आली ! हम न भये वृन्दावन के द्रुम।। टेक।।
हरसित विधि हरि हर ओसर, बहु कल्पित बहु कलप रही मन।। 1।।
जहँ श्रीकृष्ण सखिन साधन बलिता, विहरत वृन्दावन।
पुहुप पत्र द्रम डार लतन पर, उड़ि उड़ि पद रज परत सकल वन।। 2।।
ब्रज की रीति प्रीति लखि तीनहु पुर, इच्छत सुर नर देव सकल गन।
हम न भये ब्रज के जड़ जीवन, काहे को सुर पुर आनि धरे तन।। 3।।
धन्य गोकुल धन्य वृन्दावन, धन्य सों थिर-चर जीव सकल जन।
लखि ‘मुकुन्द’ लीला निज न्यारी, बारत तन मन प्रान सकल धन।। 4।।
हे सखि! अफसोस है कि हम वृन्दावन के पेड़-पौधे न हुए। जहाँ प्रसन्नता पूर्वक हरि अपनी गउओं के साथ विचरते हैं, ऐसी बहुत सी कल्पनाएँ करते हुए मन दुखी हो रहा है। जहाँ श्री कृष्ण सखियों के संग बलखाते हुए वृन्दावन में विचरते रहते हैं। वहाँ के फूलों, पत्तों, लताओं और वृक्षों पर नटखट कन्हैया के चरणों की रज उड़-उड़ कर पड़ती है।
ब्रज की यह प्रेम पूर्ण रीति तीनों लोकों के वासी, सुर, नर और देव अपने समस्त गुणों के साथ देखने की प्रबल इच्छा रखते हैं। अफसोस है कि हम ब्रज के जड़ पदार्थ तक न हुए। व्यर्थ ही यहाँ आकर नर तन धारण किया। गोकुल तथा वृन्दावन के सभी जड़, चेतन और सकल जन अत्यंत धन्यभागी हैं। ‘स्वामी मुकुन्द दास’ कहते हैं, जिन्होंने भी श्री कृष्ण की अद्भुत लीला देखी है, उन पर मेरा तन, मन, धन और प्राण सब कुछ न्यौछावर है।
रचनाकार – श्री मुकुंद स्वामी का जीवन परिचय




