Rai Praveen Ko Sako राय प्रवीण कौ साकौ

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बुंदेलखंड की राजधानी ओरछा और ओरछा नरेश इंद्रजीत के दरबार में राय प्रवीण जैसी विदुषी वाक्चातुर्य नर्तकी का वर्णन Rai Praveen Ko Sako मे दिया गया है। जिनमें कल्पना और इतिहास का मिला-जुला रूप दिखाई देता है।

बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा -राय प्रवीण कौ साकौ

बुन्देलखण्ड में राय प्रवीण की गाथा बहुत प्रचलित है। इस लोकप्रिय कथानक के आधार पर अनेक उपन्यासों की रचना की गई है, रीतिकाल के प्रथमाचार्य केशवदास जी की शिष्या राय प्रवीण से तो सारा बुंदेलखंड भलीभाँति परिचित ही है। कुछ विद्वानों का विचार है कि वह ग्राम ‘वरदुवाँ’

के माधौ लुहार की अत्यन्त सुंदर पुत्री थी। राजा इन्द्रजीत उसे देखते ही आकृष्ट हो गये थे और उसे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया था।

हिन्दी साहित्य का इतिहास इस मान्यता की भलीभाँति पुष्टि करता है कि आचार्य केशव ने राय प्रवीण को काव्य शास्त्र की शिक्षा देने के लिए कवि प्रिया और रसिक प्रिया नाम के ग्रंथों की रचना की थी। राजा इंद्रजीत के दरबार को सुशोभित करने वाले आचार्य केशव का सरस होना स्वाभाविक था।

इन्द्रजीत का दरबार तो परियों का अखाड़ा था। वह सदैव कंचन कामिनी से घिरा रहता था। इतने अधिक रसिक कवि की शिष्या रसिक क्यों नहीं होगी? रसिकता के साथ ही उन्हें संगीत और काव्य शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। वह सर्वगुण  संपन्न होने के कारण  दरबार की नर्तकी तो थी ही, साथ ही वह राजा इन्द्रजीत की नायिका भी थीं।

जब वह समस्त आभूषणों से सुसज्जित होकर दरबार में उपस्थित होती थीं, तब समस्त दरबारी हतप्रभ हो जाते थे और राजा इन्द्रजीत ललचाई और तृषित सी आँखों से उसकी ओर देखते रहते थे।

बसंत ऋतु के अवसर पर बसंतोत्सव का आयोजन किया जाता था। हर तरफ हास-परिहास, विनोद, संगीत और काव्यमय वातावरण  रहता था। कहा जाता है कि आचार्य केशव ने अपनी शिष्या की काव्य प्रतिभा की परीक्षा ली थी। उन्होंने अपनी शिष्या से कुछ प्रश्न पूछे थे…!

केशव – कनक छरी सी कामिनी, काहे को कटि  छीन।
राय प्रवीण – कटिकौ कंचन काटि कैं कुचन मध्य धर दीन।।
केशव – जो कुच कंचन के बनें, मुख कारो किहि कीन।
राय प्रवीण – जीवन ज्वर के जोर में, मदन-मुहर कर दीन।

अपनी शिष्या की परीक्षा लेकर केशव पूर्ण संतुष्ट हो गए थे। राजा इंद्रजीत राय प्रवीण को प्राप्त करके अपने आपको धन्य और गौरवशाली समझते थे। उसने अपनी प्रेमिका के लिए सुन्दर भवन का निर्माण कराया था और चारों ओर एक पुष्प वाटिका लगवाई थी। ओरछा का फूलबाग और राय प्रवीण का महल आज भी विद्यमान है।

उन दिनों देश में बादशाह अकबर का शासन था। वे उदार एवं समस्त धर्मों का सम्मान करते थे। उनके दरबार में सभी धर्मों के विद्वान सुशोभित होते थे। कुछ सरदारों ने अकबर के समीप जाकर ओरछा की राज नर्तकी राय प्रवीण के रूप-गुण और सौन्दर्य की भरपूर प्रशंसा की।

उन लोगों ने यहाँ तक कहा कि जहाँपनाह वह नर्तकी आपके दरबार की शोभा के योग्य है। अतः आप उसे अपने ही दरबार में बुला लीजियेगा। अकबर तो अपने दरबार में इस प्रकार की हस्तियों और प्रतिभाओं को रखना ही चाहता था। ओरछा तो उनके अधीन ही था।

अकबर ने राजा इन्द्रजीत के पास यह फरमान भेजा कि तुम शीघ्र ही राय प्रवीण को शाही दरबार में उपस्थित करो। फरमान पाते ही राजा इन्द्रजीत हतप्रभ हो गये, किन्तु कुछ ही समय बाद उनमें बुंदेलों का शौर्य जाग्रत हो उठा और वे क्रोधित होकर कहने लगे…!

हम न दैहैं सुन लो भइया, अपनी प्यारी राय प्रवीन।
हम बुंदेला वीर-बाँकुरे, हमें न समझौ कैंसउं दीन।।

इतनीं कै कै इन्द्रजीत में, जाग उठों क्षत्रिन कौ तेज।
अपनी प्यारी रानी के बिन, सूनी रहें हमाई सेज।।

पानी अमर बेतवा कौ है, अमर रहे क्षत्रिन की शान।
जान दैहैं अपनी लक्ष्मी, चाहें भली छूटबैं प्रान।।

उनके कारन ई धरनी पै, बैकैं रहें खून की धार।
खट्टे दाँत करें मुगलन के छपक-छपक चलबैं तलवार।।

मौरा मुरकैं मुगलन के जब, छूटैं कैउ अगनिया बान।
लूट न पाबैं कोउ लुटेरों, वीर बुंदेलन  की  जा शान।।

नगर ओरछा सूनों हुइयै, जब कउं जैहैं राय प्रवीन।
कइयों अब तुम बादशाह सौं, हमें न जानों निर्बल दीन।।

राजा बोले दूत सों, हमें न जानौ हीन।
इंद्रजीत के जियत लों, मिलें न राय प्रवीन।।

ऐसा कहकर दूत को इन्द्रजीत ने वापिस लौटा दिया। अब आदेश की अवहेलना का समाचार सुनकर बादशाह बहुत क्रोधित हुए और इन्द्रजीत पर एक करोड़ रूपये का जुर्माना कर दिया। एक करोड़ का जुर्माना सुनकर राजा इंद्रजीत घबड़ा गये। केशवदास जी ने महाराज को सांत्वना देते हुए कहा कि आप चिन्ता मत कीजिए। मैं बीरबल से मिलकर जुर्माना माफ करवा दूँगा।

केशवदास जी ने महाराज से कहा आप जिद मत कीजिए, हठ छोड़ दीजिए। हम लोगों में बादशाह से टक्कर लेने की सामर्थ नहीं है। आप हमारे साथ राय प्रवीण को शाही दरबार में भेज दीजिएगा। मुझे उसकी चतुरता और बुद्धिमत्ता पर पूर्ण विश्वास है। वह अपने वाक्चातुर्य के बल पर अपनी मर्यादा की रक्षा कर लेगी।

राजा केशवदास जी के विचार से पूर्ण सहमत हो गये। आचार्य केशव की बीरबल से घनिष्ठ मित्रता थी। उन्होंने बीरबल से मिलकर इन्द्रजीत का जुर्माना माफ करा दिया। राय प्रवीण को शाही दरबार में उपस्थित होने का वचन भी दे दिया।अपने वचनों का परिपालन करने हेतु आचार्य केशव की शिष्या को विदा करते समय राजा इन्द्रजीत की छाती धक-धक करने लगी। गाथाकार ने उस दृश्य का वर्णन करते हुए लिखा है…
बै रई बै रई है अंसुवन की धार, जिया में धीरज नईं बंदबैं।
मौकौ रंग परो है फीकौ, पीरी पर गई मुइयां।
कबै मिलें मोइ सगुन चिरइयां, मन पिंजरा की टुइयां।
तुम बिन जीवन जौ भओ बेकार, जिया में धीरज नईं बंदबैं।

जैसें मनी बिना मनिहारों, जल बिन मरें मछरिया।
सई बिना तुमारे सजनी, सूनीं रनें नगरिया।
तुम बिन सूनौं है संसार, जिया में धीरज नईं बंदबैं ।

को अब गीत सुनाबै नोंने, को अब चित्त चुराबैं।
को अब मोरे राज-भवन में, चाँदी सी बरसाबैं।
सूनौ हुइयै सबई दरबार, जिया में धीरज नईं बंदबैं।

कै नईं सकत काय आंखन सें, नदी  बेतवा  बै रई।
अपनी कल-कल की धुन में, मन की पीरा कै रई।
हो गई अब की मोई मुगलन सें हार, जिया में धीरज नईं बंदबैं।

महाराज को व्याकुल होता हुआ देखकर राय प्रवीण उन्हें सांत्वना देती हैं…!
चिन्ता जिन करियौ मोरे महाराजा, जल्दी घरै लौट आंय मोरे लाल।
अपनों  धरम  हम  पालें  हो  राजा, छुयें न कोउ मोइ छांय मोरे लाल।
गुरू केशव से हैं मोय राजा, उनके रहें नईं भांय मोरे लाल।
भौतई सीख लई विद्या  हमनें, अब नईं दैसत खांय मोरे लाल।

राय प्रवीण ने अपने प्रेमी राजा को भलीभाँति सांत्वना तो दे दी, किन्तु मन ही मन सोचने लगी कि यदि किसी कारणवश बादशाह ने मुझे दरबार में ही रोक लिया तो मेरे पातिव्रत धर्म का निर्वाह कैसे होगा? अपनी शंका का निवारण  करने हेतु वह अपने गुरुदेव जी के समीप जाकर कहने लगी…
आई हों बूझन मंत्र तुम्हें, निज स्वासन  सों  सिगरी मति खोई।
देह तजों कि तजों कुल कानि, हियें लजौ लजि हैं सब कोई।
स्वारथ औ परमारथ कौ पथ,  चित्त  विचार  कहों  तुम  सोई।
जाय रहें प्रभु की प्रभुता, अरू मोरौ पतिव्रत भंग न होई।

आचार्य केशवदास जी ने भलीभाँति समझाकर सांत्वना दे दी और कहा… कि तुम निश्चिन्त रहो। तुम्हारे धर्म का पूरा-पूरा पालन ही होगा। आचार्य केशव की आज्ञा का उल्लंघन कौन कर सकता था? अंत में केशवदास अपनी शिष्या सहित अकबर के शाही दरबार में उपस्थित हो गये।

आचार्य केशवदास जी और राय प्रवीण बादशाह के समक्ष पहुँचकर दोनों ने झुककर प्रणाम किया। आदेश पाते ही दोनों शांत होकर बैठ गये। इसी बीच बीरबल ने उपस्थित होकर एक समस्या पूर्ति हेतु राय प्रवीण के समक्ष प्रस्तुत की। समस्या दी गई थी- ‘अकब्बर तेरे’। वह तो महान विदुषी थी ही। उसने शीघ्र ही समस्या की पूर्ति कर दी…
अंग-अंग नहिं कुल  सम्भु  सुकेहरि  लंक  गयंदहिं  घेरे।
हैं कच राहु तहीं उदैं इंदु, सुकीरकि विंबन चैंचन फेरे।
भौहें कमान तहीं मृग लोचनि, खंजन क्यों न चुगें तिल नेरे।
कोउ न काहु सें बैर करें, सु डरे डर शाह अकब्बर तेरे।।

इतनी सुंदर और कलामय पूर्ति तो बड़े-बड़े विद्वान कवि भी नहीं कर सकते। समस्त दरबारी और अकबर के नौ रत्न स्तब्ध रह गये। समस्त विद्वानों ने इस काव्य कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की और गुरुवर केशव को हार्दिक बधाई दी। कुछ समय पश्चात् अकबर ने राय प्रवीण से कुछ प्रश्न पूछे और उसने शीघ्र ही उन प्रश्नों का काव्य मय उत्तर दे दिया…

अकबर- युवन चलत तिय देह की,  कहक चलति केहि हेत।
राय प्रवीण – मंमथ वारि मशाल सों, सेत सिहारे लेत।।
अकबर – ऊंचे हुयैं सुरवसि किये, समुहैं नर बस कीन।
राय प्रवीण – अब पाताल बस करनि को, छरकि पयानों कौन।

अब अकबर शांत होकर रह गये। वे मन ही मन राय प्रवीण की काव्य कला की प्रशंसा करने लगे। अकबर के मन में बार-बार यह इच्छा जागृत होने लगी कि इस प्रकार की अनन्य विदुषी तो शाही दरबार के ही योग्य है। उसे हमारे रत्नों के मध्य ही सुशोभित होना चाहिए।

बादशाह ने उससे प्रश्न किया कि क्या आप हमारे दरबार की शोभा बढ़ा सकती हो? राय प्रवीण ने उत्तर दिया कि हाँ! महाराज मेरा अहोभाग्य है जो मुझे आपके शाही दरबार में आश्रय प्राप्त हो, किन्तु महाराज मैं आपसे एक निवेदन करना चाहती हूँ। आप तो महान विद्वान और गुणग्राही बादशाह हैं। जरा मेरी एक विनती सुन लीजियेगा…!

विनती राय प्रवीण की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भकत को, बारी वायस श्वान।।
इस काव्य का उत्तर बादशाह के पास कुछ भी नहीं था। वे शांत चित्त होकर रह गये। उन्होंने उसे अपने दरबार में रखने का विचार छोड़ दिया। बादशाह ने आचार्य केशव से कहा- कि आचार्य जी आप निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। वह बुंदेल-वसुंधरा धन्य है और उस पवित्र वेत्रवती का शीतल जल भी धन्य है, जिसके किनारे राय प्रवीण जैसे श्रेष्ठ रत्न अवतरित हुए हैं।

अंत में उन्होंने राय प्रवीण को बहुमूल्य पुरस्कारों से पुरस्कृत करके ससम्मान विदा किया। जाते समय गुरु और शिष्या ने बादशाह को प्रणाम किया और कहा- कि आपकी आज्ञा पाते ही हम लोग शाही दरबार में उपस्थित हो जाया करेंगे। इतना कहकर वे अपने नगर ओरछा की ओर चल दिये।

राजा इन्द्रजीत राय प्रवीण की चिन्ता में सूखकर काँटा हो गये थे। रात-दिन उनकी दृष्टि उसी मार्ग की ओर लगी रहती थी। उन्हें भय था कि कहीं बादशाह उसे दरबार में न रख लें। किन्तु संयोगवश वे दोनों सकुशल ओरछा लौट आये। समाचार पाते ही इन्द्रजीत में नवजीवन का संचार हो गया। उन्होंने आचार्य केशव और राय प्रवीण का हार्दिक अभिनंदन किया। सारे ओरछा नगर में आनंद की लहर दौड़ गई। सारा नगर सुसज्जित हो गया। घर-घर दीप मालिका मनाई गई।

नगर ओरछा जगमग हो रओ, खुशियां छाई हो।
अपने घर की गुमी गुमाई, लक्ष्मी पाई हो।
अष्ट सिद्धि नव निधियां, जैसे संगै लाई हो।
अकबर जैसे बादशाह नें, गाथा गाई हो।।
सर्वत्र आनंद का वातावरण निर्मित हो गया।

ओरछा नगर की अनुपम विभूति का प्रसार और प्रचार सारे भारत में हो गया। जिस विदुषी महिला ने बुंदेलख ड का मस्तक ऊंचा किया है, वह निश्चित ही प्रशंसा के योग्य है। नगर ओरछा में आज भी उसके स्मृति चिन्ह विद्यमान हैं। इस लोकप्रिय कथानक के आधार पर कल्पना और इतिहास के मिश्रण से आज उपन्यासों की रचना की गई है, जिनके विषय में विद्वानों का चिंतन और मनन लगातार संचालित है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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