आत्मिक और मानसिक स्तर पर किसी मान्यता की व्यापक स्वीकृति Lok Vishwas बन जाता है। लोकमान्य और लोक में प्रचलित “विश्वास” लोक विश्वास कहलाते है। ये विश्वास लोक अनुभवों से अर्जित होते हैं। अनेक प्रांतों की तरह बुन्देलखण्ड में Bundeli Lok Vishwas प्रचलित हैं । लोक विश्वासों के दो रूप हैं- एक वह जो प्रमाणिक आधारों पर मान्य हुए और दूसरे वह जो प्रमाणित आधार रहित हैं ।
किसी क्षेत्र की सभ्यता और संस्कृति का हृदय और मस्तिक एक साथ परखना हो तो वहाँ के लोक विश्वासों को जानना अत्यन्त आवश्यक है। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति को अपनी गति समाज के साथ बनाये रखने के लिए लोक का आश्रय लेना पड़ता है। यहाँ लोक अपनी प्रमाणिकता के लिए न शास्त्रीयवनों की सहभागिता एवं प्रगतिशीलों की परवाह करता है न ही वह तथ्यों की ओर ध्यान देता है, परन्तु लोक में प्रचलित धारणायें जाने अनजाने उसकी परम्परा बन जाती है।
यह प्रक्रिया विश्वास का रूप धारण करती जाती है और इस प्रकार जिन्दगी अपनी रफ्तार के साथ लोक विश्वास में रचने-बसने लगती है जिस प्रकार लोक की भाषा होती है. धर्म होता है, रीति होती है, संस्कृति होती है…. उसी प्रकार विश्वास भी होता है। सदियों से साधारण लोग अच्छे सपने एवं बुरे सपने पर शारीरिक अंगों के फड़कने पर, असमय कुत्तों के रोने, घर के मुंडेर पर बैठे कौओं के काँव-काँव करने पर, चीलों के किसी के ऊपर मंडराने अथवा घर के ऊपर चकर लगाने पर, गीदड़ों बिछियों के द्वारा रास्ता काट देने पर ।
सामने से किसी के छींकने पर, शीशा फूटने पर रास्ते में काने लंगड़े के दिखाई देने पर मार्ग में जाते समय शव के दीख जाने पर, यात्रा के समय राह में मछली, बछड़े को दूध पिलाती गाय किसी विधवा के शुभ कार्य में सम्मिलित नहीं करने पर कोई शुभ कार्य में तीन आदमी के नहीं रखने पर विश्वास करते रहे हैं। इस पर विश्वास करके शुभशकुन अथवा अपशकुन का अंदाजा लगाते रहे हैं
बुन्देलखण्ड मे मूलरूँप से दो प्रकार के लोक-विश्वास प्रचलित हुये हैं –
1- प्रमाणों पर आधारित या यथार्थ परक
2- अप्रमाणित या भावनात्मक या अनुभवों पर आधारित
वास्तव में लोक-विश्वास की कसौटी लोक होता है। जिसकी मान्यता मिलने पर ही लोक-विश्वास स्थायित्व प्राप्त करते हैं। प्रमाण या अनुभव के आधार पर ही विचारों की स्थापना होती है। उन विचारों को अनुकूल और विपरीत परिस्थितियों में परखने के बाद ही विश्वास किया जाता है। निरन्तर परखने की प्रक्रिया से गुजरकर समूह की स्वीकृति से ही विश्वास को लोक-मान्यता मिलती है, तब लोक-विश्वास का जन्म होता है। इस सारी प्रक्रिया में जन-मानस की लोक-कल्याणकारी भावना प्रबल होती है। लोक-विश्वासों को जितना जांचा परखा जायेगा उतनी ही उनकी जड़ें गहरी होंगीं।
लोक विश्वासों को कभी-कभी तर्क की कसौटी पर भी जांचा-परखा जाता है। जिससे उसकी स्थापना पर प्रश्नचिन्ह लग जाते है, जैसे – पृथ्वी शेष नाग के फन पर टिकी है यह लोक विश्वास भूगोल ज्ञान व पुरातत्व सर्वेक्षणों के पश्चात् अप्रामाणिक हो गया। किन्तु भावनात्मक या आध्यात्मिक स्तर पर इसे हम सहर्ष स्वीकार करते हैं। चूँकि भूगर्भ में ‘जल’ व ‘मिट्टी’ है जिसमें सर्पो के रहने की प्रामाणिकता है।
कभी-कभी लोक विश्वास सार्थक परिणाम नही देते तब निराशा एवं पीड़ा की स्थिति में मनुष्य “भाग्य में ऐसा ही लिखा था” कह कर सहनशीलता, धैर्य व साहस एकत्रित कर लेता है, किन्तु लगातार एक ही लोक-विश्वास के अपेक्षित परिणाम नही आते तब हम उसे अंध-विश्वास की श्रेणी में रख देते हैं|
प्रागैतिहासिक काल से रामायण काल तक बुन्देलखण्ड में पुलिन्द, निषाद, शबर, रामठ, राउत और उसके बाद गोंड, कोल, भील सहारिया जैसी जन-जातियां यहां निवास करती थीं। आदिवासी प्रकृति के अत्यंत समीप थे। प्रकृति के उपयोगी स्वरूप एवं प्रकोप से वे भली प्रकार परिचित थे। प्रकृति पूजा के कारण ही अनेक लोक-विश्वासों ने उस समय जन्म लिया। उस काल को लोक-विश्वासों का काल कहा जाये, तो अनुचित न होगा। कृषि युग में पृथ्वी, जल, पशु, वृक्ष, वर्षा, नदी इत्यादि को देव-स्वरूप पूजा जाता था। देवताओं को प्रसन्न करने हेतु फल, अनाज व मांस इत्यादि भेंट करना सामान्य बातें थी।
संभवतः पशु-बलि भी इसी काल से प्रारम्भ हुई इस प्रकार कई “’लोक-विश्वास’ भय के कारण भी प्रारम्भ हुये । प्रकृति की शक्ति से वे इतने प्रभावित थे, कि उसी को ही सबकुछ मानते थे। कर्म को महत्व देते थे। जीवन की समस्त बाधाओं को दूर करने का उपाय वे झाड़-फूँक, जादू-टोने और तंत्र-मंत्र को मानते थे।
गौंडो में भविष्य-सूचक लोक-विश्वास थे जैसे-गौरेया का धूल मे लोटना, बगुलों का एक पंक्ति में उड़ना, चंद्रमा के चारों ओर आभा-मण्डल बनना वर्षा आगमन के सूचक माने जाते थे। आत्मा की अमरता, प्रेतयोनि, दुष्ट-आत्मायें इन सभी पर सौंर जाति के आदिवासी विश्वास करते थे ।
बुन्देलखण्ड के उत्तर में बसने वाली सहारिया जाति पवित्र-अपवित्र तथा पाप-पुण्य मानतीं थीं। गौ-हत्या के पाप निवारण हेतु दण्ड में पूरी बिरादरी को रोटी देना पड़ती थी। मासिक धर्म होना, बच्चे का होना, परिवार में मृत्यु होना सभी अपवित्र कार्य माने जाते थे। रामायण काल में बुन्देलखण्ड में तीन संस्कृतियां थी। एक जन जातीय संस्कृति, दूसरी यक्ष-संस्कृति तीसरी आश्रम संस्कृति ।
रामायण के उत्तर काण्ड में यक्षों का वर्णन है। यक्षों के पास अमृत होता है ऐसा लोक-विश्वास था। ‘अमरत्व’ की प्राप्ति ही यक्ष पूजा का मुख्य उद्देश्य होता था। महाभारत में भी कुबेर (यक्ष) को धन और अमरत्व का देवता माना गया है। आश्रमी संस्कृति में आर्यों के लोक-मूल्यों, मान्यताओं और विश्वासों ने भी बुन्देलखण्ड की संस्कृति को प्रभावित किया। चेदि नरेश उपरिचर वसु द्वारा इन्द्र की पूजा की जाती थी। कल्याणकारी शिव की पूजा ने लोक-विश्वासों को दृढ़ता प्रदान की। नाग धन के रक्षक व विष्णु के शेषनाग रूप में पूजनीय थे। श्री कृष्ण ने वर्षा के देव इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिये गोवर्द्धन पर्वत को रक्षक का स्थान दिलाया। गोवर्द्धन पर्वत की लोक-मान्यता सभी ने स्वीकार की।
जिस समय चेदि यादवों के अधीन था। अतः पशु पालकों का वर्चस्व था। ऐसे में पशुरक्षक लोकदेवता कारस देव का उदय हुआ। आर्य संस्कृति में पुर्न-जन्म, स्वर्ग-नरक, पितृ लोक, मूर्ति पूजा, बलि, शव के साथ मृतक की प्रिय वस्तुयें रखना आदि लोक-विश्वास माने गये।
इसके बाद लोक-विश्वासों को सूत्रों और स्मृतियों में संयोजित करने का प्रयत्न किया जाने लगा । जाति के अनुसार अलग-अलग विधान एवं कार्य निर्धारित किये गये। शकुन-अपशकुन, अनुष्ठान तथा जादू-टोने का प्रभाव लोक-विश्वासों के रूप में सामने आया, किन्तु सभी में लोक-हित ही सर्वोपरि था।
लोक-विश्वासों में पशु-पक्षियों का बोलना दिखना, शुभ-अशुभ की श्रेणी में आता था जैसे – सियार, भेड़िया, कृत्ते आदि अपवित्र समझे जाते थे। वृक्षों में भी कल्याणकारी देव-वास माना जाता था। नीम, वट, पीपल, पलाश तथा शमी वृक्ष के लाभों को लोक-हित में संदर्भितकर पूजनीय माना जाता था। इन सभी आस्था और विश्वासों को एक-सूत्र में पिरोकर ‘सूत्रों’ व ‘स्मृतियों’ में एकत्रित कर दिया गया ।
लोक-विश्वास किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय में नही होते, बल्कि उनका विकास युग की चेतना से प्रेरणा पाकर क्रमिक रूप से होता है। वक्षों में आत्मा होती है। इसका निर्धारण विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न प्रकार से होता रहा है। जैसे-वैदिक काल में पीपल पर देवों का निवास माना गया है। महाभारत काल में पत्ते व फल युक्त वृक्ष पूजनीय माना जाता था। गीता में भी पीपल महिमा वर्णित हैं।
बौद्ध धर्म ज्ञान का प्रमुख प्रकरण बोधि वृक्ष से जुड़ा है। जातक कथाओं में भी वृक्षों को देवता माना गया । पीपल पर “ब्रम्ह’ व नीम पर देवी हैं ऐसा विश्वास बना रहा, जिसके चलते ‘ब्रम्ह’ को ‘ब्राम्हण’ या ‘वीर ब्रम्ह’ को यक्ष समझा जाता रहा। वर्तमान में भी वृक्षों की मान्यता तथा महत्व में कोई कमी नही आई। वृक्षों पर जो लोक-विश्वास थे वे वर्तमान में लगभग समाप्त हो गये हैं किन्तु जब से वैज्ञानिकों द्वारा वृक्षों में जीवन का साक्ष्य प्रस्तुत किया गया। तब से वृक्षों के जीवन रक्षक रूप पर हमारा विश्वास दृढ़ हो गया।
बौद्ध सम्प्रदाय में भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष, रक्षा, ताबीज इत्यादि लोक विश्वास थे। दुरात्माओं की शान्ति के लिये बलि का प्रचलन था। नाग धन के रक्षक होते हैं, उनको प्रसन्न करने से मन वांछित फल प्राप्त होता हैं। इस धारणा के साथ यक्ष की पूजा पुत्र प्राप्ति के लिये की जाती थी।
प्राप्त अभिलेखों के अनुसार सती होने का प्रमाण मिलता है। जब हणों से लड़ते हुये सेनापति गोगराज की मृत्यु हुई, तब उसकी पत्नी पति के शव के साथ चिता पर बैठ गई | यह सती प्रथा का प्रथम प्रमाण है। इसके बाद सती प्रथा पर आस्था और लोक-विश्वास के आधार पर बुन्देलखण्ड में अनेक सती हुईं। इसके प्रमाण अनेक सती स्तम्भ हैं।
बुन्देलखण्ड के चंदेलकाल में राजनीतिक ईकाईयों का जन्म हुआ। चंदेलों के शासनकाल में सैन्य शक्ति का विकास हुआ किन्तु उसी के साथ आन्तरिक ऊर्जा स्त्रोत लोक संकल्प एवं लोक विश्वासों का भी जन्म हुआ इस काल में वीरता को सर्वोपरि मानकर अनेक लोक धारणायें एवं विश्वास समाज में व्याप्त हो गये। उन लोक विश्वासों को आधार, आल्ह-खण्ड ने प्रदान किया –
“मानुस देइयां जा दुरलभ हैं, आहे समै न बारम्बार,
मरद बनाये मर जैबे कों, खटिया परके मरै बलाय,
जै मर जेंहे रन खेतन में साखौ चलो अँगाऊँ जाय”
अर्थात् – मानव योनि दुर्लभ हैं। यह जीवन बार-बार नही मिलता है। मनुष्य अंत में मृत्यु को प्राप्त करता है। किन्तु खटिया पर पड़े-पड़े मरने से अच्छा है कि रण-भूमि में मृत्यु हो। यदि रण भूमि में मृत्यु हुई तो यश अमर हो जायेगा ।
चंदेल काल में वीरता मय वातावरण था। इस कारण मंदिरों के शिल्प में भी युद्ध के दृश्य देखने को मिलते हैं। देवी-देवताओं की संहारकारी प्रतिमायें काल की विचार धारा के अनुरूप ही प्रतिष्ठित की गई थीं। जैसे महोबा में ताडण्व मुद्रा में शिव, चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित चाण्डिका देवी की प्रतिमायें तथा गोरखा गिरि पर काल-भैरव की मूर्ति आदि। चंदेल कालीन शिला लेखों में दान की महिमा अंकित हैं।
तीर्थ करना, तालाब व मंदिर बनवाना जैसे कल्याण कारी कार्य धार्मिक लोक-विश्वास थे। व्रत रहना, गाय का दान व सेवा, गंगा नदी पाप मोचनी हैं। इस प्रकार के विश्वास जन-जन में व्याप्त थे। व्यक्ति का कर्म और भाग्य दोनों पर समान रूप से विश्वास था। पुण्यकर्म अगले जन्म में काम आते हैं ऐसी धारणा भी थी।
इन लोक-विश्वासों पर प्रत्येक वर्ग की आस्था थी। इस कारण जादू-टोने भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र पर समाज का विश्वास था। उस समय प्रचलित लोकगीतों में भी लोक-विश्वासों को महत्व मिला। बांहे और आंख फड़कना शुभ, दूध से सींचने पर ननद पुत्रवती होगी और धान बोने से बहन धनी होगी इत्यादि । उस समय प्रचलित राछरे, दिवारी, देवीगीत, आल्हा आदि में ऐसे लोक-विश्वासों का समावेश था।
चन्देलकाल के बाद तोमर शासकों के समय लोक-विश्वासों में दूसरे परिवर्तन हुये। जिसमें कर्म, प्रेम, शौर्य, बलिदान व सतीत्व को वरीयता दी गई। दो धारणायें प्रबल रहीं – एक ‘सत्त’ (सत्य) दूसरी ‘पत’ (लाज) | देवी-देवताओं और आदर्श नारी-पुरूष में ‘सत्त’ होता है। इसी सत्त से वे विश्वास योग्य बनते हैं। कुल, राज और देश की पत रखना ही प्रत्येक का धर्म है।
मध्यकाल मे बुन्देलों के शासनकाल मे लोक-विश्वासों पर गौड़ों का प्रभाव अधिक रहा। इस समय भी भक्ति-भावना, मूर्ति पूजा तथा भूत-प्रेत के अस्तित्व पर विश्वास बना रहा । लोक-देवताओं की भक्ति ने समाज को इतना प्रभावित किया कि जाति-गत भावनायें गौंण हो गई
“जात-पॉँत पूछे ना कोई , हरि को भजे सो हरि का होई”
इस भावना ने समाज को एकता के सूत्र में बाँधने का काम किया ।
रामचरित मानस की लोक-कल्याण की चौपाईयां और दोहे आदि भक्ति-भाव से जन-मानस ने आत्मसात किये। वे बाद में लोक विश्वास में परिणित हो गये। दोहावली में तुलसी द्वारा लिखित ज्योतिष लोक-विश्वास बन गया। दोहावली में वर्णित शुभ-अशुभ, तिथियां, नक्षत्र इत्यादि जन-सामान्य में ज्यों के त्यों स्वीकार कर लिये गये। रामचरित मानस को वास्तव में लोक-विश्वास ग्रन्थ कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी। बुन्देलखण्ड के चित्रकूट क्षेत्र में श्री राम प्रवास के प्रमाण और साक्ष्यों ने ग्रन्थ पर विश्वास और भी बढ़ा दिया था।
मध्य युग में लोक-कथाओं ने युगों से चले आ रहे लोक-विश्वासों को नीति-परक कसौटी पर खरा साबित कर दिया। करनी का फल मिलता है, भाग्य बलवान होता है, बलि देने से सूखे तालाब में पानी भर जाता है, मंदिर व तालाब बनवाना पुण्य का कार्य है, मेहनत की कमाई भली है, जन्म पत्री से शुभ-अशुभ की जाँच कराना, इत्यादि लोक-विश्वास, उस समय प्रचलित लोक-कथाओं में पढ़ने को मिलते हैं।
आधुनिक युग में लोक विश्वासों की परम्परा को तर्क की कसौटी में कसने से अधिकांशत: इनकी मान्यताओं एवं परम्पराओं पर ग्रहण लगना शुरू हो गया है और इस प्रमाणिकता ने लोक विश्वासों को, बुन्देलखण्ड की संस्कृति एवं सभ्यता को एक नई दिशा दी है।
प्रमाणित आधारों में बने लोकविश्वासों में कुछ पौराणिक मान्यताओं से निर्मित हुए और दूसरे लोक अनुभवों और लोक मान्यताओं द्वारा प्रचलित हुए हैं। लोकविश्वास इतने अधिक और विविध प्रकार के हैं कि उन सबका विवरण देना स्वयं में एक वृहद्व कार्य है। अध्ययन को सुगम बनाने के लिए लोक विश्वासों को निम्नांकित वर्गों में रखा जा सकता है।
1 – प्रकृति संबंधी लोक विश्वास
2 – धार्मिक लोक विश्वास
3 – अति प्राकृत लोक-विश्वास
4 – नीतिपरक लोक-विश्वास
5 – ज्योतिष सम्बन्धी लोक-विश्वास
6 – लोक-रीतिरिवाज
7 – कृषि संबंधी लोक विश्वास
8 – पशु-पक्षी संबंधी लोक विश्वास
9 – आकाशीय पिण्ड संबंधी लोक विश्वास
सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो Bundeli Lok Vishwas प्राचीन जनपदीय संस्कृति यक्ष संस्कृति, और आर्यों की आश्रमी संस्कृति का सार संचित रूप बन गये हैं। सूर्यदेवता की शक्ति, नदियों, पर्वतों और ऋतुओं की ऊर्जा पशु-पक्षियों की प्रतीकतात्मक अनुभूतियों से लोक विश्वास का झरना वह निकला है। अनुभव के आधार पर यह विश्वास लोक व्याप्त हो गया। कि तीतर के पंखो जैसे बादल अवश्यक बरसते है नेत्रों में काजल लगाने वाली विधवा किसी न किसी पुरूष के बल में रम जाती है।
बुन्देलखण्ड में प्रचलित से लोक-विश्वास से सम्बन्धित तथ्य आम आदमी की दिनचर्या, उनकी यात्रा एवं शुभ-अशुभ को ध्यान में रखकर किये जाते थे। शायद इन्हीं बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए साधारण जन अपने कार्यों को हल करने का उपक्रम करते थे और इसकी प्रमाणिकता के लिए ठोस उपाय भी करते थे। पृथ्वी पूजा के पीछे उसकी उत्पादकता को केन्द्र में रखा जाता था जो आज भी प्रमाणित माना जाता है।
यहाँ हकीकत यह है कि लोक विश्वास युगों से जनमानस में व्याप्त हैं, जो अपनी लोक-कल्याणकारी अवधारणा के कारण ही जीवित है। लोक देवताओं पर विश्वास यह सिद्ध करता है कि व्यक्ति अपने कार्यों से युग-युगान्तर तक अमर रहता है। सामाजिक भलाई के कार्य ही व्यक्ति को महान बनाते हैं सम्पूर्ण लोक को अपने व्यक्तित्व व कार्यों से प्रभावित करना और विशाल जन समूह में विश्वास उत्पन्न कराना, किसी साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं है।
हमारे बुन्देली समाज में भी आज ऐसे अनेक अप्रत्यक्ष रूप से प्रचलित लोक-विश्वास है, जो समय के समान्तर अपनी उपस्थिति दर्ज किए हुए हैं। समय के साथ-साथ आज उनमें कुछ परिवर्तन हुए हैं, परन्तु इस लम्बी यात्रा में वे आज भी कहीं न कहीं हमारे साथ हैं।
नीम की पत्तियाँ खाना एवं ताँबे के बर्तन में पानी पीना आयुर्वेद की दृष्टि से शरीर में अनेक लोगों से छुटकारा दिलाता है तथा वैज्ञानिक एवं चिकित्सीय अवधारणा की दृष्टि से प्रमाणिकता की ओर संकेत करता है। इसी तरह के अन्य लोक- विश्वास जैसे दक्षिण की दिशा में पैर करके न होना हमारी पृथ्वी के उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों का एक दूसरी दिशा में खिंचाव के कारण ऐसा होता है, जिससे शरीर के अंगों का सीधा सम्बन्ध होता है। इसी तरह से रात्रि में झाडू न लगाना के पीछे अंधेरे में कोई मूल्यवान वस्तु पर की, कूड़े के रूप में बाहर न चली जाए।
वर्तमान में बुन्देलखण्ड में प्रकृति पूजा के पीछे वह लोक विश्वास प्रचलित था कि (पीपल, वट वृक्ष केला, तुलसी) इनमें देवताओं का निवास होता है, परन्तु आयुर्वेदिक दृष्टि से पीपल (आक्सीजन), तुलसी (वात-पित्त एवं स्मरण शक्ति में उपयोगी), वट वृक्ष छाया के लिए उपयोगी होता है गाय को माता मानकर पूजने के पीछे एक कारण यह है कि इसका दूध पौष्टिक एवं सुपाच्य तथा इसके बच्चे (बछड़े) कृषि कार्यों में उपयोगी एवं इसके मूत्र एवं गोवर में कीटनाशकता के गुण मौजूद होते हैं।
बुन्देलखण्ड में धर्म सम्बन्धी लोक विश्वासों के पीछे स्वर्ग-नरक की परिकल्पना छिपी हुई थी। वैज्ञानिकता की दृष्टि से अवलोकन करें तो इन धार्मिक लोक विश्वासों के पीछे मनुष्य को अपने आपमें आत्मिक रूप से सबल बनाने की बात रही है। गंगा पूजा तथा स्वर्ग-नरक की कल्पना मानव को पापों से छुटकारा दिलाने एवं अपने आपमें संयमित दिनचर्या की ओर प्रेरित करती है।
इसके पीछे विज्ञान ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि जब हम मानसिक रूप से शांत चित्त एवं आनंदित होते हैं, अनेक बीमारियाँ हमारी अपने आप दूर हो जाती हैं। हवन-पूजन इत्यादि के करने से वातावरण शुद्ध होता है, क्योंकि इस ईंधन में कार्बन डाई आक्साईड को नष्ट करने की क्षमता रहती है।
बुन्देलखण्ड में कृषि सम्बन्धी लोक विश्वासों से तात्पर्य यह है कि समय पर किसी कार्य को करने से फसलें अच्छी पैदा होती हैं और इसकी पूजा के पीछे इसमें पैदा होने वाले कीटाणुओं की रक्षा हेतु होम-धूप का प्रयोग करते हैं। बुन्देलखण्ड में आम कृषकों को यह लोक विश्वास है कि ‘जब तक बीनी पूरी न हो किसान बाल नहीं बनवाते अर्थात् बुआई के मध्य में किसी भी अन्य कार्य में समय व्यर्थ न करें।
विश्वास के पीछे मानव कल्याण की भावना निहित थी, क्योंकि बुन्देलखण्ड के क्षेत्र में नीति एवं ज्योतिष सम्बन्धी लोक ‘पराधीन को कोई सुख नहीं होता। यह स्वतंत्र संघर्ष की और अग्रसर करता है। ग्रहों की पूजा के पीछे आज खगोलशास्त्रियों ने स्पष्ट अनुमान लगाये हैं कि इससे शरीर में स्थिति अंगों की गति निर्धारित होती है। नौ ग्रहों की पूजा के पीछे माँ दुर्गा के रूप में माता की पूजा की जाती है, इसके पीछे यह कारण है कि माँ ही निरपेक्ष भाव से अपनी संतान की भलाई कर सकती है और उसका यह आश्रय मानव को सबल आत्मबल प्रदान करता है।
बुन्देली लोक जीवन में रीति-रिवाजों एवं मान्यताओं की खुशबू आज भी हर तरफ महकती रहती है और पुरातन सोलह संस्कारों के पीछे वैज्ञानिकता की सुगन्ध वर्तमान में आज भी उपलब्ध है। गर्भाधान से लेकर अन्येष्टि यात्रा के पीछे मानव के विकास एवं सफलता की दास्तान छिपी हुई है और आने वाली पीढ़ी को एक क्रम प्रदान करने का निहितार्थ निहित रहता है।
तीतर बारी बादरी, विधवा काजर रेख ।
बो बरसे बौघर करे, जामैं मीन न मेख ।।
इसी लोक विश्वास को आचार्य भड्डरी इस तरह व्यक्त करते हैं।
तीतर बरनी बादरी, रहे गगन पर छाय ।
डंक कहे सुनु मड्डली, बिन बरखे न जाय ।।
इसी तरह एक विश्वास है कि बर (बरगद) की पूजन करने से वर (पति) के प्राणों की रक्षा होती है। जेठ के महिने में अमावश के दिन बुन्देली नारियाँ वर पूजा का ब्रत इसी विश्वास के कारण रखती है।
तुलसी का पौधा भारतीय जीवन में और लोक जीवन में अनेक विश्वासों का प्रतीक हो गया है। धार्मिक दृष्टि से तुलसी को ‘हरिप्रिया’ माना जाता है- अर्थात विष्णु की प्रिया है।
बुन्देलखण्ड के ग्रामों प्रायः सभी घरों में तुलसीघरा होता है जिसमें तुलसी लगी होती है। नारियाँ प्रति दिन तुलसी के पौधे पर जल चढ़ातीं है। सांयकाल इस पौधे के समीप घी का दीपक जलाती है। कार्तिक में बैकुंठी चौदस को तुलसी की विशेष पूजा की जाती है। लोक विश्वास है कि तुलसी घर परिवार के कल्याण में सदा सहाय होती हैं।
पांच पदारथ सोना पाई ।
तुलसी महारानी एहि जग माही ॥
गाय व को गऊमाता की तरह माना जाता है। गाय के लिए रसोई के पहली रोटी रख लीं जाती है। गाय के विभिन्न अंगों में भिन्न भिन्न देवताओं का निवास माना जाता है। लोक विश्वास है गाय मृत्यु के पश्चात अन्य लोक को जाते समय वैतरणी नदी को पार कराने में सहायक होती है। इसीलिए गाय की पूंछ पकड़कर जीवन के अंतिम दिनों में लोक गोदान करते हैं।
लोक जीवन में कौआ के संबंध में अनेक लोक विश्वास प्रचलित हैं। बुन्देलखण्ड में कौआ को प्रेतात्माओं तक भोजन पहुंचाने का अनन्यतम माध्यम माना जाता है। पितृपक्ष में कौआ को पूड़ी या रोटी आदि अलग से दी जाती है। इसी प्रकार मनुष्य के कान व आंख संबंधित अनेक लोक विश्वास प्रचलित है।
बुन्देली जीवन शैलियों पर भी लोक विश्वासों का अच्छा खासा प्रभाव है। कई प्रकार की विधि निषैध प्रचलित हैं। नये बस्त्र पहनने के लिए लोक विश्वास के आधार पर कहा जाता है…।
कपड़ा पहने तीन बार बुध, वृहस्पति, शुक्रवार।
बुधवार को बेटी की घर से विदा नहीं की जाती है। यात्रा के नवें दिन घर लौटना वर्जित होता है। शनिवार को तेल नहीं खरीदा जाता है । हाँ तेल शनिदेव पर अवश्य चढ़ाया जाता है। रात्रि में दाहसंस्कार नहीं होता ।
प्रसूता स्त्री अपनी चारपाई में सदैव लोहा रखती है। बाहर निकलने पर भी लोहा लेकर जाती हैं। लोक विश्वास है कि ऐसा करने से प्रेतात्माओं से अनिष्ट होने की आशंका नहीं रहती।