Bundeli Loksahitya Vachik Parampara के अन्तर्गत वो स्मृतियां, गीत, कथा, कहावत, सुभाषित, सूक्ति आदि कथ्य वक्ता से श्रोता या श्रोताओं तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती है। इस प्रकार इसमें वक्ता, श्रोता और कथ्य तीन पक्ष होते हैं। वक्ता की विशेषता है वाक्शक्ति और उसका अमिट प्रभाव। वह श्रोता या श्रोताओं के समूह के हित में उनके लोकजीवन और उसकी संस्कृति को इस तरह अभिव्यक्त करता है कि श्रोता उसे अपना मानकर ग्रहण करते हुए आनन्दित हो जाता है।
बुन्देलखंड के लोकसाहित्य की वाचिक परम्परा
इस प्रक्रिया में वक्ता की श्रोता के प्रति आत्मीयता ही श्रोता से जोड़ने का काम करती है। उसका हृदयस्पर्शी संवाद श्रोता के हृदय में संवेदित हो जाता है। दोनों ओर से सक्रिय इस संवाद में श्रोता भी निष्क्रिय नहीं रहता, वरन् उसकी बुद्धि और हृदय, दोनों अपनी क्षमता या शक्ति के स्तर के अनुरूप कथ्य का भावन और आस्वादन करते हैं।
स्पष्ट है कि वक्ता को सामने बैठे श्रोता के अनुकूल अपने कथ्य को ढालना पड़ता है और श्रोता केवल रिक्त पात्र नहीं होता कि चाहे उसमें जो भर दो, वरन् वह तत्कालीन जीवन संस्कृति, उनके उतार-चढ़ाव और सभी कृतियों-विकृतियों का जीवंत प्रतीक होता है। वह उस समय का लोक होता है, जिसमें चयन और समाहार करने की अपार शक्ति होती है। उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप उपयोगी ही उसे आकर्षित कर पाता है। इसीलिए वक्ता तत्कालीन देश-काल के प्रति सचेत रहना अपना धर्म समझता है।
लिखित कथ्य की वाचिक परम्परा दो प्रकार की होती है। एक तो वह, जिसमें लिखित कथ्य की घटनाओं और तथ्यों को केन्द्र में रखकर तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप नया रूप दे दिया जाता है और दूसरी वह, जिसमें लिखित कथ्य का ही उपयोग होता है, लेकिन वह कथ्य वाचिक शैली में रचित वाचिक परम्परा के अनुकूल हो। पहली प्रकार की वाचिक परम्परा रामायण और महाभारत हैं, जबकि दूसरे प्रकार का उदाहरण मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’ है, जिसमें कवि ने वाचिक शैली का प्रयोग किया है।
शिष्ट साहित्य की वाचिक परम्परा में रचना का पाठ होता है, किन्तु भाषा लिखित होती है, जो बोली जानेवाली भाषा से भिन्न और क्लिष्ट होने के कारण अभिव्यक्त express नहीं हो पाती। लिखित भाषा परिनिष्ठित refined और साहित्यिक होने की वजह से थोड़े-से लोगों में सीमित रहती है और दीर्घ काल long term में जड़ Root बन जाती है। इसीलिए उसकी जड़ता को तोड़ने का काम वाचिक परम्परा की बोली जानेवाली भाषा करती है। रीतिकाल के कवि केशव, बिहारी, पद्माकर, ठाकुर, बोधा आदि की रचनाओं में लोकभाषा के शब्दों के प्रयोग ने भाषा को नई ताजगी दी है।
बुन्देलखंड की विशिष्ट स्थिति
बुन्देलखंड विंध्याचल पर्वत की श्रेणियों से घिरा और सघन वनों से आच्छादित covered पथरीला प्रदेश था, जिसमें जंगली आदिम जातियाँ वास करती थीं। चन्देलों को राज्य-विस्तार के समय 8वीं 9वीं शती में आदिम जातियों से संघर्ष करना पड़ा, जिसके कारण प्रतिक्रियास्वरूप लोकचेतना आई और एक लोक-आन्दोलन-सा गतिशील हुआ। ऐसे उपयुक्त वातावरण में लोकभाषा बुन्देली का उद्भव स्वाभाविक था। इस प्रकार इस जनपद में लोकसंस्कृति और लोकभाषा का उद्भव और विकास 9वीं शती के अन्तिम चरण से हुआ है।
Bundeli Loksahitya Vachik Parampara चन्देलों के राज्य-काल (9वीं से 14वीं शती तक) में सुख-शान्ति और समृद्धि, ललित कलाओं के उत्कर्ष और साहित्य-सृजन के उदाहरण से लोक वाचिक परम्परा के विकास का अनुमान लगाया जा सकता है। 12वीं शती में रचित आल्हा-गाथाओं से प्रामाणिक साक्ष्य भी मिल जाता है कि 10वीं शती से लोकगीतों के रूप में वाचिक परम्परा का प्रारम्भ हुआ था और 14वीं शती तक वह निरन्तर प्रवाहित रही। इन चार सौ वर्षों के अन्तराल में लोक वाचिक परम्परा निरन्तर गतिशील रही।
मध्ययुग में यह जनपद बाहरी और घरेलू युद्धों से आहत रहा, जिसके कारण यहाँ वीरमुक्तकों और वीर प्रबन्धों का सृजन महत्त्वपूर्ण रहा। यहाँ तक कि भक्तिकाव्य वीररसात्मक हो गया। संघर्षमयी परिस्थितियों में साहित्य का धर्म लोक का जागरण होता है और जागरण -प्रधान रचना में लोक से संवाद स्थापित होना जरूरी है। इसी कारण लोक वाचिक परम्परा और शिष्ट साहित्य की वाचिक परम्परा, दोनों में समानान्तर रूप में निरन्तर प्रवहमान रहीं।
1857 ई. के पूर्व और 1840 ई. के बुन्देला-विद्रोह के बाद दो दशकों तक हरबोले वीररसपरक गीत, प्रगति या गाथा सुनाकर जन-जन में जाग्रति भरते रहे और स्वतन्त्राता-संग्राम के लिए रणबाँकुरे तैयार रहते रहे। 1857 ई. के बाद आधुनिक साहित्य का स जन विविध विधाओं में तो हुआ, लेकिन अंग्रेज शासकों के दमन की प्रतिक्रिया में 19वीं शती के अन्तिम चरण तक ऐसी रचनाएँ लिखी गईं, जो जनता से सीधे संवाद करती थीं।
Bundeli Loksahitya Vachik Parampara के अंतर्गत 19वीं शती के अन्तिम चरण में लोककवि ईसुरी ने फाग काव्य को नई व्यवस्था दी, जिससे फड़काव्य की रचना-धारा में इतनी तीव्र गति आई कि बीसवीं शती के पाँचवें दशक तक वाचिक परम्परा चलती रही। दूसरे, परतन्त्रता के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलनों ने शिष्ट काव्य की वाचिक परम्परा को नई रवानी दी। तात्पर्य यह है कि बुंदेलखंड की विशिष्ट परिस्थितियों के कारण यहा वाचिक परम्परा का प्रवाह निरन्तर बना रहा।
वाचिक परम्परा का उद्भव और विकास
इस जनपद में वाचिक परम्परा का उद्भव 10वीं शती में हुआ था, जब दिवारी गीत, सखया फाग, राई और लमटेरा गीत रचे और गए। दिवारी गीत और सखया फाग के उद्भव का स्रोत अपभ्रंश का लाड़ला छन्द दोहा था, जबकि राई और लमटेरा गीतों का दोहे से जुड़ी लटकनिया। दिवारी और फाग गीत यादवों की संस्कृति की उपज थे, जो इस जनपद में महाभारत-काल से लेकर चन्देलों के उत्कर्ष-काल तक छाई रही। इसे चरागाही संस्कृति भी कहना उचित है।
Bundeli Loksahitya Vachik Parampara में चरागाही संस्कृति को केन्द्र में रखकर और प्राकृत की ‘गाहा’ के आधार पर यहाँ लोकगाथाएँ भी रची गईं, जिनके दो रूप थे एक तो ‘गहनई’ जैसा संक्षिप्त आख्यानक गाथा-रूप और दूसरा कारसदेव की गाथा जैसा महाकाव्यात्मक गाथा-रूप। 12वीं शती में रचित लोकमहाकाव्य “आल्हा” दूसरे प्रकार का गाथा-रूप था। शक्ति-पूजा तो बहुत पुरानी है, पर चन्देल-काल में शिव-पूजा के साथ-साथ उसका भी उत्कर्ष रहा।
एक प्राचीन राछरे ‘कजरियन कौ राछरौ’ में बहिन की कजरियाँ खोंटने की रक्षा में भाई ने वीरतापूर्वक युद्ध किया था, जिससे कजरियों जैसा कृषिपरक उत्सव बहिन-भाई के प्रेम से जुड़ गया। ‘आल्हा’ की कथा में देवी गीत की लोकधुन में प्रायोजित स्वरों में थोड़े-से परिवर्तन के बाद वीररसपरक गायकी से राछरों के युद्धपरक कथ्य को इतनी महत्ता मिली ।
बुन्देलखंड की यह लोकवाचिक परम्परा उत्तर भारत के कई जनपदों में फैल गई और बैसवाड़ी, कन्नौजी, ब्रजी जैसी पश्चिमी हिन्दी की बोलियों में ही नहीं अपितु बघेली, अवधी, भोजपुरी जैसी पूर्वी हिन्दी की बोलियों में भी ‘आल्हा’ गाथाएँ गाई गईं। इस प्रकार लोकवाचिक परम्परा के उत्कर्ष का प्रतीक ‘आल्हा’ बना रहा।
मध्ययुग में वाचिक परम्परा की लोक और शिष्ट धाराएँ समानान्तर रूप में प्रवाहित रहीं। लोकवाचिक परम्परा में संस्कारपरक, राम-कृष्णपरक, श्रंगारपरक लोकगीतों के साथ-साथ वीररसपरक लोकगाथाओं का बोलबाला रहा। आक्रमणकारियों के उद्देश्य जहाँ राज्य पर स्वामित्व स्थापित करना और धन-सम्पत्ति लूटना था, वहाँ संस्कृति को नष्ट कर विजातीय संस्कृति को थोपना था।
इसलिए संस्कृति की रक्षा हेतु संस्कारपरक लोकगीत बने और राम एवं कृष्णपरक गीतों में हर आदमी को राम-कृष्ण तथा हर नारी को सीता-राधा मानकर आस्था-विश्वास की भावना को जाग्रत किया गया। इस युग में नारी के अपहरण से उत्पन्न समस्या का समाधान ‘सतीत्व’ में खोजा गया, जिसके आधार पर ‘मनोगूजरी’ और ठाँड़ी जरै मथुरावली जैसी वीर रसपरक गाथाएँ रची गईं।
श्रंगारपरक लोककाव्य का अधिकांश मध्य युग में रचा गया था। प्रथम चरण में धना-धनी, पिया-प्यारी, राजा-गोरी के सम्बोधनों या चिखा-चिरैया, शिकारी-हिरनी आदि प्रतीकों से रचे गीत हैं, जबकि दूसरे चरण में कृष्ण-राधा और राम-सीता को लेकर श्रंगारपरक लोकगीत लिखे गए। तीसरे चरण में फड़गीतों का सृजन हुआ, जो चमत्कारपूर्ण अधिक थे। इन गीतों में रूप-सौन्दर्य का चित्राण और संयोग-वियोगपरक भावों की सरसता की प्रधानता है।
विवाह-संस्कार के नेगगीतों, गारियों और पंगतगीतों में श्रंगारिकता के साथ हास्य-विनोद और चुटीले व्यंग्यों का अद्भुत मेल है, जो संवाद की अनोखी भंगिमा प्रदर्शित करता है। भौजी-ननद के विनोदपरक गीतों और बारामासा-शैली की बारामासियों में संयोग-वियोग के ऐसे विशिष्ट उदाहरण हैं, जो रीति कविता के प्रेरक प्रतीत होते हैं।
भौजी-देवर के श्रंगारपरक विनोद स्वकीय-परकीय श्रंगारपरक उक्तियों की सम्पुष्टि करते हैं। इसी युग में लोकदर्शन-परक लोकगीत भी मिलते हैं, जिनमें शुक और हंस जीव के लोकप्रतीक रहे हैं। इसी प्रकार के गीत कबीर की छाप डालकर रचे गए।
हरदौल के विषपान से जुड़े आख्यानक गीत, अमानसिंह और प्रानबली के राछरे, तेजसिंह या तेजबली की गाथा, पलेरा की गाथा, पारीछत के शौर्य से सम्बद्ध आख्यानक लोकगीत, 1857 ई. के पूर्व गाए हरबोलों के आख्यानक गीत आदि बुन्देलखंड के उस इतिहास का उदाहरण हैं, जो लोककवि के द्वारा लिखा गया था।
1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्राता-संग्राम के उपरान्त उसकी प्रच्छन्न घटनाओं के वर्णन , अंग्रेजों के दमन के विविध चित्र और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, मर्दनसिंह, बखतबली आदि वीरों की प्रशस्तियाँ लोकगीतों के प्रमुख विषय बने, जिनसे बुन्देलखंड के प्रथम स्वतन्त्राता-संग्राम के इतिहास की झाँकियाँ मिल जाती हैं।
पुनरुत्थान-युग 19वीं शती के अन्तिम चरण से लेकर 20वीं शती के दो दशकों तक की कालपरिधि समेटे रहा। नेतृत्व किया लोककवि ईसुरी ने, जिसकी चैकड़िया फागों के आविष्कार ने फागगीतों को ही नई दिशा नहीं दी, अपितु बुन्देली लोकवाचिक परम्परा को नया उत्थान देकर उसके स्थैर्य को तोड़ने का महत्कार्य किया। उसने प्रामाणिक साक्ष्य बनकर सिद्ध कर दिया कि लोकवाचिक परम्परा के साहित्य का प्राणतत्त्व ‘लोकत्व’ है, जो कि लोकतत्त्वों का संयोग है।
आधुनिक युग में भी हरदौल, छत्रासाल आदि ऐतिहासिक वीरों, दहेज, महँगाई, जनसंख्या-वृद्धि, आदि समस्याओं और जनपद, देश के प्रेम पर लोकगीतों की रचना हुई है, जिनमें कई लोक द्वारा ग्रहण कर लिए गए और लोकप्रचलित हुए।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
अति उत्तम महत्वपूर्ण तथ्यात्मक जानकारी