रामचरितमानस का अनुराग Brishbhanu Kunvari के जीवन मे बचपन से ही पनप गया था जिसकी आभा उनके व्यवहार मे झलकने लगी थी । श्री सवाई महेन्द्र महारानी श्री वृषभानु कुँवरि का जन्म सं. 1912 वि. में ज्येष्ठ शुक्ल 2, शुक्रवार को तिदारी ग्राम में हुआ था। पिताजी वेरछा के पमार श्रीमान् कुंवर विजय सिंह जी थे। आप बड़े ही मधुर भाषी, धर्मनिष्ठ और वीर पुरुष थे।
श्री सवाई महेन्द्र महारानीश्री वृषभानु कुँवरि “रामप्रिया सहचरी”
आपकी माता भी धर्म परायण और गृह प्रबन्ध में कुशल थीं। माता-पिता के इन सद्गुणों का आपके ऊपर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। बाल्यावस्था से रामचरितमानस पर अनुराग हो गया और नियमबद्ध आप उसका नित्य पाठ किया करती थीं। फलस्वरूप राम-भक्ति-रस में आपका कोमल हृदय इतना सरावोर हो गया था कि आजीवन आप उनकी ही अनन्य उपासक बनीं रही।
वृषभानु कुँवरि का शुभ पाणिग्रहण संस्कार सं. 1926 वि. में श्री सवाई महेन्द्र महाराजा श्री प्रताप सिंह जू देव बहादुर ओरछा नरेश के साथ हुआ था, इन दिनों ओरछा राज सिंहासन पर श्रीमान् सवाई महेन्द्र महाराजा श्री हमीरसिंह जू देव विद्यमान थे।
महारानी की कर्मठता की प्रकृति के अनुकूल ही उन्हें वर मिल गया था इससे उनकी प्रतिभा और भी अधिक प्रस्फुटित हो गई। जो अनुराग हृदय मंदिर के एक भाग में छिपा था। वह द्रुत वेग से प्रवाहित हो उठा और उसे स्वर्गवासी महाराजा श्री प्रताप सिंह जू देव का आश्रय व प्रोत्साहन मिला।
अयोध्या जी में कनक भवन नामक विशाल मंदिर आपके ही आग्रह से बनाया गया। जनकपुरी नेपाल में जानकी जी का मंदिर निर्माण कराया। टीकमगढ़ के जानकी बाग का मंदिर भी इनका ही बनवाया है। इनका रामप्रिया सहचरी भी उपनाम था। वि.सं. 1963 कार्तिक शुक्ल – 11 को इनका स्वर्गवास हुआ। इन्होंने ‘श्रीमद्रामचन्द्र माधुर्य लीलामृत सार’ तथा ‘सीता गुन मंजरी’, ‘होली रहस्य’ रचीं हैं।
होरी को चाव चड़ो मन में – प्रातैं सें चित ऊधम में
बाजत ताल मृदंग झांझ ढफ-देखो छैल खिलारिन में
छैकत गैल कड़न नहि पावत-हँस बतरावत चोलन में
राम प्रिया मन मोहन प्यारो-चोरत चितरस बोलन में।
होली खेलने की इच्छा आज मन में होने से, प्रातः से ही मन विचलित है। मृदंग, झाँझ तथा ढफ बज रहे हैं। देखो छैल (राम) खिलाड़ियों के बीच में है। वे रास्ता रोक रहे हैं, निकल नहीं पाते हैं। मजाक में वे हँसकर वार्तालाप कर रहे हैं। रामप्रिया कहती है कि उनका (राम) यह रूप मन को मोह रहा है। उनके बोल हृदय को चुरा रहे हैं।
आली हो रही चोव नगारन की देखो राज कुमर के आवत की।
ओड़ छोड़ कतहूँ नहि दीखत चलत ध्वजा पीरे पटकी।
जो प्यारी आयसु हम पावें भीर भगावैं छैलन की।
रामप्रिया प्रीतम गति ल्याऊं राखों शान किशोरी की।
(सौजन्य : श्री हरिविष्णु अवस्थी)
सखी, देखो नगाड़े बज रहे हैं। राजकुमार पधार रहे हैं। पीली ध्वजा वाले के साथ चलने वालों का कोई ओर-छोर दिखाई नहीं देता। हे सखी ! यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो हम इस छैलों (नायकों) की भीड़ को भगा दें। रामप्रिया कहतीं है कि मैं प्रियतम (राम) को पकड कर जानकी जी की शान में उपस्थित कर दूँ।
खेलें कामिनि अनुराग भरी कर कमलन लिये फूल छरी।
देखो खेल खिलारिन के ढिंग गावत गारी प्रेम झरी
नख सिख सुभग सिंगार किये सब देखत रतिमदमान हरी
भीजे वसन लगे अंग लपटन कबरी पीठ भुजंग परी
रामप्रिया अद्भुत रस देखत विहस कही मरजाद डरी।
(सौजन्य : श्री हरिविष्णु अवस्थी)
हाथों में कमल के फूल व फूलों की छड़ी लिए कामनियाँ प्रेमयुक्त हो होली खेल रही है। देखो, वे होली खेलने वालों के पास आकर प्रेमयुक्त गारियाँ (लोकगीत) गा रही हैं। सम्पूर्ण श्रृँगार इस तरह सुरुचिपूर्ण तरीके से किया गया है कि जिन्हें देखकर रति का गर्व भी खत्म हो जाय। रंग पड़ने से वस्त्र भींगे अंगों में लिपट गये हैं। पीठ पर रंग पड़ने से वह चितकबरी दिखाई देती है। राम प्रिया कहती हैं कि यह अद्भुत ढंग की होली देखकर मर्यादा डरकर दूर खड़ी है।
अति पावन पर्म प्रकास मयौ दिन रैन उजास दसौ दिसि हेरौ।
अभिअंकित जोन कहूं नित पूरन प्रेम सुधा सुचि मूर निवेरौ।
अलि श्री वृषभानु कुमारी कहै मति कौरव कौं सुख दानि सवेरौ।।
ससि भौ मिथिलेस सुता जस तो बस चारु चकोर भयौ चित मेरौ।।
(सौजन्य : श्री हरिविष्णु अवस्थी)
अत्यधिक श्रेष्ठ प्रकाश होने से दसों दिशायें दिन-रात आलोकित हैं। मन में उत्पन्न होने वाली विभिन्न शंकाओं का निवारण प्रेम रूपी अकृत वर्षा से हो जाता है। कवयित्री वृषभानु कुँवर कहती है कि मूढ़ मति के लिए जब जागो तभी सबेरा है। मिथिला के राजा की पुत्री सीता का मुख चंद्रमा है, और मेरा मन चकोर के समान उस चन्द्रमा को देख रहा है।
श्रीपति संभु स्वयंभुसुराधिप सेस महेसन के रखवारे।
पावन प्रेम सु राग रये बड़े भाग भये जन जे चित धारे।।
श्री वृषभानु कुमारि भनै मुनि मानस मंजु प्रकास न भारे
जीवन मूर अधार सदां सुख सद्य सिया पद पद्म निहारे।।
(सौजन्य : श्री हरिविष्णु अवस्थी)
लक्ष्मीपति विष्णु, शिव तथा देवताओं के राजा इन्द्र तथा शेषनाग स्वयं जिनके रक्षक हैं। पवित्र प्रेम के राग मे रंगे इन लोगों के चित्त में उनका ध्यान है। कवयित्री वृषभान कुँवरि कहती है कि उन्हें मुनियों के मानस में सुन्दर प्रकाश का भान होता है। सीताजी के चरण कमल ही उनके जीवन के सुख का मूल आधार है।
छवि धाम सदां प्रभु राम प्रिया अति पूजित तूं सब लोकन तैं।
जग मात तुहीं मुद रूप मयी भरि ये गुन व्रात विसोकन तैं।
वृषभानु कुमारि करै विनती न जरै पुनि ज्यों अघ थोकन तैं।
कर फेरि हरौ अब सेरि सबै मुहि हेरि कृपा अवलोकन तैं।।
(सौजन्य : डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी)
सौन्दर्य की मूर्ति प्रभु राम की प्रिया सीता जी को सभी लोकों में पूजा जाता है। संसार की माता तुम्हीं हो और तुम्हीं संसार के सभी शोकों का हरण करने वाली हो। वृषभानु कुंवर विनती करते हुए कहती है कि मेरे बहुत सारे पाप हो गए हैं जो विनष्ट नहीं होते हैं। मेरे ऊपर हाथ फेर कर, कृपा दृष्टि कीजिए।
देखो छैल छबीलो चलो आवै बड़ी बड़ी अखियां मटकावें।
दूसर गैल चलौ अब सजनी राजकुंवर नहि लख पावें।।
नहिं तो छेड़ लेह आगे से रस बतियां कह अटकावें।
रामप्रिया होरी अवसर मानत नहि रंग ले धावें।
(सौजन्य : डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी)
देखो, सौन्दर्ययुक्त छैल (नायक) चला आ रहा है जिसे देखकर बड़ी-बड़ी आंखों को भ्रम हो जाता है। हे सखी ! किसी दूसरे मार्ग से निकल चलो जिससे राजकुमार देख न सकें। अन्यथा वे रस भरी बातों में अटकाकर हम सभी को मार्ग में ही रोक लेंगे। रामप्रिया कहती हैं कि होली का अवसर है जिससे वे रंग लेकर दौड़ आते हैं।
पिचकारन रंग भर लावै जो मन आवै सोई गावै।
उड़त गुलाल अबीर अरगजा ढप मोचंग बजावै।
बड़े भाग होरी दिन आये लेले हृदय लगावै।
राम प्रिया सहचरी प्रमुदित मन चरन कमल चितलावै।।
(सौजन्य : डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी)
पिचकारियों में रंग भरकर ला रहे हैं और जो मन में आ रहा है, वही गा रहे हैं। गुलाल, अबीर उड़ रही है और ढप तथा चंग बज रहे हैं। बड़े भाग्य से आज होली का दिन आया है इसलिए सभी को हृदय से लगाइये। रामप्रिया सखी के प्रफुल्लित मन में आराध्य के चरणों की स्मृति बसी है।
देखो नवल खिलारी होरी कौ प्रीतम राजकिशोरी कौ।
वलहारी यह रूप माधुरी अलगन चंद्र चकोरी कौ।।
हाथ गुलाल कनक पिचकारी हँस चित चोरत गोरी कौ।
कामकरोर कोट लख बारों किहिं पट तरये जोरी को।।
रामप्रिया ऐसौ रसनागर खेल करै बरजोरी कौ।।
(सौजन्य : डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी)
इस नए होली के खिलाड़ी को देखो, यह सीताजी के प्रियतम राम है। इस रूप को देखकर मैं न्यौछावर उसी तरह हूँ जिस तरह चन्द्रमा को देखकर चकोरी होती है। हाथ में गुलाल तथा स्वर्ण पिचकारी लेकर मुस्कुराकर सीता जी का हृदय चुरा रहे हैं। इस सुन्दर जोड़ी पर करोड़ों-कामदेव का सौन्दर्य न्यौछावर है। रामप्रिया कहती हैं कि ऐसे रस के भण्डार खेल करते हुए होली की जबरदस्ती कर रहे हैं।
पद्मश्री अवध किशोर जड़िया की रचनाएं
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)