Varna Aur Jati Pratha भारतीय संस्कृति में वर्णऔर जाति प्रथा

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By admin

भारतीय समाज चार वर्णों वाले विभाजन पर आधारित है , यही कारण है कि Varna Aur Jati Pratha भारतीय समाज मे पूर्णता समाहित है जिसमें जन्म और वंश का महत्व था। अथर्ववेद के रचनाकाल तक चातुर्वण्य व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी। चौथा वर्ण शूद्र आर्यों के वर्णक्रम में बड़े पैमाने पर द्रविड़ों के प्रवेश से रूप ग्रहण करने लगा था। बाद में विभिन्न वर्णों के वैवाहिक और अवैवाहिक सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाले सिद्धान्त का भी उद्भव हुआ।

भारतीय संस्कृति मे वर्ण और जाति प्रथा
Varna and Caste System in Indian Culture

चार वर्णों के अतिरिक्त विभिन्न कामगारों को जातियों के रूप में मान्यता मिली और विभिन्न व्यवसायों के आधार पर जातियों का निर्धारण हुआ। इन सामाजिक स्थितियों की शास्त्रीय व्याख्याएं ऋग्वेद के पुरुष सूक्त, धर्मसूत्रों और स्मृतियों में व्यापक रूप से की गई। मनु ने लिखा है –

वरं स्वधर्मो विगुणो, न पारक्यः स्वनुष्ठितः,
परधर्मेण जीवन हि सद्यः पतति जातितः।

(अर्थात अपना विगुण धर्म भी पैत्रिक परंपरा से प्राप्त कठिन व्यवसाय भी) दूसरों के धर्म से श्रेष्ठ है। दूसरों का सुविधाजनक व्यवसाय अपनाकर जीने वाला मनुष्य जाति से गम  हो जाता है।)

धीरे-धीरे जाति प्रथा भारतीय समाज की मुख्य विशेषता बन गई और कालक्रम में जाति के बंधन रूढ़ होते चले गए। शक, यवन, पह्लव, पारदों आदि को हिन्दू वर्णाश्रम में क्षत्रियों के रूप में सम्मिलित किया गया। चूंकि भारत में प्रवेश करने वाली जातियां विजेताओं के रूप में आईं थीं, उनकी अवहेलना अथवा अपमान संभव नहीं था और उनको प्रायः क्षत्रियों के समकक्ष स्थान देना पड़ा।

पतंजलि ने शकों को क्षत्रियों के रूप में स्वीकार नहीं किया है और उनको शूद्र कहा है, यद्यपि स्मृतियों में उल्लिखित मूल शूद्रों से भिन्न माना है। वे बौद्ध, शैव और वैष्णव मतों की ओर अधिक आकृष्ट हुए। शक जनसाधारण और शासक वर्ग दोनो ने ही बड़ी संख्या में पूजा की स्थानीय रीतियों और देवी-देवताओं को अपना लिया। किन्तु वास्तविक धरातल पर शास्त्रीय अनुशंसाओं के विपरीत भी अनेक परिस्थितियां थीं।

भारतीय संस्कृति में विदेशी प्रभाव बढ़ने के साथ ही (ई. पू. तीसरी सदी में ) सामाजिक दृष्टिकोण में अंतर आने लगा। स्मृतियों और आचार संहिताओं की पुनर्व्याख्या करते हुए जातियों की शुद्धता बनाए रखने के लिए जाति के बंधनों को कठोर कर दिया गया। परंपरागत जाति से कटे हुए, जिन्होंने विदेशियों के प्रभावों या जीवन पद्धति से सम्बन्ध रखा था, को वर्णसंकर या अछूत माना गया।

मनु ने इसका बड़ा सूक्ष्म वर्गीकरण किया है । अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न संततियां भी वर्णसंकर मानी जाने लगीं और सब की सब शूद्र जाति में प्रविष्ट हो गईं। इसी प्रकार शक्तिशाली हूणों को अमान्य करना आसान न था और उन्हें भारतीय सामाजिक व्यवस्था में समाविष्ट करने के लिए नए सामाजिक प्रबन्ध किए गए। अग्निदीक्षा के बाद उन्हें क्षत्रिय के रूप में मान्यता दी गई।

जो वर्ग सुसंस्कृत थे, जिनकी बुद्धि का भरसक विकास हुआ था, वे साधारणतया औद्योगिक कलाओं से दूर ही रहे। इस बात का भारतीयों के बौद्धिक और आर्थिक विकास की दृष्टि से विपरीत और अनिष्टकारी परिणाम हुआ।

बुद्ध और अशोक ने लोगों को सभ्य और सामाजिक बनाने की दिशा में जिस कार्य की शुरुआत की थी, उसे फिर आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं हुई। जाति बंधन और जातिगत अलगाव की कठोरता ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि सभी वर्गों, पेशों, जातियों तथा धर्मों के लिए सर्वमान्य न्याय व समानता को लागू करने की संभावना ही समाप्त हो गई।

भारतीय समाज की मुख्य विशेषता, जो देहाती इलाकों में सबसे अधिक प्रबल है, जाति प्रथा। इसका अर्थ है, समाज के ऐसे विभक्त समूह, जो पास-पास रहते हुए भी अक्सर मिल-जुलकर रहते हुए नहीं दिखाई देते। यह आसानी से सिद्ध किया जा सकता है कि अनेक जातियों का निम्न सामाजिक और आर्थिक स्तर इस कारण है कि उन्होंने पहले या आधुनिक काल में अन्न उत्पादन और हल की खेती को अपनाने से इन्कार किया है।

निम्नतम जातियां अक्सर अपने अनुष्ठानों , संस्कारों और मिथकों को सुरक्षित रखती हैं। थोड़े ऊँचे स्तर में हम इन धार्मिक अनुष्ठानों और आख्यानों को हम संक्रमण की स्थिति में देखते हैं, अक्सर दूसरी परंपराओं में आत्मसात होते देखते हैं। एक सीढ़ी और ऊपर जाने पर दिखाई देता है कि ब्राह्मणों ने अपनी सुविधा के लिए और पुरोहित वर्ग ने अपनी जाति का प्रभुत्व जमाने के लिए इन्हे फिर से लिखा है ।

ब्राह्मण धर्म का मुख्य कार्य यही रहा कि उसने आख्यानों को एकत्र किया, इन्हें कथाचक्रों में बांध कर फैलाया और फिर एक अधिक विकसित सामाजिक चौखट में रखकर प्रस्तुत किया।

उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में सामाजिक संरचना के तत्वों का उभार देर से हुआ। विशुद्धानंद पाठक ने लिखा है कि ’’दक्षिण भारत के अभिलेखों में वर्ण, जाति, कुल और गोत्र जैसे शब्द तो प्राप्त होते हैं, पर उनका सामाजिक संरचना संबन्धी रूप वह नहीं दिखाई देता जो उत्तर भारत में था। वर्ण के संदर्भ में सर्वाधिक उल्लेख ब्राह्मणों से संबद्ध हैं और गोत्रों के साथ राजाओं के उल्लेख ही प्राप्त होते हैं।

साधारण समाज में वर्ण , गोत्र और कुल का कोई महत्व नहीं था। दोनों के बीच सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सांस्कृतिक अंतःक्रिया संचरणशील उत्तर भारतीय ब्राह्मणों के माध्यम से हुई, जिसे दक्षिण भारत के प्रारंभिक इतिहास लेखकों ने आर्यीकरण कहा और बाद में इसके स्थान पर संस्कृतीकरण शब्द का प्रयोग प्रारंभ हुआ।

दूसरी ओर हम देखते हैं कि ज्यों-ज्यों जाति के बंधन जटिल हुए समाज में प्रतिक्रिया भी हुई। बुद्ध ने जाति प्रथा को चुनौती दी और कहा ’’जाति मत पूछ आचरण पूछ, नीच कुल का मनुष्य भी ज्ञानवान और पाप रहित मुनि हो सकता है। सूफियों और भक्ति संतों के युग में मानव की समानता पर बल दिया गया। जाति का विरोध करते हुए कबीर ने कहा ’’ जात पांत पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।’’

कर्म और पुनर्जन्म क्या है ? 

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