Lokjivan Me Ashadh लोकजीवन में आषाढ़

Photo of author

By admin

बुंदेली साहित्य के Lokjivan Me Ashadh व हमारे देश के लोक साहित्य में आषाढ़ मास को लेकर उत्सवधर्मी गीत हैं, नीति हैं, रतनारी प्रीत है, अनेक आख्यान हैं, कथाएँ हैं, व्यथाएँ हैं, गाथाएँ हैं जिनमें श्रुति है, परंपरा है, लोकाचार है, लोकविश्वास है और लोकमत भी जो हमारे देश की सांस्कृतिक विविधता का संदेश देता है।

देओ दरस घर जाऊँरी  

यों तो हमारे बारहों महीने अत्यंत महत्व के हैं  किंतु हमारा आषाढ़ का महीना अनेक कारणों से सिद्धिदायक है। साल की शुरुआत तो चैत के महीना से होती है। वसंतोत्सव से हमारे यहां नए त्योहारों को जीवन से जोड़कर उत्सव मनाए जाने लगते हैं। जीवन ऋतु पर्व हँसने और महकने लगते हैं । पर आषाढ़ माह की तो बात ही कुछ और है । आषाढ़ वर्षा ऋतु का फलदायक पावस माह है जिसे लोक परंपरा में परम पवित्र और शुभ फल देने वाला माना गया है।

महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘मेघदूतम् ‘ में आषाढ़  मास का जीवंत वर्णन किया है। महाकवि जायसी ने ‘पद्मावत ‘में और रीतिकालीन अनेक श्रृंगारी कवियों ने आषाढ़ मास को प्रकृति के आंगन में हँसता-मुस्कुराता कुसुमसार कहा है। जो सुभाषित है और सुवासित भी। सुरभित है और सुरमीत भी। यक्षों , देवताओं को और गंधर्वों का प्रिय होने के कारण यह आषाढ़ माह सदैव लोकमंगल की प्रतिष्ठा की भी श्रीवृद्धि करता है। ऐसी ही कुछ परंपराओं का इस आलेख में स्मरण है।             

महाकवि कालिदास ने मेघदूतम में आषाढ़ माह को लेकर जो मनोरम रूपक सृजित किया है वह अकारण नहीं है, सकारण है । उसके विविध पक्ष हैं, विविध आयाम हैं । ” आषाढ़स्य प्रथम दिवसे “ की व्यापक विस्तारणा है।। इसी तरह महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य ‘ पद्मावत ‘ के ‘बारहमासा ‘ में नागमती के विरह की तीव्रतम वेदनाओं का सजीवता देकर वियोग की असाधारण सृष्टि की है।

चढ़ा असाड़.गगन घन गाजा
साजा विरह दूँद दल बाजा।।

कहकर आषाढ़ को जो प्रतिष्ठा दी है वह हमारे लोक जीवन में अटूट विश्वास की अनेक फलित आस्थाएँ हैं। जीवन के आनंदबोधी पक्ष हैं। आषाढ़ में अनेक सगुन हैं, अनेक देवी हैं, देवता हैं, वृक्ष हैं, पेड़ – पौधे हैं, नदी नाले, पर्वत- पठार – कछार, वनस्पतियाँ हैं। जलचर – थलचर, नभचर हैं । याने मानव, वन्यजीव, परिंदे और न जाने क्या-क्या सृष्टि का संपूर्ण जो विराट स्वरूप है, वह लोक जीवन में विभिन्न रूप आकारों में, विभिन्न ध्वनियों में, विभिन्न स्मृतियों में -श्रुतियों में, विभिन्न उत्सवों में, विभिन्न परंपराओं, कथाओं, नाटकों, गीतों में बखूबी उद्घाटित हुआ है ।

ऐसा नहीं है कि लोक कोई एक जनपदीय अवधारणा है । या ग्रामीण जीवन का केवल चित्र भर हो..। लोक तो एक अत्यंत  व्यापक अभिधारणा है जो अभिजात्य समाज से परे है। वनांचल का उपेक्षित समाज, अभावों भरा किंतु लोक विश्वासी आदिवासी जीवन  है और उसका जो रहन – सहन व  प्राकृतिक परिवेश है, परंपराओं की चंदनी महक है, रीतिरिवाजों की जीवनदायिनी धुनें हैं, राते – जगराते हैं और जो भी अरण्य परंपरा है वह सब लोक है।

इस लोक में उनके लोक देवता हैं, लोक देवियां हैं,  लोक उत्सव – पर्व हैं, लोकगीत – संगीत है और है वह सभी जो अंतःबोधी है। सच में जब से हम प्रगतिवादी हुए,  यथार्थवादी हुए तभी से हमारी आँखों ने प्रकृति की ओर देखना बंद कर दिया । हमारी माटी का जो मांसल कुंवारापन है, उसकी जो सौंधी देह गंध है, नदियों के पानी की जो सुशीतलता है, पेड़ों की प्रेमासक्त  छाँव है और प्राकृतिक संपदाएँ हैं उनसे दूर होते गए , बहुत दूर चले गए हैं । अब आषाढ़ के देवी गीतों की भक्ति रस डूबी अनुगूँज भूले-भाले, यदा-कदा  ही सुनाई देती है।

आषाढ़ मास का प्रारंभ मातापूजन से होता है। मातृ पूजन अर्थात देवी पूजन। देवी अर्थात जो धरती को भी जीवन देती है, धरती जिससे रस लेती है। ऐसी लोक देवियाँ जीवंत भी हैं उनका पूजन प्रारंभ हो जाता है, लोक विश्वासों के साथ। हम चाहे जितने प्रगति की ओर आगरा आ गए हों लेकिन हम जब गाँव में गाय के गोबर से लिपे हुए आंगन में बैठते हैं और जब कभी माटी के ऊँचे चबूतरे पर बनी देवी की मठिया या दिवाले पर देवी जी को लाल झंडा चढ़ाने जाते हैं तब हमारे अनेक विश्वास हमें पंख लगा के उड़ा ले जाते हैं।

सुहागिन महिलाएं हों, कुंवारी हों, कन्याएं हो या गाँव के लोग बाग, बूढ़े- बारे, सभी मैया के दरबार में, कालका की देहरी पर , बीजासेन की दयोड़ी पर, उनकी देहरी पर उनकी भभूति लेने को लालायित रहते हैं। देवी माई से सभी कुछ न कुछ माँगते हैं।कई महिलाएँ पुत्र मांगती हैं, तो कई सुख -समृद्धि धन वैभव ,तो कई अटल सुहाग, तो कई संतुलित जीवन, सुखी समाज की परिकल्पना करती हैं। यही है गांव की कुलीन संस्कृति । कुलीन का अर्थ बहुत विशिष्ट है । चरित्र संपन्नता है ।

अनेक अभावों में रहने वालीं, दिन भर में एक बार जो कुछ मिल गया उससे ही तृप्ति  पाने वाली अभावग्रस्त महिलाओं के समूह नाचते – गाते, ढोल बजाते दौड़े -दौड़े चले आते हैं देवी के द्वारे। यह देवी जो अदृश्य है उसके दर्शन करने का आनंद इतना अप्रतिम है कि उसकी व्याख्या, उसके रस का स्वाद उसकी विलक्षणता को बखान करना संभव तो नहीं है किंतु कुछ कहा जरूर जा सकता है उसके विषय में। जिन्होंने उन क्षणों को जिया है, उनको भोगा है वे देवी के उस अमृत प्रसाद से भलीभांति परिचित हैं।

झुँड में गाँव की महिलाएँ गाते – बजाते  चल रहीं हैं। बड़ी – बूढ़ी आगे चल रहीं हैं उनके भी आगे हरे बाँस में बड़ी पताका लेकर टोले के भगत के चेले आगे चल रहे हैं। उनके पीछे पूजा का थाल कोई सुहागिन लिए चल रही है , थाल में अठवाईं (पूजा के लिए छोटी पूड़ियाँ ), नारियल, बताशे, लपसी, होम – धूप, दीपक व देवीजी का श्रंगार का सामान को सजाकर रखा गया है। एक कन्या लोटे में जल लिए जा रही है। कुछ महिलाएँ पैंड भरते (धरती पर दंडवत होकर चलना) चल रहीं हैं।

समवेत स्वरों में देवी गीत गाती हुयीं माताओं की यह टोली जैसे ही देवी जी की मठिया के समीप पहुँचती है याचना की भावाभिव्यंजना और भी गूँजायमान हो उठती है …

कैसे के दर्शन पाऊं री
मैया तोरीं ऊंची दुअरियाँ
मैया के द्वारे एक बाँझ पुकारै
देव ललन घर जाऊँ री
मैया तोरीं ऊँची दुवरियाँ ।।।।

देवी की जस गाते – गाते  किसी महिला पर माँ की सवारी आ जाती है…भगत जी . माना मिनती करते हैं..उस अदृश्य देवी को किसी ने नहीं देखा आज तक। न उन महिलाओं ने , न हमने न आपने । लेकिन यह विश्वास  हमें लोकपरंपरा ने दिया है।  तभी तो उससे दिल की बात कही है, तभी  यह आस्था के स्वर जीवंत हुए हैं।  जीवन की यह आस्था ही लोकसंस्कृति का प्रत्यक्ष दर्शन  है। यही है आषाढ़ी संस्कृति से साक्षात्कार करने के आनंदगंधी क्षण।

हमारी यह आषाढी परंपराएँ ढकोसले नहीं हैं।
लोक विश्वास की जीती जागती यथार्थ कथाएँ हैं जिनमें शास्त्र भी है और विज्ञान भी। जेठ की असह्य गरमी से धरती फट गयी है। प्यास से आकुल,-विकल है। उसे मेघों की अपार जलराशि से ही तृप्तत किया जा सकता है। इसीलिए आषाढ़ में “चिरैया नखत ” में बरसात की कामना की जाती है।

पुख्ख या पुष्य नक्षत्र ही लोक जीवन में चिरैया नखत कहा जाता है। प्यासी धरती की प्यास बुझाने के लिए बादलों का बरसना बहुत जरूरी है।आषाढ़ के बादल केवल गरजते ही नहीं हैं झमाझम बरसते भी हैं। तभी तो पद्मावत की विरह विदग्ध नायिका की भाँति हमारी लोकनायिका भी वर्षा ऋतु में भी जली जा रही है। जबकि समूची सृष्टि में पानी ही पानी है । आदमी नर से नारायण हो गया है और वह मेघों की दुंदभी सुनकर ही डरी जा रही है…

बादर देख डरी
सखी मैं बादर देख डरी..।।

आषाढ़ माह में ही अपने पशुधन की रक्षा तथा  रोग बीमारी से बचाव के लिए  गाँव के मैड़े पर उसारौ की पूजा की जाती है। लोकमान्यता में यह पूजा तमाम आफत आसमान से सभी की रक्षा करती है।  प्रकृति पूजक एवं कृषि साधक समाज  शगुन मनौती मनाते हैं ।

गांव के बाहर पीपल के नीचे बड़े चबूतरे पर कारसदेव के धाम पर बैठकर गोटें गाते हैं। उनकी मनौती करते हैं । हमारे पशुओं को – मवेशियों को अनेक रोगों से वह रक्षा करें। आजीवन निरोग बने रहें ऐसी मंगलकामना देवगीतों में हम  करते हैं । चौथ की रात को ढाँक बजती है । डिंग डिंग का जो अलौकिक नाद होता है वह अंधेरी रात को चीरता हुआ चारों ओर बिखर जाता है। उस समय जब गोट की टेक उठाई जाती है तो काले बादल घिर आते हैं और लोकरस का विवेक बरसने लगता है झर झर झर झर… धरती रसवंती हो उठती है।

नये -नये बीज अँकुरित हो उठते हैं धरती की छाती पर और हमारे आपके भीतर सोयीं उद्दाम भावनाएँ  जाग्रत हो उठतीं हैं नव सृजन के लिए। पावसी पकवान की धूम मच जाती है। बरसात में जठराग्नि मंद होने के कारण रात में बियारू (रात्रि भोजन ) का निषेध हो जाता है। यही नहीं निरोगी शरीर बनाए रखने के उद्देश्य से अरौना भोज देव स्थानों , बगीचों आदि पर प्रारंभ हो जाता है। इन्हें ही गकरियाँ कहते हैं। पूजा – पुजापे इसी माह में खास तौर पर किये जाते हैं। भये – वियाव का रक्कस  , सुहागिन भोजन या सुहागलैं जिमाईं जातीं हैं। पूरे महीने भर  खा – खा खैया और ता था थैया मची रहती है…

अनेक स्थानों पर वृहद वृक्षारोपण की जीवनाधारित परंपरा भी आषाढ़ मास में प्रारंभ होती है। प्रकृति संरक्षण के मूल भाव से उल्लसित हरेला पर्व उत्तराखंड की पहचान बना हुआ है। हरेला आषाषढ़ में सावन मास लगने के नौ दिन पहले बोया जाता है। यह भी लोकजीवन और लोकसंस्कृति का श्रद्धास्पद हरियाली महोत्सव है।

वन देवी के पूजन का अनुष्ठान है। हमारे आज के अतिसाधन संपन्न जीवन से लोक पर्वों का उन्मूलन हो चुका है। अब हम प्रतीकात्मक पर्व भी नहीं मनाते या यों कहें हम पर्वों परमोज्ज्वल परंपरा को विस्मृत कर चुके हैं। अब आल्हा ऊदल की वीर गाथाएँ कहीं सुनायीं नहीं पड़ती। मुझे अपने बचपना में सुनी और सुनायीं आल्हखण्ड की जोशीले फड़ों में गायी जानेवाली आल्हा की लड़ाइयाँ खूब यादों में महफूज हैं।

कजरी और चौमासे की रसीली रंगतें, चौका पउआ के खेल, कंतातौली, भारी बरसात में भींगते हुए पशुओं को चराते बरेदियों, चरवाहों की लोक कल्पित अनगढ़ कथाओं के अर्थ  व बिषखूटा, पुछउअल पहेलियों के जन्म इसी आषाढ़ी संस्कृति ने ही तो दिए हैं। लोकपरंपराएँ आदिम राग हैं, अनंत हैं, अछोर हैं वह विलुप्त तो हो जातीं हैं किंतु मरतीं नहीं हैं। अमरचेता हैं वे । थोड़ी माटी खरोंचो, खाद –  पानी डालो ये पिकआ उठतीं हैं, हरयाने लगती हैं, महकने लगतीं हैं…पर हत् भाग्य अब माटी खरोंचने की फुरसत है किसे…?

‌आमोद – प्रमोद लोकजीवन की संजीवनी शक्तियाँ हैं। कहीं भी मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं , चरित्र का हनन नहीं , अश्लीलता का मनन नहीं। खरे सोने से दमकते चरित्र  लोकजीवन की पहचान है। भूखे पेट सोने में कोई गुरेज नहीं ।मगर चोरी नहीं करेंगे।अनैतिकता कतई मंजूर नहीं।” मैनत की खानै , हरि गुन गानै” के मंत्र आषाढ़स्य प्रथम दिवसे के उपहार हैं , जीवन के आधार हैं। सच में यही है लोकजीवन में आषाढ़ का पावन संदेश।
मूल आलेख-डा. रामशंकर भारती

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

Leave a Comment

error: Content is protected !!