Bundeli Lok Sanskriti Ka Udbhav Aur Vikas बुंदेली लोक संस्कृति का उद्भव और विकास

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संस्कृति शब्द अपने आप मे एक व्यापक शब्द है, जिसमें लोकसंस्कृति के  आदर्श मूल्य समाहित हैं । बुन्देलखण्ड Bundeli Lok Sanskriti Ka Udbhav Aur Vikas आदि काल से प्रारंभ हो गया था । लोक संस्कृति एक जीवन की प्रक्रिया है, जो लोक में अंकुरित होती है, पनपती और फैलती है साथ ही बुंदेली लोक संस्कृति पूरे लोक को संस्कारित करती है । इसी तरह लोक-स्तर पर वह लोक-संस्कृति है, जिसमें जनमानस  के आदर्श, विश्वास, रीति- रिवाज आदि से जुड़े होते हैं । लोक संस्कृति मेखान-पान,  आचार-विचार, रहन-सहन के ढ़ग आदि समाहित  रहते हैं।

 

बुंदेली लोक संस्कृति का उद्भव और विकास 
Origin and Development of Bundeli Folk Culture
चंदेलकालीन संस्कृति के प्रमुख स्रोत चंदेल नरेशों के शिलालेख, आक्रमणों और युद्धों के उल्लेख, दानपत्र और उन्हीं के कार्य-कलाप माने गए हैं, लेकिन राष्ट्रीय लोककाव्य आल्हा, तत्कालीन किंवदंतियाँ, लोकगथाएँ, गीत आदि अप्रामाणिक समझे गये हैं । लोकसंस्कृति लोक के क्रिया- कलापों लोकसाहित्य, लोककलाओं, लोकसंबंधी उल्लेखों आदि जैसे सूत्रों पर निर्भर करती है। 

वास्तव में लोकवार्ता या लोकसंस्कृति को ‘आदिम’ मानने से ही यह गड़बड़ हुई है । जब तक युग के परिप्रेक्ष्य में लोकसंस्कृति को नहीं परखा जाएगा और उसकी विकासगतियाँ स्पष्ट नहीं की जाएँगी, तब तक लोकसंस्कृति का सही रुप प्रकाश में नहीं आ पाएगा ।

किसी भी जनपद की लोकसंस्कृति उसके लोकमानस और लोकाचरण से निर्मित होती है और लोकमानस तथा लोकाचहण तत्कालीन परिस्थितियों से क्रिया-प्रतिक्रिया करते रहते हैं । लोकमूल्यों का सीधा संघर्ष बदली हुई परिस्थितियों से होता है । इस कारण लोकसंस्कृति में भी परिवर्तन सहज रुप में होता रहता है । कभी-कभी तो विजातीय प्रभाव इतना प्रबल होता है कि बदलाव की स्थिति जल्दी आती है ।

लोकसंस्कृति जड़ वस्तु नहीं है । उसे गतिशील प्रक्रिया के रुप में ही ग्रहण करना उचित है और इसी दृष्टि से उसका विश्लेषण होना चाहिए ।लोकसंस्कृति का इतिहास-लेखन असंभव समझा गया है । वस्तुत: लोकसंस्कृति में निहित लोकमूल्यों, लोकाचरण, लोकजीवन, लोकसाहित्य और लोककलाओं जैसे अंगों-उपांगों में व्यक्ति भागीदार होता हुआ भी अधिकतर अदृश्य रहा है । यदि कहीं उसकी छाप या पहचान मिलती है, तो उसका परिचय नहीं प्राप्त होता । इस वजह से प्रामाणिक तारीख से इतिहास खोजना तो कठिन है, पर कालखंडों या युगों के अनुसार लोकसंस्कृति के विकास समझा जा सकता है।

लोकसाहित्य के अंतर्गत लोकगीत, लोकगाथाएँ आदि और लोककलाओं में परिगणित लोकचित्र, लोकमूर्तियाँ, लोकसंगीत आदि लोकसंस्कृति के प्रामाणिक अभिलेख हैं, जिनका काल-निर्धारण मोटे तौर पर कालखंडों में किया जा सकता है और उसी के आधार पर लोकसंस्कृति का इतिहास क्रम-बद्ध रुप में लिखा जा सकता है । किसी युग की लोकसंस्कृति या लोकचेतना और लोकाचरण का इतिहास ही सच्चा इतिहास है । प्रागैतिहासिक विद्वानों ने प्रागैतिहासिक युग के गुहाचित्रों को लोककला न मानकर आदिम कला नाम दिया है ।

आदि कालीन युग में सामूहिक आखेट और सामूहिक नृत्य के चित्रों, मुखौटों के प्रयोग, पंखों और वल्लरियों से श्रृंगार आदि से सिद्ध है कि पुरातन काल  में लोकजीवन और लोककला में निहीत लोकमानस या लोकचेतना की जागृति हो चुकी थी । कलात्मक वस्तुएँ, जैसे चित्र, शस्त्रों  के सुडौल आकार, हरे-लाल-पीले रंगों के प्रयोग आदि से कलात्मक आभिरुचि और प्रदर्शन की प्रवृत्ति का पता चलता है इस प्रकार इन्हें लोककला के अंतर्गत ग्रहण करना जरुरी है ।

बुंदेलखंड की लोकसंस्कृति भारत और विश्व के अनेक प्रदेशों की लोकसंस्कृतियों से भी प्राचीन है । नर्मदा घाटी के भूस्तरों की खोज से पता चलता है कि नर्मदा घाटी की सभ्यता सिंधु घाटी की सभ्यता से बहुत पहले की है । नर्मदा घाटी में प्राप्त जीवाश्म और प्रस्तर उद्योग-१ भेड़ाघाट (जबलपुर) में प्राप्त पुरापाषाण युग के प्रस्तरास्र और सागर की दक्षिणी पेटी में मिली प्रागैतिहासिक सामग्री से बहुत प्राचीन संस्कृति के उद्भव की जानकारी मिलती  है ।

होशंगाबाद की आदमगढ़ गुहा, सागर के आबचंद और नरयावली, छतरपुर के किशुनगढ़ क्षेत्र के शैलचित्रों में पुरातन मानव की लोकचित्रकला के दर्शन होते हैं । इससे सिद्ध है कि बुंदेलखंड में लोकसंस्कृति की आदिम स्थिति बहुत अच्छी थी ।

आखेट चित्रों को केन्द्र में रखने से शैलचित्रों के तीन विकास-स्तर दिखाई पड़ते हैं-पहला, जिनमें शिकारी कुल्हाड़ियाँ और भाले लिए हैं । दूसरा, जिनमें शिकारी अधिकतर धनुष धारण किए हैं और तीसरा, जिनमें वे घोड़ों या हाथियों पर सवार हैं ।

इस युग में सामूहिक जीवन प्रारंभ हो गया था । समूह में रहना, शिकार करना, सामूहिक भोजन, समूह गीत और नृत्य आदि दैनिक क्रियाएँ लोकमानस के विकास के लिए सक्षम थीं । जन्म से मृत्यु तक के जीवन में कुछ विशिष्ट अवसरों से जुड़े कार्य रुढ़ होने लगे थे । धार्मिक मान्यताएँ लोकविश्वास के रुप में दृढ़ हो गई थीं ।

प्रकृति की चमत्कारपरक और प्रभावी शक्तियों के प्रति भयमिश्रित आस्था के बीज प्रस्फुटित होने लगे थे । आनंद और दु:ख की अभिव्यक्तियों में जिस तरह सामूहिक भागीदारी थी, उसी तरह कलाओं के व्यक्तीकरण में प्रकट होती थी । कलाओं का दैनिक जीवन से संबंध तो था ही, वे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग भी थीं ।

वैदिक युग Vedic Era
ॠग्वैदिक काल में ॠग्वेद के अनुसार आर्यों का निवास सप्तसिंधु प्रदेश था, अत: बुंदेलखंड उनके प्रभाव से बाहर रहा। स्पष्टत: यहाँ की लोकंसंस्कृति पुलिंदों, निषादों, शबरों, रामठों, दाँगियों आदि आर्येतर संस्कृतियों से प्रभावित थी।निषादों और शबरों  ने बाद में आर्य संस्कृति स्वीकार को स्वीकार किया था  । शबर और रामठ से ही सौंर और राउत विकसित हुए हैं, जो बुंदेलखंड में आज भी यत्र-तत्र कई क्षेत्रों में मिल जाते  हैं ।

कृषक ही कृषिपरक, ॠतुपरक और उत्सवपरक लोकगीतों और लोकनृत्यों के सर्जक रहे हैं और उन्होंने ही कई लोकसंस्कारों को जन्म देकर लोकसंस्कृति को पाला-पोसा है । वैदिक संस्कृति से अप्रभावित होते हुए भी बुंदेलखंड की एक अपनी लोकसंस्कृति थी और एरण की खुदाई में प्राप्त वस्तुओं के अलंकरण से स्पष्ट है कि ईसा से १६वीं-१७वीं शती पूर्व वह काफी उत्कर्ष पर थी ।

उत्तरवैदिक युग में आर्यों  ने हिमालय और विंध्याचल के बीच का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया था । निश्चित है कि एक सांस्कृतिक संघर्ष वर्षों  तक चला, जिसका अनुमान वाल्मीकि रामायण के श्री राम के अभियान से लगाया जा सकता है । एक तरफ दक्षिण की रक्षस -संस्कृति थी, दूसरी तरफ आर्य-संस्कृति और तीसरी तत्कालीन क्षेत्रीय संस्कृति । क्षेत्रीय निषादों, शबरों, कोल-भील आदि ने तो श्री राम का साथ दिया था, क्योंकि राक्षस उन्हें सताते थे, लेकिन आर्य और वन्य संस्कृतियों के समन्वय में काफी समय लगा था ।

इस युग में आर्यों ने कठोर नियम-उपनियम बनाकर लोकजीवन में परिष्कृति लाने का प्रयत्न किया था, पर उससे जटिलता और कर्मकांडी विधि-विधान की कट्टरता भी आई, जो लोकसहज न थी । बुंदेलखंड पर उसका प्रभाव बहुत बाद में पड़ा, इसी कारण यहाँ वन्य लोकसंस्कृति महाभारत-काल तक बनी रही ।

इतिहासकारों का मत है कि आर्यों  ने विंध्य क्षेत्रों पर सेना के द्वारा अधिकार नहीं किया, वरन् ब्राह्मणों और क्षत्रियों के छोटे दलों ने प्रवेश कर, जंगलों को साफ कर और कुटी तथा निवास स्थान बनाकर बस्तियाँ बसाई । परंतु वास्तविकता यह है कि अगस्त्य-अत्रि आदि ॠषियों ने विंध्य की प्रकृति की गोद में आश्रमों की स्थापना की थी, जिनसे इस जनपद में आश्रमी संस्कृति का पदार्पण  हुआ था ।

वाल्मीकि रामायण में अत्रि-आश्रम की स्थिति चित्रकूट के निकट बताई गई है । अत्रि-पत्नी अनुसूया आर्य नारी का आदर्श तो थी ही, बाद में इस क्षेत्र में भी प्रतिष्ठित हुई । पुरुषोत्तम श्री राम की यात्रा में चित्रकूट का विशेष महत्त्व है, वहीं से उन्होंने संस्कृति की रक्षा हेतु  वन-वन घूमे । इस आश्रमी संस्कृति के संपर्क में आने से इस क्षेत्र की लोकसंस्कृति में व्यापक परिवर्तन की स्थिति शुरु हुई ।

वाल्मीकि रासायण में अप्सरा (स्वर्गीय नर्तकी), गणिका जैसे कलाकारों के साथ नट-नटी आदि का उल्लेख है । रामजन्म, राजतिलक आदि अवसरों पर जिन सामूहिक नृत्यों वाद्यों, दृश्यकलाओं का वर्णन है, वे लोकसंस्कृति के अभिलेख हैं, जो दूसरे प्रभाव के उदाहरण हैं । अतएव लेकसंस्कृति के इस तरह के प्रभावकारी पक्ष का उद्घाटन जरुरी है । लोक बहुत प्रबल होता है और यह निश्चित है कि बुंदेली लोक ने उस समय विनष्टकारी राक्षसी शक्तियों से बचाव के लिए रामपरक संस्कृति के कुछ लोकोपयोगी मूल्य अपनाए, जिनकी पहचान आज संभव नहीं है ।

इसके बावजूद इस वन्य जनपद के अपने लोकगीत, स्वाँगादि और शक्तिपूजक चित्रादि अवश्य थे । उनके संस्कार और आदर्श भी थे, नहीं तो वे ॠषि-मुनियों और राम के प्रति सहानुभूति और प्रेम-भक्ति कैसे प्रकट करते । आदिकवि वाल्मीकि थे, तो शिष्ट संस्कृति और भाषा के धनी, पर वन्य संस्कृति का उन्हें पूरा अनुभव था, इसलिए रामायण में जो नट-नर्तक आदि के वर्णन किये गए हैं, वे उसी की उपज थे और नगरों में उनका प्रचलन हो गया था ।

इतिहास में वेत्रवती (बेतवा) के दोनों तटों पर सुदूरवर्ती प्रदेश ‘आटविक राज्य’ के नाम से विख्यात् रहा है। ‘नलोपाख्यान’ में राजा नल की राजधानी नरवर बताई गयी है । दमयंती ने बेतों से भरी एक नदी (बेतवा) को पार करते हुए एक सार्थवाह को देखां था । महाभारत में चेदि की गणना प्रमुख जनपद के रुप में की गयी है और शिशुपाल चेदि का प्रसिद्ध राजा कहा गया है ।

भगवान् देदव्यास कृष्ण द्वेपायन की जन्मभूमि कालपी बताई गयी है, जिसका पौराणिक नाम ‘कालप्रिय’ से नि:सृत हुआ है और जो सूर्योपासना के लिए विख्यात् थी । महाभारत के वन-पर्व में कालिंजर, चित्रकूट, मंदाकिनी आदि का वर्णन मिलता है और आदि पूर्व में चेदिकालीन संस्कृति के संबंध में कुछ संकेत मिलते हैं, जिनके अनुसार “चेदि देश प्राचीन काल में अत्यंत रमणीय और समृद्ध था । वह धन और धान्य से पूर्ण था और अपनी रक्षा करने में समर्थ था ।

महाभारत के वन पर्व में युधिष्ठिर द्वारा वन्य नर्तकों, अभिनेताओं आदि कलाकारों को सहायता और विराट् पर्व में अर्जुन का वृहन्नला बनकर गीत, नृत्य, वाद्य आदि की शिक्षा प्रदान करने से जाहिर है कि वन्य कलाकार अपनी लोककलाओं में कुशल थे, लेकिन उन पर बाहर से आये लोकोन्मुखी तत्त्वों का प्रभाव भी पड़ा । यही बात लोकसंस्कृति के अंगों-उपांगों पर लागू होती है । इस युग में चेदि और दशार्ण प्रसिद्ध जनपद थे । चेदि में राजतंत्र था और संभव है कि दशार्ण में भी रहा हो।

इस समय जनपदीय इकाई की सुरक्षा और उसे ऊँचा बनाने के प्रयत्न में लोकसंस्कृति में जातीय चेतना का विकास हुआ, जिसके फलस्वरुप समानता के बिंदु पहचान कर ग्रहण किये गये और एकता आयी । अनार्य और आर्य संस्कारों का संघटन हुआ, लोकादर्शीं को वरीयता के अनुसार अपनाया गया और लोककलाओं में बदलाव आया । लेकिन यह परिवर्तन की प्रक्रिया की पहली कड़ी थी, जिसमें जनपद को लोकतत्त्वों का चुनाव स्वयं करना था ।

मौर्य -शुंग काल
मौर्य-काल में त्रिपुरी, एरिकेण और विदिशा का भाग मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था, इस लिए  त्रिपुरी, एरिकेण (एरण) और विदिशा विख्यात् नगर बन गये । सम्राट चंद्रगुप्त ने सागर, दमोह आदि जिले सम्मिलित कर एक अलग प्रांत उज्जयिनी बना दिया था, जिसका सूबेदार अशोक रहा । अशोक ने विदिशा की श्रेष्ठिन पुत्री देवी से विवाह किया था और देवी की प्रेरणा से ही अशोक में बौद्ध-धर्म के अंकुर फूटे थे ।

बौद्ध-धर्म ग्रहण करने के बाद उसने साँची और भरहुत में स्तूप बनवाये तथा जबलपुर जिले के रुपनाथ की चट्टान पर अभिलेख उत्कीर्ण करवाया । भेड़ाघाट में प्राप्त बौद्ध मूर्तियों, होशंगाबाद जिले की पचमढ़ी की मढियों और एरण एवं त्रिपुरी में प्राप्त सिक्कों पर बने बोधिवृक्ष एवं धर्मचक्र से साबित है कि इस प्रदेश में बौद्ध-धर्म का प्रचार-प्रसार खूब हुआ, जिसके परिणामस्वरुप लोकसंस्कृति को प्रधानता मिली।

व्यापक लोक-कल्याण की अंतर्दृष्टि लोक की धरोहर बनी और जातक कथाओं के बिस्तार  से लोकसाहित्य में व्यापक लोकदृष्टि समाविष्ट हुई । बौद्ध-साहित्य में ग्रामीण जीवन, मनोविनोद और लोककलाओं की महत्ता से बुंदेली लोकसंस्कृति में आत्मविश्वास की अद्भुत शक्ति जाग्रत हुई ।

एक उदाहरण यहाँ पर्याप्त है । बुंदेली लोक में वन-देवता, गिरि-देवता, नदी-देवता, सर्प देवता, वृक्षदेवता एवं शक्ति की उपासना बहुत प्राचीन है, यक्ष देवता भी उनमें शामिल हुए, जिसका प्रमाण है पवायाँ, बेसनगर आदि में प्राप्त यक्षमूर्तियाँ । पवायाँ की माणिभ्रद यक्ष की मूर्ति के पाद-अभिलेख में शिवनंदी राजा के शासन-काल में प्रतिमा की स्थापना का उल्लेख है, जो विदिशा पर शुंगों के अधिकार के पहले विदिशा का अंतिम नाग राजा था ।

अभिलेख में अंकित अनेक दानदाताओं के कल्याण के लिए कामना से यह सिद्ध है कि तत्कालीन समाज में यक्ष-उपासना प्रचलित थी ।  यक्षमूर्तियों के निर्माण से बहुत पहले बुंदेली प्रदेश में यक्ष की पूजा धन-धान्य और समृद्धि के लिए साधन बनी थी और निश्चित ही यक्ष यहाँ की लोककलाओं में अंकित होते थे, तभी तो बाद में विशालकाय मूर्तियाँ गढ़ी जा सकीं ।

बुंदेली लोक प्रारंभ से ही शक्तिपूजक रहा है, अतएव उसने ॠगवैदिक श्रीयंत्र को रामायण-काल में या उसके बाद जरुर अपना लिया था । इन सभी उदाहरणों से यह तथ्य  प्रामाणिक होता  है कि महाजनपद-काल में लोकसंस्कृति का जो स्वरुप स्थिर हुआ, वह निरंतर विकसित होकर इतने उत्कर्ष पर पहुँचा कि उससे प्रेरणा लेकर शास्रीय कलारुप भी समृद्ध होने लगे ।

बुंदेलखंड के हर गाँव में एक चबूतरा है, जिस पर मिट्टी या ईटों की शंकुआकार आकृति बनी है । वस्तुत: ये चबूतरे यक्षों के चौतरे हैं, जो बाद में शिव के, हरदौल के या अन्य ग्रामदेवता, नट, मशान, कारसदेव आदि के रुप में परिवर्तित होते गये ।

पहली शती ई. पू. से ईसा की 5 वीं शती तक नागों और वाकाटकों के लगभग छ: सौ वर्षीं के शासन ने बुंदेली लोकसंस्कृति को नये रुप में प्रतिष्ठित किया । उन्होंने उसके बिखरे लोकादर्शीं, मूल्यों, तत्त्वों को संघटित कर एकता ही प्रदान नहीं की, वरन् उसमें नयी प्राणप्रतिष्ठा कर नयी अस्मिता दी । आधुनिक बुंदेली लोकसंस्कृति की सुदृढ़ नींव इसी समय रखी गयी और इमारत भी इसी समय खड़ी हुई, इस कारण यह दीर्घ काल लोकसंस्कृति का उत्थान-काल कहा जा सकता है ।

नाग और वाकाटक शिव के उपासक थे, इस लिए  लोक में शिव और उनसे संबद्ध नाम, चंद्र, नंदी आदि की पूजा प्रचलित हुई । शिव की नदी माता गंगा को पवित्र और पापविनाशिनी माना गया । नंदी के साथ गोमाता पूज्य हो गई । इस प्रकार लोकसंस्कृति में इन्हें दैवी शक्त्तियों के रुप में स्वीकारा गया ।

सनानती संस्कृति और कला नागों की ही देन है, नाग शैव होते हुए भी विष्णु, सूर्यादि देवों के पूजक थे और इस दृष्टि से समन्वय में विश्वास रखते थे, इसी वजह से लोकधर्म को अधिक बल मिला । पद्मावती (पवाया) में प्राप्त सूर्य स्तंभ, माणिभद्र यक्ष एवं विष्णु-मूर्तियाँ तथा मुद्राओं पर अंकित चक्र आदि से नागों की व्यापक धर्मदृष्टि का बोध होता है । गाय के प्रति पूज्य भाव इसी समय अंकुरित हुआ था ।

ई. 340 के लगभग रचित ‘कौमुदी-महोत्सव’ नाटक से वाकाटक-काल के एक साहित्यिक आंदोलन का चित्र उभरता । वाकाटकों ने संस्कृत को राजभाषा बनाया और शास्रों की मर्यादा स्थापित की, लोकिन यह सब उच्च सामंती वर्ग तक सीमित रहा, जबकि आम आदमी में नागों द्वारा प्रतिष्ठित लोकसंस्कृति ही पल्लवित होती रही ।

वाकाटक-काल में ही गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने एरण और उसके आस-पास के भूभाग पर अधिकार कर लिया था । एरण में ‘स्वभोग-नगर’ की रचना और विष्णु मंदिर के निर्माण से प्रतीत  होता है कि गुप्तों ने भी इस प्रदेश पर अपना प्रभाव छोड़ा था । उत्तर गुप्तकाल में एक युद्ध का अनुमान एरण में प्राप्त एक सती-स्तंभ से लगता है, जो सेनापति (गोपराज) के मारे जाने से उसकी पतिव्रता पत्नी के सती होने की स्मृति में निर्मित किया गया था ।

तोरमाण हूण के आक्रमण का उल्लेख वराह अभिलेख में मिलता है, उसी में गोपराज ने अपने प्राण दिए थे । इससे स्पष्ट है कि ५वीं शती के अंत या ६वीं शती के प्रारंभिक दशक में सती का लोकादर्श प्रचलन में था । उदयगिरि (विदिशा) और देवगढ़ (ललितपुर) के गुप्तकालीन मंदिरों में विष्णु के अवतारों की पौराणिक कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है, जिससे पौराणिक कथाओं का लोक में प्रसार प्रमाणित होता है ।

गुप्तों के उपरांत हर्षवर्द्धन (606-४७ ई.) सम्राट बना, जिसके अधीन उत्तर भारत के सभी प्रदेश रहे । उसके राज्यकाल सें प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्यूनसांग ने बुंदेलखंड की यात्रा की थी और उसे ‘चिह-चि-तो’ (जझौति) नाम से मध्यभारत के ३७ राज्यों में से एक बताया है, जिसका शासक एक ब्राह्मण था । प्रामाणिक जानकारी के अभाव में उसे हर्ष के अधीन या करद माना गया है । हर्ष की मृत्यु के बाद यह प्रदेश कन्नौज के प्रतिहारों त्रिपुरी के कलचुरियों मालवा के परमारों और मान्यखेत के राष्ट्रकूटों का अखाड़ा बना रहा ।

वैसे चंदेलों के पूर्व प्रतिहार ही प्रमुख शासक रहे, लेकिन लोक में अधिकतर अशांति ही रही । हर्ष ने बौद्ध-धर्म के बिस्तार के अनेक प्रयत्न किये थे और हिंसा का पूर्ण निषेध कर दिया था, पर ७वीं शती में कुमारिल भट्ट और ८वी. शती में शंकराचार्य ने वैदिक मत के आधार पर हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया, जिससे लोकमत में अनोखी क्रांति आई और लोकसंस्कृति में आत्मविश्वास जगा ।

प्रतिहार विष्णु, शिव, आदित्य और देवी के भक्त थे, जबकि परमार, कलचुरि और राष्ट्रकूट शिव के उपासक । अतएव धार्मिक दृष्टि से बुंदेलखंड में शिव, विष्णु, देवी, सूर्य आदि की पूजा प्रतिष्ठित रही ।

सत्ता केन्द्रों के कमजोर और अस्थिर होने से छोटे-छोटे क्षेत्रों में गोंड़, कोल, भील, यादव, राउत, दाँगी आदि जातियों का अधिकार हो गया था, जिनका सामना चंदेलों को करना पड़ा । उनकी प्रमुखता से लोकसंस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा । एक तो यह कि एक बार फिर लोकसंस्कृति में उभार आया, क्योंकि उस वर्ग के दबे हुए  लोकमूल्य, विश्वास, आचरण और लोकवार्ता आदि प्रमुखता पाने लगे । दूसरे, प्राकृत लोकप्रचलन से लुप्त होकर केवल संस्कृत नाटकों तक सीमित हुई और देशज भाषाओं का प्रयोग होने लगा ।

चंदेल -काल
आचार्य भरत के नाट्यशास्र से प्रामाणिक संकेत मिलता है कि नाटक के क्षेत्र में लोकधर्मी नाट्य और शास्रीय नाट्य-परंपराएँ अलग-अलग अस्तित्व में आ गई थीं। इसी प्रकार मार्गी ओर लोकधर्मी विभाजन हर क्षेत्र में हो चुके थे । मार्गी का साहित्य संस्कृत में था और शास्रीय कलाएँ सीमित कलाकारों के हाथ में थीं, जबकि लोकधर्मी साहित्य प्राकृत में रचा जाता था और लोककलाएँ लोक में व्याप्त थीं । दोनों एक-दूसरे के पूरक और प्रेरक रहे थे । लोकरुप परिष्कृत एवं शैलीबद्ध होकर शास्रीयता से जुड़ जाते हैं और इस प्रकार दोनों में निकट का संबंध रही है ।

नौवीं शती अर्यात् चंदेलों के अभ्युदय-काल तक मार्गी और लोकधर्मी या देसी का विभाजन बिल्कुल स्पष्ट हो चुका था, अतएव बुंदेली लोकसंस्कृति की पहचान भी स्थिर होना कठिन नहीं थी। बुंदेली लोकभाषा का जन्म एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है । साहित्य के इतिहासकारों ने लोकभाषाओं या हिंदी के उदय का कारण हिन्दू  राज्यों का परस्पर संधर्ष और मुसलमानों का आक्रमण माना है ।

दसवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी के अंत तक दक्षिण को छोड़कर शेष भारत क्रमश: पराधीन हो गया था, जहाँ गुर्जर राज्य तेरहवीं शती के अंतिम समय तक (1299 ई. तक) अपनी स्वतंत्रता को अखंड बनाए हुए था । इससे ऐसा प्रतीत  होता है कि लोकभाषा या हिंदी का उद्भव किसी स्वतंत्र देश के सांस्कृतिक उत्कर्ष में हुआ था ।

चंदेल राज्य की आजादी और उत्कर्ष तो तत्कालीन इतिहास में बेजोड़ है, और खजुराहो की कला एवं आल्हा की लोकप्रियता आज भी उस युग का मानचित्र खड़ा करती है । चंदेलकालीन लोकसंस्कृति का संश्लिष्ट चित्र तत्कालीन ग्रंथों-आल्हा, प्रबोध-चंद्रोदय, रुपकषटकम्, पृध्बीराज रासो , काव्यमीमांसा आदि और उस समय के शिलालेखों, मंदिरों, मूर्तियों आदि के आधार पर लिखा जा सकता है । जहाँ तक लोकमूल्यों या लोकादर्श का सवाल है, इस युग में लोक का प्रथम आदर्श युद्ध में खेत रहना था, जिसे ‘आल्हा’ में स्पष्ट अभिव्यक्ति मिली है ।

युद्ध में लड़ते हुए प्राण देना यश का सीधा मार्ग है । आत्महत्या जघन्य पाप माना  जाती था  । नारी का आदर्श था-सतीत्व । अलबंरुनी ने लिखा है कि “विधवाएँ या तो अपने पतिदेव की चिता पर अपने को झोंक देती हैं या तपस्विनी का जीवन व्यतीत करती हैं ।वत्सराज के ‘रुपकषटकम्’ में सती का प्रमाण है ।राजभक्ति और देश-प्रेम जैसे महत्त्वापूर्ण मूल्य भी लोक में व्याप्त थे ।

चंदेल मंदिरों, मूर्तियों और अभिलेखों से प्रकट है कि लोक में शिव, विष्णु, देवी, गणेश और सूर्य की पूजा प्रचलित थी ।-२६ सामूहिक और व्यक्तिगत मूर्तिपूजा, दोनों का महत्त्व था । शिव की मढियाँ गाँव-गाँव में बनने लगी थीं । तालाब खुदवाना, मंदिर बनबाना, दान देना और तीर्थयात्रा करना पुण्य कार्य समझे जाते थे ।

दैनिकचर्या धर्म से संबद्ध हो गई थी । कृष्ण और विष्णु को एक मानने से ऐसा लगता है कि अवतारों को भी पूज्य माना गया था ।चंदेल-मंदिरों में विष्णु शिव आदि के अवतारों की अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं ।घरों में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखने की परम्परा बन गाई थी ।लक्ष्मी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं ।अनुष्ठान , व्रत और त्योहार, धर्म के अंग हो गए थे । पुरोहितों के आडम्बर शुरु हो गये थे,  पर लोक उन्हें श्रद्धा देता था । इस तरह लोकधर्म का स्वरुप काफी प्रभावी हो गाया था ।

ठीक इसके समानांतर कुछ लोकविश्वास ऐसे थे, जो आज अंधविश्वास की श्रेणी  में रखे जाते हैं, पर उस समय आस्था के ही अंकुर थे । कर्तव्य से अधिक भाग्य पर और ज्योतिष विद्या, मंत्र, जादू-टोना, भूत-प्रेत, इंद्रजाल आदि में विश्वास करना आम प्रचलन में था । द्यूत में जीतने के लिए ज्ञानराशि और माणिभद्र की पूजा की जाती थी ।

गड़ा धन पाने के लिए आँखों में अंजन विशेष लगाया जाता था, जो आज ‘कजरी’ लगाने के नाम से प्रसिद्ध है ।ग्रहण में दान देना  उसके मोक्ष का साधन माना जाता था । कुछ कृषिपरक विश्वास पहले से चले आ रहे थे और कुछ इस समय प्रचलित हुए थे । खेती के शुरु और अंत में कृषि के उपकरणों की पूजा, फसलों की ओले आदि विपत्तियों से रक्षा करने के लिए मंत्र और पूजा तथा भूमि और धान्य-पूजन हर कृषक अवश्य करता था ।

10 वीं-11 वीं शती में बने मंदिरों के संबंध में प्रचलित सर्प -संबंधित किंवदंतियों में (जिन्हें अक्सर आर्केल्याजिकल सर्वे रिपोट्र्स में उद्धृत किया गया है) इन विश्वासों की प्रबलता दिखाई पड़ती है । किंवदंतियाँ लोकविश्वासों से उत्पन्न होता हैं और ऐतिहासिक कथ्य  में लोकविश्वास प्रतिबिम्बित करती हैं । चंदेल या परमार मंदिरों से जुड़ी किंवदंतियों से यह तथ्य  स्पष्ट हो जाता है ।

वस्राभरण एवं भोजन-पेय का भी अपना इतिहास है । इस काल की मूर्तियों से वस्रों का अनुमान लगाना कठिन नहीं हैं । महोबा में प्राप्त सिंहनाद अवलोकितेश्वर से ज्ञात होता है कि पुरुष अधोभाग में धुटन्ना और ऊर्ध्वभाग में अंशुक या उपरना डालते थे अधोभाग में नीचे तक की धोती लहरियादार के भी प्रमाण मिलते हैं, जिसे बुंदेली में कुचौताला कहते हैं । इस तरह का वस्र चंदेल और कलचुरि मूर्तियों में अत्यंत कलात्मक ढंग से उत्कीर्ण किया गया है । जाँघिये या घुटन्ने का प्रयोग भी कई जगह मिलता है ।

भेड़ाघाट के गौरीशंकर मंदिर में नर्तित गणेश की प्रतिमा उत्तरीय और जाँघिया पहने है । वत्सराज के ‘रुपकषटकम्’ में योगप का उल्लेख है, जिसे बुंदेली में अँचला या अँचरा कहते हैं और जो पीठ से घुटनों तक होता है । तेवर में प्राप्त अवलोकितेश्वर की प्रतिमा इस परिधान से सुशोभित है ।

स्रियाँ अंगिया, चोली और फतुही जैसे वस्र ऊर्ध्वभाग में धारण करती थीं । भेड़ाघाट की एँगिनी (योगिनी) चोली जैसा और ॠक्षिणी अंगिया जैसा वस्र पहने है । इंद्रजाली, जाह्मवी आदि प्रतिमाओं के अधोवस्र चुन्नटवाले, लहरियादार और लंबे जाँघिया जैसे पैरों से सटे हैं । कुछ में वे लम्बे जाँघिया सरीखे लगते हैं । खजुराहो की सुरमा लगाती सुरसुंदरी में वह और भी स्पष्ट है । बुंदेलखंड में प्रचलित कछोटादार धोती भी कुछ इसी तरह लगती है । आल्हा में पुरुषों द्वारा सिर पर धारित पगिया (पाग) को महत्त्व दिया गया है ।

आल्हा में नौलखा हार की एक कथा-सी है, जिससे प्रतीत होता है कि कंठहार गले का सर्वप्रिय आभूषण था ।खजुराहो की मूर्तियों में हार के अलावा खंगौरिया और हमेल जैसे आभूषण गले में सुशोभित हैं । कलचुरि मूर्तियों में माला सामान्य आभूषण है । कान में कर्णफूल और सिर में शीशफूल एवं बीज सभी स्त्रियाँ  पहनती थीं । कटि में करधौनी हर चंदेल और कलचुरि मूर्ति में उत्कीर्ण है । हाथों में अंगद या बरा, खग्गा, कंगन चूडियाँ और अँगूठी प्रचलित थीं । पैरों में नूपुर, सॉकर या पायजेब जैसा आभूषण बिछिया और अनौटा पहनने का रिवाज था ।

खजुराहो की मूर्तियाँ गवाह हैं कि इस काल में आँखों में अंजन, अधरों में अधर राग और पैरों में आलता या, महावर का प्रयोग होता था । विवाहित स्रियों को सिंदूर लगाना अनिवार्य था, जैसाकि चंदेल विवरणों एवं खजुराहो की मूर्तियों से मालूम होता है । पति की मृत्यु पर सिंदूर लगाना वर्जित था ‘रुपकषटकम्’ में तो अंगों पर चंदन, कपूर आदि लगाने का उल्लेख है, पर यह उच्च वर्ग तक सीमित था । पान-बीड़ा का सेवन सभी करते थे और वह श्रृंगार प्रसाधनों में शामिल था । वेश्याएँ और कुलटाएँ नकली अलंकरण धारण करती थीं

लोकाचार की दृष्टि से इस काल को पुनर्प्रतिष्ठापक कहना सही है क्योंकि पुराने हिंदू आचार-व्यवहार को ही पक्का करने का प्रयास इस युग की विशेषता है । साथ ही युगानुरुप संस्कार भी निर्मित हुए हैं । उदाहरण के लिए, क्षत्रियों में कन्या का जन्म अभिशाप माना जाने लगा था, क्योंकि वे दूसरों को कन्या देने में अपना अपमान महसूस करते थे । लेकिन पुत्र होने पर माँ की गरिमा बढ़ जाती थी और आनंद का प्रतीक जन्मोत्सव मनाया जाता था । चंदेल-नरेश हर्ष की रानी को राजकुमार पैदा होने पर उसे ‘देवकी’ कहकर सम्मान देने का प्रमाण इतिहास में मिलता है ।

विवाह-संस्कार इस युग में काफी चर्चित  रहा, जिसका उल्लेख आल्हा, रुपकषटकम्, शिलालेखों आदि में मिलता है । उच्च वर्ग में सवर्ण विवाह प्रचलित थे, पर बलात् अपहरण के उदाहरण भी वर्णित हैं । विवाह के कारण युद्ध और उन्हें राजनीति का हथियार बनाने के साक्ष्य आल्हा और पृध्वीराज रासो  दोनों में हैं । लेकिन आल्हा की गाथाओं में एपनवारी भेजने से लेकर नवपरिणीता घर लाने तक विवाह-संस्कार की विधियों और नेगों के संकेत स्पष्ट हैं जिससे जाहिर है कि थोड़े अंतर से पूरी प्रक्रिया शास्रानुरुप हो गयी थी ।

रुपकषटकम् में वधूपक्ष की ओर से विवाह का प्रस्ताव, मुहूर्त-शोधन, विवाह का कन्यागृह में संपन्न होना, पहले इंद्राणी-पूजा आदि और सखियों द्वारा अखंड सौभाग्य की कामना, बारात आने पर शिविरों में ठहराना, धर में बारात की अगवानी, स्वागत-सत्कार, मंगलाचार, कन्यादान के समय पिता द्वारा दहेज सौंपना आदि उल्लेखित हैं ।

कन्याएँ विवाह के लिए स्वतंत्र नहीं थीं और उसे भाग्याधीन मानती थीं । बहुविवाह प्रथा थी, जिसकी वजह से सौत से कलह सहज थी ।इनके बावजूद स्रियों में अरुन्धती और अनुसूया के पातिव्रत्य धर्म के आदर्श विद्यमान थे ।

तीसरा प्रमुख संस्कार मृत्यु-संबंधी है, जिसमें शवदाह से लेकर तेरहवीं तक कई संस्कार करने पड़ते हैं । आल्हा में श्राद्ध का उल्लेख हुआ है । इसी तरह सं. 1107 वि. के नन्यौरा दानपत्र में पितृतर्पण  के कृत्य का संकेत है, जिससे मृतकों के श्राद्ध में पानी देने के संस्कार का लोकप्रचलन प्रमाणित होता है ।

लोकरीतियों प्रथाओं और उत्सवों की प्रामाणिक जानकारी के अनुसार भी तत्कालीन लोकसंस्कृति का यथार्थ चित्र उभर आता है । इस जनपद में पहुनई या आतिध्य को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त था । अतिथियों के पैर धोना, उनका सत्कार और ब्राह्मणों का सम्मान-पूजन सभी वर्ग और जातियों में प्रचलित था । दहेज, पर्दा, सती जैसी प्रथाएँ अनुसरित होती थीं ।

बहुत-सी साधारण रीतियाँ और प्रथाएँ भी थीं, जैसे-खेत में बिजूका खड़ा करना, सुखपरक अवसरों पर बधाई देना आदि । प्राचीन लोकोत्सवों में कृषि-पर्व उस समय प्रमुख था । आल्हा में कजरियाँ खोंटने के समय हुए युद्ध का वर्णन है, जिससे पुराने कृषिपरक उत्सव में एक सशक्त परिवर्तन दिखाई पड़ता है । इस ऐतिहासिक घटना से कजरियों या भुजरियों का उत्सव भाई-बहिन के पवित्र प्रेम से जुड़ गया है । इस प्रकार भोजन-पान, पर्व उत्सवों और धार्मिक कृत्यों की अलग-अलग रीतियाँ विद्यमान थीं ।

खजुराहो के मंदिरों सें शिकार, हस्तियुद्ध, नृत्य, संगीत आदि विनोदों के दृश्य-खंड मिलते हैं । लोकोत्सवों के दृश्य भी कहीं-कहीं उपलब्ध हैं । लोकसाहित्य  और लोककलाओं के कुछ प्रामाणिक साक्ष्य भी खोजे गये हैं । खजुराहो अभिलोख, सं. 1011 वि. में कहा गया है कि चंदेल-नरेश वाक्पति क्रीड़ागिरि पर किरात स्रियों के मीत और मयूरनृत्य से मन बहलाव करते थे ।इससे सिद्ध है कि लोकगीत और लोकनृत्य राजाओं के मनोविनोद के साधनथे ।

संवत् 1055  वि. की नन्यौरी से भी चंदेल-नरेश धंग के अंत:पुर के मनोरंजन  की झलक मिलती है । यायावर कवि राजशेखर की काव्यमीमांसा में राजासन के पूर्व भाग में नट, नर्तक, गायक, वादक, हाथों के तोलों पर नाचने वाले, कुशीलव आदि के स्थान का संकेत किया गया है । यहाँ तक कि जिन मंडन के ‘कुमार पाल प्रबंध’ में वसंतोत्सव पर चंदेलनरेश मदनवर्मन के राज्य में हर घर से गीत-संगीत गूँजने का उल्लेख है ।

इसका तात्पर्य यही है कि लोकगीत और लोकसंगीत बहुत प्रचलित था, क्योंकि शास्रीय गीत-संगीत पर हर घर का अधिकार संभव नहीं है । आल्हा लोकमहाकाव्य से पता चलता है कि गाथाओं का उत्कर्ष इसी समय हुआ । कजरियों के राछरे भी प्रचलित हुए । देवी गीत, वसंत-गीत (फाग), दिवारी गीत और गोटें इसी युग में रचे गए और लोकमुख में रहे । वत्सराज के ‘रुपकषटकम्’ में गायन, नर्तन, अभिनय और आलेखन का स्पष्ट उल्लेख हुआ है, जिससे 12 वी. शती में जीवित लोककलाओं का साक्ष्य मिलता है ।

चंदेलनरेश परमर्दिदेव  के समय नीलकंठ यात्रा में भी अभिनय का आयोजन होता था । काव्यमीमांसा में चित्रकार या चितेरे के लिए चित्रलेप्य शब्द का प्रयोग है । ‘प्रबोधचंद्रोदय’ में इंद्रजालिक और काव्यमीमांसा में विट, रस्सों पर नाचने वाले इं द्रजालिक, दाँतों से खेल दिखलाने वाले और पटेबाज के लिए भुजंग, प्लवक, जंभकम्मल और शस्रोपजीवी शब्दों का चयन है, जो अभिनय करने वाले कलाकारों के विविध नामकरण हैं ।

आल्हा में ऊदल के जन्म पर मल्हनादे का नृत्य करना सोहर गीत के साथ बधावा लोकनृत्य ही था । स्पष्ट है कि संस्कारों में गीत के साथ नृत्य होते थे । किरात स्रियों के मयूर-नृत्य का उल्लेख किया जा चुका है । वत्सराज के ‘रुक्मिणी-परिणय’ में मांगलिक कौतुकों के अंतर्गत लोकनृत्य और लोकवाद्य-दोनों हो सकते हैं, जो बारात के समक्ष प्रस्तुत हुए थे ।

लोकोत्सवों में फागनृत्य राई, दिबारी या मौनिया नृत्य और लाँगुरिया नृत्य प्रचलन में थे । लोकनाट्यों में सामान्यत: देवी-पूजन में भाव, उत्सवयात्रा में स्वाँग, दर्शकों या राजसभा के समक्ष इंद्रजाल आदि कम संवाद वाले अभिनय और खेल तो सर्वत्र व्याप्त थे ही, लेकिन भाण, प्रहसन आदि अभिनीत होने के प्रमाणों से प्रमुख लोकनाट्य स्वाँग ही ठहरता है, जो हर युग में निरंतर विकसित हुआ है ।

लोकचित्रकला की जानकारी वत्सराज के ‘रुपकषटकम्’, राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ और चंदेल विवरणों में मिलती है । ‘रुपकषटकम्’ से स्पष्ट है कि चित्रकला में स्रियों की विशेष रुचि थी । ‘रुक्मिणी-परिणय’ और ‘समुद्र-मंथन’ में चित्रकर्म द्वारा ही रागोत्पति बतायी गई है । साथ ही चित्रपट और आलेख्य से पटों और आलेखनों का संकेत स्पष्ट है । विवाह के पूर्व के मांगलिक कृत्य-इंद्राणी-पूजा  में या तो चित्र की पूजा होती है या मूर्ति की-दोनों रुपों में वह लोककला ही थी । इसी तरह गजलक्ष्मी या लक्ष्मी के बारे में यह मानना उचित है कि लोकदेवी लक्ष्मी के लोकचित्र और लोकमूर्तियाँ, दोनों बनते थे ।

चंदेल-युग की हताश चेतना को इस अटूट आस्था और असाधारण जीवनीशक्ति की जरुरत था । इसीलिए गाँव-गाँव में चबूतरा बने और छोटी-छोटी मढियों की स्थापना हुई । इसी का अनुसरण शास्रीय कलाओं ने किया और बड़े-बड़े मंदिरों से पूरा जनपद भर गया । दरअसल, यह सब लोकचेतना का प्रभाव था । नाटककार वत्सराज के ‘रुक्मिणी-परिणय’ में ‘लोकस्थिति: किंतु न लंघनीया’-७४ से स्पष्ट है कि लोकस्थिति संरक्षण की विशेष चिंता उस युग के जन-जन में परिव्याप्त थी ।

तोमर -काल
चंदेलों के पतन पर ग्वालियर के तोमर राजाओं ने बुंदेली संस्कृति की रक्षा की और ग्वालियर राज्य एक नया सांस्कृतिक केन्द्र बना । 14 वीं शती बुंदेली लोकसंस्कृति के लिए विषम थी । वैसे तो विदेशी आक्रमण 11 वीं शती से प्रारंभ हो चुके थे, पर चंदेलों की असीम शक्ति ने उन्हें बराबर विफल कर दिया था ।

13 वीं शति के तीन-चार दशकों के बाद मुस्लिमों ने इस प्रदेश के कई भागों पर अधिकार कर लिया था और तभी से लोकसंस्कृति का सीधा संघर्ष शुरु हुआ । सबसे अधिक खतरा रहा हिंदवी से, जो सुफियों के द्वारा देश के कोने-कोने में फैलायी जा रही थी और जिसमें दिखाने को लोकभाषा के दो-चार शब्द थे, पर वह तुर्की-फारसी से लदी थी । इसी प्रकार सूफी कव्वालियों, गजलों आदि ने लोकसंगीत और भारतीय संगीत के खिलाफ एक चुनौती खड़ी कर दी थी ।

तोमर-काल में रचित विष्णुदास के विष्णुपदों और बैजू बावरा के धुवपदों की लोकभाषा और देसी संगीत ने बुंदेली ही नहीं, भारतीय संस्कृति को बचा लिया । मुस्लिम इतिहासकार अलबेरुनी ने स्पष्ट रुप में लिखा था कि “भारतीय विद्याएँ उन स्थानों से दूर हट गयी हैं, जिन्हें हमने जीत लिया है ।” यह संकेत उस समय की स्थिति का सही चित्र समझने के लिए काफी है और ऐसी संक्रांति में बुंदेली लोकभाषा और देसी संगीत का योगदान इतिहास की अनुपम मिसाल है ।

तोसर-काल की दूसरी देन है-अखाड़ा । विष्णुदास की रचना ‘महाभारत’ (1435 ई.) में अखाड़ा जहाँ मल्लों के युद्ध का स्थल है, वहाँ नृत्य-संगीत का केन्द्र भी ।15 वीं शती के उत्तरार्द्ध की कृति ‘छिताई कथा’ में ‘नित नवरंग’ अखारे होई । नट नाटक आबई सब कोई । ।” से स्पष्ट है की ये अखाड़े ‘नट-नाटक’ की गीत, नृत्य आदि की प्रतियोगिता के केंद्र थे । कवि लिखता है कि देसी संगीत और अनुपम नृत्य होते थे । वस्तुत: अखाड़े मध्ययुग के कला संस्थान थे, जो बुंदेलखंड में 19 वीं शती के प्रारंभ तक जीवित रहे और जिनका प्रभाव लोककलाओं की समृद्धि और उत्कर्ष का जीवित प्रेरणा केन्द्र रहा ।

इस काल में लोकमूल्यों में ‘ सत्त’ प्रमुख था, जिसकी अर्थ-व्याप्ति अधिक थी और जिसमें अस्मिता या अस्तित्व, सत्य, सतीत्व आदि का समाहार आसानी से हो जाता था । ‘सत्त’ की यह परम्परा इस युग में ही नहीं, वरन् पूरे मध्ययुग में 19वीं शती के प्रारंभ तक मिलती है । बुंदेलखंड में लगभग चार सौ वर्ष ‘सत्त’ का बोलबाला रहा है और आज भी बुंदेली लोक में उसका प्रचलन है । अक्सर लोग कहा करते हैं कि इस देवी में ‘सत्त’ होता, तो ऐसा क्यों होता अथवा सती होने वाली नारी के ‘सत्त’-परीक्षा की चर्चा एक आम बात है ।

दूसरा लोकमूल्य था-‘पत’ रखना जो 19 वीं शती तक बहुत प्रभावशील रहा । अपनी ‘पत’ या इज्जत, प्रतिष्ठा, स्वाभिमान रखना एक ऐसा लोकादर्श था, जो सार्वभौमिक और सार्वकालिक था । छिताई कथा, रतनबाउनी, और अधिकांश मध्ययुगीन ग्रंथों में इसका उल्लेख है ।

विष्णुदासकृत ‘रासायन कथा’ और नारायण दासकृत ‘छिताई कथा’ में कुछ लोकविश्वास समाहित हैं, जिनमें प्रमुख हैं-पुत्र के बिना व्यक्ति नरक से नहीं पार होता या पुरखों का उद्धार नहीं होता, नियति की प्रबलता, कर्मफल भोगना पड़ता है, ज्योतिष और शकुन-अपशकुन पर आस्था आदि ।

14 वीं शती तक वज्रयान, सहजयान, मंत्रयान, चक्रयान आदि शैव और वैष्णव तांत्रिक संप्रदायों में पूरी तरह विलीन हो चुके थे, इस कारण हिन्दू  चिंतन में एक नयी स्फूर्ति आयी और तोमर युग में बुंदेलखंड ने अपने साहित्य और कला के द्वारा एक व्यापक आंदोलन छेड़कर विजातीय तत्त्वों से संघर्ष किया ।

‘छिताई कथा’ के रचनाकार ने शंकर को देवों का देव कहा है । बैजू बावरा, तानसेन आदि के संगीतपरक पदों में भी कई देवों को शक्ति का प्रतिक माना गया हे । धर्म के शास्रीय रुप की अपेक्षा लोकधर्म ने सूफी और इस्लाम से टक्कर ली थी और लोकभाषा के लोकगीतों के द्वारा जन-जन में सहज चेतना जाग्रत की थी ।

इतिहास गवाह है कि किस तरह सूफी संतों से आकृष्ट होकर लाखों लोग मुसलमान बन गए थे, अतएव सूफियों के धर्म की लोकोपयोगी प्रवृत्ति के लिए लोकधर्म, उनकी फारसी-लदी हींदवी के लिए लोकभाषा या ‘भाषा’ और खयाल-कव्वाली जैसे संगीत -फड़ के लिए विष्णुपद-धुवपद का लोकसंगीत उठ खड़ा होना सहज-स्वाभाविक था।

इस कालावधि में बुंदेली ज्यौनार काफी प्रसिद्ध हो गयी थी, इसीलिए उसका वर्णन हर ग्रंथ में मिलता है । विष्णुदासकृत महाभारत में 6  पेय और अठारह भक्ष्य कुल चौबीस वस्तुओं को भोजन में परोसने को ज्यौंनार कहा गया है । उनमें घेवर (मैदा, घी, चीनी से बनी एक मिठाई), बाबर (?) दहोंरी (शायद दही से बनी वस्तु) और सिखिरिन (चीनी, गरी, केसर आदि के योग से बना दही का पेय) आज प्रचलित हैं ।

आश्चर्य है की समोसा शब्द उस समय प्रचलन में था और पेराका या पेराकें भी, जो रंगों और कलाकारी से सज्जित बड़े गुझा को कहते हैं । सिखिरिन श्रीखंड ही है या उससे मिलता-जुलता, जो आज अपरिचित-सा हो गया है  ‘ छिताईचरित’ में ज्यौंनार के साथ ‘गारी’ लोकगीत गाये जाने का उल्लेख है-“सुधा समान सुनावहि गारी ।” छ: पेयों में पछयावरि, सिखिरिनि, पातरी (बघारो मट्ठा), बासौंधी (रबड़ी मिश्रित दूध), दूध और पनौ बताये गए हैं ।

‘लखनसेन’, ‘पद्मावती रास’ और ‘छिताईचरित’ ग्रंथों में धोती, कंचुकी, अँगिया, चोली, ओढ़नी, कुसंभी चीर, दक्षिणी चीर का यत्र-तत्र उल्लेख है । इस समय के सती चीरों में स्री को लहँगा पहने उत्कीर्ण किया गया है, जिससे पता चलता है कि लहँगा पवित्र अवसरों पर पहने जाने वाला विशिष्ट परिधान था । पुरुषों के वस्रों में पाग तो महत्त्वपूर्ण था ही, विवाह पर धारण किया जाने वाला बागौ (बागउ) प्रचलित हो गया था । परदा और घूँघट के प्रयोग ‘छिताईकथा’ में आए हैं ।

चंदेलकाल के जमे संस्कारों को इस समय लोक सहजता प्राप्त हो गई थी, जिसका पता ‘ छिताईकथा’ में वर्णित विवाह से चल जाता है । उसमें आगौनी, ज्यौंनार, गारी गाना, दाइजौ सौंपना, पालकी में बहू का ससुराल आना, आलेपन और सिंगार के बाद सुहारागत आदि से जो क्रमबद्धता दिखाई पड़ती है, उससे लोक का संस्कारों के प्रति लगाव सिद्ध होता है ।

कन्या का विवाह अनिवार्य कर्तव्य था । घर में क्वाँरी कन्या होना चिंता का कारण माना जाता था । मृत्यु-संस्कार को विष्णुदासकृत ‘रामायन कथा’ में ‘किरिया’ काज कहा गाया है और आज भी वह ‘किरिया’ नाम से लोकप्रसिद्ध ही है । चंदेलकालीन लोकरीतियाँ, प्रथाएँ और लोकोत्सव इस समय प्रचलित थे ही, पर जौहर करते हुए मरण त्यौहार मनाना और परदा-प्रथा इस युग की विशेषता बनी, जो सतीत्व-रक्षा के लिए जरुरी थी ।

युग की आवश्यकता के अनुरुप ही लोकसाहित्य ढलता है और यह तध्य इस युग के लोककाव्य से स्पष्ट है । लोकगाथा जो बारहवीं शती में उत्कर्ष पर थी और प्रत्यक्षत: संघर्ष के स्वर गुँजा रही था, अव प्रेमकथाओं में ढलकर अपने कुछ प्रतीकों के द्वारा युग-संदेश व्यंजित करने के लिए विवश थी । ‘छिताईकथा’ ‘ मधुमालतीविलास’ आदि साक्षी हैं कि कवि-कथाकार लोक के समक्ष अपनी कथा गाया करते थे, ताकि समस्त लोक को संस्कृति की रक्षा के लिए तैयार किया जा सके ।

दूसरे, भाषा की रक्षा के लिए भी लोकभाषा का साहित्य रचा जाना जरुरी था, अतएव मौखिक और लिखित रुप में लोकसाहित्य का सृजन इतना ज्यादा हुआ कि यदि इसे लोकसाहित्य का युगा कहें, तो अत्युक्ति न होगी ।

‘ छिताईकथा’ में विवाह के अवसर पर ज्यौंनार के समय ‘ गारी’, लड़का-बहू के आने पर मौं-दिखाई में और उछाह-आनंद में मंगल गीत गाये जाने का उल्लेख है। संस्कारपरक लोकगीत खूब प्रचलित थे । अनेक पौराणिक और प्रेमपरक गाथाओं के साथ सतीत्वपरक आख्यानक गीत इसी समय रचे गए । गद्य-पद्यमय लोककथाएँ, जैसे राजा गिलिन्द की कथा, संत-बसंत की कथा आदि भी इसी काल की हैं ।

अखाड़ों में देसी संगीत और नृत्य की प्रस्तुति तथा अभिनय का प्रदर्शन होता था । लोकगीतों के साथ लोकनृत्य एक सामान्य बात थी । ‘छिताईकथा’ में ‘रास’ के आयोजन का उल्लेख है, जिससे रासनृत्य और रासलीला, दोनों का बोध होता है । बुंदेलखंड में रासलीला को रास या रहस कहा जाता है । रामलीला भी प्रचलित थी, क्योंकि विष्णुदास की ‘रामायनकथा’ और ‘छिताईकथा’ में रामभक्ति के प्रमाण उपलब्ध हैं ।

बुंदेल -काल
ग्वालियर के सांस्कृतिक गढ़ पर मुसलमानों का कब्जा होने से ओरछा केन्द्र बना, क्योंकि 1531  ई. में ओरछा राजधानी बनने पर बुंदेले एक सुदृढ़ शक्ति के रुप में उभर चुके थे । दूसरी तरफ गढ़-मंडला केन्द्र बने, जो गोंडों के अधीन थे । कुछ इतिहासकारों का मत है कि गोंड़ों का शासन बहुत पुराना है और गोंड अवशेषों से भी इस तध्य की पुष्टि होती है । गोंडों का राज्य होने से ही इस प्रदेश को गोंडवाना कहा जाता था ।

लोकसंस्कृति आंचलिक  होते हुए भी कई संस्कृतियों के समानवायों का संगम है । बुंदेलखंड में कोल-भील, शबर, किरात एवं द्रविड़ जातियाँ रही हैं और उनके ही कई लोकमूल्य और लोकविश्वास आए हैं । उदाहरण के लिए, वृक्ष-पूजा, बलि आदि कोलों से, मूर्तिपूजा और अवतार की कल्पना द्रविड़ से तथा तंत्र-संत्र किरात जातियों की देन है ।

गोंड़ों ने भी लोकसंस्कृति को प्रभावित किया था और बाद में वे स्वयं उसमें घुलमिल गए । गोड़ों के आदिपुरुष शिव और यहाँ तक कि स्वयं गौड़ बाबा लोकदेवता के रुप में स्वीकार्य हुए । मतलब यह है कि लोकसंस्कृति की धारा सभी प्रवाहों को अपने में समेटकर निरंतर गतिमान रही है ।

बुंदेलखंड में भक्ति-आंदोलन तोमर-काल में ही अपने विशिष्ट परिवर्तन अंकित कर चुका था । भक्तिपरक गीतों से भी जन-जागरण और संस्कृति की रक्षा का मोर्चा शुरु किया था । लेकिन इस प्रवर्तन के बावजूद लोकभक्ति और लोकधर्म का स्वरुप अपरिवर्तित रहा । बुंदेल-काल में जब राम कृष्ण-भक्ति के विविध संप्रदायों का प्रचार-प्रसार बढ़ा, तब लोकधर्म ने सभी विशिष्ट दृष्टियों को बचाकर लोकभक्ति का नया पंचामृत तैयार किया और उससे समस्त समाज परितृप्त हो गया । फल यह हुआ कि लोकसंस्कृति रामकृष्णमय होकर अपराजेय बन गयी ।

आजादी की लड़ाई की शुरुआत, जिसके नायक थे चम्पत राय (1587 -1661 ई.) और उनके बाद छत्रसाल बुंदेला । यह कोई लोक-आंदोलन तो नहीं था, लेकिन मुगालों के हमलों से पिसते हुए लोक की सुरक्षा और संरक्षण का प्रयास था । इसी वजह से लोकसंस्कृति प्रभावित हुई और वह भक्तिमयी होती हुई भी ओजप्रधान बनी रही ।

तोमरकालीन कला-समस्थान ‘अखाड़े’ इतने उत्कर्ष पर पहुँच गये कि आचार्य केशव को लिखना पड़ा , अखाड़ों से लोकसाहित्य और लोककलाएं निरंतर हलचल बनी रही और उन्हें विकास की नयी दिशा भी मिली । इन सभी प्रवृत्तियों की वजह से इस युग में लोकसंस्कृति का वह रुप ढला, जो उसके अब तक के इतिहास में मानक बना रहा ।

इस युग में भी विजातीय संस्कृति की रुख आक्रामक ही रहा, इसलिए अपनी लोकसंस्कृति की रक्षा और साथ ही उसकी आजादी के लिए लोक का आदर्श क्षात्रधर्म बना रहा ।युद्ध में खेत रहना और स्वर्ग जाना प्रमुख लोकमूल्य रहा । नारियाँ भी शौर्य में कम न थीं । वे सतीत्व की रक्षा में अपने प्राण निछावर कर देती थीं ।

बुंदेलखंड में सती-स्तंभ, सती-चौरे और सती-मढियाँ भरी पड़ी है । इस समय रची गयी लोकगाथाएँ-मनोगूजरी और मथुरावली नारी के बलिदान का आख्यान कहती हैं । मथुरावली खड़ी-खड़ी जल जाती है, तब उसका भाई कहता है-  “राखी बहना पगड़ी की लाज, बिहँस कहें राजा बीर, ठाँड़ी जरै मथुरावली । “

पगड़ी की लाज रखना या अपनी प्रतिष्ठा रखना भी इस युग का लोकमूल्य था, जो लोकसंस्कृति में ‘पत’ रखना के नाम से लोकमुख में जीवित रहा । महाकवि केशव की ‘रतनबावनी’ से लेकर कवि मदनेश के ‘लक्ष्मीबाई राइछौ’ तक लगभग तीन सौ वर्ष ‘पत’ का बोलबाला रहा । स्वामी की पत, कुल की पत और राज की पत ।

यदि भक्त देवी-देवता से प्रार्थना करता है, तो ‘पत’ रखने की । मध्ययुगीन लोकगीत की एक पंक्ति है-“मोरी मैया पत राखियो बारे जन की ।” इसी तरह दूसरी- “लाला हरदौल पत राख लइयो हो । भूलचूक चरन तरें दाब लइयो हौ । ।”

मध्ययुग में विविध लोकविश्वास और उनके साथ अंधविश्वास भी फूले-फले । धार्मिक विश्वास जैसे रोग या उपद्रवों से रक्षा, पुत्र प्राप्ति, समृद्धि या सौभाग्य पाने की सहज इच्छा आदि इस युग में जोरों पर रहे । देवता बढ़े और उनकी मनौतियाँ और पूजा । यहाँ तक कि लोक भूत-प्रेत की पूजा करने लगे, प्रकृति-संबंधी अर्थात्, पृध्वी, आकाश, बादल, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि संबंधी लोकविश्वासों और अंधविश्वासों में बाढ़ आ गई थी ।

शिशु-संबंधी टोने-टोटके तो मध्ययुग में अधिक प्रचलित थे और उन्हीं के अवशेष वर्तमान तक में बने हुए हैं । लोकमुख में जीवित आल्हा की गाथा में ‘पारस’ पथरी की काफी चर्चा है, ‘कामरुप कथा’ में भी वही ‘पारस‘ सहायक सिद्ध होता है ।

अनेक ग्रंथों में बुंदेलखंडी ज्यौंनार का वर्णन उपलब्ध है । विवाह की ज्यौंनार में गारियाँ गाने का रिवाज रामचरित मानस, रामचंद्रिका आदि में मिलता है और आज तक प्रचलन में है , इन जनपद की समूँदी रसोई भी प्रसिद्ध रही है, जिसमें भात (चावल), चने यानी दैवल की दाल, कढ़ी, पापर, कौंच-कचरिया, बिजौरौ बरा-मगौरा, बूरौ (चीनी), घी, माँड़े, अवश्य होते हैं ।

भोजन के दूसरे रुप मिर्जापुरी में माँड़े के स्थान में लुचई (पूड़ि), तिरकारी, मिष्ठान आदि होते हैं । मिर्जापुरी नाम मिर्जापुर से आया है, और यह इसी युग की देन है । वैसे तो गुड़ाने में महुआ और गुलगुच (महुए का पका फल) ही मेवा-मिठाई हैं । महुआ से बने सामान-डुबरी, मुरका, लटा आदि और भी स्वादिष्ट होते हैं ।

अकाल पड़ने पर महुआ, अचार, बेर-मकोरा एक मात्र सहारा हैं, इसीलिए महुआ यहाँ का जनपदीय वृक्ष है । महुए की शराब भी गाँववालों का पेय है । गर्मी में सतुआ और बिरचुन लोकप्रिय रहे हैं । भोजन के बाद बीरी (पान) खाने का प्रचलन था । यहाँ का पान भी प्रसिद्ध था । 

तत्कालीन ग्रंथों में वस्राभरण के उल्लेख प्राप्त हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि इस युग में पुरुष के पहनावे में परदनी या धोती, अँगरखा, कुर्ता, बंडा (कोट), पगड़ी और साफा प्रमुख थे ।धनी लोग दुपट्टा और मिरजई का प्रयोग करते थे । पगड़ी प्रतिष्ठा की प्रतीक थी । स्रियाँ सारी या लहँगा, अँगिया या चोली या कंचुकी और ओढ़नी या निचोल पहनती थीं । धोती या सारी का जगह लहँगा अधिक प्रयुक्त होता था और घाँघरा भी पहना जाने लगा था । पिछौरा स्री-पुरुष दोनों डालते थे ।बच्चों का प्रमुख वस्र झँगुला या झँगुली था । ओढ़ने-बिछाने के कपड़ों-खेस, साथरी, कथरी, गेंडुवा (तकिया) आदि के नाम दिये हैं ।

सौंदर्य के लिए स्री, पुरुष एवं बाल-वृद्ध सभी आभूषण धारण करते थे । बच्चों में करडोरा (कटिडोरा), करधौनी, पैजनियाँ, पहुँची, कठला, लटकन, बघनहा आदि का प्रचलन था । पुरुष अधिकतर तोड़ा (पैर), चूरा (हाथ), इकलरी करधनी (कटि), बाला या बालियाँ (कान) और गुंज-गोप (गले) पहनते थे, जबकि स्रियाँ पैरों में गूजरी, पैजना, पाँवपोश, बिछिया, अनौटा; कटि में करधौनी; गले में हमेल, सरमाला, लल्लरी, बिचौली, हार; हाथों में खग्गा, बरा, बजुल्ला, ककना, दोहरी, पहुँची, मुँदरी, छापें; कानों में कनफूल, खुटला; नाक में दुर, पुंगरिया तथा सिर में सीसफूल, बैंदा बीज और दाउनी ।

उत्सव, त्जौहार या किसी खास अवसर पर धरौवल (सुरक्षित) वस्रों और आभूषणों का प्रयोग किया जाता था । पटियाँ पारना (केश-प्रसाधन) और सिंगार पर अधिक ध्यान रहता था । बिंदि, अंजन, सिंदूर, मेंहदी और महावर प्रमुख सिंगार थे ।

इस कालखंड में लोकसंस्कार इसलिए कट्टर हो गये थे कि उनकी सुरक्षा उस संकट के दौरान रह सके । इसी कारण तुलसी की रामचरित मानस में जन्म, विवाह आदि का बहुत कुछ शस्रीय या वैधी रुप मिलता है । यह भी संभव है कि तुलसी का शस्रज्ञान उसमें सहायक हुआ हो । लेकिन आचार्य केशव की ‘रामचंद्रिका’ में लगन, बारात, अगवानी, द्वारचार, मंडप के नीचे जाना, मांगलिक गारी-गीत, शाखेच्चार, भाँवरि, शिष्टाचार, ज्योंनार, गारी-गीत का गायन, पलकाचार, दायज, विदाई, आदि का क्रमबद्ध वर्णन बुंदेलखंड की लोकरीति से मेल खाता है ।

‘कामरुप कथा’ में भी आगौनी (अगवानी), ऊभी (ऊबनी), आतिशबाजी, कलश-वंदना, तिलक, मंडप के नीचे आसन, पत्तलों (पानी से सिंची) पर पकवान्, व्यंजन और सिन्नी (मिठाई), पान, भाँउर, ज्यौंनार, दाइज आदि लौकिक विधियों से संपन्न हुए ।

लोकगीतों से जन्म, विवाह आदि के विविध संस्कारों का पता लग जाता है । प्रत्येक संस्कार में कुछ पुरानी रीतियाँ चलती हैं और कुछ नयी सम्मिलित हो जाती हैं । उदाहरणार्थ, पुत्र-जन्म पर भूत-प्रेत भगाने को थाली बजाना, राई-नौंन उतारा जाना बहुत पुराने हैं । उछाह में बंदूकें छूटना, लड्डू और गुड़ बाँटा जाना, चौक या छटी में सोर उठना-सब मध्ययुग का है ।

खरीपटा (नामकरण) पर स्रियों का तमोर लाना, पहलौटा बच्चा होने पर बुआ का पलना या चंगेर लाना और सोहर लोकगीत के साथ नृत्य पहले का मालूम पड़ता है । आल्हा-ऊदल के जन्मोत्सव पर चंदेलनरेश परिमर्दिदेव की पटरानी माल्हनदे ने सोहर गीत के साथ नृत्य किया था ।

तत्कालीन समाज में लोकरीतियों का बहुत अधिक महत्त्व था ।  अतिथि के आने पर उसके पाद-फ्रक्षालन के बाद उसे पेय-गोरस (दही या मठा के साथ गुड़ एवं सोंठ मिश्रित शर्बत) दिया जाता था । अतिथि को देवता की तरह मान-सम्मान मिलता था । सामाजिक उत्सवों पर्वों? और धार्मिक कृत्यों में विविध रीतियों का पालन होता था ।

पुत्री के चरण छूकर उसे सम्मनित करना बुंदेलखंड की विशिष्ट लोकरीति है । पिता-माता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि सभी उसका पालन करते हैं, भले ही बिटिया आयु और पद में छोटी हो । जिस घर-गाँव में पुत्री ब्याही हो, उसका पानी तक पीना माता-पितादि को मान्य नहीं था ।

चंदेल-काल में कन्या-वध, नारी को राजनीति का एक हथियार बनाया जाना तथा मुस्लिम और मुगल-काल में उसके अपहरण से उत्पन्न अपमानजनक परिस्थिति की प्रतिक्रिया में बुंदेलखंड की यह देन स्मरणीय मानी जानी चाहिए, क्योंकि दूसरे जनपदों में यह लोकरीति प्रचलित नहीं रही । पुत्री के साथ दामाद और बहिन के साथ बहनोई को भी सम्मानित पद प्राप्त है ।

दैवर-भौजी के पवित्र विनोद भी अपनी बराबरी नहीं रखते । इतना ही नहीं, यहाँ गाली के साथ सम्मानसूचक ‘जू’ जुड़ा रहता है । इन विशेषताओं के बावजूद कुछ कुरीतियाँ या कुप्रथाएँ भी मौजूद थीं ।

अनेक उत्सवों, पर्वों और त्योहारों का उदय मधययुग में ही हुआ । पुराणों में वर्णित तीज-त्यौहार और उनके विधि-विधान का अनुसरण भी इस समय जरुरी समझा गया । उन सबकी मान्यता से लोकसंस्कृति में नया उल्लास और उत्साह छा गाया, जिसने संघर्ष की थकान दूर करने में मदद की ।

अकती में विवाहित युवतियों का ननदों और देवरों से हास-परिहास, सावन तीज में झूला झूलती गूइयों की आत्मस्वीकृतियाँ, तीजा में मेंहदी रँगे गीतों की झंकृतियाँ, क्वाँर में सुअटा-नौरता के गीतों से क्वाँरी अभिव्यक्तियाँ-सब लोकसंस्कृति के आशावादी रुप को सबल बनाने में सफल रहीं । लोकसाहित्य का तो यह स्वर्णयुग कहा जा सकता है, क्योंकि इसी समय अधिकांश लोकसाहित्य रचा गाया ।

कुछ राछरों को छोड़ शेष इसी समय लिखे गये, खासतौर से अमन जू (अमान सिंह पन्नानरेश), मंगत देव (कोंच के राजा सरुपसिंह बुंदेला के सुपुत्र तथा मुगल या तुर्क से संबंधित राछरे, राम-कृष्ण भक्तिपरक लोकगीत, विविध गारियाँ, मंजें, तड़ाका आदि तथा श्रृंगारपरक गीत भी इसी समय के सृजन हैं । अखाड़ों के उत्कर्ष से फड़काव्य की रचना भी हुई और लोकगीतों में प्रश्नोत्तर शैली का विकास हूआ ।

लोकगाथा, पँवारे आदि भी प्रचलित थे और लोकथाएँ तो बड़ी रुचि से कही जाती थीं । लोकनाट्यों का मंचन खूब प्रचलित था । स्वाँग, रहस, रामलीला, काँड़रा, राई और  भँड़ैती लोकनाट्यों ने अपनी धाक जमा ली थी ।

देसी संगीत के पूरे देश में प्रसार से लोकसंगीत का मान बढ़ गया था । जब देसी संगीत भी शास्रीय विधान में ढलकर दरबारी हो गया और ध्रूवपद-गायकी मुगल दरबार की शोभा बढ़ाने लगी, तब लोकसंगीत ने अपनी सहज स्वच्छंदता से लोक को जाग्रत करना शुरु कर दिया ।

लोकसंगीत दो प्रकार का था- एक तो सहज लोकसंगीत, जो सोहर या फाग अर्थात् संस्कारपरक और उत्सवपरक लोकगीतों के साथ लोकप्रचलित था तथा दूसरा फड़संगीत, जो लोकमंचों, समाजों और अखाड़ों में चलता था और जिसमें प्रतिद्वेंद्विता भी होती थी । फड़संगीत के रुप में सबसे पहले लाउनी या खयाल गायकी चंदेरी से शुरु हुई और 18 वीं शती तक पूरे बुंदेलखंड में प्रचलित हो गई ।

लोकसंगीत की तरह लोकनृत्य भी दो रुपों में प्रचलित था-एक तो संस्कारपरक, उत्सवपरक आदि लोकगीतों के साथ सहज स्वच्छंद रुप में और दूसरा, अखाड़े या फड़ में प्रदर्शन के रुप में । अखाड़े या फड़ों के लोकनृत्य व्यावसायिक भी होने लगे थे । राई लोकनृत्य भी पेशेवर बेड़नियों द्वारा प्रस्तुत होते थे। काँड़रा, मौनिया आदि जातिगत लोकनृत्य तो उत्कर्ष पर थे ही ।

लोकचित्र भी स्वच्छंद और व्यावसायिक-दोनों तरह की कला के थे । थापों और भित्ति-चित्रों का उल्लेख है । गार्हस्थिक संस्कारों के विधान, पूजन एवं लोकचित्रकला से पूर्ण परिचित थे । स्रियाँ अपने घर की दीवार पर अपने ऐपन (चावल और हल्दी को एक साथ पीस कर बनाये हुए रंग) के अपने ही हाँते छापकर उनको पूजती हैं और उनकी सारी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं । यह प्रेम और विश्वास का ही फल है और यह सब लोकसंस्कृति की ही देन है ।

बुंदेलखंड में लोकचित्रकला के लिए ‘चतेउर’ और चित्रकार के लिए ‘चतेवरी’  प्रयुक्त होता है । व्यावसायिक चतेउर में चार रंगों- ‘ हरित स्याम पिरो अरुनायो‘ का प्रयोग किया जाता है, पर स्वच्छंद चतेउर में अधिकतर गोरु रंग का ।

बुंदेल-काल के अंतिम चरण में लोकचेतना परम्परित स्थैर्य से जकड़ी रही । छत्रसाल के संघर्ष के बाद बुंदेलखंड एक राजनीतिक इकाई तो बना था, पर उनके निधन के बाद राज्य के तीन हिस्से हुए तथा 18 वीं शती के अंतिम चरण में बुंदेलों के परस्पर झगड़ों, गोसाइयों के आक्रमणों, मराठों की कूटनीतिक चालों, गोंड राज्य के पतन और अंग्रेजों की घुसपैठ ने इस जनपद में ईर्ष्या-द्वेष, बिखराव और विभाजन का ऐसा तांडव किया कि चारों तरफ पतन के दृश्य उभरने लगे ।

स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान त्याग-बलिदान का महत्त्व रहता है और मंजिल तक पहुँचने के लिए सिर्फ वीरता का रास्ता, जो कि देश-प्रेम और उत्साह के मजबूत पैरों से चलकर पार करना पड़ता है । अगर हम तत्कालीन लोकसाहित्य का परीक्षण करें, तो एक तरफ इन्हीं लोकमूल्यों की बाढ़ न आएगी और दूसरी तरफ गद्दारी धोखाधड़ी और कायरता की ।

संघर्षों के निष्फल होने पर जो आपसी फूट और बैरभाव के कारण बिखराव की कहानियाँ बनीं, उनके खिलाफ प्रेम और एकता के गीत गाये जाने जरुरी थे । जाहिर है कि इन बदले हुए लोकमूल्यों को स्थिर करने और उन्हें जन-जन तक पहुँचाने के लिए लोकसाहित्य ही आगे बढ़ा और लोककवियों ने लोकरचनाओं के द्वारा हल्ला बोल दिया- काऊ ने सैर भाखे, काऊ नें लाउनी । अबके हल्ला में फुँकी जात छाउनी ।।

उसके बाद क्रांति का बाना ही धारण कर लिया था । फागकार, कटककार और वीरगाथाकार-सभी लोककवि और लोकगायक गाँव-गाँव घूमे और सन् 57  की आजादी की लड़ाई के लिए जन-जन को तैयार करते रहे ।

1857  ई. के बाद के लोकक्व्य की दो धाराएँ हो गाईं-एक थी शहीदों और उनकी घटनाओं को लेकर रचे गये देशप्रेमपरक गीत और आख्यानक काव्य की धारा जिसमें सैर और फागों के अलावा राष्ट्रीय गारियाँ भी लिखी गायीं, जो आज तक लोक की धरोहर हैं और दूसरी थी-प्रेमपरक लोकक्व्य की, जिसकी अगुआई फागमुक्तकों ने की । नयी चौकड़िया फाग और प्रेम की सहज अनुभूति का सहारा लेकर ईसुरी ने बँधी-बँधाई रीतिबद्ध कविता के खिलाफ विद्रोह किया एवं लोकक्व्य की प्रतिष्ठा को बहुत ऊँचाई पर खड़ा करने का प्रयास किया।

लोकसाहित्य के इस बदलाव से फड़गायकी को अधिक प्रश्रय मिला, अतएव लोकसंगीत में लोकमंच के अनुरुप नये लोकछंदों और लोकधुनों का आविष्कार हुआ । पुरानी आल्हागायकी कई जनपदों तक गयी और वह गायकी के नये साँचों में ढल गयी । दतिया में लेदगायकी का उदय हुआ और उसके प्रयोग लोकमंच पर भी हुए, जो काफी आकर्षक कई सिद्ध हुए । इन उदाहरणों से सिद्ध है कि जिस प्रकार लोकसाहित्य में नये विषय, नया कथ्य  और नयी भंगिमाओं का प्रवेश हुआ, उसी प्रकार उसकी अभिव्यंजना, तकनीक और गायकी में नयापन छा गया ।

लोक में प्रचलित वस्राभरण, भोजनपेय, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग वही थे, जो बुंदेलकाल में रहे थे । इतना अवश्य है कि थोड़ा-सा अंतर दिखाई पड़ता है और वह है-लोकसंस्कृति के यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में । इस समय का कवि महसूस करता है कि वृक्ष काटना, डाका पड़ना, अकाल, जमीन पर दूसरे का कब्जा, लाँच, काले-गोरे रंग का भेद, बच्चों की अधिकता, बाल-विवाह, परनारी से प्रेम, सौतिया डाह आदि छोटी-बड़ी समस्याएँ सुलझना जरुरी हैं ।

जहाँ तक लोककलाओं और लोकसाहित्य की बात है, इस युग में उनका पुनरुत्थान अवश्य हुआ । लोक कवियों ने युगचेतना के अनुरुप लोककाव्य की रचना की, यह बात अलग है की उनका नाम हींदी साहित्य के इतिहास में शामिल नहीं है । फाग-संग्रहों में राई-नृत्य का उल्लेख मिलता है, फागों के गायक और वाद्यों का भी । इससे स्पष्ट है कि राई-नृत्य काफी प्रचलित था ।

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