Bonas बोनस

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By admin

‘‘लल्ला सब ठीक तो है न! दुकान में किसी से झगड़ा-वगड़ा तो नहीं हुआ?’’ नन्दू के पिता धनीराम ने उठते हुए पूछा। ‘‘नहीं।’’ नन्दू ने जेब से दस का नोट निकालकर अपनी मां के हाथ पर रखते हुए कहा, ‘‘ले ये बोनस के दस रुपये हैं। सेठानी ने दिए हैं।’’ ‘‘Bonas!’’ बोनस शब्द से अनभिज्ञ धनीराम व उसकी पत्नी ने आश्चर्य के भाव से नन्दू की ओर देखते हुए एक साथ कहा।

 

उस  गरीब को क्या पता  कि बोनस क्या होता है

अपनी झुग्गी के बाहर रिक्शा खड़ा देख नन्दू का मन आशंका से भर उठा, ‘बापू अभी तक रिक्शा लेकर नहीं गये।’ सुबह जब वह उन्हें छोड़कर सेठजी की कोठी गया था, तब तक तो वे भले-चंगे थे। झुग्गी के अन्दर पहुंचने पर ही उसकी आशंका मिटी। अन्दर बापू मां से बतिया रहे थे। ‘‘अरे, नन्दू, आज तू बहुत जल्दी छूट गया।’’ नन्दू की मां ने समय से बहुत पहले उसे आया देख प्रसन्नता से कहा क्योंकि अभी तो सूरज डूबने में भी आधा दिन बाकी था जबकि नन्दू की राह देखते-देखते उसे रात के नौ बज जाया करते थे।

‘‘हां, सेठानी ने बोनस के रुपये ही कहकर दिए थे।’’ नन्दू खाट पर बैठते हुए बोला, ‘‘मुझे नहीं पता कि बोनस किसे कहते हैं मगर बापू मैं कल से सेठ के यहां काम पर नहीं जाऊंगा।’’ नन्दू धीमे स्वर में किन्तु दृढ़ता के सथ बोला। ‘‘काम पर नहीं जाएगा लेकिन क्यों?’’ धनीराम की समझ में कुछ नहीं आया। ‘‘सेठ के यहां कोई अनबन हो गयी क्या, जो काम पर नहीं जाएगा पच्चीस का हफ्ता मिलता है। आज तो दस रुपये अलग से मिले हैं और तू कहता है कि सेठ के यहां काम पर नहीं जाएगा।’’

नन्दू की मां इस बार झुंझलाकर बोली। ‘‘हां, लल्ला, सेठजी के यहां से अच्छी पगार और तुझे कहां मिलेगी और तूने क्या कहा था, ‘‘हां बोनस भी।’’ धनीराम ने अपनी धर्म-पत्नी पार्वती की ओर देखते हुए अपने पन्द्रह वर्षीय बेटे को समझाया। ‘‘बो…न…स’’ नन्दू ने व्यंग्य से दोहराते हुए अपने निचले होंठ को दबाया और चुप्पी साध ली। धनीराम कुछ देर नन्दू की ओर देखता रहा। इस बार वह विषय को मोड़ते हुए पार्वती से बोला, ‘‘नन्दू की मां, रात के खाने में मूंग की बरी बना लेना, लल्ला को भी पसन्द है।’’ धनीराम पार्वती को नन्दू की मां ही कहता था जबकि नन्दू को ‘लल्ला’ कहकर पुकारता था।

‘‘मूंग की बरी तो जाने कब की खत्म हो चुकी है…क्यों बेटा, खाएगा मूंग की बरी?’’ नन्दू की खाट के पास आकर पार्वती ने मातृ-स्नेह से उसके माथे पर हथेली रखते हुए पूछा। इस बार भी नन्दू ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह खाट पर मुंह ढापे शांत पड़ा रहा। ‘‘शाम का शो छूटने से पहले तुम एक पांव मूंग की बरी यहां दे जाना और प्याज भी लेते आना। बिना प्याज का छौंका दिए बरी अच्छी नहीं लगती।

पार्वती ने नन्दू के माथे को हाथ से सहलाते हुए धनीराम से कहा। ‘‘हां, प्याज भी लेता आऊंगा। बहुत दिनों से खाने को नहीं मिली, ससुरी बहुत महंगी जो है…बारह रुपये किलो।’’ अपने अंतिम शब्द धनीराम ने पहले कहे शब्दों की पुष्टि में कहे। ‘‘हम गरीबों के लिए तो सोना हो गई है प्याज।’’ पार्वती ने भी धनीराम को उसकी चुनौटी सौंपते हुए अपनी सहमति जताई।

‘‘लल्ला, सेठई जी के यहां काम करने की सोचो। वहां से अच्छी नौकरी और पगार कहां धरी है।’’ धनीराम ने जाते-जाते एक बार पुनः गुमसुम पड़े नन्दू को सुनाया। धनीराम झुग्गी से बाहर निकल गया। पार्वती उसे बाहर तक छोड़ने गयी। नन्दू ने करवट बदलकर झुग्गी से बाहर की ओर देखा। उसका बापू रिक्शा पर चढ़ा, पैडल मारते हुए गली से निकल रहा था। पार्वती के अन्दर आने से पहले ही नन्दू ने बाहर से दृष्टि घुमाकर करवट बदल ली। ‘‘बेटा, मैं गोमती में कपड़े धोने जा रही हूं, तवे के नीचे रोटियां रखी हैं।

डालडा के डिब्बे से गुड़ निकाल कर खा लेना, अच्छा।’’ कहती हुई पार्वती पहले से तैयार रखी मैले कपड़ों की गठरी उठाकर झुग्गी से बाहर निकल गयी। गो…म…ती नन्दू ने अपना मुंह बिचकाया। ‘गोमती नदी या गन्दा नाला, ठीक मोटे सेठ की मोटी सेठानी की तरह गन्दा’ उसके होंठ बुदबुदाए। नन्दू की आंखें ऊपर टाट पर टिक गयीं और वह सेठजी की कोठी में अपने साथ घटी घटना में खो गया, जिसके लिए उसे बोनस के रूप में दस का नोट प्राप्त हुआ था।

महानगर लखनऊ में परचून की बड़ी दुकानों में से एक के मालिक सेठ फकीरचंद के यहां बड़ी सिफारिशों के बाद फुटकर सामान खरीदने वाले ग्राहकों के लिए सामान उठा-उठाकर देने वाला काम नन्दू ने पाया था। किशोरवय नन्दू को बहुत जांच-परख के बाद ही सेठ ने अपनी दुकान में लगाया था, जहां पहले से दसियों नौकर थे। नन्दू अपना काम लगन एवं मेहनत से करता था। उसने सेठ को अपने काम पर कभी उंगली उठाने का मौका नहीं दिया। कल की ही बात है। कार्य और व्यवहार से सन्तुष्ट, बढ़ी तोंद और बड़ी-बड़ी आंखों वाले सेठ फकीरचंद ने उसको एक थैला अपनी कोठी में दे आने को कहा था।

कोठी में नन्दू का सामना सेठजी की ही तरह भीमकाय शरीर वाली सेठानी से हुआ। नन्दू सेठानी को थैला थमाकर वापस होने लगा कि सेठानी ने उससे पूछा, ‘‘क्यों रे! क्या नाम है तेरा?’’ मोटी आवाज सुनकर नन्दू एक बारगी सहम गया। उसने सिर झुकाए ही कहा, ‘‘नन्दू।’’ ‘‘के साल का है तू?’’ सेठानी के इस प्रश्न ने उसे अटका दिया। ‘‘पन्द्रह…सोलह।’’ अटकते हुए नन्दू सिर झुकाए ही बोला, ‘‘सही-सही पता नहीं।’’ सेठानी से आंखें मिलाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी।

‘‘हूं, लगता तो नहीं, तू पन्द्रह का?’’ सेठानी ड्राइगरूम के सोफे पर धंसी हुई पहले से भी भारी आवाज में बोली, ‘‘दुकान में तू कब से काम कर रहा है?’’ सेठानी के ‘तू’ शब्द में नन्दू को अजीब भयानकता महसूस हो रही थी। ‘‘पिछले महीने से।’’ नन्दू ने जवाब दिया और सेठानी को एक पल देखने के साथ ही उसने पुनः अपनी दृष्टि फर्श पर बिछे महंगे कालीन पर गड़ा दी। ‘‘शरमाता बहुत है रे तू?’’ पहली बार उसे सेठानी का स्वर नरम लगा। ‘‘कल एतवार को तू दुकान मत जाना। दस बजे यहीं आ जाना। मैं सेठजी से कह दूंगी।’’ सेठानी को उसने सोफे से उठते हुए महसूस किया। नन्दू ने सहमति में अपना सिर हिला दिया।

जाते-जाते एक बार उसने कनखियों से सेठानी की ओर देखा, वह उसे घूरे जा रही थी। कोठी से बाहर आकर सेठ व सेठानी के शरीर की तुलना करते हुए वह एक बारगी हँस पड़ा था। दुकान पर बातों-बातों में उसके हम-उम्र रामसिंह ने उसे बताया था कि ‘सेठजी की कोई सन्तान नहीं है। वे निःसन्तान हैं।’ घर लौटने पर, देर रात तक अपनी चारपाई पर लेटा नन्दू यही सोचता रहा था कि हो न हो सेठानी ने उसे पुत्रावत स्नेह देने के लिए ही कोठी में बुलाया हो।

नन्दू ने रात में बहुत सुन्दर सपना देखा, जिसमें सेठानी उसे मां की तरह प्यार दे रही थी। रात के मीठे सपने की याद करते-करते आज वह ठीक दस बजे सेठजी की कोठी पर पहुंच गया था। रविवार होने के कारण कोठी में नौकर-चाकरों की छुट्टी थी। ‘मालकिन…मालकिन!’ बरामदे में खड़े होकर नन्दू ने पुकारा। अन्दर जाने में वह झिझक रहा था। ‘‘कौन, अन्दर आ जाओ।’’ नन्दू ने ड्राइंगरूम से लगे अन्दर के कमरे से आए सेठानी के स्वर को पहचाना। अन्दर प्रवेश करते ही उसने देखा बड़ा-सा हाल। सेठानी अपने शरीर पर जयपुरी रजाई लपेटे टीवी पर ‘महाभारत’ देख रही थी।

सेठानी ने नन्दू को फर्श पर बैठ जाने का संकेत किया। वह आज्ञाकारी बच्चे की तरह पालथी लगाकर फर्श पर बिछी कालीन पर बैठ गया। टीवी में यशोदा मैया बाल-कन्हैया की बलैया ले रही थीं। एक बार पुनः नन्दू सेठानी में मातृभाव महसूस कर खो-सा गया। उसे पता ही नहीं चला कि धारावाहिक कब समाप्त हो चुका था। ‘‘टीवी बंद कर दे।’’ सेठानी के इस वाक्य ने नन्दू को झकझोर-सा दिया। नन्दू उठकर खड़ा हो गया। नन्दू ने टीवी कभी छुआ तक नहीं था।

किंकर्तव्यविमूढ़-सा उसे खड़ा देखकर सेठानी ने स्वयं टीवी बंद किया। लौटकर बोली, ‘‘बुद्धू!’’ फिर उससे पूछा, ‘‘क्यों रे, तूने अपना नाम क्या बताया था?’’ ‘‘जी, नन्दू।’’ ‘‘अच्छा, क्यों रे नन्दू, तू मालिश करना जानता है?’’ सेठानी ने उसको नीचे से ऊपर तक देखते हुए पूछा। ‘‘जी…जी…हां…’’ अचकचाकर नन्दू ने अपना सिर स्वीकारात्मक भाव में हिला दिया। मालिश जैसे शब्द के लिए वह तैयार नहीं था। न तो कभी उसने किसी की मालिश की थी और न ही किसी से अपनी मालिश कराई थी। फिर भी उससे ‘न’ नहीं कहा गया।

‘‘अच्छा, तो वो सामने रखी कटोरी लेकर ऊपर आ।’’ अपने शरीर से जयपुरी रजाई पलंग पर फेंकते हुए सेठानी ने ड्राइंगरूम से आंगन में जाते हुए कहा। अपनी मालकिन को मैक्सी में देख नन्दू एक क्षण के लिए मुस्कराया, पर तुरन्त ही वह गम्भीर हो गया था कि कहीं सेठानी पलटकर देख न ले। ‘वह तो साधारण नौकर है, आज्ञा पालन करना ही उसका कर्तव्य है।

मालिक लोग क्या पहनें, क्या खाएं, उसे क्या मतलब।’ नन्दू ने अपने आपको समझाया और सेठानी के पीछे-पीछे ऊपर तिमंजिले की छत पर आ गया। चारों तरफ ऊंची पर्दा-दीवारें थी। एक छोटा-सा कालीन पहले से बिछा था। धूप पूरी छत पर बिखरी हुई थी। बिछे कालीन पर सेठानी पसर गयी। ठंडक के दिन की धूप भली लग रही थी। पूरे एक घंटे नन्दू की दोनों हथेलियां सेठानी के शरीर पर मालिश करती रहीं।

किशोरवय नन्दू भली-भांति समझ रहा था कि उससे मालिश कम कराई जा रही है बल्कि उसकी हथेलियों के स्पर्श का मालकिन अजीब-सा आनन्द ले रही हैं। जिस शरीर की उसने मां के शरीर से तुलना की थी, उसी शरीर को उससे सहलवाया जा रहा था। चलते समय सेठानी ने उसे दस रुपये का नोट दिया और अगले रविवार को पुनः आ जाने को कहा। सेठ की कोठी के बाहर आकर नन्दू ने घृणा से कोठी की ओर देखा और थूक दिया, ‘आक् थू।’

‘‘खाट के पास ही थूक दिया।’’ पार्वती ने झुग्गी में प्रवेश करते हुए नन्दू को टोका, ‘‘क्या हो गया है आज तुझे?’’ ‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं।’’ नन्दू ने उठते-उठते कहा। बीती घटना को एकाएक भूलकर वह वर्तमान में लौट आया। उसे स्वयं भी इस प्रकार से थूकना अजीब लगा। झाड़ई उठाकर उसने थूक को साफ किया और लोटे में पानी भरकर झुग्गी से बाहर आकर अपना मुंह धोने लगा।

‘‘क्यों रे! नन्दू, तूने अभी तक रोटी नहीं खाई?’’ पार्वती ने तवे के नीचे ढकी रोटियों को ज्यों का त्यों रखा देखकर पूछा। ‘‘मां, अभी भूख नहीं है। अब रात को ही खाऊंगा, मूंग की बरी और प्याज के साथ।’’ नन्दू ने कुल्ला करते हुए बाहर से ही उत्तर दिया। दिनभर की व्यस्तता और अटपटे वातावरण के बीत जाने के बाद रात्रि में नन्दू अपनी खाट पर आराम से सो रहा था। इस समय उसकी आंखों में कोई झूठा सपना नहीं था।

बात ही कुछ ऐसी थी। सोने से पहले जब वह अपने बापू के साथ, मूंग की बरी और भुंजी प्याज के साथ गरम-गरम फुलके खा रहा था, तभी उसके बापू ने उसे बताया था कि रिक्शा-चालक कल्याण-समिति ने उसकी छूटी हुई पढ़ाई को पूरा करने के लिए सारा खर्चा उठाने का निर्णय लिया है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

आलेख -महेंद्र भीष्म

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