स्वीकृत आयुर्वेद में वर्णित श्रेष्ठ औषधि है। गीत में फिर कहा गया है- ‘दसामूर की पुरिया मँगाऔ’ दसामूर है दसमूल (दस औषधियों की जड़ें) ।

कहा गया है कि अरनि, सालपर्णी दोनों कटेरी, गोखरू, बेल, अरलू, खंबारी और पाढ़र आदि जड़ों का योग दसमूल कहलाता है। प्रसूता को दस दिन तक इस दसमूल का काढ़ा पिलाया जाये तो उदर रोग, पसली का दर्द, त्रिदोष, सन्निपात और सूतिका रोग को भी जड़ से दूर करने वाला ये योग है। अरनि जैसी कुछ औषधियाँ तो प्रसूता के लिए मानो अमृत ही हैं, वे बबासीर, वायुगोला ( गैस ), गठिया, हृदय की निर्बलता दूर कर गर्भाशय को परिपुष्ट करती है, यह धनवन्तरि निघण्टु का कहना है।

यह है ‘चरुआ धरायी’ अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाली औषधियों का आयुर्विज्ञान के द्वारा स्वकृत पक्ष । धार्मिक दृष्टि से इसमें चौक पुराना, कुँवारी कन्याओं को बुलाना, सुहागिन स्त्रियों का होना, ‘शुभ मुहूर्त और घड़ी’ में अनुष्ठान का सम्पन्न करना आदि प्रक्रियाएँ चरुआ धरायी में प्रयुक्त होती हैं, जिनकी जड़ें हमारी परम्परा में गहरी जमी हैं ।

सामाजिक दृष्टि से इसमें पास- पड़ोस की स्त्रियों को बुलाना, मंगलगान करना, सास को विशेष सम्मान देना एवं प्रसूता द्वारा उनकी प्रसन्नता के लिए नेग के रूप में उपहार प्रदान करना, प्रसूता को आमंत्रित महिलाओं की शुभ कामनाओं से अभिशिक्त करने की क्रियायें सामाजिक सरोकार और जुड़ाव को बढ़ाती हैं, समरसता प्रदान करती हैं ।

अग्निष्टोम, श्रावणी, श्राद्ध आदि । वैष्णवों ने कुछ अन्य संस्कार बतायें हैं, माध्वों ने अलग। योगियों के सम्प्रदाय में अलग ही संस्कार माने गये हैं । सभी इस बात पर एक मत हैं कि संस्कार के प्रमुख उद्देश्य दो है, पहला हैं- दोषों का परिमार्जन और दूसरा है गुणाधान । दोष जो व्यक्ति में सन्निहित है, उनको दूर करना और जो व्यक्ति में गुण निहित हैं, उनको अत्यन्त तेजस्वी बनाना ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘चरुआ धराई’ एक संस्कार है । दोषों का परिमार्जन – प्रसूता संक्रमण से उत्पन्न रोगों को तथा रोगों के होने की सम्भावनाओं को निरस्त करने के लिए आयुर्विज्ञान द्वारा स्वीकृत सैकड़ों वर्षों से परीक्षित जल को तैयार करके देना पहले उद्देश्य की पूर्ति करता है। साथ ही कुछ औषधियाँ ‘दसमूर’ में ऐसी भी जोड़ी गई हैं, जो इस संक्रमण काल में शरीर को कांतियुक्त और पहले से भी अधिक पुष्ट बनाने में मदद करता है।

इस प्रकार हम देखते है कि यह ‘चरुआ धरायी’ अनुष्ठान सहस्त्रों वर्ष पूर्व की परम्परा से जोड़ते हुए वर्तमान सामाजिक परिवेश में भी क्रियाः वैज्ञानिक मानदण्डों पर खरा सिद्ध होने वाला, जन्म के उपरान्त होने वाले संस्कारों में से एक प्रमुख ‘अंग-संस्कार’ है। ऐसा यह ‘चरुआ धरायी’ बुन्देलखण्ड में प्रचलित संस्कार  है।

बुन्देली लोक संस्कार 

admin

Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.

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