ऊधो! कौन बात को कीजै गारा, ना प्रभु जाति न पांति हमारी, न हरि हितु हमारा

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ऊधो! कौन बात को कीजै गारा।। टेक।।
ना प्रभु जाति न पांति हमारी, न हरि हितु हमारा।। 1।।

हम अहीर वह यादव नन्दन, जानत जग-संसारा।
दिन दश प्रीति करि स्वारथ हित, सो हम बूझि विचारा।। 2।।

मात यशोदा पिता नन्दजी, तिन्हहुँ को निठुर बिसारा।
कहिये कहा तुम्हैं अब ऊधौ, देखा मता तुम्हारा।। 3।।

कुविजा कुटिल कंस की दासी, जिन टोना पढ़ि डारा।

/> सुख लूटै लौड़ी डौड़ी दे, कहा हमारो चारा।। 4।।

योग युक्ति लाये तुम ऊधौ, ब्रज में आनि सँचारा।
सुनि बात अनसुनी भली थी, आनि जरे पर जारा।। 5।।

एक डाह उर शालै हमरा, दूजै लोन घाव में डारा।
दीन्हों घोरि गरल गोपिनको, आय मरे पर मारा।। 6।।

देखि दशा गोपिन की ऊधौ, नैनन नीर भरि डारा।
ऊधौ कहें धन्य ब्रज-गोपी, पिया परम अनुरागा।। 7।।

ऊधौ जानि करी गुरुगोपी, लै उपदेश सिधारा।
साँची प्रीति ‘मुकुन्द’ जहाँ है, तहँ छल बल सब हारा।। 8।।

ऊधौ! अब किस बात के लिए शिकायत करें? कृष्ण न तो हमारी जाति के हैं और न ही हमारे हितैषी हैं। कहाँ हम अहीर जाति के और कहाँ वे यदुवंश के नंदन, यह बात सारा संसार भली-भाँति जानता है। उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए दस दिनों की प्रीति हमसे लगाई थी, जिसे हमने अच्छी तरह बूझ लिया है। जान लिया है। यशोदा मैया और नन्द जी जैसे माता-पिता को निष्ठुर होकर उन्होंने भुला दिया है।

ऊधौ, अब कहाँ तक कहें उनकी बातें ? तुम्हारे विचार भी आज हमने जान लिए। कुब्जा नाम की कंस की दासी, जो अत्यंत कुटिल स्वभाव की है। उसने कृष्ण पर अपना जादू कर रखा है। वे उसी के वश में है। इस प्रकार वे सब प्रकार से सुख लूटते फिरते हैं, उनके सामने हमारा बस कहाँ चलेगा? ऊधौ, सुना है तुम ब्रज से योग-युक्ति लेकर आये हो, ब्रज वनिताओं को समझाने के लिए। न सुनी होती तो यह बात तो भली थी।

तुम तो जले हुए स्थान को और जलाने आ गये। एक तो पहले से ही हमारा हृदय जला जा रहा था दूसरे तुमने ऊपर से नमक और डाल दिया। गोपियों के हृदय में उमड़ता दुख रूपी गरल (जहर) जो अब शांत हो रहा था, उसे तुमने फिर से घोर दिया। इस प्रकार तुमने यहाँ आकर मरे हुए को पुनः मारने का कार्य किया है।

गोपियों की यह दशा देखकर आँखों में आँसू भर आते हैं। ऊधौ कहते हैं, हे ब्रज की गोपियों ! तुम धन्य हो। तुम्हारा अपने प्रीतम के प्रति अनन्य प्रेम है। इस प्रकार सोच समझकर ऊधौ ने गोपियों को अपना गुरु बनाया और उनसे ज्ञान प्राप्त कर लौटे। ‘मुकुन्द स्वामी’ कहते हैं कि जहाँ सच्ची प्रीत है, वहांछल, बल और प्रपंच सब पराजित हो जाते हैं।

रचनाकार – श्री मुकुंद स्वामी का जीवन परिचय 

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