Narmada Prasad Gupt नर्मदा प्रसाद गुप्त

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बुन्देली लोक संस्कृति के अध्येता Dr.Narmada Prasad Gupt डॉ.नर्मदा प्रसाद गुप्त ‘प्रसाद’ का जन्म 1 जनवरी 1931 ई. को महोबा में श्री पूरन लाल गुप्ता के घर हुआ आपकी माता का नाम  श्रीमती रामकुँवरि देवी है। गुप्त जी का विवाह श्रीमती मृदुला गुप्ता के साथ हुआ। आपके चार पुत्र व तीन पुत्रियाँ हैं।

Dr. Narmada Prasad Gupt Symbol of Bundelkhand’s Culture
बुंदेलखंड की संस्कृति के प्रतीक डॉ.नर्मदा प्रसाद गुप्त

डॉ.नर्मदा

प्रसाद गुप्त जी की  प्रारंभिक शिक्षा महोबा में ही हुई। उच्च शिक्षा एम.ए. अंग्रेजी आगरा विश्वविद्यालय से, एम.ए. हिन्दी एवं पी-एच.डी. सागर विश्वविद्यालय से तथा बी.एड. लखनऊ विश्वविद्यालय से किया।

डॉ.नर्मदा प्रसाद गुप्त जी ने 1945 से लिखना प्रारंभ किया। इन्होंने लेखन कविताओं से प्रारंभ किया किन्तु बाद में ‘आल्हा’ उपन्यास व अनेक कहानियाँ लिखीं। आपने वृन्दावन लाल वर्मा की अध्यक्षता में चलने वाली अखिल भारतीय संस्था ‘ईसुरी परिषद्’ के 1958 से 1964 तक मंत्री के रूप में कार्य किया तथा 1970 से 1976 तक राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त स्मारक संस्था, चिरगाँव के महामंत्री रहे।

आपने 1981 में बुन्देलखण्ड साहित्य अकादमी की स्थापना कर ‘मामुलिया’ पत्रिका का प्रकाशन किया, जिसके माध्यम से बुन्देली लोक साहित्य व संस्कृति को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में मदद मिली। आपने अनेक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर रहते हुए सक्रियता से काम कर उन्हें ऊँचाईयों तक पहुँचाया।

आपको विभिन्न संस्थाओं से अनेक पुरस्कार व सम्मान मिले। जिनमें 1987 में उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ का मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, 1993 में गुंजन कला सदन-जबलपुर द्वारा ‘लोक साहित्य सम्मान’, 1994 में बघेली विकास परिषद, तिवनी रीवा द्वारा ‘लोक भाषा सम्मान’ तथा 1996 में म.प्र. लेखक संघ भोपाल द्वारा ‘अक्षर आदित्य’ सम्मान प्रमुख है।

आपकी दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें ‘बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास’, ‘आल्हा’, ‘बुन्देली फागकाव्य: एक मूल्यांकन’, ‘आल्हाखण्ड: शोध व समीक्षा’, ‘लोककवि ईसुरी और उनका साहित्य’, ‘मध्य देशीय लोक संस्कृति’, ‘बुन्देली लोक संस्कृति’ तथा ‘चैपड़’ कहानी संग्रह महत्वपूर्ण हैं। नर्मदा प्रसाद गुप्त जी का देहावसान 11 मई 2003 को हुआ।

चैकड़ियाँ
भोरईं झुक आओ अंदयारौ, कीकौ पर गओ पारो।
सूरज ऊबत गान दब रओ, चंदा कौ का चारो।
चारऊ कोदन हर छन बदरो, लौंका धरत अंगारो।
बोंड़िन की खिलबे की बेरां, झोंकन बाग बिगारो।
का हूहै परसाद देस कौ, सबनें डाँकौ डारो।।


प्रातःकाल से ही अंधेरा छा गया, किसकी चैकी लग गई अर्थात् किस व्यक्ति के हाथ रक्षा का प्रबन्ध आ गया कि परिस्थितियाँ प्रारंभ से ही विपरीत होने लगीं। सूर्योदय के समय से ही सूर्य पर ग्रहण लग गया, अब चन्द्रमा के लिये क्या उपाय है? चारों दिशाआ पड़ा। लहर-पटोर (धारीदार रेशमी वस्त्र) में सजा देखकर क्रोधित मन से इस दुश्मन ने बैर मान लिया। बिजली के गिरने से वह समाप्त हो गई और सौत की आंखें ठंडी हो गईं। कवि प्रसाद कहते हैं वे अवरोधक बूंदें मन में ऐसी चुभ गईं कि जिन्होंने बहुत तकलीफ दी।

तिरछी सैन चला दई कोरन, गुरां गुरां की फोरन।
नैन नचाय भोंय कर बाँकी, पलकन चोरी चोरन।
तुरतईं गड़ गई नुकई चित्त में हरां हरा बिसघोरन।
रै रै सालै मुंदी चोट सी, जतनन करौ करोरन।
कात प्रसाद सुआ पालो जौ, बिन पिंजरा बिन डोरन।

नायिका ने तिरछे नेत्रों से ऐसा देखा कि शरीर का अंग-अंग पीड़ित हो गया। पलकों से नजर को चुराते हुए भौहों के बाँकपन के सहारे नयनों को नचाकर किया गया प्रहार मन पर इतना शीघ्र प्रभावी होता है कि विषैले बाण की नोंक की तरह चुभकर धीरे-धीरे उसका विष पूरे शरीर में फैलता है। रुक रुक कर भीतरी चोट (मौदी चोट) की तरह दुखता है। इसके निवारणार्थ हजारों उपाय किए किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। कवि प्रसाद कहते हैं कि बिना पिंजरा और बिना डोरी के इस दुख को तोते की तरह पाल लिया है।

ककरा परे पैजना झनकैं, पाँव परें जब हन कैं।
घुँघटा में नैना मटकत रत, हांतन चुरियां खनकैं।
ठसकन चलतन जतन सकुचतन, छनछन नग नग ठनकैं।
अंगन अंगन रास हो रओ, काम देखतन रुनकैं।
कात प्रसाद कसाइन के मन, मंतक मंतक ठिनकैं।

नायिका के पग जब जमीन पर जोर से पड़ते हैं तो कंकड़ डले हुए पैजना (पैरों का एक गोल पोला वजनी आभूषण) झंकार करते हैं। उनके घूँघट के भीतर नयन नाचते रहते हैं और हाँथों की चूड़ियाँ खनकती रहती हैं। नायिका की चाल (गति) में अनोखी ठसक, चेहरे में सप्रयास संकोच और प्रतिक्षण पुष्ट अंगों की गति में मांसलता की ठनक से लगता है कि उसके प्रत्येक अंग में रास क्रीड़ा चल रही है जिसे देखकर कामदेव का मन भी मचल जाता है। कवि प्रसाद कहते हैं कि दुष्ट लोगों के मन चुपके-चुपके रूठ रहे हैं।

जौ फागुन इतनौ बौरानौ, घर घर देत उरानौ।
घर घर फेरी देत भोर सों, मलयानिल गर्रानौ।
मउवा आत कोंचयाने जे, कोंचत जीउ परानौ।
बिरछन के आखर सों मारन, मंत्र फिरत मंडरानौ।
कात प्रसाद अबईं जा दुरगत, कल कौ कौन ठिकानौ।

फागुन (बसंत के प्रारंभिक दिन) इतना पागल हो गया है कि प्रति घर में उलाहना देता घूम रहा है। प्रातःकाल से ही घर-घर की परिक्रमा करता है, सुगंधित पवन मदमस्त है। फूलता हुआ महुआ का वृक्ष मन को कचोटने लगा है। वृक्षों पर फागुन (बसंत) का प्रभाव हुआ है, उससे वे मंत्रों के अक्षरों की तरह प्रभावी होकर छा गये हैं। कवि प्रसाद कहते हैं कि जब अभी प्रारंभ में ऐसी खराब स्थिति बन रही है तो आगे आने वाले समय में क्या होगा। यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।

रीत गई अब मन की गगरी, अब लौं भरी भरी।
बीत गई बातें पैला की, सोसत घरी घरी।
ऊसई लगत रात के पारैं, जैंसे गाज गिरी।
बिरछा भीतर सुआ झुलस गओ, मैना तड़प गिरी।
खाली घरिया सी तरसत रत, नैनन की पुतरी।
कात प्रसाद ओई मन देइया, जानै का बिगरी।।

नैराश्य से व्यथित कवि कहता है कि मन की गागर जो अब तक भरी हुई थी अब खाली हो गई है। अर्थात् मन का उल्लास समाप्त हो गया और नीरसता का खालीपन आ गया है। पहले जैसे आनंद भरी बातें अब नहीं रहीं, यही चिन्ता मन घर कर गई हैं। रात्रि के एकान्त पहर में लगने लगता है कि जैसे बिजली गिर गई हो अर्थात् विपत्ति के आगमन का आभास होता है।

इस बिजली के गिरने से वृक्ष के भीतर सुरक्षित तोता अधजला हो गया और मैना भी उसकी तपन से तड़प कर गिर गई अर्थात् यह ऐसी विपत्ति आई कि मन और आत्मा दोनों प्रभावित हो गये। खाली घरिया (कच्चे मकान के छप्पर पर छाने वाले मिट्टी के बने अर्द्ध चन्द्राकार उपकरण) की तरह आँख की पुतली पानी के लिये लालायित रहती है। अर्थात् आँखों के आँसू भी सूख चुके हैं। कवि प्रसाद कहते हैं कि अनजाने में मुझसे क्या भूल हो गई?

ऐसी ऐंठी धूप जिठानी, करी खूब मनमानी।
सिकड़ी सी बैठी रई कौनें, छाया की देवरानी।
देवर बिरछा ठाड़े देखें, ओंठन बात समानी।
गरम जेठ रूठे से रै गए, गिराहार पी पानी।
कात प्रसाद अबई जा दुरगत, कल की कीनै जानी।।

गर्मी की प्रखरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि धूप रूपी जेठानी (पति के बड़े भाई की पत्नी) ने अपनी ऐसी ठसक दिखाई और छाया रूपी देवरानी पर मनमाने अन्याय किये कि वह एक कोने में सिमटी हुई बैठी रही। देवर एक वृक्ष सा धूप के इन कार्यों को खड़े देखते रहते हैं उनके मुँह की बात होंठों के बाहर नहीं निकलती। ओज (प्रकाश) रूपी क्रुद्ध जेठ अप्रसन्न हो गये किन्तु पानी का सा घूँट पीकर चुप रह गये। कवि प्रसाद कहते हैं कि जब अभी यह हाल है तो भविष्य में क्या दुर्दशा होगी ?

ऐसी पिचकारी की घालन, कितै सीक लई लालन।
कऊँ खां नैन कऊँ खां हेरन, सदे हांत की चालन।
हिरनी सी ठांड़ी रई देखत, फंसी रूप की जालन।
बरकी भौत भुमा कें करया, हांत लगा लओ गालन।
कात प्रसाद रंग रस भींजी, कर डारी बेहालन।


हे कृष्ण! तुमने पिचकारी चलाने की यह कला कहाँ से सीखी है ? कहीं पर तुम्हारी आँखें रहती हैं और किसी अन्य जगह देखते हो फिर इतने सधे हुए हाथों से पिचकारी चलाकर मनचाही जगह रंग की धार सटीक मारते हो। मैं हिरनी की तरह तुम्हारे रूप सौन्दर्य के जाल में उलझकर खड़ी रह गई तभी तुमने पिचकारी चला दी। मैंने गालों पर हाथ लगाकर और करहाई घुमाकर बहुत बचने का प्रयास किया किन्तु बच न सकी। कवि प्रसाद कहते हैं कि गोपी रंग में भीग गई और प्रेम में सराबोर होकर व्याकुल हो गई।

ई फागुन का फागें गाबें, अपने गाल बजाबें
अब ना रये बे सुमन सुमन से, भौंरा फिर-फिर जाबें।
औरई हवा बै रई रै रै, कोइलिया का पाबें।
रीत गयी मन की पिचकारी, रसरंग काँसें लाबैं।
कात प्रसाद सबई रंग बदरंग, जे बसंत ना भाबें।


नैराश्य से व्यथित कवि कहता है कि इस फागुन (बसंत) में कैसे फाग गाइये ? मन में उमंग नहीं है अतः केवल गाल बजाने की तरह लगता है। अब पुष्पों में वह पहले जैसा न सौन्दर्य है न रस है भ्रमर इनके पास आते हैं और बिना रस पान किये लौट जाते हैं। हवा भी अब रुक-रुक कर दूसरी तरह की बह रही है, कोयल को अब गाने के लिये क्या उत्साह मिलेगा? मन का आनंद-रस खाली हो चुका है अब प्रेम का रंग कहाँ लाया जा सकता? कवि प्रसाद कहते हैं कि सभी भद्दे हो चुके हैं अर्थात् सभी उत्सव आनंद रहित हो चुके हैं इस मन को अब बसंत भी अच्छा नहीं लगता।

ई बगिया बसंत ना आबै, माली-मन पछताबै।
कोइल डारन-डारन कूकै चैन न पाबै।
खिलतीं बेरां कली सूक रईं, भँवरा फिरै भिन्नाबै।
जिउरा छिन-छिन आबै जाबै, रोकत पै ना राबै।
कात प्रसाद बैद कोउ मिलबै, मूर सजीबन लाबै।

इस वाटिका में बसंत का आगमन नहीं होता जिससे माली का मन बहुत खिन्न हो जाता है। कोयल प्रत्येक डाल पर आकर झांकती है और चली जाती है, वह झूकती (ठिठकती) है किन्तु उसे सुख नहीं मिलता। जब पुष्प के खिलने का समय था तभी कली सूख गई, भ्रमर झुँझलाया हुआ घूम रहा है।

मन प्रतिक्षण भटक रहा है, मन में स्थिरता नहीं है। मन को कितना ही रोको किन्तु वह रुकता नहीं अस्थिर हो चुका है। कवि प्रसाद कहते हैं कि कोई चतुर वैद्य (चिकित्सक) मिल जाए और वह संजीवन बूटी लाकर इस रोगी मन का उपचार कर दे।

अब कछु लगत न मन खाँ नीकौ, सब रंग फीकौ-फीकौ।
त्रिबिध समीर कूक कोइल की, भरत उजास न जी को।
कुंजन में अंगरा झूलत रत, काटत सुर बंसी कौं ।
सोसन सूक नवल तन हो गओ, चालन घुनी पिसी कौ।
झूँकत रात प्रसाद रात दिन, लेंय आसरौ कीकौ।

अब कुछ अच्छा नहीं लगता सभी आनंद रसहीन हो गये हैं। तीनों गुणों (शीतल, मंद, सुगंध) से युक्त पवन और कोयल के मीठे बोल भी मन में प्रकाश नहीं भरते। कुंज स्थलों पर अंगारों की तरह तपन है और वंशी की मधुर ध्वनि भी बुरी लगती है। यह सुन्दर युवा शरीर सोच के कारण घुन लगे गेहूँ के आटे के चोकर की तरह सूक गया है। कवि प्रसाद कहते हैं कि दिन-रात मन में अस्थिरता बनी रहती है कि किसका आश्रय लिया जाय?

फागुन आउन की सुनकें गुन कें, कछु जोर जताउन लागी।
कोंपन की चरचा कर चोंपन, रंग सुरंग बताउन लागी।
फूलन हेर मनई मुस्कात सुर बौर कौ, झौर दिखाउन लागी।
भीतर जात न बाहर जात न, बात बतात लजाउन लागी।

नायिका बसंत के आगमन की बात सुनकर और मन में कुछ विचार करने पर उसके मन में सुखदायक मनोवेग हिलोरें लेने लगा। वह वृक्षों में नई कोपलों की कोमलता, सुन्दरता, सुडौलता और लालिमा आदि की बातें बड़ी मुग्धता से करने लगी। पुष्पों को देखकर वह मन ही मन मुस्कराती हैं और आम की बौर के गुच्छों को दूसरों को दिखाती हैं। उसकी मानसिक स्थिति विलक्षण हो गई है, न वह बाहर जाती है और न अन्दर जाती है। बात करते-करते अपने आप उसमें लज्जा के भाव आ जाते हैं।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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