श्रम जीवन का अपरिहार्य अंग है। इसका प्रारंभ और अंत जीवन के साथ है। श्रम से थकान और थकान से कार्य में अरूचि पैदा होती है इसको दूर करने के लिए लोग Shram Ke Geet गुनगुनाते है। शहरी जीवन में कार्य में गतिशीलता लाने के लिये अनेक मनोरंजन के साधन उपलब्ध होते हैं इसके विपरीत गांव-देहात का जीवन श्रम के समय गीतों का सहारा लेता है और तब कठिन से कठिन श्रम साध्य कार्य उनके लिए काम न होकर खिलवाड़ हो जाता है।
लोक जीवन में चक्की चलाते, पानी लाते, फसलों की बुआई, सिंचाई, निराई, गुड़ाई, कटाई, मड़ाई धान की रोपाई, गाड़ी हांकते, पशु चराते, मेला-बाजार, उत्सव आदि में जाते या अन्य श्रम का कार्य करते स्त्री-पुरुष इन गीतों को गाते हैं।
सुदूर ग्राम्यांचलों में स्त्रियों द्वारा चक्की चलाने का रिवाज था । तड़के सबेरे घंटे-दो-घंटे लगातार घर के किसी कोने में वे गेहूँ पीसतीं थीं । यह कार्य अकेले अथवा दो स्त्री मिलकर करतीं । काम की थकावट को दूर करने के लिये वे गाती भी जातीं । इस प्रकार चक्की की घरघराहट, चूड़ियों की खनखनाहट तथा सुमधुर स्वर लहरियों के समवेत स्वर में गाये जाने वाले गीत वातावरण को संगीतमय बना देते हैं। चक्की चलाते समय गाये जाने वाले गीतों को “जांत के गीत” या “जतसार” कहते हैं ।
जतसार के अपने कोई गीत नहीं हैं बल्कि संस्कार, ऋतु, व्रत आदि किसी के भी हो सकते हैं। यह भी देखने में आता है कि जिस कार्य के लिये गेहूँ पीसा जा रहा है उसी से संबंधित गीत गाये जाते हैं । विवाह, यज्ञोपवीत, छठी आदि से संबंधित गीत गाए जाते है । एक चक्की गीत इस प्रकार है।
अंखियां हमारी अल्स्यानी अटरिया चलो
पहली अटरिया मोरे ससुरा परे हैं, सो होईं परी सासू रानी जू।
दूजी अटरिया मोरे जेठा परे हैं, सो होई परी जेठानी महारानी जू।
तीजी अटरिया मोरे देवरा परे हैं, सो होई परी देवरानी महारानी जू।
चौथी अटरियां मोरे सेजा लगी है, सो होई मनें रातरानी, महारानी जू ।
गांव-देहात का मुख्य श्रमस्थल खेत-खलिहान है। कार्तिक महीने में खेत की बुआई हो रही है। बैलों के गले में बंधी घुधरमाल की आवाज, हलवाहे की पुचकार और बोने वाली की मधुर कंठ से निकलती गीतों की कडियां वातावरण को रसमय बना रहीं है। ऐसे समय में खेत के पास से गुजर रहे राहगीरों के कानों में मिश्री घोलती आवाज पड़ती है –
अन बोले रहो न जाय ननदबाई बीरन तुम्हारे अनबोला।
गैया दुहाउन तुम जैयो उते बछरा खों दैयो छोर।
भौजी मोरी बीरन हमारे तब बोलें।
इस श्रंगार-सागर में राहगीर गोता लगा ही रहा होता है कि प्रत्युत्तर में दूसरे खेत से आवाज आती है –
देख होंय तो बताव री सहेलरी रातें के बीरा मोरे पाहुने।
ए बे तो एक दिन देखे मैंने दरजी की दुकनियां।
बैठे-बैठे बटुवा सुआंय री सहेलरी राते के बीरा मोरे पाहुने।
ए तो एक दिन देखे मैंने पटवा की दुकनिया।
बैठे-बैठे बटुवा में डोरा डरांय री सहेल री राते के बीरा मोरे पाहुने।
ए तो एक दिन देखे मैंने बनियां की दुकनिया।
बैठे-बैठे बटुवा में लौंगें भरांय री सहेलरी राते के बीरा मोरे पाहुने।
एक स्त्री अपनी सखी से पूछती है कि रात के अतिथि मेरे प्रिय को तुमने कहीं देखा हो तो बताओ। सखी कहती है कि – ‘एक दिन मैनें उन्हें दरजी के यहां बटुआ सिलवाते देखा था। एक दिन पटवा के यहां बटुए में डोरा डलवा रहे थे। अन्त में वह बताती है कि एक दिन मैंने उन्हें बनिये की दुकान पर देखा जहां वे उस बटुए में लौंगें भरा रहे थे।
उदाहरण के लिए एक बिलवारी गीत … ।
देहों दैहों कनक उर दार, सिपाईरा डेरा करो रे मोरी पौरी में ।
अरी हाँ हाँ री सहेलरी, कहना गये तोरे घरवारे?
कंहना गये राजा जेठ, लरकनी उंचे महल दियला जरैं
वे तो काहो ल्यावें तोरे घरवारे, काहो ल्यावें राजा जेठ।
वे तो लौंगे ल्यावे मोरे घरवारे लायची लयावें राजा जेठ।
अरी हाँ हाँ री सहेलरी, कहना गये तोरे घरवारे?
श्रम जीवन है। जीविका है। सबकुछ है। इसको चरितार्थ करती ग्राम बधूयें सच्चे अर्थों में अर्द्धंगानी कहलाने की अधिकारिणी हैं जो शीत, धूप, बरसात की परवाह न कर अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर खेत खलिहानों में कठिन श्रम ही नहीं करती वरन् पति को श्रम करने के लिए उत्प्रेरित भी करती हैं।
चैत्र में खेत की कटाई हो रही है। दिन डूब जाने के बाद भी किसान काटने वालों को छोड़ता नहीं अपितु और लम्बी कतार काटने के लिए दे दी है। चैत के चरेरे घाम से छैला सूख जायेगा यदि मैं ऐसा जानती तो अपने घूंघट की ओट में उसे छिपा लेती। सभी के घरों में दीपक जल उठे हैं। मेरे घर का किवाड़ भी नहीं खुला। इन खेत वालों का गुमान तो देखो जो दिन डूब जाने के बाद भी नहीं छोड़ते –
दिन डूबे से धरा दई लम्बी मांग, किसान भैया बेरा तो भई रे घर जावे की
मारो मारो धरम के दो हाथ कठोरया, ने पीरा ना जानी मोरे जियरा की।।
चैत के चरेरे घाम छैल की गइया रे सुखाय गई घामा में।
अरे हां रे छैल जो मैं ऐसो जानती
घुंघटा की मैं करती छाव, छैल की गइया रे सुखाय गई घामा में।
खेती बालन को बड़ो है गुमान, अबेरे दिन, डूब गये छोड़त नहइयां।।
चैत की तपती गर्मी में सारा दिन कठिन श्रम करने के बावजूद काटने वाली के इस परिहास युक्त उलाहना में श्रम को थकान नहीं वरन् गीत की तरोताज़गी झलकती है। कटाई के समय सिला बीनने से संबंधित एक गीत की बानगी देखिए –
सूरज की मुरक गईं कोर, राम जू के रथ बिलमाए काउ साधू ने।
अरे हां मोरे रसिया काहे के रथला बने, अरे काहे की लागी डोर,
राम जू के रथ बिलमाए काउ साधू ने।
अरे हां मोरे रसिया चन्दन के रथला बने, अरे रेशम लागी डोर,
राम जू के रथ बिलमाए काउ साधू ने।
अरे हां मोरे रसिया, को जो रथला बैठियो, अरे को जो हांकन हार,
राम जू के रथ बिलमाए काउ साधू ने।
अरे हां मोरे रसिया रामचन्द्र रथ बैठियो, अरे लक्षमन हाँकन हार,
राम जू के रथ बिलमाए काउ साधू ने।
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गाड़ी हांकते समय गाड़ीवानों को गीत गाते देखा सुना जाता है। ये मनमौजी होते हैं। इनका अपना कोई गीत नहीं होता वरन् समय काल-परिस्थिति को देखकर मन में जो आता है, गा उठते हैं। एक गीत इस प्रकार है।
गाड़ी बारो, गाड़ी नहीं हांके रे
गाडी नहीं हांके वो तो निरखे, मोरी मोहनी सुरतिया रे
भोहनी सुरतिया तो मैने घुंघटा में छिपा लई
का घुघटा मे छिपा लई, फिर भी निरखे
वो मरई को खोंर, मोरी ओर रे,
गाड़ी बारो, गाड़ी नहीं हांके रे
यात्रा करते समय थकान को मिटाने के लिए लोग बाग गीत गाते हैं यह गीत अत्यंत प्राचीन पर गम ना गमन का साधन सुलभ नहीं था लोग पैदल यात्रा किया करते यह गीत उस समय अस्तित्व में आए ऐसे गीतों को यात्रा गीत लमटेरा लमटेरा या बंबुलिया कहते यह गीत भक्ति श्रंगार आसपास दिया पारिवारिक सामाजिक जीवन से संबंधित होते हैं । जब आवा-गमन का साधन सुलभ नहीं था। लोग पैदल यात्राएं किया करते थे, ये गीत उस समय अस्तित्व में आये।
पीर जतारा के अबदा बड़े, रौनी के किरदार ।
अछरू माता बड़ी मड़िया की, पाठे पे लगाएं दरबार।।
खबर मोरी लैं रइयो रे
ले लइयों रे मोरे झाड़ी के बसइवा भोले नाथ रे,
खबर मोरी लैं रइयो रे
निकर चलो दै टटिया, दै टटिया हो कौने धंधे में उरझे तोरे प्रान रे,
निकर चलो दै टटिया रे
खबर मोरी लैं रइयो रे
निकर मन जोगी तो भये, जोगी तो भये, मथरा में नचावे गोपी ग्वाल रे,
निकर चलो दै टटिया रे
खबर मोरी लैं रइयो रे
नरबदा महया उलटी तो बहें, उलटी बहे तिरबेनी की बह रई सूधी धार ,
नरबदा महया उलटी तो बहें
खबर मोरी लैं रइयो रे
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धीरें चलो मैं हारी लछमन, धीरे चलो मैं हारी।
एक तो हारी दूजे सुकमारी, तीजे मजल की मारी।
सकरी गलियां कांट कटीली फारत है तन सारी ।
गैल चलतन मोय प्यास लगत है दूजे पवन प्रचारी ।
धीरे चलो मैं हारी लछमन धीरें चलो में हारी।
इस गीत में वनपथ पर चलती सीता थक कर निढाल हो गई हैं। वे लक्ष्मण से धीरे-धीरे चलने का आग्रह करती हुई कहती हैं कि एक तो मैं थकी हूँ दूसरे अति सुकुमारी हूँ तीसरे मंजिल का पता हीं। संकरे पथरीले रास्ते की कटीली झाड़ियों में उलझकर मेरी साड़ी तार-तार हुई जा रही है। प्यास से मेरा गला सूख रहा है ऊपर से तेज हवाएं चलने में मुझे बाधा पहुंचा रही हैं। लगता है यह सीता की थकान न होकर उस भावज की थकान है जो सीता के बहाने अपनी थकान की चर्चा साथ चलते अपने देवर से कर रही है तथा इस लोकगीत से अपनी थकान का परिमार्जन करती सी जान पड़ती हैं।
Very nice content you have put many many congratulations
ab ye geet bahut kam sunane ko milte hai .bahut hi sahitiyik rachna thank you.