Narayan Das Soni ‘Vivek’ नारायण दास सोनी ‘विवेक’

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बुन्देली के कवि Narayan Das Soni ‘Vivek’ का जन्म 11 सितम्बर सन् 1938 को टीकमगढ़ में हुआ। इनके पिता जी का नाम श्री मट्ठू लाल सोनी तथा माता जी का नाम श्रीमती गनेशीबाई था। इनका विवाह 1958 में सिंधवाहा (महरौनी) निवासी भगवती सोनी के साथ हुआ।

व्याख्याता एवं कवि श्री नारायण दास सोनी ‘विवेक’

श्री नारायण दास सोनी ‘विवेक’ ने प्राथमिक से लेकर स्नातक तक शिक्षा टीकमगढ़ में ही प्राप्त की। बाद में 1962 में सागर विश्वविद्यालय से भूगोल में स्नातकोत्तर

उपाधि हासिल की। 1962 में ही इन्हें शिक्षक के पद पर नियुक्त कर दिया गया। सितम्बर 2000 में आप वरिष्ठ व्याख्याता के पद से सेवानिवृत्त हुए।

श्री नारायण दास सोनी ‘विवेक’ ने प्रारंभ में फुटकर रचनाएँ लिखीं। बाद में 1972 से व्यवस्थित रूप से लिखना प्रारंभ किया। आप श्रृंगार, व्यंग्य में सिद्धहस्त हैं। इनकी स्फुट रचनाएँ ही प्रकाशित हैं। काव्य संग्रह अप्रकाशित हैं।

चौकड़ियाँ
तुमने चुरियाँ जब खनकाईं, मन भओ पत्ता नाईं।
तुमने लटें समारी अपनी, बास भरीं मन भाईं।
उमग उठो मन दरस परस खों, तनकऊ चैना नाईं।
कैसी चुम्मक रूप तुमारौ, खिंचत जात ओइ ताईं।

नायक नायिका से कहता है कि जब तुमने चूड़ियों को खनकाया तो मेरा मन पत्ते की तरह विचलित हो गया। जब तुमने अपनी केश सज्जा की, तो उनकी सुगन्ध मेरे मन में समा गई। मेरा मन तुम्हारे दर्शन व स्पर्श को व्याकुल हो उठा है। तुम्हारा रूप चुम्बक की तरह है, मेरा मन उसी ओर लगता खिंचता जा रहा है।

नैना तीर सें गजब तुम्हारे, चलत गैलारे मारे।
तीर करत घायल जब लागत, नैन चलत ही मारे।
तीर के घायल मरत एक दिन, नैन के रोज विचारे।
घालत तीर जान के दुश्मन, नैना प्राण प्यारे।।

तुम्हारे नेत्र रूपी बाण अद्भुत मारक हैं, इन्होंने अनेक राहगीरों को घायल किया है। तीर तो लगने पर घाव करता है किन्तु तुम्हारे नेत्र तो चलते-चलते बिना लगे घायल कर रहे हैं। तीर से घायल व्यक्ति एक दिन ही मरता है जबकि तेरे नेत्रों से घायल प्रतिदिन मरता है। तुम्हारे प्राणों से प्रिय ये नेत्र मेरे जान के दुश्मन हो गये हैं, जो प्रतिदिन घायल करते हैं।

तुम्हरी बिंदिया ईंगुर बारी, लागत बड़ी प्यारी।
माथे बीच दमक रई जैसें, सूरज ऊँगन न्यारी।
सुन्दरता बड़ जात चौगनी, मुइयाँ लागत प्यारी।
बिंदिया बिना लागै मों सूनौ, बिन गुलाब की क्यारी।

तेरी अबीर से लगी ये बिंदी अत्यधिक प्रिय लगती है। माथे के बीच में ऐसे दमक रही है जैसे सूरज उग रहा हो। इस बिंदी से तुम्हारे मुख का सौन्दर्य चार गुना बढ़ जाता है। बिना बिंदी के ये तुम्हारा मुख उसी तरह सूना लगता है जिस तरह बिना गुलाब के क्यारी होती है।

शोध एवं आलेख -डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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