बसंत तो सब जगह आता है लेकिन हर जगह के उत्सव भी एक जैसे नहीं होते। बुन्देलखंड क्षेत्र में बसंत का अलग ही रूप और प्रभाव होता है? Bundeli Basant का आगमन-माप शुक्ल पंचमी की पावन तिथि विद्या की देवी वीणा वादिनी के अवतरण के साथ ही बुन्देली बसंत का पदार्पण माना गया है ।
भारत वर्ष के उत्तरी भाग में उ. प्र. व म.प्र. को मिलाकर कुछ भूभाग को बुन्देलखंड का क्षेत्र माना गया है। विद्वानों ने इस प्रक्षेत्र में 21 जिलों को माना है। यहाँ के लोग बुन्देलखंडी और यहाँ की भाषा बुन्देली कही जाती है। प्रत्येक क्षेत्र की परम्परायें, खान-पान, पहनावा, वेश भूषा, रस्म-रिवाज, भाषा, भौगोलिक स्थिति वातावरण आदि समग्र संस्कृति प्रथकता लिए होती है।
हर जगह के उत्सव भी एक से नहीं होते। इस बुन्देली क्षेत्र में बसंत का क्या कैसा रूप और प्रभाव होता है? आदि का वर्णन निम्न लिखित प्रकार से किया जा सकता है। “बुन्देली बसंत” का आगमन-माघ शुक्ल पंचमी की पावन तिथि विद्या की देवी वीणा वादिनी के अवतरण के साथ ही बुन्देली बसंत का पदार्पण माना गया है, और रंग पंचमी तक कुल ४० दिनों तक का समय बुन्देली गीत गाकर और वसंतोत्सव मनाकर बसंत की विदा कर देते हैं।
ग्रामीण क्षेत्र में माली लोग खजूर की पीले पत्तों का मुकुट सा बनाकर प्रत्येक दरवाजे पर बाँध देते हैं। जो हवा लगने पर डुलते हैं। शोभायमान लगते हैं बुन्देली के रससिद्ध कवि गंगाधर जी ने बसंत के आगमन को बड़ी ललित भाषा में वर्णन किया है ।। ये कहते हैं
“दिन ललित बसंती आन लगे, हरे पात पियरान लगे ।
पटन लगी रजनी अब सजनी, रवि के रथ ठहरान लगे।
उड़न लगे चहुँ ओर पताका, पीरे पट फहरान लगे।
‘गंगाधर’ ऐसे में मोहन, किन सौतन के कान लगे ।
दिन ललित बसंती आन लगे,…………
बसंत बुन्देलखंड में धीरे-धीरे आता है। प्रकृति पर, जीव जन्तुओं पर, पेड़ पौधे, वनस्पतियों आदि में क्या और कैसे परिवर्तन होने लगते हैं? देखिये बसंत में प्रकृति- बसंत को ऋतुओं का राजा माना गया है। मानो बसुधा रूपी नायिका अपने प्रियतम के आने की आहट या खबर पाकर आनंदित होने लगती है। वसंती पवन के प्रवाह में तेजी आने लगती है।
महाकवि गंगाधर जी कहते हैं, ‘हरे पात पियरान लगे।” अर्थात वृक्षों के पत्ते पीले होने लगते है। मानो प्रकृति अपने प्रियतम के आगमन के कारण सुंदर पत्तों का बिछौना बना रही हो। वृक्षों में नव-पल्लव कोमल किसलय झांकने लगते हैं। पुष्पों में फूल बनाने के लिए कलियां बौंड़ी बनाने लगती है। लतायें बेलें अंगड़ाइयों लेकर अपने प्रि यपादपों से लिपट कर मानो आलिंगन करने बढ़ने लगती हैं। गेंदा, गुलाब, जुही, केतकी, चम्पा, चमेली, कचनार, मचकुंद, गुल्लायची, टेसु आदि सभी पुष्पित होने लगते हैं। पुष्पों के अनगिनत प्रकार इस मौसम में खिलते हैं।
आमों पर अमरई (बौर ) आच्छादित होकर अपनी मादक सुगंध छोड़ते हैं। नीम अपने पीले पीले पुष्पों को हल्दी से रंगे हुए चावलों की भांति बसुधा पर फैलाकर बसंत का स्वागत करते हैं। बुन्देलखंड में वसंतोत्सव को फागोत्सव कहा जाय तो और ज्यादा अच्छा लगेगा। फाग शब्द का स्मरण आते ही यहाँ फाग गायक फागों के गायन की तैयारी करते हैं।
फागोत्सव-
भारत वर्ष मे होली दहन के अवसर पर फागोत्सव बसन्ती मौसम लिए बडे उसलास से मनाया जाता है। उप्र में वृन्दावन, मथुरा, गोकुल, बरसाना आदि स्थानों पर फागोत्सव संसार भर में अद्वितीय होता है श्रीकृष्ण जन्म स्थली व लीला स्थली का फागोत्सब देखने न केवल भारत वर्ष के कोने-कोने से श्रद्धालु व शौकीन लोग जाते है अपितु विश्व के अनेक देशों से बृज बरसाना की होली देखने आते हैं और आनन्द उठाते हैं।
बरसाने में बृज की लट्ठमार होली प्रसिद्ध है। बृज की नारियां गोपी तथा पुरुष ग्वालवाल व कृष्ण के प्रतीक के रूप में सजकर मैदान व गांव गली में ग्वाल बालों को गोपिकायें लटूठ मारतीहैं। ये ग्वाल बाल अपने हीरो कृष्ण के साथ अपना बचाव करते हुए रंग की पिचकारियों व अबीर गुलाल मलते है। सखियों के साथ राधा की भी कल्पना की जाती है।
बुन्देलखंड में यही बसंतोत्सव जन-जन में अपार उल्लास भर देता है। वसंतोत्सव मनाने का ढंग अधिकांश समान होता है। यहाँ पर लठ्ठ मार होली का प्रचलन नहीं है। कुछ व्यक्ति भंग के साथ बसंत मनाते हैं। कुछ आनंद वर्द्धन के लिए मद्यपान भी करते हैं। बुन्देलखंड के कई ग्रामों में आज भी क्विंटलों गुलाल फेक दी जाती है। नर नारी मित्र भाव से नृत्य भी करते हैं रंग और गुलाल एक दूसरे को लगाकर अपनी बुराईयां मिटाकर मिठाइयाँ खिलाते है।
गुझियों का अधिक चलन-
वैसे तो मिठाइयां कई चलती हैं परन्तु होली के इस बसंत में अधिकांश घरों मे गुझियां खिलाकर एवं रंग गुलाल लगाकर स्वागत करते हैं। प्रत्येक नर नारी बसंत के उत्सव में एक अनोखा उल्लास लिए दिखाई देता है। कीचड़ गोबर आदि का प्रयोग- फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को होलिका दहन के उपरान्त प्रातः होली धुरेड़ी होती है। इस दिन भक्त प्रस्लाद के बच जाने व हिरणकश्यप की बहिन होलिका को जल जाने की खुशी में मदमस्त होकर नालियों का कीचड़ गंदा पानी गोबर आदि एक दूसरे पर उड़ेलकर आनंद प्रकट करते है।
बुन्देली बसंत में लोक गीत गायन- ऋतु राज के इस मौसम में जन सामान्य भी अपना सारा दुःख भूलकर प्रसन्न दिखाई देता है। प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में गुलाल दिखाई देती है। ऐसे सुहावने समय में, गायक बृन्द, झीका, मंजीरा, कसाबरी, ढोलक, झाझे, हारमोनियम आदि साज बाज के साथ मंडिलियों में अपने लोक गीत गायन करते हैं। इन लोक गीतों में असीम आनंद की वर्षा होती है।
इस समय फाग, चौकड़ियां, फाग छदयाऊ, कहरवा, होरी, ख्याल आदि की प्रमुखता रहती है। कोई भी मंडली हो पहले अपने इष्ट की वंदना गाते हैं। बुन्देलखंड के प्रसिद्ध लोक कवि ‘ईसुरी’ जी ने पहले सरस्वती को मनाया है जो इस प्रकार है।
मोरी खबर शारदा लइये, कंठ बिराजी रइये ।
मैं अपड़ा अक्षर नई जानत, भूली कड़ी मिलइये ।।
तोरे डेरा हिंगलाज में ह्या लो फेरी दइये।
‘ईसुर’ कात शत्रु के बाने, हमें छीन के लइये ।।
प्रायः सभी गायक पहले श्री गणेश वंदना से करते। बुन्देली के आशु कवि स्व. श्री राम सहाय कारीगर प्रारंभ में एक दोहा से बंदना करते हैं दोहा-
श्री शारदा आन के, कर कंठन स्थान ।
ये जनती हरि के चरित, करन चहों कुछ गान ।।
शैर- अज्ञान जान जननी दै जन को ज्ञाना ।
दै जोर कड़ी छंद शैर सुनें सुजाना ।।
बुन्देली बसंत का लोक प्रिय नृत्य- मानव जीवन में मनुष्य को यदि वह दिन रात लगा रहे तो भी उसे समय नहीं है। व्यस्ततम जीवन की दिन चर्या में तीज त्योहारों को बीच-बीच में जोड़ा गया है ताकि मानव अपने जीवन को आनंद मय बना सके । वसंतोत्सव की इसी श्रृंखला में बसती गीतों में फाग होती है। इसे छंदशास्त्र के अनुसार (नरेन्द्र छंद) कहा जाता है ।
फाग गायन में राई नृत्य बड़ा लोक प्रिय है। इस राई नृत्य में नर्तकी बेड़नी कहलाती हैं। वह अतीव सुन्दर व आकर्षक वेश भूषा में हज्जारों व्यक्तियों के दंगल में नृत्य करती है। लांगा, चुन्नी, घुंघरू मय उसकी पोशाक होती है। वह मधुर, आकर्षक आवाज की गायिका भी होती है जो पुरुष वर्ग के साथ-साथ गायन करती है तथा पुरुषों से जबाबी गाना कहरवा व फाग गाती है।
बेड़नी एक, दो, चार भी साथ-साथ नृत्य गायन कर सकती है। इस गान तान में दर्शक श्रोताओं को असीम आनंद की प्राप्ति होती है। बुन्देलखंड का प्रसिद्ध यह राई नृत्य भारत में जिन प्रान्तों में जाता है बड़ा पसंद किया जाता है, राई के साथ वसंतोत्सव को आनंद से मनाते हैं । इस उत्सव के मनाने में अपने व्यस्त जीवन के समस्त दुःख-सुख भूल जाते हैं। कुछ लोग भंग कुछ नशा शराब का सेवन करके बड़ी मस्ती में झूम-झूम कर फाग राग गाते हैं बेड़नी अपनी फिरकी लगाकर नृत्य द्वारा सबका मन हर लेती है।
बसंत का जीव जंतुओं पर प्रभाव-
ऋतुराज के इन दिनों में समस्त जीव जन्तु एक विशेष प्रकार का अनुभव करते हैं। लताओ बेलों का वृक्षों से लिपटना सेमर और पलाश के पुष्पों का सिंदूर बांटना, भ्रमरों की गुंजार, फूलों का खिलना, आम व महुओं की मादक गंध सभी जीव जन्तुओं में कामोद्दीपन का संचार करती है। मानिनी नायिकायें अभिसारिका बनने लगती हैं। अंगड़ाईयां लेकर कंत से प्रेम का इजहार करती है। चिड़ी-चिड़े भी एक दूसरे से प्यार करते दिखाई देते हैं। अंडों से बच्चे निकालकर अपने चेनुवों को उड़ना सिखाती हैं। एक नायिका मुग्धा है जो अपने प्रिय से कहती है
जो तुम छैल छला हो जाते, परे उंगरियन राते ।
मों पोंछत गालन से लगते, कजरा देत दिखाते ।।
घरी-घरी घूघट खोलत में, नजर के सामू राते ।
‘ईसुर’ दूर दरस के लानें, ऐसे काय ललाते ।।
कहने का तात्पर्य है कि बसंत में अपने प्रेमी को एक पल के लिए भी दूर नहीं देखना चाहती है। । सभी जगह उल्लास व प्रकृति का हर स्थान लावण्यमय दिखाई देता है।
इस प्रकार से बुन्देली बसंत में स्वर्गिक वातावरण बन जाता है सर्वत्र हास परिहास रंग गुलाल, पिचकारी, रंग में रंगे लोग, देवर-भावी मित्रों की होली खेलने का ढंग आदि बुन्देलखंड में बसंती मौसम में चार चांद लगा देता है। पद्माकर कवि जी कहते हैं’
कूलन में कैलि में, कछारन में, कुंजन में,
क्यारिन में, कलिन-कलिन किलकत है ।
कहें पद्माकर परागन में, पौन टू में,
पानन में, पीक में, पलासन पगंत है।
द्वारन, दिसान में, दुनी, देश-देशन में,
देखो, दीप-दीपन में, दीपत दिगंत है।
बीधिन में ब्रज में, नबेलिन में, बेलिन में,
बनन में, बागन में, बगरी बसंत है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि बुन्देली बसंत सब प्रकार से बुन्देली क्षेत्र में अनोखे आनंद की सृष्टि करता है व मन प्रसन्न कर देता है।
डॉ. डी. आर. वर्मा
बैचेन’ पी.एच.डी. पूर्व प्राचार्य अखंडानंद जनता इंटर कॉलेज, गरोठा (झासी) उ० प्र० उ.प्र.हिन्दी संस्थान लखनऊ से राज्यपाल द्वारा राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त नामित पुरुष्कार प्राप्त