Surhin Gatha सुरहिन गाथा-लोकगाथा परिचय

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Surhin Gatha सुरहिन गाथा
Surhin Gatha सुरहिन गाथा

बुन्देलखण्ड मे Surhin Gatha सुरहिन गाथा प्रायः नवरात्रि के अवसर पर गाई जाती है। गाथा के बीच-बीच में हर-पंक्ति में माँ को संबोधित किया जाता है। बुंदेली लोक-वाद्यों के साथ इस गाथा का गायन अधिक रोचक प्रतीत होता है। यह लोक गाथा आदिकाल जैसी प्रतीत होती है। गाथा में वनराज ‘सिंह’ के आधिपत्य और उसके शासन-क्षेत्र की विस्तृत चर्चा है। वह जंगल में प्रविष्ट होने वाले पशुओं का भक्षण करके पेट भरता था।

बुन्देलखण्ड की लोक गाथा -सुरहिन गाथा 

सुरहिन की गाथा समाज में कालान्तर से जुड़ी हुई है। इसमें बुंदेली के विविध सांस्कृतिक स्वरूपों के दर्शन होते हैं। गाय हमारी संपूर्ण सांस्कृतिक अवधारणाओं का प्रतीक है। गाय हमारी माता, रक्षक और अंत में मोक्ष-दायिनी है। भारतीय समाज इसके अनंत उपकारों से कभी उऋण  नहीं हो सकता।

इसमें सभी देवताओं का निवास माना जाता है। साहित्यिक दृष्टि से इस गाथा में वात्सल्य भाव दिखाई देता है। इस गाथा में पारिवारिक सम्बन्धों का भलीभाँति निर्वाह किया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि देवी, सिंह, वासुकी आदि का वर्णन इस काल में रूपान्तर का आभास है।

दिन कँगन किरन की फूटन, सुरहिन वन खौं जांय हो मांय।
इक वन चाली सुरहिन दूजे वन चाली, तीजे वन पौंची जाय हो मांय।
कजरी वन चंदन-वारे  बिरछा, जां सुरहिन मौं डारो हो मांय।
इक मौं घालौ सुरहिन दूजौ मौं घालौ, तीजौ मौं सिंघा हुंकारो हो मांय।
अबकी चूक बगस मोरे सिंघा,घर बछरा नादान हो मांय।

यह सुनकर सिंह सुरहिन से जमानतदार मांगता है…
सिंह- आवत-जावत सुरहिन गइया, को है तोरे जमान हो मांय।
सुरहिन- चंदा-सूरज मोरे लागैं लगनियां, वन के बिरछा जमान हो मांय।

सिंह ने कहा कि-चंद्रमा और सूर्य तो उदय और अस्त होते हैं और वृक्ष मुरझा जाते हैं। ऐसी स्थिति में इन्हें साक्षी बनाना उचित नहीं है। सिंह ने कहा कि…
सिंह- चंदा सूरज दोँगैं अथैवौ,

वन-बिरछा मुरझांय हो मांय।

सुरहिन- धरती के वासुक मोरे लागैं लगनियां,
धरती मोरी जमान हो मांय।

जब सिंह संतुष्ट हो जाता तो वह सुरहिन को घर जाने की आज्ञा देता है। सुरहिन बढ़ती हुई अपने बछड़े के पास पहुँचकर कहती है…
इक वन चाली सुरहिन दूजे वन चाली, तीजे में बगर रंभानी हो मांय।
वन की हिरानी सुरहिन  बगरन  आई, बछरे राँभ सुनाई हो मांय।
आऔ-आऔ बछरा पीलो मोरौ दुदुवा, सिंघें बचन दै आई हो मांय।

बछड़ा- बचन कौ बाँदौ दुदुआ न पीहौ मोरी माता, चल हों तुमाये संग हो मांय।
आगे-आगे बछरा पीछे-पीछे सुरहिन, दोउ मिल वन खौं जांय हो मांय।
इक वन चाली सुरहिन दूजी वन चाली, तीजे वन पौंची जाय  हो  मांय।
उठ-उठ हेरैं वन-वारौ सिंघा, सुरहिन अभंन आई हो मांय।

उन दोनों को दूर से आता हुआ देखकर वह सिंह मन ही मन सोचता है…
बोल की बांदी, वचन की साँची, एक गई दो आई हो मांय।

वे दोनों आकर सिंह के ही सामने खड़े हो जाते हैं। सर्वप्रथम बछड़ा सिंह को मामा का संबोधन करता हुआ कहता है…
बछड़ा – पैलें ममैया हमई खौं भख लो, पाछे हमाई माई हो मांय।

यह सुनते ही सिंह आश्चर्यचकित होकर बछड़े से पूछता है…
सिंह- कौने भनेंजा तोय सिख बुध दीनी, कौना लगे गुरू कान हो मांय।
बछड़ा- देवी जालपा मोय सिख बुध दीनी, वीर लंगुर लगे मोरे कान हो मांय।

सिंह इतना सुनते ही उसके तो मामा के सम्बन्ध स्थापित करने और माँ जालपा को मार्ग दर्शिका सिद्ध करने से वह एक हिंसक सिंह इतना अधिक प्रभावित हो जाता है कि वह उसी दिन से हिंसा न करने की प्रतिज्ञा ले लेता है और सारा का सारा कजरी वन सुरहिन को चरने के लिए ही छोड़कर चला जाता है। वह जाते समय कहता है…
सिंह- कजरी वन मैंने तोइखौ दीनौ, छुटक चरों मैंदान हो मांय।
सौ ग आगैं सौ ग पाछैं, होओ बगर के साँड हो मांय।

इस बुंदेली गाथा में कितने सुंदर ढंग से मानवीय भावों का संप्रेषण हुआ है। अन्य भाषाओं के साहित्य में इस प्रकार के भाव कम ही प्राप्त होते हैं। हमारी सामाजिक, धार्मिक व सास्कृतिक विचारों की अवधारणओं की पुष्टि इस छोटी सी गाथा में लोक कवि ने एक जगह ही प्रस्तुत कर दी है। सुरहिन देवताओं की रक्षित माता के समान है।

इसी आधार पर आज भी गाय हमारी माता, जीवन-रक्षिका और पुष्टिदायक मानी गई है। उसी प्रकार वृक्ष हमारे देवता के समान हैं। इसी आधार पर सुरहिन ने वृक्षों को अपना साक्षी बनाया है। सिंह आश्चर्यचकित होकर बछड़े से पूछता है कि तुझे यह शिक्षा किसने दी है? बछड़े ने तुरन्त कहाकि- मुझे यह ज्ञान और शिक्षा देवी जालपा और लंगुरा देव ने दी है। सुनते ही सिंह संतुष्ट हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जिस पर माँ जालपा की कृपा होती है, उसका सिंह भी बाल बाँका नहीं कर सकता।

यही कारण है कि इस गाथा का गायन नवरात्रि के अवसर पर किया जाता है। यह एक प्रकार का देवीजी का प्रिय भजन भी है।

बुन्देलखण्ड में मामा का रिश्ता पूर्ण पवित्र और पुण्यकारक माना जाता है। हर मामा अपने भांजे-भांजियों को अपनी संतान से भी बढ़कर मानता है। शादी-विवाह के अवसर पर मामा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। मामा के बिना वैवाहिक कार्यक्रम अपूर्ण माना जाता है। लाला हरदौल भी प्रेत रूप में अपनी भांजी के विवाह में सम्मिलित हुए थे। यही कारण  है कि वैवाहिक कार्यक्रम में हरदौल की पूजा अनिवार्य है।

कंस, माहिल और शकुनि जैसे मामाओं ने इस पुनीत संबंध को कलंकित किया है। मनुष्यों की तो बात ही अलग है, हिंसक पशुओं में भी इस संबंध के प्रति आदर भाव होता है। सिंह अपने आपको सुरहिन का भाई और बछड़े का मामा मानकर अपने आप अहिंसक हो गया। उसकी हिंसात्मक प्रवृत्ति अपने आप समाप्त हो गई।

उसने सुरहिन और बछड़े के चरणों पर मस्तक रखते हुए कहा कि हे बहिन! तुम धन्य हो। आपने अपने वचनों का परिपालन किया। दूसरे आज से आप हमारी बहिन हो चुकी हैं। अब आज से आप इस कजरी वन में निश्चिंत होकर विचरण कीजिएगा।

कजरी वन मैंने तो तोई खौं दीनों, छुटक चरो मैदान  हो  मांय।
सो ग आंगैं सौ ग पाछैं, हुइयो बगर के साँड हो मांय।

इस गाथा में बुंदेली संस्कृति का प्रभाव दिखाई देता है। इस छोटी सी लोक गाथा में गाथाकार ने हमारी सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक अवधारणओं का संप्रेषण एक साथ किया है। सुरहिन हमारी माता, जीवन रक्षिका और पुष्टिदायक मानी गई है, उसी प्रकार देव तुल्य है। गाथा में सूर्य-चंद्र, वृक्षावलि, वासुकि और पृथ्वी को प्रमुख स्थान दिया गया है। ये सब मानव जीवन के अवयव हैं। इस गाथा में मानवीय सम्बन्धों और संवेदनाओं का विराट-स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त

सुरहिन लोक गाथा परिचय