प्राचीन भारतीय कला में Adhyatma Aur Saundarya Ka Samanvay दिखाई देता है। मनुष्य की आधिभौतिक प्रगति और आनन्द के साथ-साथ उसकी आध्यात्मिक प्रगति पर भी बल दिया गया। वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार ’’भारतीय कला के दोनों पक्ष इष्ट थे, अर्थात सुन्दर वस्तुओं का बाह्य रूप एवं उनका आन्तरिक अर्थ। कला का उद्देश्य जीवन के लिए है। वह उद्देश्यहीन साधना नहीं।
भारतीय संस्कृति में अध्यात्म और सौन्दर्य का समन्वय
Spirituality and beauty amalgamation
भारतीय सौन्दर्यतत्व में अर्थ का सर्वोपरि महत्व है। बाह्य रूप का भी निजी महत्व है, किन्तु वह भावों की अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। अर्थ कला का प्राण है। कला के रूपों के मूल में छिपे हुए सूक्ष्म अर्थ का परिचय प्राप्त करने से कला की सौन्दर्यानुभूति पूर्ण और गंभीर बनती है। अध्यात्म के बिना केवल सौन्दर्य सौभाग्यविहीन है।
केवल रूप को कवि ने निन्दित कहा है, किन्तु अध्यात्म अर्थ के साथ वही पूजनीय बन जाता है। कलाकार ध्यान और मन की शक्ति से ही कला के सौन्दर्य का पूरा फल प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक मूर्ति का आदि अन्त धार्मिक या आध्यात्मिक अभिव्यक्ति में है, Adhyatma Aur Saundarya Ka Samanvay अर्थात वह देवतत्व की प्रतीक मात्र है।
अधिकांश भारतीय धार्मिक साहित्य में सन्यास एवं आत्मनिषेध के विभिन्न रूपों की प्रशंसा की गई है, परंतु मूर्तियों में प्रस्तुत सन्यासी सामान्यतः पर्याप्त रूप से भोजन किए हुए एवं प्रसन्न लगते हैं। उदाहरण के लिए मैसूर में श्रवणबेलगोला की चट्टान काटकर बनाई गई गोमतेश्वर की प्रतिमा को देखा जा सकता है। वे ध्यान की कायोत्सर्ग मुद्रा में पृथ्वी पर पैर जमाए , हाथों को नीचे किए जो शरीर को स्पर्श नहीं करते , पूर्ण रूप से सीधे खड़े हैं तथा मृदु मुस्कान से युक्त हैं।
कहा जाता है कि सन्त ध्यान में इतने समय तक निमग्न खड़े रहे कि उनके गतिहीन चरणों के चारों ओर लताएं लिपट गईं और ये लताएं मूर्ति में दिखाई गई हैं। परंतु ये लताएं यद्यपि उनकी पवित्रता चित्रित करने के अभिप्राय से हैं, फिर भी वे इसी बात पर बल देती हैं कि वह इसी पृथ्वी का प्राणी है, जिसे पृथ्वी पीछे खींचती है।