Fagun Ke Angan Me Hansat Vasant Hai फागुन के आँगन में हँसत वसंत है

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वसंत के संदर्भ में कवियों ने अपनी मादक गंध से कोकिल को मद विह्वल कर सुरीली तान छोड़ने के लिए विवस कर देने वाली आम – मंजरियों की महिमा गाई है , लाल पुष्पों से लदे पलाश , अशोक और करणिकार ने उनकी दृष्टि को लुभाया है, मुग्ध किया है …. Fagun Ke Angan Me Hansat Vasant Hai किंतु एक वृक्ष है बेचारा महुआ उसकी और लोगों को कम ध्यान गया है । चलिए इस वृक्ष की थोड़ी सी चर्चा करता हूँ ।

यह जंगली वृक्ष मधूक के नाम से जाना जाता है । आदिवासियों – वनवासियों और गिरिवासियों की यह संपत्ति है । मधूक

का वृक्ष ही महुआ कहलाता है । मधूक के फूल को ही महुआ कहते हैं । यह मधुर रस से लबालब भरे होते हैं। इनसे मदिरा बनाई जाती है जो वनवासियों की भोजन की भी आपूर्ति करती है। महुए की मदिर गंध समूचे वन प्रदेश को मादकता से भर देती है ।

चैत्र मास के दिनों में भिनसारे –सवेरे – सवेरे महुए के फूल प्रचुर मात्रा में झर कर पेड़ों के नीचे की भूमि को ढक देते हैं और जैसे सूर्य उदय होता है वनवासी महिलाएँ और बच्चे इन हल्के पीले फूलों को बीन कर टोकरियों में भरकर घर ले जाते हैं । महुओं के फूलते ही सतपुड़ा के प्रकृतिजीवी वनवासियों का सहज उल्लास समूह  – नृत्य सामूहिक गायन और प्रकृति पर्व मनाने का उनका उत्साह- उमंग फूट – फूट पड़ता है ।

हमारे भवानी भाई अर्थात कवि भवानी प्रसाद मिश्र  प्रकृति संरक्षक रहे – प्रकृति प्रेमी रहे उन्होंने महुए को लेकर बहुत सुंदर चित्र खींचा है। उनकी कविता को हम यहाँ  देखते हैं –
 इन वनों के खूब भीतर चार मुर्गे चार तीतर
 पालकर निश्चिंत बैठे विजिन वन के मध्य पैठे
झोपड़ी पर फूस डाले गोंड तगड़े और काले
जबकि होली पास आती सरसराती घास गाती
और वैसे लपकती मत्त करती वास आती
गूँज उठते ढोल इनके , गीत इनके बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल ! ऊँघते अनमने जंगल।
भवानी भाई ने सतपुड़ा के जंगलों के चित्र और वहाँ के आदिवासियों के जीवन का जीवंत चित्रण दोनों ही बड़े अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है। हमारे भारतीय साहित्य में ऋतु पर्वों की अत्यंत विस्तार से चर्चा की गयी है। फिर वसंत तो ऋतुराज ठहरा उस पर संस्कृत के साहित्याचार्यों से लेकर विभिन्न भारतीय भाषाओं और बोलियों में हमारे कवियों – लेखकों ने अपनी – अपनी आँख से वसंत को देखा है। आइए उन महाकवियों की आँखों से देखे हुए वसंत को हम अपनी वासंतिक आँखों से देखते हैं –


महाकवि रसिक विहारी की दृष्टि में वसंत तो वसुंधरा के कण – कण को दीप्ति की सिद्धि देना वाला अनुष्ठान है।
बेलन बसंत ज्यों नबेलिन बसंत
वन बागन रंगरागन वसंत है।
कुंजन वसंत दिग्पुंजन वसंत
अलिगुँजन वसंत चहूँ ओरन वसंत है।।
छैलन वसंत अरु फैलन वसंत
संग सैलन वसंत बहु गैलन वसंत है।।
रसिक बिहारी नैन सैनन में बैनन में
जितै अबलोकत तितै बरसै वसंत है।।


हम सभी उत्सव धर्मी संस्कृति के संवाहक हैं। उत्सव भारतीय लोकजीवन की आधारशिलाएँ हैं । लोकजीवन को मंगल प्रदान करते हैं । शस्य श्यामला भारत माता  – धरती माता अन्नभंडार हमें देती है । ग्राम देवता जो कृषक हैं तथा उसके परिवार के अन्य सदस्य फसल पकने व कूटने के समय झूम –  झूम कर कैसे आनंदित होकर गाते हैं।भोजपुरी में एक चित्र देखिए –

गेंहुआँ कटै चारउ ओर कै झूम झूम नाचै किसनवां
मनवां उठैला हिलोर कै झूम झूम नाचै किसनवां
नदिया किनारे कोयलिया पुकारे
पापी पिरतिया सुरतिया निहारे
भाग चलै अँगनवा की ओर कै झूम झूम नाचै किसनवां
अमवाँ के पेड़ झमाझम झमकै
गोरी की बिंदिया चमाचम चमकै
खुल खुल जायै कंगनवां कै झूम झूम नाचै किसनवां
ऐसे कदँबबा पै लल चौराए
दूजै सरसों के फूल बौराए
बेला महके अँगनवां कै झूम झूम नाचै किसनवां.

यह जो लोक रस है, लोक चेतना है, लोक अनुभूति है यही आनंद का आंतरिक अतिरेक है । जब तक अंतःकरण अनुभूति के झरोखों के कपाट बंद रहेंगे तब तक वसंत उदास ही रहेगा । वसंत की अकूत संपदा का भोग वही कर सकता है जिसमें प्रकृति से जुड़ने की असीम अकुलाहट है। केवल घरों में गुलदान सजाने से वसंत को साकार नहीं किया जा सकता । वसंत को यदि सच में साकार करना है तो हमें सर्जन से जुड़ना होगा , प्रकृति से जुड़ना होगा। तभी वसंत सृजन का पर्व बनेगा ।

संसार में विशाल प्रकृति ,पेड़ – पौधे – वनस्पतियाँ ,  ऊँचे पर्वत  , गहरा सागर , अनंत आकाश  , लहरातीं नदियाँ , मनमोहक झरने  , रंग – बिरंगे फूल और-न जाने कितने प्रकृति के विचित्र चित्र हैं , चरित्र हैं रूप हैं , अनूप हैं सभी एक स्वर में , एक लय में एक ही संदेश देते हैं कि अपने मन को पवित्र करो और ऐसा लोक कार्य करो जो शिव की स्थापना के लिए समर्पित हो। लोकमंगलकारी हो। वसंत यही संदेश लेकर आता है हमारे द्वारे पर – फागुन की देहरी पर।

शिशिर के पतझार से अपर्णा हुई वनस्पतियों का तप पूर्ण हुआ। रक्त किसलयों में उनका यौवन और प्रस्फुटित पुष्पों में उनके हृदय का सहज उल्लास फूट पड़ा है। सुरभित सुमनों के हार लेकर वे सज – धजकर स्वागत के लिए प्रस्तुत हैं । कोकिल पंचम स्वर में प्रशस्ति गीत गा रहा है…गुंजारते मधुकर मंत्रोचार कर रहे हैं , शीतल मंद सुगंध पवन पंखा झलते हुए चल रहा है ।

चहचहाते पक्षियों की जयध्वनि से आकाश मुखर हो रहा है क्योंकि ऋतुराज वसंत अपने सहचर कुसुमायुध कामदेव के साथ पदार्पण कर रहा है। सूर्य के उत्तरायण होते ही रश्मियों में  – किरणों में सुखद उष्णता गई है , प्रकृति के कण-कण से और वृक्ष-वल्लरियों के पोर – पोर से अल्हड़ यौवन की आह्लादक  – मादकता छलक पड़ रही है , जिसके प्रभाव से सभी चेतन प्राणी मधुविह्वल हो उठे हैं .. धवल चंद्र के के भार से बोझिल पवन धीरे – धीरे चल रहा है –
    चाँदनी के भारन दिखात उनयो – सो चंद
     गंध ही भारन बहत मंद  – मंद पौन ।
वसंत के अग्रदूत और हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष मां भारती के लाड़ले महाप्राण निराला कहते हैं –
लता – मुकुल – हार गंध – भार भर
वही पवन मंद – मंदतर
जागी नयनों में वन – यौवन की माया
सखि ! वसंत आया ।

कितनी उदात्त कल्पना है – वसंत में रात और दिन का परिणाम बराबर हो जाता है। शरीर के शीत का प्रकोप शांत हो जाता है और गर्मी का प्रारंभ न हो पाने से वसंत ऋतु सर्वाधिक सुखद होती है । वसंत ऋतुराज हो जाता है। यह यौवन का , सौंदर्य का, आकर्षण का , आह्लादिकता का प्रेयस पर्याय है ।

महाकवि कालिदास ऋतुसंहार में कहते हैं जब वसंत आता है तो वृक्ष पुष्पित होकर वातावरण में अपनी हँसी और सुगंध बिखेरने लगते हैं …सरोवरों में कमल खिल जाते हैं ..नवयुवतियों का यौवन उफान लेने लगता है …. वायु सुवासित  हो जाती है …शीत का प्रभाव कम पड़ने से सन्ध्याकाल सुखकर हो जाते हैं और दिन सुखद लगने लगते हैं । इस प्रकार वसंत में सब कुछ चारु से चारुतर हो जाता है सुंदरतम् हो जाता है । संस्कृत के महाकवि कालिदास अपने ऋतुसंहार में वसंत ऋतु का वर्णन  बड़े विचित्र शब्दों में करते हैं–
द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मंम
स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः
सुखा प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः
सर्वे प्रिये चारुतरं वसंते।

रीतिकालीन कवि पद्माकर के अनुसार भौरों की गुंजन में पहले की अपेक्षा कुछ अधिक मादक विशिष्टता आ जाती है । तरुणों के अल्हड़ यौवन उमड़ने – उड़ने लगता है और पक्षियों के कलरव में भी विशेष मादक मिठास भर जाती है। चलिए हम पद्माकर जी के बसंत को यहाँ ज्यों का त्यों उतारने की कोशिश कतते हैं –

औरे भौतिक कुंजन में गुंजरित भौंर – भीर
औरे डौर झौरन में बौरन के ह्वै गए।
कहें पदमाकर सु औरे भांति गलियान,
छलिया छबीले छैल औरे छबि छवै गए।।
औरे भाँति बिहँग समाज में अवाज होति,
अबै ऋतुराज के न आज दिन दवै गए।
औरे रस, औरे रीति ,औरे राग , औरे रंग ,
औरे तन औरे मन और वन ह्वै गए।।


श्रंगारी कवि हमारे बिहारीदास जी ने वसंत को लेकर बड़ी अनूठी बात कहदी है। मदिर गंधभार से अलसाए कुंज समीर को मतवाले हाथी के रूप में ने प्रस्तुत किया है ।गुंजार करती भ्रमर पंक्ति जिसके गले में टुनुन – टुनुन करतीं घण्टियाँ है और जिसके कपोलों से पुष्पों का रस मधुरूपी जल बनकर चू रहा  है । ऐसी विलक्षण कल्पना महाकवि बिहारी ही कर सकते हैं –
       रनित भृंग घंटावली  झरतत दान मधुनीर ।
       मंद – मंद आवत चल्यो कुंजर कुंज समीर ।।

इसी प्रकार कविवर देव ने वसंत की महाराज कामदेव के शिशु के रूप में बड़ी ही अनूठी और कमनीय कल्पना की है। उस शिशु राजकुमार वसंत को वृक्ष के पालने पर किसलयों की कोमल शैय्या पर सुलाया जाता है।रंग – बिरंगे फूलों का झबला उसके शरीर की शोभा में चार चाँद लगा देता है । पवन उसके पालने को झूलाता है । मयूर अपने मनोहर नृत्य द्वारा और शुक मधुर संभाषण करके उसका मनोरंजन करते हैं।

कोयल सुरीले स्वर में उसे लोरी सुनाती है । कंजकली रूपी नायिका अर्थात् नागरी महिला लता रुपीस साड़ी का पल्ला अपने सिर पर डालकर उस बच्चे की राई – नोन से नजर उतारती है । गुलाब के फूल सबेरा होते ही  प्रस्फुटित पुष्पों की चटाक की ध्वनि करके चुटकी बजाकर उसे जगाता है । कितनी अद्भुत कल्पना है ।
कवि देव की ही शब्दावली में वसंत के मानवीकरण का आनंद लें –
डार द्रुम पालनौ बिछौना नव पल्लव के
सुमन झंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन छुलावै केकी कीर बतरावै देव
कोकिल हलावै हुलसावै करतारी दै।।
पूरित पराग सों उतारौ करै राई नौन
कंज – कली नायिका लतानि सिर सारी दै।।

इसी तरह रसिक गोविंद भी नजर उतारने का उल्लेख करते हैं –
मुखरित पल्लव फूल सुगंध परागहिं झारत
जुग मुख निरखि बिपिन मनु राई – लोन उतारत।

बेनी कवि ने वसंत को लेकर एकदम अलग प्रकार की कल्पना की है। उनके अनुसार वसंत तो कामदेव रूपी अंग्रेज सम्राट का विप्लवकारी सेनापति है जो बंदूकों – तोपों आदि मारक अस्त्रशस्त्र से सुसज्जित सेना लेकर विरहिणी अबलाओं पर टूट पड़ा है –

धायनि कुसुम केसू किसलय कुमेदान
कोकिला कलापकारी कारतूस जंगी है ।
तोपें विकरारे जे बेपात भयीं डारैं
दारूधूरि धारैं और गुलाब गोला जंगी है
बेनी जू प्रबीन कहैं मंजरी संगीन पौन
बाजत तंदूर भौंर  तूर तासु संगी है..।
बैरी बलवान विरहीन अबलान पर
आयो है बसंत कम्पू  मदन फिरंगी है..।

प्रकृति के सुकुमार छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत की मानें तो –पुष्पिश पलाश समस्त कामनाओं का प्रदाता है । उसके सौंदर्य से प्रकृति सुसज्जित है । सर्वत्र हरीतिमा का वातावरण है। वे कहते हैं –
वर्ण – वर्ण की हरीतिमा का वन में भरा विकास ।
शत – शत पुष्पों के रत्नों की रत्नच्छटा पलाश।
प्रकट नहीं कर सकती यह वैभव पुष्कल उल्लास
वर्ण स्वरों से मुखर तुम्हारे मौन पुष्प अंगार ।
यौवन के नवरत्न तेज का जिनमें मदिर उभार।
हृदय रक्त ही अर्पित कर मधु को अर्पण श्री शाल ।
तुमने जग में आज जलादी दिशि -दिशि जीवन – ज्वाल।
कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान के वसंत में धरती सरसों की पीली साड़ी पहनकर इठला रही है –    
 फूली सरसों ने दिया रंग
 मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
 वधू – वसुधा पुलकित अंग – अंग।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी अपने महाकाव्य “साकेत” में गाते उठते हैं –

 फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की पीली – पीली चोली।
महादेवी वर्मा भी मादक वसंत रजनी को आमंत्रण देने लगती हैं – जो तारों को अपनी वेणी में गूँधकर , चंद्रमा को सिर का शीशफूल बनाकर और धवल चंद्रिका का घूंघट डाले अपनी बांकी चितवन से ओस बिंदुओं के मोती बरसाती हुई क्षितिज से धीरे-धीरे धरा पर उतर रही है । बिंबात्मक भाषा यह चित्र भी देखते ही बनता है…
धीरे –धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत रजनी !
तारकमय नववेणी बंधन शीशफूल शशिका कर नूतन ,
रश्मिवलय सित घन अवगुण्ठन ,
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे चितवन से अपनी।
पुलकती आ वसंत रजनी !!


बुंदेलखण्ड के लोकवि ‘रजऊ’ के चितेरे बुंदेली के पितामह ईसुरी की चर्चा बगैर किए यह वासंतिक आलेख अधूरा ही रहेगा –
अब रितु आइ बसंत बहारन , लगे फूल फल डारन
बागन बनन बंगलन बेलन , बीथी नगर बजारन
हारन हद्द पहारन पारन , धवल धाम जल धारन
तपसी कुटी  कन्दरान माही , गई बैराग बगारन
ईसुर कंत अंत घर जिनके , तिने दैत दुख दारुन।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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