लोक साहित्य (Folklore) लोकभाषा का वह साहित्य है, जो अपने अन्तर्निहित लोकत्व के कारण लोकमान्य होकर लोकगृहीत हो गया हो और लोकमुख में जीवित हो। Bundeli Ka Lok Sahitya में लोकत्व के वे प्रमुख गुण है, जो साहित्य को लोकसाहित्य के रूप में ढालने की अद्भुत क्षमता रखता है।
बुन्देलखंड का लोक साहित्य
जिस तरह साहित्य की अनुभूति के तीन पक्ष भाव, विचार और कल्पना होते हैं, उसी प्रकार लोकसाहित्य की लोकानुभूति के लोकभाव, लोकविवेक और लोककल्पना, तीनों का अस्तित्व महत्त्वपूर्ण है। लोकभाव लोकरचना का केन्द्रीय तत्त्व है, जबकि लोकविवेक से पुष्टि (confirmed) होकर वह विविधता, व्यापकता और सघनता पाता है।
लोकविवेक और लोककल्पना का स्तर लोक के अनुरूप रहता है। अगर ध्यान से परखा जाए, तो लोकभाव दोनों तत्त्वों लोकविवेक और लोककल्पना की अपेक्षा अधिक मात्रा में रहता है। इसीलिए लोककाव्य में भावुकता की प्रधानता और अधिकता रहती है। लोकगाथाओं में तीन तत्त्वों में बहुत कुछ सन्तुलन रहता है। जबकि लोककथाओं में लोकविवेक की अनिवार्यता उसके महत्त्व को बढ़ा देती है।
बुंदेली लोक साहित्य का वर्गीकरण
Bundeli Lok Sahity Ka Vargikaran
बुन्देलखंड जनपद जितना विशाल है, उतना ही समृद्ध भंडार है लोक साहित्य का। इसी प्रकार यहाँ के लोक की विविधता के कारण लोकसाहित्य भी विविधता के रंगों से रंजित है। मोटे तौर पर लोकसाहित्य की सम्पदा का वर्गीकरण निम्नानुसार किया जा सकता है।
विधागत वर्गीकरण
A- लोककाव्य Folk Poetry
जिसमें लोकगीत (Folk Song) और लोकगाथाएँ (Folk Tales) दोनों सम्मिलित हैं।
B- लोककथा Folk Story
C- लोकनाट्य Folk Drama
D- लोकोक्ति-
जिसमें कहावतें Proverb और पहेलियाँ Puzzlesसम्मिलित हैं।
विषयगत वर्गीकरण
A- पारिवारिक- सामाजिक लोक साहित्य Family – Social Folk Literature
B- ऐतिहासिक- राजनीतिक लोक साहित्य Historical- Political Folk Literature
C- औद्योगिक- आर्थिक लोक साहित्य Industrial-Economic, Folk Literature
D- लोकोत्सवी धार्मिक लोक साहित्य Folk festival religious folk literature
E- लोकरंजक लोक साहित्य Entertaining folk literature
F- रीतिरिवाज संस्कृति-परक लोक साहित्य Custom-Cultural Oriented Folk Literature
G- लोकोक्ति नीति-परक लोक साहित्य Proverb Policy Oriented Folk Literature
निर्वैयक्तिकता impersonality
निर्वैयक्तिकता का अर्थ है व्यक्तित्व का सर्वथा अभाव। लोकसाहित्य की रचना-प्रक्रिया में रचनाकार दो रूपों में भाग लेता है एक सदय (भोक्ता) के रूप में और दूसरा रचनाकार (सृष्टा) के रूप में। दोनों रूप लोकत्व के धर्म को धारण करने के कारण लोकमय रहते हैं और उनकी अनुभूति से व्यक्तित्व बिल्कुल विसर्जित हो जाता है।
तुलसी दास या सूरदास की रचना भले ही लोकप्रिय होकर लोकमुख में आ गई हो, पर उसमें तुलसी या सूर का व्यक्तित्व अंतर्निहित (Embedded) रहता है। लोकगीत गाने-सुनने से गायक या गायकों का आभास होता है। विवाद के मुद्दे दो हैं। पहला है समूचे लोकसाहित्य को लोकरचित मानना। इसके समर्थक कुछ लोकगीतों का उदाहरण दे सकते हैं, जिनमें गीत की एक कड़ी कुछ प्रचलित शब्दों के साथ दोहराई जाती है। एक उदाहरण…..
अबेरे दूला काये सजे महराजा ?
बना के आजुल कौ भारी परवार सजत बेरा हो गई महाराज।
बना के काबुल कौ भारी परवार सजत बेरा हो गई महाराज…।
इसी तरह फूफा, ननदेउ और न जाने कितने नातेदारों के नाम जोड़कर काई भी गायक गा सकता है। यदि ऐसे गीतों को लोकरचित कहा जाता है, तो क्या इनके आधार पर पूरा लोकसाहित्य लोकरचित माना जाता उचित है ? कुछ लोकगीतों में लोककवियों के नामों की छाप पड़ी है और वे लोकगीत पारम्परिक मान्य होकर गाए जाते रहे हैं,
लोक साहित्य में परिवर्तन या परिवर्द्धन (Addition) की पूरी छूट है, पर यह सही नहीं है। एक पारम्परिक लोकगीत गाते समय यदि गायक-गायिका की भूल से एक शब्द भी बदलता है, तो दूसरा गायक- गायिका टोककर सही शब्द की याद दिला देते है। संस्कारिक भारतीय परिवारों में हर महिला को गीत सीखने और याद करने की ललक होती है। हर परिवार में बच्चों को याद करने की आदत डालने के लिए अभ्यास कराया जाता है, इस लिये बड़े होने पर लोकगीत बहुत जल्दी याद हो जाते हैं। साथ ही उन गीतों के अभ्यास के लिए उचित अवसर भी बार-बार आते हैं।
लोक वाचिकता Verbally/Orally
लोकसाहित्य का प्रमुख तत्त्व उसकी लोकवाचिकता है, जिसका अर्थ है उसका मौखिक परम्परा Oral tradition में जीवित रहना। लोकसाहित्य लोकमुख में ही रहता है और उसकी गतिशीलता मौखिक प्रसारण में है। वाचिकता तो परिनिष्ठित साहित्य में भी होती है, क्योंकि उसमें वही साहित्य आता है, जिसमें वक्ता का श्रोता से सीधा सम्बन्ध हो। लेकिन समूचे लोकसाहित्य में गायक या वक्ता श्रोताओं से सीधे साक्षात्कार द्वारा जुड़ता है और वाचिकता उसका अनिवार्य तत्त्व है।
लोकवाचिकता में इतनी शक्ति है कि एक जनपद से दूसरे जनपद तक यात्रा करते हुए देशभर को जगा देती है। बुन्देलखंड की आल्हा और हरदौल गाथाएँ पूरे उत्तर भारत में ही नहीं, देश के अधिकांश भागों में यात्राएँ कर चुकी हैं और हर जनपद की लोकभाषा में जीवित होकर वहीं की हो गई हैं। इसी तरह ब्रज के कृष्णपरक आख्यानक गीतों (folk songs based on krishna) और अवध की रामपरक गाथाओं (folk songs based on Rama) ने कई जनपदों को प्रभावित किया है।
सार्वभौमिकता Universality
लोक साहित्य जनपदों की अपनी-अपनी लोकभाषाओं में होते हुए और जनपदीय संस्कृतियों को अपनाकर भी केवल अपने जनपदों तक सीमित नहीं रहता, वरन् क्षेत्रीयता की दीवारें लाँघकर सर्वदेशीय (Cosmopolitan) हो जाता है। असल में, लोकसाहित्य उन मानवीय लोकभावों और लोकानुभूतियों का साहित्य है, जो सार्वभौमिक (Universal) हैं।
भाई-बहिन, ननद, भौजी, माता-पुत्री, पति-पत्नी, सास-बहू, पिता-पुत्रा, प्रेमिका-प्रेमी आदि के सम्बन्धों और खासतौर पर उनमें निहित भावनाओं का चित्रण सब जगह एक-सा है। इसी प्रकार हर जनपद के गीतों के विषय, विम्ब या चित्र, प्रतीक और शैलियाँ भी एक समान हैं। हर जनपद का लोकसाहित्य एक कालविशेष में एक-सी वस्तु और शिल्प का प्रयोग करता रहा है।
यह बात अलग है कि लोकभाषा की भिन्नता और स्थानीयता कुछ कठिनाई उत्पन्न करती हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि इस निजता के कारण उतपन्न विविधताओं के होते हुए भी उनमें अन्दरूनी एकता है। ऐसे लोकसाहित्य पर क्षेत्रवाद का आरोप मढ़ दिया जाता है, जबकि वह भारतीय साहित्य के एक अंग के रूप में ही अपनी निजता बनाए रखता है।
जिस तरह बुन्देली भाषा भारत का एक अंग है, ठीक उसी तरह उसका लोकसाहित्य भी। जनपदीय लोकसाहित्य में भारत की आत्मा रहती है और देश के सुख-दुख में जब भी जरूरत होती है, लोकसाहित्य उसमें साथ देता है। इस तथ्य का साक्षी है राष्ट्रीय लोकसाहित्य, जो देश की गुलामी के खिलाफ अपनी गायकी द्वारा आक्रमण करता रहा।
लोक साहित्य की गत्यात्मकता
Dynamism/ Dynamics
हर जनपद के लोकसाहित्य में देश और काल का महत्त्व है, क्योंकि लोकोपयोगिता (Public Utility) के मानदंड का निर्धारण देश-काल पर निर्भर है। आशय यह है कि लोक कवियों की दृष्टि तत्कालीन परिस्थितियों पर टिकी रहती है। समाज या लोक परिवर्तनशील है, इसलिए उसे वर्णित (Described) करने वाला लोक साहित्य भी गतिशील है। लोक के लिए उपयोगी लोकगीत तब तक ताजा रहता है।
आवश्यकता के कारण लोकगीतों का जन्म होता है और लोकमुख में आते ही यौवन शुरू होता है। कभी-कभी सैकड़ों वर्ष की आयु पाकर भी वह पुराना नहीं होता। परिनिष्ठित साहित्य की तरह उसके शब्द बासी नहीं होते। फिर भी कोई नियमितता या निश्चितता और नियमबद्धता को लोकसाहित्य में स्थान नहीं है। ठहरे जल की गतिहीनता उसे सह्य नहीं, वह तो निर्झर की गतिशीलता के प्रवाह का हामी है।
लोक साहित्य की पारम्परिकता
Traditionality of Folk Literature
लोकसाहित्य में लोक परम्परा से पहचान की अपार क्षमता है। चाहे वस्तु हो या शिल्प, दोनों में परम्परा का निर्वाह सहज रूप में होता रहता है। शर्त यह है कि वह परम्परा लोकोपयोगी हो और लोकप्रचलन में भी हो। लोकसाहित्य के विषय लोक से गृहीत होते हैं, इसलिए लोकप्रचलित परम्पराएँ उसकी वस्तु बनते हैं।
लोकसंस्कार (Folk Ritual) और लोकोत्सवों (Folk Festivals) की परम्पराओं के उदाहरण सम्बंधित लोककाव्य में विद्यमान हैं। परम्परित सूक्तियाँ और शब्दावली दोहराने के अनेक साक्ष्य भी मिलते हैं। कंचन, कलश, मुतियन चैक, चन्दन पटरी, चैमुख दियरा, सोने को गड़ुआ, गंगाजल पानी, ताती जलेबी, दूध के लडुआ आदि न जाने कितने लोकगीतों में बार-बार आए हैं।
इन पारम्परिक प्रयोंगों का अर्थ लोक द्वारा आसानी से समझ लिया जाता है। इसी कारण परम्परित प्रतीक और सूक्तियाँ दोहराने को शिल्प का गुण ही माना जाता है। जिस प्रकार जंगल के पौधों में हर बार वही पुष्प आते हैं, पर वे हर बार मोहक होते हैं, ठीक उसी प्रकार पारम्परिक प्रयोग हर बार अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं।
लोक साहित्य की सामाजिकता
Sociality of Folk Literature
लोकसाहित्य का मनुष्य, सहज और निश्छल लोकमनुष्य है। इसमें कुंठा या दुराव-छिपाव नहीं है। उसे कोई भी मनोग्रन्थि या मनोविकृति नहीं जकड़ती। वह जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर। इसी कारण उसे लोकमनुष्य कहना उचित है। यदि कोई लोकादर्श या लोकहित के लिए अपने को निछावर कर देता है अथवा कोई लोकमूल्य स्थापित करता है, तो वह लोकसाहित्य की वस्तु बन जाता है। लोकमानस में छा जानेवाला व्यक्ति लोक का विषय होने से लोकसाहित्य में स्थान पा लेता है।
गहराई से विचार करें, तो लोकसाहित्य में वैयक्तिक व्यक्ति का लोकव्यक्ति के रूप में ही ग्रहण किया जाता है और दैवी व्यक्तित्वों या देवों का अपना दैवीपन या देवत्व दौड़कर लोकमानवीय भूमिका में उतरना पड़ता है। एक तरफ आल्हा- दल, जगदेव या जगद्देव, हरदौल और गांधी जैसे व्यक्ति हैं, तो दूसरी तरफ शिव, राम, कृष्ण, पार्वती, सीता, दुर्गा, कौशिल्या, यशोदा आदि दैवी व्यक्तित्व हैं। लोकसाहित्य दोनों को लोक के साँचों में ढालकर ही अपनाता है।
अक्सर लोकसाहित्य में अंकित समाज पर सामन्ती होने के आरोप मढ़े जाते रहे हैं, जबकि वह समाज में किसी मतवादी दृष्टि से अछूती रही है। उसमें उसी समाज का चित्रण है, जो तत्कालीन लोक में जीवित है।
लोक साहित्य में मांगलिकता
(Auspiciousity/ Auspicious)
लोकमंगल ही लोकसाहित्य का प्रधान उद्देश्य है। वह लोकहित के लिए ही गाया या कहा जाता है और तन्मय होकर उसे सुनने से मन उल्लसित रहता है। लोककथाओं में अपार पीड़ा,ईष्र्या-द्वेष, प्रतिहिंसा, कलह, संघर्ष आदि के बाद अन्त में मांगलिक भरत वाक्य रहता है, जिसका तात्पर्य लोककल्याण ही है। हर लोककथा की अन्तिम पंक्तियाँ कुछ निम्न प्रकार होती हैं…
‘जैसी (उनकी) मंसा पूरी करी, ऐसई करियौ।’
‘जैसी (उनकी) लाज राखी, वैसई सबकी राखियौ।’
‘जैसो उनें आनन्द भओ, बैसई सबखों होय।’
लोककाव्य में सरसुती, महादेव तथा अन्य देवों की स्तुति का भी समावेश हुआ है। स्थानीय लोकदेवी और लोकदेवता की भक्ति में भी लोककाव्य रचा गया है। उन भक्तिपरक गीतों और गाथाओं में लोकमंगल की भावना रही है। वस्तुतः लोकसाहित्य में लोकानुभूति की लोकाभिव्यक्ति होती है, अतएव उसमें लोकमंगल की ही अनुभूति काम करेगी, व्यक्तिगत मंगल की नहीं। यही कारण है कि लोक की सारी पीड़ाएँ लोकमंगल में पर्यवसित हो जाती हैं। लेकिन सहृदय या श्रोता पूरी तन्मयता से लोककाव्य या लोकसाहित्य का आस्वादन करे।
लोक साहित्य मे मूल और प्रकृत का प्रयोग
लोकसाहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि उसमें हीत विषय, घटनाएँ, पात्रा, वातावरण , रंग, शैलियाँ, लय आदि मूल होते हैं, क्योंकि कल्पित के लिए कोई स्थान नहीं होता। वस्तुतः लोकसाहित्य प्रकृत साहित्य है, बनावटी का उपभोगी नहीं। लोकजीवन में जो कुछ प्रत्यक्ष है, वही लोकसाहित्य की वस्तु बनता है।
परिष्कृत Refined साहित्य विशिष्ट का चयन करता है, पर लोकसाहित्य हर क्षेत्र को लेता है। भले-बूरे, सीधे-टेढ़े और सभी उसे स्वीकार्य हैं, लेकिन देश-काल का ध्यान उसकी प्राथमिक विशेषता है। मनुष्य को सर्वाधिक महत्त्व देने और मूल्यों को प्रतिपादित करने में लोकसाहित्य अग्रणी रहा है, क्योंकि उसने मनुष्य से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों को वाणी दी है।
लोकसहज शिल्प
Simple Craft in Folk
लोकाभिव्यक्ति किसी शिल्प-कौशल की इच्छा नहीं रखती, यह बात अलग है कि समीक्षकों ने उसमें शिल्प परखने का प्रयास किया है और लोकछन्दों, उपमानों, प्रतीकों, मिथकों आदि की खोज कर ली है। लोकसाहित्य का शिल्प अनगढ़ होता है, उसमें किसी कृत्रिम बुनावट की गुंजाइश नहीं होती। अभिव्यक्ति का लोकसहज रूप ही उसका लक्ष्य होता है।
लोकसहजता से तात्पर्य है प्रकृत या स्वाभाविक। उदाहरणार्थ गोचारण करनेवाले गायक हिंसक जानवर के कारण तारसप्तक स्वरों में दिवारी गीत गाकर अपनी उपस्थिति का पता देते हैं। लोकगीतों की लयों की उतपत्ति या तो श्रम की गति के अनुरूप हुआ है या मानवीय भावों और प्रकृति के अनुकूलित अभिव्यक्ति देने के लिए।
शिल्प के उपकरण और अलंकरण द्वारा लोकसाहित्य को सजान-सँवारने में रत्तीभर आग्रह दृष्टिगत नहीं होता। जो कुछ सहजतः एवं स्वतः गीतों या कथाओं में आ गया है, वही उनकी धरोहर बन गया है। वह भी लोकभावों और लोकसंवेदना को व्यक्त करने के उद्देश्य से ग्रहण किया गया है।
वैसे तो लोकभाषा के शब्दों, उपमानों, मिथकों, प्रतीकों आदि ने परिनिष्ठित साहित्य के शिल्प को हर युग में नई ताजगी दी है। संक्षेप में, लोकसाहित्य का अनायासित, किन्तु लोकसहज शिल्प ही कविता का आदर्श शिल्प है।
लोक साहित्य की संगीतात्मकता
Musicality of folk literature
लोकसंगीत के अनुशीलन से स्पष्ट है कि संसार का आदिम संगीत लोकसाहित्य में ही बचा है। आदिम संगीत से लेकर आज तक का संगीत लोकसंगीत का ऋणी है। लोकसाहित्य का लोकसंगीत प्रकृति से फूटकर अपने प्रकृत रूप में तरंगायित रहा है। बुन्देलखंड की गहनई और कारसदेव की लोकगाथाएँ कथनशैली अपनाकर भी सांगीतिक लय को स्पर्श करती हैं।
वैसे समूचा लोककाव्य लयात्मक माधुर्य से बँधा है। विषयानुरूप ओज और करूण भी है। राग-रागनियों से मुक्त लोकसंगीत लोकभाव के प्रवाह का संगीत है, जिससे लोकगीतों की भावुकता गतिशील और मधुर बनी रहती है। भाव और कल्पना की स्वच्छन्दता के अनुरूप लोकधुनें भी मुक्त होकर विचरित है। लोकसंगीत की मुक्तता, सहजता और सरलता ने लोकसाहित्य से आत्मिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, इसलिए संगीतात्मकता उसका अनिवार्य तत्त्व बन गई है।
लोक साहित्य मे वैचारिक निरपेक्षता
Ideological Absolutism in Folk Literature
लोकसाहित्य की लोकसंवेदना में विचार-तत्त्व लोकविवेक के रूप में होता है, लेकिन वह किसी विशिष्ट दर्शन, धर्म और मतवाद से प्रभावित नहीं होता। लोकविवेक ऐसा आश्चर्यजनक संघटन है, जिसमें सभी प्रकार के दर्शन, धर्म और वैचारिक मतवाद अपनाविशेषता और कट्टर दृष्टिकोण त्यागकर सामान्य रूप में घुलमिल गए हैं।
यदि समीक्षक लोकगीतों या गाथाओं के टुकड़ों अथवा लोककथाओं के उद्देश्य के आधार पर लोकसाहित्य को किसी विशिष्ट दर्शन, धर्म और वैचारिक मतवाद के खेमे में रखता है, तो यह प्रक्रिया वैज्ञानिक नहीं है। इतना अवश्य है कि ऐसे उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि तत्कालीन लोक ने उनको लोकोपयोगी मानकर आत्मसात कर लिया है।
लोकसाहित्य मे लोकरस
Folk Rasa (Entertainment) in Folk Literature
लोकसाहित्य के लोकरस का आनन्द लोकानन्द है, जिसे एक व्यक्ति नहीं, वरन् लोक सामूहिक रूप में एक समान अनुभूत करता है। परिष्कृत साहित्य की रचना में अर्थ-बोध एवं सहृदय के स्तर की समस्या रहती है, अतएव उसकी रसानुभूति में बाधक तत्त्व भी रहते हैं।
लोककृति में लोकभाव और लोकविवेक तथा उनकी संयोजक लोककल्पना, सभी पहले से ही लोकीकृत रहते हैं। लोकसाहित्य में लोकभाव की भावुकता लोकविवेक की वैचारिकता से अधिक प्रभावी होती है। यहाँ तक कि कुछ रचनाओं में लोकोविवेक न्यून रहता है केवल लोकभाव ही अपने प्रवाह से लोक वृति को बाँधे रखता है।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल