Bundelkhand-Maharaja Veersinghdev Ke Bad बुन्देलखंड-महाराज वीरसिहदेव के बाद

Bundelkhand – Maharaja Veersinghdev Ke Bad बुन्देलखंड- महाराज वीरसिहदेव के बाद

ओरछा के राजा वीरसिहदेव बड़े योग्य शासक थे। प्रजा इनसे बहुत प्रसन्न थी । धामानी, झांसी और दतिया के किले इन्ही के बनवाए हुए हैं। दतिया के किले के बनवाने मे 8  वर्ष 10  मास 26  दिन लगे थे और बत्तीस लाख नब्बे हजार नौ सो अस्सी रुपए खर्च हुए थे। इनके 12  लड़के थे  Bundelkhand – Maharaja Veersinghdev Ke Bad उनके ज्येष्ट पुत्र जुझारसिंह राजा हुए ।

महाराज वीरसिहदेव के बाद जुझारसिह का राज काल 

जुझारसिह वि० सं० 1685 में यह अपने भाई हरदौल से किसी कारण अप्रसन्न हो गये । इससे इसने अपनी रानी से कहकर उसका नेवता करवाया और  उसी से उसको विष दिलवा दिया । रानी हरदौल को पुत्रवत चाहती थी। इससे उसने सच्ची घटना हरदौल से कह दी वे भी हरदौल ने वह विषयुक्त भोजन कर ही लिया और प्राण त्याग दिये । यह कथा बुंदेलखंड मे बहुत प्रचलित है। हरदौल मामा के नाम के चबूतरे प्रत्येक गांव मे बने हुए हैं।

विष देने की खबर जब शाहजहां को मालूम हुई तब उसने महाबतखाँ के अधीन वि० सं० 1685 मे अपनी सेना भेजी । उसकी मदद के लिये नरबर के  राजा रामदास, दतिया के  भगवंत राय, चंदेरी के भारतशाह, काल्‍पी के सूबेदार अब्दुल्लाखाँ और एरच के जागीरदार पहाडसिह अपनी अपनी सेना लेकर आए। इनके अतिरिक्त खानेजहाँ भी अपनी सेना लेकर आया था।

इस सेना को देखते ही जुझारसिंह ने संधि कर ली और  महाबतखां के  कहने पर शाहजहाँ ने भी उसे माफ़ कर दिया। पर इसके बदले इसका बहुत सा इलाका ले लिया गया और  इसे महाबतखाँ के साथ दक्षिण की चढ़ाई पर भेज दिया गया। इस सहायता के उपल्क्ष में पहाड़ सिंह को शाही डंका दिया गया।

वि० सं० 1686 में खानेजहाँ ने बगावत की। तब इसे धौलपुर के  सूबेदार अब्दुल्ला हसन ने युद्ध मे हरा दिया। इससे यह चंबल पारकर ओरछा की सीमा में घुस आया । इस समय जुझारसिह तो  दक्षिण में था। पर विक्रमाजीत ने, जो  ओरछा में था, कुछ ध्यान न दिया। इससे शाहजहाँ ने जुझारसिंह को दत्तिण से बुला भेजा और इसे तथा पहाडासिंह, धामौनी के नरहरदास, जेतपुर के चंद्रभान और भगवंतराय को खानेजहाँ को पकड़ने के लिये भेजा।

राजौरी के पास इनसे भेंट हो गई और  खानेजहाँ से युद्ध शुरू हो  गया | इसमे नरहरदास की मृत्यु हो गई । खानेजहाँ का लड़का बहादुरखां भी पहाड़सिंह के सरदार परसराम के हाथ से मारा गया, और खानेजहां दक्षिण को चला गया ।

वि० सं० 1687 में खानेजहाँ दक्षिण हैदराबाद से भागकर नर्मदा उत्तर धरमपुरी ( मालवा ) में ठहरा, परंतु यहाँ के सूबेदार अब्दुल्लाखां और  मुजफ्फ़रखां ने इसे यहाँ से मार भगाया। विक्रमाजीत ने इसे उत्तर की ओर भागने को बाध्य किया । भांडेर के पास नीमी नाम के गाँव में लड़ाई हुई और  यह हार गया, पर खानेजहाँ निकल भागा ।  अंत में कालिंजर के पास बरा में मारा गया । इसकी बदले शाहजहाँ ने विक्रमाजीत को  दो हजारी मनसब और  युवराज की पदवी दी।

वि० सं० 1689  मे विक्रमाजीत ने दौलताबाद लेने के समय बड़ो वीरता दिखलाई थी। इससे शाहजहाँ ने प्रसन्न होकर इसे पहाडसिंह को  पहाड़ी के बेनीदास और  चतुर्भुज को अच्छा पारितोषिक दिया।  वि० स० 1690 में जुझारसिंह ने गोंड़ राजा प्रेमशाह और उसके मंत्री जयदेव वाजपेयी को मार डाला और उसका किला चौरागढ़ अपने राज्य में मिला लिया। इस पर प्रेमशाह के लड़के हृदयशाह का पक्ष लेकर शाहजहाँ ने वि० सं० 1691 में ओरछा पर चढ़ाई की।

राजा जुझारसिंह यहाँ से धामानी गया । परंतु शाही फौज ने उसका पीछा किया, जिससे चौरागढ़ होता हुआ यह चॉदा की ओर चला  गया। यहाँ पर भी शाही फौज ने इसका पीछा नही  छोड़ा। जुझारसिंह ने अपने कुटुम्बियों को दक्षिण की ओर भेजकर जंगल में जा छिप गया । यहाँ पर गोंड़ों ने इसे और विक्रमाजीत को पकड़कर बढ़ी निर्दयता से मार डाला।   

खानेजहां ने दोनों के सिर काटकर शाहजहां के पास भेज दिए । इसकी बाद जुझारसिंह का छोटा लड़का दुर्गभान और विक्रमाजीत का लड़का दुर्जनसाल मुसलमान बनाए गए और इनके नाम इस्लामकुलीखां तथा अलीकुलीखाँ रखे गए। छोटा लड़का भी, जो गोलकुंडे में उदयभान और श्यामदौआ के पास था, मुसलमान बनाया गया और इस्लामकुलीखां के साथ पढ़ने को भेजा गया।

उदयभान और श्यामदौआ, मुसलमान होने से इनकार करने पर, मारे गए।  इस समय सेनापतित्व औरंगजेब को दिया गया था और  उसकी मदद के लिये अब्दुल्लाखां बहादुर फीरोजजंग और खानदौरान के सिवाय, चंदेरी के राजा देवीसिंह, रीवां के बघेल राजा अमरसिंह, एरच के पहाडसिंह और जेतपुर के चंद्रभान आए थे।

जुझारसिंह की मृत्यु के पश्चात्‌ वि० सं० 1693 में धामैनी में सरदारखाँ किलेदार रखा गया था। बाद मे यह बि० सं० 1701  में मालवा का सूबेदार बनाया गया। यह यहाँ पर सं० 1710  तक रहा। उर्दू और अँगरेजी इतिहासों में जुझारसिंह की चढ़ाई का कारण नहीं बतलाया गया, पर ऐसी जनश्रुति है कि प्रेमशाह अपने पिता मधुकरशाह की मृत्यु का समाचार सुन वीरसिंहदेव से बिना मिले ही दिल्ली से चला आया था। उसी अपमान का बदला प्रेमशाह से वीरसिंहदेव के पुत्र जुझारसिंह ने लिया था।

कुछ लोगों का कहना है कि गोंडवाने में बैल के साथ-साथ गाएँ भी जोती जाती थीं। इसकी और बुंदेला राजाओं की सीमा मिली हुई थी। ये लोग  गोभक्त थे। इनको गायों का जोतना इन्हें बहुत ही बुरा लगता था, पर विरोध करना नही  चाहते थे। इतने मे एक दिन एक भांट आया। उस समय पहाड़सिंह दातौन कर रहे थे। भांट ने पहाडसिंह से गायों का दुःख कहा , जिसे सुन वे उठ खड़े हुए और  लड़ाई के लिये जाने लगे ।

तब जुझारसिंह ने चढ़ाई की । किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि पहाड़सिंह के राज-काल ही में यह घटना घटी हो, जिससे पहाडसिंह ने वि० सं० 1708 मे हिरदेशाह पर चढ़ाई की हो। वि० सं० 1691मे राजा देवीसिंह ने ओरछा की चढ़ाई के  समय शाही सेना का साथ दिया था। इससे शाहजहाँ ने जुझारसिंद के मारे जाने पर इसे ही ओरछा का राजा बनाया, पर यह शांति स्थापित न कर सका ।

इससे दो वर्ष के बाद बि० सं० 1693 में यह चंदेरी वापस कर दिया गया और जुझारसिंह के छोटे लड़के पृथ्वीराज को गद्दी दी गई, किंतु यह छोटा था। इससे ऐसे कठिन समय में जब कि चंपतराय के समान थोद्धा, जिसके आक्रमणों को मुगल सेना भी नही  रोक सकती थी।

ऐसे छोटे बालक से प्रबंध होना कठिन था। इससे यह वि० सं० 1694 मे कैद कर ग्वालियर भेज दिया गया । इसके कैद होते ही चंपतराय ओरछा की गद्दी पर आ बैठा और बादशाही सेना पर छापे मारने लगा। अंत मे शाहजहां ने हार मानकर चंपतराय को दबाने के लिये शहबाजखाँ के सेनापतित्व में एक बड़ी सेना भेजी और  उसकी सहायता के लिये फत्तेखाँ और बाकीखाँ भी आए, किंतु ऐसी बड़ी सेना भी चंपतराय के सामने न ठहर सकी और हार मानकर वापस चली  गई।

इसके जाते ही चंपतराय सिरौंज, भेलसा, धार, उज्जैन लूटते हुए धामैनी आए । इस समय यहां पर सरदारखाँ रहता था। इसे भी अपना प्राण बचाना कठिन हो गया। अंत में इन्होंने घामौनी को लूट लिया और ग्वालियर पर छापा मारा। इस तरह से इन्होंने नर्मदा से लेकर चंबल के के आस-पास के राज्य लूट लिए। जब इनके आाक्रमणों की खबर शाहजहां को मिली तब उसने खानेजहाँ के नेतृत्व में एक बड़ी सेना फिर चंपतराय को दबाने के लिये भेजी।

इसकी मदद के लिये सैयद मुहम्मद बहादुरखां और अब्दुल्लाखां भी आए थे । पर चंपतराय का कुछ न कर सके और हार मानकर वापस चले गए। इस तरह लगातार चार वर्ष तक तंग होने के पश्चात् शाहजहाँ ने वि० सं० 1698 में पहाड़सिह को ओरछा की गद्दी दे दी  ।

शाहजहाँ ने वि० सं० 1698 में पहाड़सिंह को ओरछा की गद्दी दे दी थी । पश्चात्‌ उसने इसे 5000हजारी सनसब दिया झौर 2000 सवार रखने की आज्ञा दे दी । इस समय चंपतराय उससे मिलने के लिये इस्लामाबाद ( जतारा) आए। पहाड़सिंह ने उनका बड़ा स्वागत किया। इनका ( पहाडसिंह ) एक बड़ा विश्वासी मंत्री नसीमुदौला नाम का मुसलमान था।

बुंदेलों का यवनों के विरुद्ध आंदोलन इसे पसंद न था और  चंदेरीवाले पहले ही से ओरछा से असंतुष्ट थे । इतना ही नहीं किंतु इन्होंने मुसलमानों और गोँड़ लोगों को ओरछा के विरुद्ध सहायता भी दी थी। परंतु ओरछा के राजा और चंपतराय का मेल ही इस समय बुंदेलखंड की रक्षा कर रहा था।

ओरछा के मंत्री नसीमुद्दौला ने इसे भी नष्ट कर देना चाहा। चंपतराय पहाडसिंह का बहुत मान करते थे और उनके नेतृत्व में रहना स्वीकार करते थे, परंतु चंपतराय की बहादुरी किसी से छिपी न थी। राज्य भर मे जितना मान चंपतराय का था उतना किसी और का नही था। इससे पहाडसिंह को ईर्ष्या उत्पन्न हुई और वजीर नसीमुद्दौला भी समय समय पर उनके कान भरा करता था। एक दिन उसने चंपतराय के मारने की सलाह दी ।

पहाड़सिंह उसके कहने में आ गया और निमंत्रण के बहाने चंपतराय को बुलाकर उसने भोजन में विष देने का विचार किया। चंपतराय को निमंत्रण भेजा गया। वे ओरछा आए । इस समय पहाड़सिंह ने बढ़ी खातिर की, परंतु भेजन के समय किसी कारण से इनके भाई भीम को संदेह हो गया । इससे उसने अपने पराक्रमी और वीर भाई चंपतराय की रक्षा के लिये जो थाल चंपतराय को दिया गया था उसे स्वयं हे लिया और अपना चंपतराय को दे दिया।

इस विष-मिश्रित भोजन के करने के कुछ देर पश्चात्‌ ही भीम के प्राण-पखेरू तो उड़ गए, पर पहाडसिंह की इच्छा पूरी नही  हो पायी। जिस जगह चंपतराय आदि को भोजन करवाया गया था उस जगह ऐसा प्रबंध किया गया था कि यदि भीम चंपत राय से साफ़ साफ कहते तो  दोनों की जान जाती, इससे भीम वहाँ कुछ न बोले और उन्होंने चंपतराय की बला अपने ऊपर ले बंधु-प्रेम की वेदी पर अपना बलिदान कर दिया ।

पहाडसिंह ने  इस कुकृत्य से ओरछा राज्य और चंपतराय मे अनबन हो गई । अब पहाड़सिंह चंपतराय को हानि पहुँचाने के लिये तरह तरह के उपाय करने लगे । बि० सं० 1697 में कंदहार के अलीमर्दा ने ईरान के बादशाह से तंग आकर अपना इलाका शाहजहाँ बादशाह को  दे दिया और उससे मदद लेकर इरान पर चढ़ाई की, पर कुछ लाभ नही  हुआ। पहाड़सिंह को शाहजहाँ ने ओरछा की गद्दी और पंच हजारी मनसब दिया था और  इसने उसकी फरमाबरदारी कबूल कर ली  थी ।

पर जब राजा जगतसिंह ( कोठा का राजा ) और मुराद के सेनापतित्व मे भेजी हुई सेनाएँ भी कंदहार मे  असफल हो गई और वहाँ शांति स्थापित न कर सकी तब शाहजहाँ ने औरंगजेब के सेनापतित्व में वि० सं० 1702 मे फिर फौज भेजी और इसकी सहायता के लिये ओरछा के राजा पहाड़सिंह को भी साथ में भेज दिया। इसके पश्चात्‌ वि० सं० 1704 मे फिर यह कंदहार भेजा गया।

जुझारसिंह की मृत्यु के पश्चात्‌ सरदारखाँ धामौनी में रखा गया था। पीछे से यह मालवे का सूबेदार और चौरागढ़ का तमूलदार ( खिराज वसूल करने वाला ) बनाया गया, पर इससे चौरागढ़ का प्रबंध नही  है सका । इससे बि० सं० 1708 मे चौरागढ़ की जागीर पहाडसिंह को दे दी गई। साथ ही उसका एकहजारी मनसब भी बढ़ाया गया। इससे पहाड़सिंह ने हृदयशाह पर चढ़ाई की पर वह भयभीत हो रीवॉ के बधेलराजा अनूपसिंह के पास चला आया । गोंड़वाने में गायें भी जाती जाती थीं।

यह बात पहाडसिंह को बहुत बुरी लगी । इससे ये दौलताबाद तक बढ़ते गए। यहाँ पर इन्होंने पहाड़सिंहपुरा नाम का एक गाँव बसाया जिसकी आमदनी अब भी ओरछा राज्य को मिलती है। यहाँ से वापस आने पर पहाड़सिंह ने रीवॉ पर चढ़ाई की। राजा अनूपसिंह और  हृदयशाह दोनों जंगल की ओर भाग गए। पहाड़ सिंह ने रीवा को मनमाना लूटा । इतने मे औरंगजेब के साथ जाने के लिये शाहजहां ने इसे बुलाया। यह लूट में से 1  हाथी और 3 हथिनियाँ लेकर शाहजहां से मिला और वि० सं० 1709मे फिर भी कंदहार की चढ़ाई पर गया ।

पहाडसिंह विक्रम संवत्‌ 1720 में परलोक सिधार गये । इसके सुजानसिह और इंद्रमणि नाम के दो लड़के थे। इसकी रानी का नाम हीरादेवी था। पहाड़सिह के मरने पर इसने भी चंपतराय और छत्रसाल को हानि पहुँचाने में अपने पिता से कुछ कम प्रयत्न नही  किए ।

भीम की मृत्यु के पश्चान्‌ राजा पहाडसिंह और चंपत राय में अनबन हो गई थी । इससे पहाडसिंह हर समय चंपतराय को हानि पहुँचाने के  षड़यंत्रों मे लगा रहता था । अंत मे इन्हेंने शाहजहाँ से संधि करना ही उचत समझा । शाहजहाँ भी इनसे तंग आ गया था । इससे उसने भी इनके बुलवाने में विलम्ब  नही  किया । ज्यों ही महाराज चंपतराय शाही दरबार मे पहुँचे, शाहजहाँ ने इनका बड़ा सत्कार किया और 5 हजारी मनसब दे संधि कर ली ।

उस समय शाहजहाँ कंदहार में शांति स्थापित करने में लगा हुआ था, पर कई वार सेना भेजने पर भी शांति स्थापित नही  कर सका था। इस समय  वह अपने ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह को कंदहार भेजने के प्रबंध मे लगा था । शाहजहाँ को चंपतराय के पराक्रम और वीरता का पूर्ण परिचय था ।  इससे वि० सं० 1710 में उसने अपने पुत्र दाराशिकोह के साथ महाराज चंपतराय को भी कंदहार की चढ़ाई पर भेज दिया।

वहाँ पहुँचते ही महाराज ने बढ़ी वीरता दिखाई और प्राणों की बाजी लगाकर विजय प्राप्त की। वहाँ से वापस आते ही शाहजहां ने इन्हें कोंच की जागीर दी और  १२ हजारी मनसब दे इनकी वीरता की भूरि भूरि प्रशंसा की। इसे सुन दाराशिकोह मन ही मन कुढ़ उठा और  उन्हें हानि पहुँचाने की चेष्टा करने लगा।

ऐसा कहते हैं कि इस षड़यंत्र मे पहाड़सिंह भी  मिल गया और दोनों  ने सलाह कर कोंच की जागीर निकाल लेने का सनसूवा बॉधा । इस समय राज्य-प्रबंध का बहुत सा काम दाराशिकोह ही किया करता था, इससे इसे मनमानी करने का मैका हाथ लग गया । महाराज चंपतसय कोंच की जागीर से बादशाह को सिर्फ एक लाख रुपया देते थे ।

पहाड़सिंह के मरने पर इसका ज्येष्ठ पुत्र सुजानसिंह गद्दी पर बैठा। यह वि० सं० 1714 मे औरंगजेब के साथ बीजापुर की चढ़ाई पर गया था, किंतु वहाँ घायल हो गया और वापस चला आया था। जब शाहजहाँ की वीमारी के समय इसके बेटों में लड़ाई हुईं तब इसने किसी का भी  पक्ष नही  लिया और उदासीन बना रहा । इसने अडजार नासक गांव में सुजानसागर नाम का एक बड़ा तालाब बनवाया और इसकी मां ने मऊ के पास रानीपुरा नाम का गॉव बसाया ।

यह वि० सं० 1729  से निरसंतान मरा और इसका छोटा भाई इंद्रमणि गद्दों पर बैठा। इसके समय में सुजानसिंह सेंगर ने ओरछा पर चढ़ाई की, पर पीछे से वह वापस ‘चला  गया। इसने सिर्फ तीन वर्ष राज्य किया ।  वि० सं० 1721 में जब राजा चंपतराय अपनी रुग्णावस्था के कारण वेरछा से जटवारा होते हुए अपने पूर्वपरिचित सहरा के राजा इंद्रमणि धंधेरे के यहाँ जा रहे थे, तब रानी हीरादेवी ने दलेलदौआ के साथ 16000 सवार और अपने पुत्र इंद्रमणि को भी चंपतराय का पीछा करने के लिये भेजा था। ये एक नाला फॉदते समय घोड़े से गिरकर घायल हो गए थे ।

इंद्रमणि के मरने पर उसका लड़का जसवंतसिंह वि० सं० 1732 में राजा हुआ ।  इसके समय में मराठे लोग उत्तर की ओर अपना राज्य जमाने में लगे हुए थे और चंपतराय के मरने पर इनके पुत्र छत्रसाल भी अपना विस्तार करने मे लगे  थे। ये वि० से० 1728 तक पन्ना रियासत स्थापित करने मे लगे रहे । इन्होंने 1732 में पन्ना रियासत की राजधानी पन्ना नियत की।

भगवंतसिंह अपने पिता जसव॑तसिंह के मरने पर गद्दी पर बैठा, पर यह बहुत ही छोटा था। इससे राजप्रबंध इसकी माँ करती रही, किंतु यह बाल्यकाल ही में मर गया । इससे रानी अमरकुंवरि ने हरदौल के प्रपोत्र उदोतसिंह को गोंद लेकर गद्दी  पर बैठाया। यह बहुत ही कमजोर शासक था । इसके समय में उत्तर की ओर मराठों का बर्चस्व रहा तब भी महारानी ने अपने जीते जी रियासत को किसी प्रकार क्षति न पहुँचने दी ।

उदेतसिंह की शासन-पद्धति अच्छी न थी, पर वह निर्मीक और वीर था। औरंगजेब के मरने पर वहादुरशाह गद्दी पर वैठा । ऐसा कहते हैं कि एक दिन उदोतसिंह बहादुरशाह के साथ आखेट को निसस्त्र गया था ।  इतने में इसके पास से एक शेर निकला। यद्यपि उस समय इसके पास कोई शस्त्र नही  था तब  भी इसने उसे मार डाला। तव वादशाह ने एक तलवारभेंट में दी।

इसके समय में औरंगजेब, बहाहुरशाह, जहाँदारशाह, फरुखसियर और मुहम्मदशाह ये 5 मुगल बादशाह हुए। बहादुरशाह ने इसे बि० सं० 1766 में पहाड़सिंह पुरा की सनद दी और सं० 1771 में सिक्खों  को बगावत दबाने के लिये पंजाब भेजा था । यह गुरुदासपुर के किले में कई महीने तक युद्ध करता रहा।

अंत मे सिक्‍ख सरदार वीर बंदा पकड़ा गया और बड़ी बेरहमी से मारा गया। फरखसियर के पश्चात्‌ मुहम्मदशाह बादशाह हुआ । इसने इसे 13 महलो की सनद दी । ओरछा की रियासत घटते घटते इस समय बहुत ही छोटी हो गई थी, पर उसका मान पूर्ववत्‌ ही था।

उदोत सिंह के मरने पर उसके नाती अमरसिह का लड़का पृथ्वीसिंह राजा हुआ। इसके समय वि० से० 1787 में मराठों ने झांसी, ( मऊ–रानीपुरा ) और बरुआसागर के परगने निकाल लिए। इसके समय अहमदशाह अब्दाली की चढ़ाई, मुहम्मदशाह की मृत्यु अहमदशाह का राज्यारोहण ये ही मुख्य घटनाएँ दिल्ली मे हुई थीं । यह वि० सं० 1808 मे मरा । इसके लड़के गंधर्वसिंह का तो पहले ही देहांत हो  गया था, इसलिये इसका पुत्र सामंतसिंह गद्दी पर बैठा।

इसने वि० सं० 1815 मे बादशाह अलीगौहर ( शाहआलम ) का रीवाँ से दिल्ली वापस जाने के समय अच्छा सत्कार किया। इससे बादशाह ने खुश होकर इसे महेंद्र की पदवी से विभूषित किया। यह वि० सं० 1822 मे परलोक को सिधारा। इसके पश्चात्‌ हेतसिंह, मानसिंह और भारतीचंद क्रमानुसार राजा हुए। इन तीनों ने मिलकर केवल ग्यारह वर्ष राज्य किया था।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

आधार – बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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