Sanja संजा – मालवा का लोकपर्व

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By admin

संजा Sanja लोकपर्व मालवांचल में श्राद्ध पक्ष में (प्रत्येक वर्ष भादव माह की पूर्णिमा से अश्विन माह की अमावस्या तक) मनाया जाता है, यह पर्व कुवॉरी कन्याओं द्वारा बड़ी आस्था एवं उमंग से मनाया जाता है। प्रतिदिन संध्याकाल को गेाबर द्वारा संजा का अंकन कर उसे रंग-बिरंगे फूलों से सुसज्जित कर सर्वाधिक आर्कषक बनाना ही हर कन्या का उद्देश्य होता है। वह चाहती है कि उनकी बनाई संजा सबसे सुन्दर और आकर्षक लगे।

सामूहिक रूप से मोमबत्ती जलाकर संजा के गीत एवं आरती गाई जाती है। बालिकाओं द्वारा संजा-आकृतियाँ प्रतिदिन बदल-बदलकर बनायी जाती है। यह तिथिनुसार अपना रूप लेती है। जैसे पूनम पर पूनम पाटला, पाँच टिपके तथा एकम पर एक तलवार, एक ढाल इत्यादि तिथिनुसार ही आकृतियाँ अंकित की जाती है। सोलह दिनों तक गीतों को गाकर प्रतिदिन आरती की जाती है और प्रसाद बाँटा जाता है।

मालवा की भाँति अन्य अंचलों एवं प्रदेशों में संजा को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। जैसे-निमाड़ में सांजा फूली, राजस्थान में संझया, बुन्देलखण्ड में सुआटा पर्व, महाराष्ट्र में गुलाबाई तथा हरियाणा एवं मिथिला प्रदेश में सांझीझूला।

संजा Sanja लोक पर्व में चित्रकला, मूर्तिकला एवं गीत संगीत का मधुर समावेश पाया जाता है। इस कलापर्व पर हर कलाकर्म अपनी अनूठी छाप छोड़ता है। संजा की आकृति की कल्पना करना उसे चित्रांकन करना, उसे उकेरने के पश्चात् उसकी सजावट करना सभी का अपना-अपना महत्व है।

संजा Sanja आकृति बनाने के लिए सर्वप्रथम गाय का गोबर लाकर आँगन की कच्ची या पक्की दीवार पर कैनवास बनाया जाता है और उसी के अंदर हर दिन संजा की अलग-अलग आकृति तिथि क्रम के अनुरूप बनाई जाती है। संजा के गीत गाकर पूजन एवं आरती की जाती है। सर्वप्रथम बनाए हुए केनवान जिसे परकोटा कहा जाता है के अंदर चाँद सूरज और धु्रवतारा नियमित रूप से बनाया जाता है, तथा सोलह दिनों की आकृतियों को इस प्रकार तिथिनुसार बनाया जाता है।

पूनम-पूनम पाटला, एकम-एक ढ़ाल, एक तलवार, बीज-बीजोरा, तीज-घेवर, चौथ-चौपड़, पाँचम-पाँच कुवारा, छठ- छबड़ी, सातम-सातिया, सप्तऋषि, आठम-अठकली फूल, नवमी- डोकरा-डोकरी, दशमी-दस दीये, ग्यारस-केल का पेड़, बारस-खजुर का पेड़, तेरस से सम्पूर्ण किलाकोट बनाया जाता है जसमें पूनम से बारस तक की सम्पूर्ण आकृतिया आती है तथा संजा बाई की बैलगाड़ी भी बनाई जाती है।

किलाकोट के बाहर दो महिला आकृतियाँ मुख्य द्वार के दोनों ओर होती है जिन्हें जाड़ी जसोदा और पतली प्रेमा कहा जाता है मुख्य द्वार पर एक निसरणी पर एक ढोली होता है, द्वार के बाहर एक मेतर बनाया जाता है। इन सभी आकृतियों का संजा के कही ना कही नित्य प्रतिदिन से जुड़ाव होता है फिर इन आकृतियों को फूलों, पत्तियों तथा चमकीली पन्नियों से सजाकर पूजा आरती की जाती है। यह पर्व सतत् रूप से कुवारी कन्याओं द्वारा होता है विवाह के उपरान्त प्रथम वर्ष में ही विवाहित कन्या द्वारा इस पर्व का उद्यापन किया जाता है।

मालवा में यह लोक कला बड़ी ही उत्साह के साथ मनाई जाती है, मालवा स्थित इन्दौर में लोकसंस्कृति मंच के अंतरर्गत विगत कई वर्षों से संजा लोककला के उत्सव का उत्साह बनाए रखने हेतू कई कदम बढ़ाए गए है जो कि बहुत ही सराहनीय है। जहां तक संजा के गीतों का सवाल है; यह हर कहीं प्रायः एक से ही है, थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ। यह बदलाव स्थानीय प्रभावों एवं विभिन्न भाषाओं व बोलियों के कारण है।

संजा Sanja में मालवी गीतों की संख्या लगभग 50 से ज्यादा है। जो मालवी भाषा की प्रमुखता लिए हुए है तथा संजा पर्व में 3 कथाएँ भी कहीगई है परंतु संजा अंकन के समय सिर्फ लोक गीतों का गायन किया जाता है, कथाएँ नहीं बोली जाती है। हिन्दू धर्म मंे कोई भी व्रत या पर्व बिना कथा पूण नहीं होता परंतु इस लोकपर्व में कथा का कहना जरूरी नही होता है। सिर्फ गीतों को ही गाया जाता है। परन्तु आधुनिक युग में गीत तो उपलब्ध हो जाते है किन्तु उन्हें गाने के लिए समूह तथा धुन की कमी आती जा रही है।

यहा दो बाते महत्वपूर्ण है। मालवा की संस्कृति की सुरक्षा एवं इसका विकास इस हेतु हमें अपने परिवारों में सांस्कृतिक तत्वों का अधिकारअधिक समावेश करना होगा। फिल्मी गीतों के स्थान पर लोकगीतों की रसधार प्रवाहित करनी होगी। सिनेमा घरेां से हट कर लोकनाट्यों में आनंदित होना होगा। लोक कथाओं के महत्व को समझना होगा। सांस्कृतिक परंपरा, रीति-रिवाजों का पालन करना होगा।

हमारे पूर्वजों के सांस्कृतिक पुण्यों का प्रतिफल हमें मिल रहा है। किन्तु हमारे पुण्य चुक गये अतः आने वाली पीढ़ियों के संस्कारों में विघटन आता जा रहा है। इसके लिये हम स्वयं दोषी है। विवाद में न उलझ कर सांस्कृतिक धरोहर को सम्भालने की दिशा में अग्रसर हो जाना चाहिए और जो संस्थाएँ पहले से ही अग्रसर है युवाओं को मिलकर उन संस्थाओं का सहयोग करना चाहिए यह अत्यंत ही हर्ष का विषय है।

यहाँ का सामान्य-जन लोक संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहा है। क्योंकि जीवन जीतना चाहे प्रगतिशील हो जाए लोक के बिना वह अधुरा ही रहता है। लोक जीवन में ही समग्रता रहती है। जो उत्साह और उत्सव का भाव है वही यहाँ भी उल्लासीत होता है।

मालवा की लोककला और लोक धाराओं के अटूट प्रवाह के वाहक अर्थात् संजा लोक कला के चितेरे प्रायः अनजाने ही रहे है। हम नही जानते उनके नाम कुल जिन्होंने मालवा को इस मोहक एवं आकर्षक कला उत्सव को अपनी कल्पनाशक्ति से साकार कर दिया।

नौरता – बुन्देली लोक पर्व 

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