Homeलोक विज्ञानBundeli Lok Parampara Aur Lok Vigyan बुन्देली लोक परम्परा और लोक विज्ञान

Bundeli Lok Parampara Aur Lok Vigyan बुन्देली लोक परम्परा और लोक विज्ञान

बुन्देलखण्ड की लोकसंस्कृति अत्यन्त प्राचीन है। Bundeli Lok Parampara Aur Lok Vigyan यहां के लोक जीवन में समाहित हैं । यहां की लोकपरंपराओं तथा रीतिरिवाजों के अनुशीलन से पता चलता है कि ये वैदिक जीवन से प्रभावित तथा विज्ञान-सम्मत हैं। संस्कार, रीतिरिवाज, पर्व-त्यौहार, लोकाचार एवं दैनिक चर्चा के अनेक कार्य जिस वैज्ञानिकता का संकेत देते हैं उससे प्रतीत होता है कि इस अंचल के सामाजिक मनीषियों ने सामान्य जीवनशैली को विज्ञान-संगत एवं पर्यावरण बोधक बनाने का महनीय प्रयास किया था।

हमारे पूर्वजों ने जीवन शैली का सार्वभौमिक  इस चतुराई से किया गया कि उसमें वैज्ञानिकता का सहज प्रवेश हो गया। उस जीवन शैली ने पीढ़ी दर पीढ़ी चलकर परंपरा का स्वरुप ग्रहण कर लिया। घर का कोई अनपढ़ बालक महिला या पुरुष अपने दैनिक कार्यों को यह सोचकर नहीं करता है कि वह कोई विज्ञान सम्मत आचरण करने जा रहा है। वह तो मात्र इसलिये ऐसा करता है क्योंकि उसके घर, परिवार अथवा समाज के लोग परंपरागत रूप से, लोकरीति में वैसा करते आये हैं।

लोक परंपरा का अविरल प्रवाह, लोक विज्ञान की संजीवनी से बुन्देली लोकजीवन को अभिसिंचित करता आया है। इस विषय को गहराई से समझने के लिये हमें बुन्देलखण्ड के पर्वों त्यौहारों, पूजा विधान , लोकरीतियों एवं संस्कारों को बारीकी से देखना होगा , समझना होगा । हमारी परंपराओं मे लोक विज्ञान को कितना महत्व दिया गया है कितनी गहराई से जनमानस मे व्याप्त है ।

शिशु जन्म के तुरन्त बाद  सोहर गृह (प्रसव कक्ष) में अजवायन का धुंआ देने की परंपरा है। अजवायन का आयुर्वेदिक गुण पर्यावरण का शोधन तथा वातावरण को गर्म बनाये रखने का है जो उस समय की आवश्यकता होती है । शिशु जन्म के पश्चात् जच्चा को तुरन्त, गुड़ को देशी घी में उबालकर बनाया गया, ‘हरीरा’ पिलाया जाता है । इसके बाद  सिटौरा/सुठौरा  तथा गुड़ से बने सोंठ बिस्वार के लड्डू खिलाये जाते ।

गांव में, शिक्षा की किरण से दूर अनपढ़ दादी मां यह कहां जानती हैं कि प्रसव के दौरान हुये रक्त स्राव से शरीर में रक्त की जो न्यूनता हुई है उसकी प्रतिपूर्ति सर्वाधिक लौहतत्व से भरपूर ‘गुड़’ सहज कर सकता है । यह हर जगह उपलब्ध है। वह दादी मां तो “हरीरा” ‘सिटौरा’ या गोंद के लड्डू बहू को इसलिये खिलाती हैं क्योंकि उसके परिवार और समाज में पीढ़ियों से ऐसा होता आया है।

जच्चा को ‘पीपरामूर’ नामक जड़ी बूटी चूसने को दी जाती है। यह लड्डुओं में तथा अन्य रुप में भी दी जाती है। प्यास कम करने से लेकर अन्य अनेक विशिष्टताओं से समन्वित पीपरामूर घर की घिनौची (बगिया) में ही पैदा करने की लोक परंपरा है। एक लोकगीत की पंक्ति है – “घिनौंचिन पीपरें महाराज”। इस प्रकार इस आयुर्वेदीय औषधि को घर में ही उत्पादित करके उसकी उपलब्धता सहज हो जाना सुनिश्चित किया जाता है।

जच्चा का प्रथम स्नान लगभग एक सप्ताह बाद नीम की पत्ती डालकर उबाले गये पानी से कराया जाता है। ‘सर्वरोग हरं निम्बं’ की गुणवत्ता भावप्रकाश निघण्टु में निम्ब पत्रम् स्मृतं नेत्रं कृमि पित्त विष प्रणुत लिखकर बताई गई है। उसी दिन जनन अशौच के शुद्धीकरण हेतु प्रसव कक्ष गोबर से लीपा जाता है तथा अजवायन का धुआं प्रतिदिन जारी रहता है।

उसी दिन घर के बाहर गोबर से लीपी गई दीवाल पर गोबर से एक चक्राकार सांतिया बनाकर उस पर जौ के दानों की नौंके बाधाओं के मुकाबले की प्रतीक तथा जौ धन-धान्य एवं एवं समृद्धि का प्रतीक है । चक्राकार सांतिया गतिशीलता तथा प्रगति का प्रतीक है। यह विघ्नहर्ता गणेश का लिपीय स्वरुप है ।

प्रसवोपरान्त लगभग एक माह तक जच्चा को ‘चरुआ’ का पानी पिलाने की लोकपरंपरा है। चरुआ मिट्टी का घड़ा होता है। उसमें जल भरकर, दशमूल जड़ी बूटियां तथा वनस्पतियां डालकर इतना उबाला जाता है कि पानी छनक कर आधा रह जाय। इसे ठण्डा करके जच्चा को पिलाया जाता है। विज्ञान सम्मत इस प्रयोग को समारोह पूर्वक किया जाता है।

पुरा-पड़ोस की महिलाओं को बुलौआ देकर बुलाया जाता है। ‘चरुआ’ को गोबर तथा जौ के दानों से अलंकृत किया जाता है। ‘चरुआ – चढ़ाने’ के बुलौआ का बटौना बांटा जाता है। लोक विज्ञान के अनुष्ठान का लोक सम्मान परंपरा बन गया है। कुछ दिनों पश्चात् नवजात शिशु को घृत, मधु, स्वर्णकण आदि चटाने की परंपरा है। यह सभी पदार्थ शोधक, विकारनाशक तथा देह पुष्ट करने वाले हैं।

शिशु कुछ माह का होने पर उसके मुण्डन संस्कार की परंपरा है। समारोह पूर्वक होने वाले इस मुण्डन में बेसन की लोई मस्तक पर फेरने या लेपन की परंपरा है। बेसन कृमि नाशक है। यह बाल काटते समय उत्पन्न हुये घाव के संक्रमण से बचाने का लोक विज्ञान है। एक महिला (प्रायः बुआ ) मुण्डन के समय काटे गये बालों को गीले आटा या बेसन में लपेटती जाती है। बाद में इस लोई को जलाशय में विसर्जित किया जाता है। उसमें व्याप्त कृमि लोक-व्याप्त न हो सकें अतः यह क्रिया लोकहित में है ।

बुन्देली लोकजीवन में एक और संस्कार है ‘कर्णछेदन’ । कान और अथवा नाक कुछ बिन्दुओं को छेदा जाता है। यह भी समारोह पूर्वक मनाया जाता है। यह संस्कार आज सुविकसित ‘एक्यूप्रेसर’ चिकित्सा प्रणाली का लोक संस्करण है। इसी भांति विवाहोपरान्त महिलाओं को बिछिया पहनाने अथवा सन्यासी बनने पर खड़ाऊँ पहनने का विधान है।

पैर की कुछ अंगुलियों विशेषकर अंगूठे के पास की अंगुली का संबंध कामोत्तेजना पैदा करने वाली नसों से है। बिछिया पहनने अथवा खड़ाऊँ पहनने से उस बिन्दु पर दबाव बनता है। कान पर जनेऊ चढ़ाने से मूत्र नलिकाओं पर दबाव बनता है। अतः लघुशंका अथवा शौच जाते समय जनेऊ चढ़ाने का लोक विधान है। जो जातियां जनेऊ नहीं पहनती हैं, वह शौच जाने के पूर्व अंगौछा सिर के ऊपर इस प्रकार बांधते हैं कि सिर के ऊपर की संबंधित नसें दबीं रहें। इससे पेशाब या शौच खुलकर होती है।

इसी प्रकार मस्तक पर टीका लगाने से आज्ञा चक्र जागृत होता है। इससे इन्द्रिय निग्रह होता है। पूजा पर बैठने के पूर्व मस्तक पर चंदन लगाने की लोक परंपरा है। इससे शीतलता और सुरभित वातावरण मिलता है। लोकांचल में पहने जाने वाले आभूषण विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन का विषय हैं। पैरों में भारी पैंजना, हाथों में मोटे ककना तथा गले में भारी हंसली (खंगौरिया) पहनना केवल समृद्धि-प्रदर्शन या सौन्दर्य के लिये नहीं, स्वास्थ्य के लिये लाभकारी है। बुन्देलखण्ड के आभूषणों की संरचना तथा वजन एक्यूप्रेशर प्रणाली के अनुरुप किन बिन्दुओं पर कितना दबाब बनाता है, इस पर शोध अपेक्षित है।

बुन्देलखण्ड के किसी गांव के घर में “चौका” (रसोई कक्ष) में चलें । यह गोबर तथा पुतना मिट्टी से लीपा पोता गया साफ सुथरा कमरा होता है। किसी अलमारी के एक आले में शालिग्राम भगवान की पत्थर की बटैया रक्खी होती है। यही इनका देवालय है। रोजाना इनका स्नान तुलसीदल मिश्रित जल से कराकर उस जल को तांबे के किसी पात्र में भरकर रक्खा जाता है।

इसे सभी सदस्यों को प्रसाद के रूप में बांटा जाता हैं जब भोजन बनता है तो उसकी पहली लोई (ग्रास) अग्नि को (चूल्हे में डालकर) समर्पित करते हैं फिर थाली ठाकुरजी के सामने जाती है। सभी भोज्यपदार्थों पर तुलसी पत्र डालकर परिवार के सदस्यों में बांटते है । इसके पश्चात् भोजन के कुछ कौर गाय तथा श्वान के लिये निकालकर रख दिये जाते हैं। यह वैदिक कालीन बलिवैश्वदेवयज्ञ की परंपरा का है। इसके पश्चात परिवार के सदस्यों का भोजन इसी चौके में बैठकर होता है।

पहले गांव के अधिकांश लोग गोबर से लिपे पुते -चौका सें बोरा चटाई या लकड़ी का पाटा बिछाकर उस पर बैठकर भोजन करते हैं । कुछ वृद्ध लोग थाली भी पाटे पर रखते हैं। वे भोजन करने के पूर्व पानी से भरे गिलास या लोटे को अंगुलियों से बजाकर ध्वनि पैदा करते हैं, फिर जल का वृत्त थाली के चारों ओर बनाकर हाथ जोड़ने के पश्चात् भगवान का स्मरण करते हैं।

भोजन कर चुकने के उपरान्त थाली के चरण स्पर्श करके उठते हैं। संभवतः यह पूरी प्रक्रिया विज्ञान सम्मत है। पहले तो गोबर से लिपे पुते स्थान पर छोटे छोटे कीट चींटी आदि नहीं आयेगी। कुछ गिलास से निकली ध्वनि सुनकर ठिठक जावेंगे और यदि कुछ चींटियां आदि इसके बाबजूद आने का साहस करेंगे तो जल का घेरा उनका मार्ग रोक देगा। भोजन करने की यह लोक परंपरा रसोई कक्ष में भोजन स्थल को कीटमुक्त करने का लोक विधान है। अंत में थाली का चरण स्पर्श भोजन के प्रति सम्मान या कृतज्ञता ज्ञापन है।

प्रत्येक घर के आंगन में तुलसी- बिरवा लगाना शुभ मानते हैं। उसे लक्ष्मी का स्वरूप मानकर पूजा करना उसके तुलसीदल को प्रतिदिन भोजन या प्रसाद में ग्रहण करना, प्रतिदिन उस पर जल चढ़ाकर उसे पोषित करना तथा रात्रि में उसके सामने दीपक रखकर दीपदान करना सामान्य लोकपरंपरा है। तुलसी का पौधा दीपक के प्रकाश में प्रकाश-संश्लेषण क्रिया करता है। इससे रात्रि में भी ऑक्सीजन निकलती है तथा घर का वातावरण प्राणमय हो जाता है।

इसी गुण के आधार पर पीपल (अश्वत्थ) को पूज्य माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने वृक्षों में ‘मैं अश्वत्थ हूं’ कहकर स्वयं उसे अपना (विष्णु का अवतार घोषित कर दिया। पीपल विष्णु का अवतार है, तुलसी ‘लक्ष्मी’ स्वरुपा है। इसीलिये कार्तिक स्नान करने वाली बुन्देली महिलायें अपनी तुलसी का विवाह विष्णु-रूप शालिग्राम से करती हैं।

पेड़-पौधों में देवत्व की यह प्रतिष्ठा भरने की लोक भावना कोई पागलपन नहीं है। अपितु यह एक मनौवैज्ञानिक प्रभाव है। जिसक द्वारा आम आदमी इन वृक्षों की रक्षा, देवताओं की रक्षा करने जैसा संकल्प लेकर करता है। यहां तुलसी, पीपल, बरगद, आंवला शेंकुर और केला की पूजा का विधान पर्यावरण के प्रति लोक शिक्षण का उपक्रम है।

नीम का वृक्ष दरवाजे पर लगाना मांगलिक माना जाता है। एक अनुमान के आधार  पर नीम के सर्वाधिक वृक्ष भारत में हैं तथा भारत में भी बुन्देलखण्ड में। यहां नीम के औषधीय उपयोग लोक परंपरा में समाहित हैं। नीम का वर्णन अनेक लोकगीतों में मिलता है। नीम तथा आम्र की मंजरी खाने की परंपरा है। नीम की दातुन करना नित्यकर्म का अंग है । चेचक निकलने पर रोगी के पलंग पर कहीं नीम की पत्तों का झोंका रखने, कहीं पलंग में पत्ती बांधने और कहीं नीम की पत्ती से रोगी को हवा करने की परंपरा हैं।

शव दाह करने के पश्चात् घर में प्रवेश के पूर्व हाथ पैर धोकर नीम की पत्ती खोंट कर खाने का लोकविधान तथा लोक शिष्टाचार है। यदि कोई अन्त्येष्टि यात्रा में सम्मिलित व्यक्ति बिना नीम की पत्ती खोंटे घर चला जाय तो इसे असामाजिक माना जाता है। इसके पीछे यह निहितार्थ प्रतीत होता है। कि यदि मृतक को कोई बीमारी रही हो तो उसके शरीर में व्याप्त रोग के कीटाणु अन्तिम यात्रा में सम्मिलित जनों के शरीर में वायु के माध्यम से प्रवेश कर सकते हैं। नीम की पत्ती कृमि नाशक होने के कारण उनका संक्रमण रोकती है। नीम का अधिकाधिक प्रयोग करने की यह लोक परंपरा विज्ञान सम्मत है ।

कुछ और परंपराओं को परखा जाय। घर में चेचक निकली है। लोकमान्यता हैं कि देवी निकली है, इसलिये रोगी के कमरे को लिपा पुता सुगंधित रक्खा जाता है। जूते बाहर उतारकर पैर धोकर ही रोगी-कक्ष में प्रवेश अनुमन्य है। रोगी के चादर बिछावन सफेद होना चाहिये क्योंकि देवी को श्वेतरंग प्रिय है। पर्यावरण शुद्धता का यह लोकविधान है। चेचक निकली होने पर घर में सब्जियों का छौंका लगाने, नाई से बाल बनवाने तथा धोबी के यहां कपड़े धुलने डालने का लोक निषेध है। क्योंकि इससे चेचक के संक्रामक रोग के कीटाणु अन्य परिवारों में उड़कर संक्रमण फैल सकते हैं। अतः इनका वर्जन व्यापक लोकहित में है ।

एक तर्क और दिया जाता है कि यदि सब्जी के छौंका से निकली तेज गंध के कारण रोगी के निकट बैठे किसी व्यक्ति को छींक आ जाये तो उससे निकली बूंदें (ड्रापलेट्स) रोगी के चेचक के दानों में पुनः संक्रमण पैदा कर सकते हैं। जूता चप्पलों के माध्यम से घर के भीतर आई गंदगी भी संक्रमण पैदा कर सकती है, अतः जूता चप्पल बाहर उतारना, देवी के सम्मान की धार्मिक भावना के साथ विज्ञान सम्मत भी है। नीम की पत्ती का धुंआ करने से भी अनेक कीड़े मच्छर भग जाते हैं। अतः इनकी वैज्ञानिकता स्वयंसिद्ध है।

ग्रामीण जनों का पीली मिट्टी से स्नान करने को साबुन से स्नान करने वाले मजाक उड़ाते हैं किन्तु प्राकृतिक चिकित्सा ने इसे उपयोगी माना है ।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

बुन्देलखण्ड के लोकोत्सव 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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