Bundelkhand Ki Loknatya Parampara बुन्देलखंड की लोकनाट्य-परम्परा

Bundelkhand Ki Loknatya Parampara बुन्देलखंड की लोकनाट्य-परम्परा

बुन्देलखंड भारत का हृदय स्थल और Bundelkhand Ki Loknatya Parampara बुन्देली लोकभाषा के जन्म से पूर्व की है। बुन्देली का उद्भव आठवीं-नवीं शती में हुआ था, परन्तु उसके पूर्व बुन्देलखंड में दूसरी बोलियों का प्रचलन था। उस समय पुलिन्द, निषाद, शबर आदि आदिम जातियाँ ही थीं। उनमें लोकोत्सवों, लोकनृत्यों, लोकनाट्य-रूपों का प्रचलन था।

इस युग में खास बात यह थी कि लोकनाट्य का जो भी रूप (जैसे लोकसंवाद) प्रचलित था, वह धर्म की जकड़न से मुक्त होने के कारण परवर्ती लोकनाट्यों की अपेक्षा अधिक स्वच्छन्द था। वे आदिम जातियाँ किसी जाति या दल की निजी सम्पत्ति न होने की वजह से सामूहिक या सामाजिक चेतना से अधिक जुड़े थे।

उत्तरवैदिक काल में आश्रमी संस्कृति का प्रारम्भ अगस्त्य, अत्रि आदि ऋषियों द्वारा इस वन्य क्षेत्र में अपने आश्रम स्थापित करने से हुआ, परन्तु उसका प्रभाव उतना व्यापक न था। इतना अवश्य है कि रामायण -काल में राम की चित्रकूट और वहाँ से पंचवटी तक की यात्रा से लोकचेतना में परिवर्तन की स्थिति बनी थी। महाभारत-काल में यादवों की संस्कृति ने इस प्रदेश को हर तरह से समृद्ध कर लोकरुचि को परिष्कृत करने में सहायता दी थी।

गुप्त-काल से लेकर हर्षवर्धन (606-47 ई.) तक संस्कृति और कला का उत्कर्ष रहा और संस्कृत नाटकों का मंचन इस क्षेत्रा में भी होता रहा। स्वाभाविक है कि लोकनाट्य इस दौड़ में पीछे हो गया। बुन्देलखंड के सामन्तों का बोलबाला था, जिससे प्रजा का शोषण अधिक तेजी से हुआ। ऐसी परिस्थिति में लोककलाओं के विकास की ओर लोगों का ध्यान कम गया।

उसके बाद नौवीं शती तक का समय बुन्देलखंड के इतिहास में अन्धकार-युग कहा जाना चाहिए, क्योंकि यहाँ प्रतिहारों, राष्ट्रकूटों और पालों के आक्रमण  होते रहे और किसी का भी शासन सुस्थिर नहीं रहा। 9वीं शती के उत्तरार्द्ध में चन्देलों ने अपने पैर मजबूती से जमा लिए और इसी वजह से बुन्देली लोकभाषा का उद्भव और विकास सम्भव हो सका।

बुन्देली  लोक नाट्य  का   उद्भव-काल  (1000-1400   ई.)
बुन्देली जनजातियों की लोकसंस्कृति को भी व्यापक प्रसार मिला। मतलब यह है कि 8वीं-9वीं शती में लोकचेतना के आन्दोलन ने इतना जोर पकड़ा कि संस्कृत और प्राकृत भाषाएँ एक खास वर्ग तक सीमित रह गईं और लोकभाषा बुन्देली का विकास हुआ। प्रमाण के लिए तत्कालीन शिलालेखों में ‘चैंतरा’ और ‘बारी’ जैसे लोकशब्दों को लिया जा सकता है और 12वीं शती के जगनिक-कृत ‘आल्हखंड’ में बुन्देली महाकाव्य की रचना जैसी उत्कर्षमय स्थिति में भी अनुमित किया जा सकता है।

खजुराहो के मन्दिरों में लोकोत्सवों और लोकनृत्यों के दृश्यों, गाँव और नगरों में प्राप्त चकियों और सती-स्तम्भों से लोककलात्मक मूर्तिशिल्प के प्रभाव का पता चलता है। चन्देल-नरेश वाक्पति (845-60 ई.) तो क्रीडागिरि में किरात स्त्रिायों से लोकगीत और लोकसंगीत सुनकर आनन्दित होता था। सम्राट कीर्तिवर्मन (1040-1100 ई.) के समय कृष्ण मिश्र का ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक अभिनीत किया गया था और चन्देलकालीन रंगशाला के अवशेष महोबा (जिला हमीरपुर, उत्तर प्रदेश) में आज तक विद्यमान हैं।

जनता के मनोविनोद के लिए रंगशालाओं या मन्दिरों के महामंडपों का उपयोग किया जाता था। ऐसे उदाहरणों  से स्पष्ट है कि लोकनृत्य और लोकनृत्य के साथ लोकाभिनय भी लोककला-प्रदर्शन का विशिष्ट अंग था। इस दृष्टि से लोकनाट्य स्वाँग इसी समय विकसित हुआ था। लोकधर्म और लोकविश्वास को अनुसरित करनेवाले अभिनय भी होते थे, क्योंकि चन्देलकालीन समाज में कृषि और धर्म सम्बन्धी विविध रीतियाँ प्रचलित थीं और अनार्य जातियों में तंत्र-मंत्र के प्रभाव के कारण भूत-प्रेत में दृढ़ विश्वास था।

देवी का ‘भाव’-अभिनय, उत्सव-यात्रा में नृत्यादि के साथ अभिनय, नकल  आदि और मनौती में मूक अभिनय तो होता ही था, मन्दिरों में नृत्यपरक अभिनय भी प्रचलित थे। चन्देल-नरेश परमर्दिदेव (1165-1203  ई.) के समय लाखा पातुर इतनी विख्यात थी कि दिल्ली के पृथ्वीराज चैहान ने उसकी माँग की थी। जनश्रुति है कि वह खजुराहो के उत्सवों में नृत्य करने में सर्वाधिक कुशल मानी गई थी। नृत्य और अभिनय की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती थीं, पर यह कहना कठिन है कि इनमें लोकनाट्य भी सम्मिलित थे।

परमर्दिदेव के मन्त्री नाटककार वत्सराज के ‘षट् रूपकम्’ से स्पष्ट है कि वसन्तोत्सव में उसके रूपक मंचित किए गए थे जिनमें ऐसे भी थे जो लोकनाट्य कहे जा सकते हैं और जिनसे यह भी सिद्ध है कि भँड़ैती जैसी लोकनाट्य-कला उस समय विद्यमान थी। संक्षेप में, लोकनाट्य (बुन्देली) का उद्भव 10वीं शती में हो चुका था और आदिकाल में यह विधा निरन्तर विकास करती रही।

मध्ययुग का उत्कर्ष-काल  (1401-1840   ई.)
13वीं शती तक चन्देलों के राज्य में यह प्रदेश शान्त रहा, लेकिन 14वीं-15वीं शती में विदेशी आक्रमणों से बिखरने लगा था। तभी ग्वालियर पर तोमरों का अधिकार हो गया और लगभग एक सौ वर्ष साहित्य और कला की प्रगति के लिए उल्लेखनीय रहे। तोमरनरेश डूँगरेन्द्रसिंह (1424.54  ई.) और मानसिंह (1486-1516  ई.) के समय कविवर विषणु दास और संगीतकार बैजू बावरा द्वारा विष्णु पदों और ध्रुवपदों की रचना तथा उनकी गायकी की प्रतिष्ठा कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण थी।

देसी संगीत के आन्दोलन ने लोककलाओं और लोकाभिनय को प्रोत्साहन दिया। दूसरा आन्दोलन था भक्ति-आन्दोलन, जिसने उस समय की अनुकूल परिस्थिति में लीलापरक लोकनाट्यों का विकास किया। रासलीला का लोकरूप ब्रज से प्रभावित होकर जन्मा और रासलीला का भी विकास हुआ। मध्यकालीन बुन्देलखंड में रियासतें ही थीं, कुछ मुगलों के अधीन और कुछ स्वतन्त्र।

सामन्तवाद और दरबारीपन दोनों में था, इस लिये राई लोकनृत्य का प्रचलन अधिक लोकप्रिय हुआ और भोगलिप्सु सामन्तों तथा रसिक जनता ने उसे बहुत प्रश्रय दिया। मनोविनोद और चुहलबाजी के लिए विदूषक जैसे पात्र उससे जुड़ गए। इस प्रकार वह नृत्यपरक लोकनाट्य में परिवर्तित हो गया। विदेशी संस्कृति की प्रतिक्रिया बौद्धिक मस्तिष्क से लोकचेतना में आई और स्वाँग लोकनाट्य में व्यंग्यप्रधान होकर अभिव्यक्त हुई। इस कारण आदिकालीन स्वाँग अब काफी चुटीला हो गया और लोकचेतना को झकझोरने के लिए यह अनिवार्य भी था।

मध्ययुग की देन नौटंकी लोकनाट्य थी, जो तत्कालीन विलासितापरक वातावरण और पर्सियन शैली के नाटकों से जन्मी थी। दूसरे जनपदों में उसे भगत, स्वांग और संगीत कहा जाता है, पर बुन्देली प्रदेश में भगतें देवी के भजन हैं, जबकि स्वाँग नौटंकी या संगीत से बिल्कुल भिन्न है। यहाँ नौटंकी सम्भवतः हाथरस से आई और बुन्देली रंग से रंजित होकर प्रचलित हुई। उसमें भाषा का खड़ापन और उर्दुआना अन्दाज वैसा ही रहा, केवल स्वर बुन्देली का हो गया था।

ग्वालियर के तोमरों के आश्रित रचे गए कथाकाव्यों में प्रमुख ‘छिताई कथा’ (1516  ई. के लगभग) के कई स्थलों में अखाड़े का वर्णन मिलता है। विश्णु दास की कृति ‘महाभारत’ (1435  ई. के लगभग) से लेकर बोधा कवि के प्रबन्ध विरह वारीश (संवत् 1812 अर्थात् 1755 ई. के लगभग) तक तीन सौ वर्षों के ग्रन्थों में अखाड़ों का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि मध्ययुग में अखाड़ा एक लोकप्रिय संस्था थी।

काव्य, संगीत, नृत्य, नाटक आदि ललित कलाओं की प्रतियोगिता और प्रदर्शन के सर्वमान्य मंच ये अखाड़े राज्याश्रित और लोकाश्रित थे। छिताई कथा के छन्द 210 से स्पष्ट है नित नवरंग अखारे होई। नट-नाटक-आवई सब कोई।। नट तो लोकनाट्य का प्रमुख पात्र था। अखाड़ों के नाटक लौकिक प्रेम से अधिक जुड़े थे। उनमें मनोविनोद और दरबारीपन का प्रभाव था, लेकिन धार्मिक नाटक भी मंचित होते थे।

प्रेम-श्रंगार-परक लोकनाट्यधारा के साथ धार्मिक या भक्तिपरक लोकनाट्यधारा भी चलती रही। सगुण  भक्ति के लोकनाट्य अधिक थे, निर्गुनिया कम। निर्गुनियों में अब काँड़रा लोकनाट्य ही शेष है। काँड़रा पहले लोकनृत्य था, जो निर्गुनिया भजन पर होता था। बाद में आख्यानक होने पर वह लोकगीतनाट्य बन गया तथा काफी लोकप्रिय हुआ। ग्वालियर के निकट बरई गाँव से मानसिंह तोमर ने राछ नामक रंगशाला बनवाई थी । तत्कालीन कवि खड्गसिंह ने अखाड़े का निर्माण भी इसी जगह बताया है…..

पर्वत घाटी बाँधी जहाँ, खेले भूप अहेरैं तहाँ।
डाँग बँधाई महल जु भए, तहँ तहँ भूप अखारैं ठाए।।


राछ शब्द रास से निकला है। इस वन्य प्रदेश की रंगशाला में लोकनाट्य ही खेले जाते थे। ‘भँड़ैती’ भी इस युग में सर्वप्रिय लोकनाट्य थी। वैसे आदिकाल में उसकी मौजूदगी के संकेत मिलते हैं, पर उसे उतना विकास नहीं मिल सका, क्योंकि उस समय का सांस्कृतिक परिवेश उसके लिए उतना उपयुक्त नहीं था जितना मध्ययुग का। मध्ययुग की दरबारी संस्कृति में वह पल्लवित-पुष्पित हुआ। आचार्य केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में भँड़ैती के द्वारा भाँड़ों के मान पाने का उल्लेख इस तथ्य का साक्षी है कि 17वीं शती में लोकनाट्य उत्कर्ष पर था।

लोक चेतना का पुनरूत्थान (1841-1910   ई.)
17वीं शती के बाद सौ-सवा सौ वर्ष तक लोकनाट्य परम्परित स्थैर्य से जकड़ा रहा, क्योंकि लोक श श्रंगारपरक कविता की रंगीनी और रसिकता में उलझा रहा। 1840 ई. में जैतपुर नरेश पारीछत का अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध और 1840 ई. से 1857 ई. तक की बुन्देलों हरबोलों की कविताई राष्ट्रीयता के साक्ष्य हैं। लोककवि ईसुरी भी लोकचेतना के उत्थान का प्रतिनिधित्व करते है।

उन्नीसवीं सदी के चौथे चरण  के बाद स्वाँग के विषय नए सन्दर्भों से जुड़कर व्यंजनामय बने और रामलीला मे राक्षसों के संहार तथा रासलीला के कंस-वध जैसे प्रसंगों को और अधिक बल दिया गया। नृत्यपरक लोकनाट्यों में धार्मिक कथाओं के स्थान पर प्रेमकथाएँ मंचित की जाने लगीं जिससे समाज में प्रेम के नए अंकुर फूटें। सामाजिक समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिए जातिपरक लोकनाट्यों में जातीय भेदभाव, द्वेष आदि को स्थान दिया जाने लगा। मतलब यह है कि पुनरुत्थान की वैचारिकता के लिए बुन्देली लोकनाट्य काफी लचीले होते गए और उन्होंने नवजागर ा के दायित्व का निर्वाह किसी-न-किसी रूप मंे अवश्य किया।

आधुनिक काल (1911-1986 ई.)
ईसाई मिशनरियों और अंग्रेज विद्वानों के लोकसाहित्य-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण कार्य से प्रेरित होकर बंगाल, बिहार, गुजरात आदि प्रदेशों में सर्वेक्षण और संग्रह का कार्य 20वीं शती के दूसरे दशक से प्रारम्भ हुआ था। (1929  ई.) से आधुनिक काल का प्रवेश माना जाता है। बुन्देली मे 1911  ई. से उसका समारम्भ कहना इसलिए उचित है कि पुनरुत्थान के युग मे फागकाव्य की नई धारा के प्रवर्तक ईसुरी से प्रेरणा पाकर अनेक कवियों ने लोककाव्य का सृजन शुरू कर दिया था और बीसवीं शती के दूसरे दशक में लोकसाहित्य की हर विधा अँगड़ाई लेने लगी थी।

फाग की रीतिपरक प्रवृत्ति के विरोध में नई संवेदना और नए विषय ग्रहण किए गए, सैरों में प्रबन्ध रचे गए और अन्य विधाएँ भी स जनशीलता के नए अध्यास से सँवारी जाने लगीं। लोकनाट्यों की रचना भी हुई। इस कारण आधुनिक काल का निर्धारण 1911 ई. से उचित है। जहाँ तक लोकनाट्यों का सम्बन्ध है, उनकी आधुनिकता के दो पक्ष बुन्देली प्रदेश मे मिलते हैं।1. सृजन की परम्परा और, 2. मंचन के प्रयोग।

सृजन-परम्परा का क्रमबद्ध अनुशीलन प्रस्तुत करना तो कठिन है, पर उसकी बानगी दी जा सकती है। टीकमगढ़-महारानी बृषभान-कुँवरि का सम्भ्रम मानलीला (1914  ई.) से स्पष्ट है कि दूसरे दशक मे ही लोकनाट्यों का सृजन प्रारम्भ हो गया था। रामरसिक कवयित्रियों ने जहाँ विभिन्न प्रकार के लोकगीतों की रचना की थी, वहाँ लीलापरक लोकनाट्यों की बानगी पेश की थी।

बिजावर महारानी का श्री युगल विरहलीला रहस रासपद्धति का लीला-लोकनाट्य है। ऐसे लोकनाट्य सिर्फ पद्यबद्ध होते हैं, इसलिए उन्हें लोकगीतिनाट्य कहना समीचीन है। आधुनिक परिवेश और समाज की समस्याओं पर स्वाँग और नौटंकियाँ अधिक लिखे गए। आजादी के पहले के मंचन-प्रयोग परम्परित थे, पर बाद की नवीनता और मौलिकता के नाम पर विकृतियों के प्रतीक। लोकमंच में नए वैशिष्ट्य की तलाश लोकनाट्यों के प्रति आत्मीयता का रिश्ता कायम करने से ही होगी।

नाट्य रूप  और उसकी परम्परा
लोकनाट्यों का वर्गीकरण कई दृष्टियों से किया जा सकता है, लेकिन यहाँ बुन्देली के सात प्रमुख रूपों की क्रमबद्धता उनके विकास के आधार पर निश्चित की गई है। स्वाँग सबसे प्राचीन है क्यों कि बुन्देली के जन्म से जुड़ा है। राई लोकनृत्य के रूप में मध्ययुग से शुरू का है और लोकनाट्य के रूप में भी शेष नाट्यरूपों से पहले प्रचलित हुआ है।

भक्ति-आन्दोलन से प्रेरित रासलीला रामलीला के बाद की है। इतना अवश्य है कि रासलीला के अनुकरण पर रामलीला की नई शैली प्रारम्भ हुई है। काँड़रा लोकनृत्य सगुण भक्तिपरक लीलाओं के समानान्तर उनकी प्रतिक्रिया मे जन्मा, पर लोकनाट्य के रूप में बाद में विकसित हुआ। भँड़ैती स्वाँग का ही अंकुर है जो ‘भाण’ के रूप मे चन्देल-कालीन रूपककार वत्सराज के ‘कर्पूर-चरित’ मे दिखाई पड़ता है।

मध्ययुग के सामन्ती परिवेश मे महफिली हास-परिहास से भाँड़ों का मसखरापन और नकल प्रचलित है। 18वीं-19वीं शती की दिल्ली और अवध की महफिलों मे भाँड़ों का बहुत जोर रहा जिससे पूरा उत्तर भारत प्रभावित हुआ। नौटंकी 20वीं शती के प्रारम्भ मे यहाँ प्रचलित हुई और किसी नए नाट्यरूप की उद्भावना नहीं हुई।

 

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

admin

Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.

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