Hindu Dharm Aur Sanskriti हिन्दू धर्म और संस्कृति  

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By admin

आधुनिक काल में यह प्रश्न   Hindu Dharm Aur Sanskriti क्या है ?  भारतीय संस्कृति को हिन्दू संस्कृति के रूप में मान्यता देने की परंपरा रही है। भगवतशरण उपाध्याय के अनुसार हिन्दू शब्द के उपयोग की शुरुआत 549 तथा 525 ई. पूर्व के बीच हुई। अपने पुरालेख में ईरान के शासक दारा ने भारत और भारतीयों के अर्थ में पहली बार हिन्दी शब्द का प्रयोग किया, जिसको बहुत बाद में भारतीय साहित्यों ने ग्रहण किया और जिसको हिन्दू के रूप में बार बार दोहराया।

Hindu

Religion and Culture

हिन्दू धर्म किसी एक विश्वास पर आधारित नहीं है, बल्कि अनेक विश्वासों का समुदाय है। जिस प्रकार भारतीय जनता की रचना उन अनेक जातियों को लेकर हुई, जो समय – समय पर इस देश में आती रहीं, उसी प्रकार हिन्दुत्व भी इन विभिन्न जातियों के धार्मिक विश्वासों के योग से बना है।

देश के अर्थ में हिन्दू शब्द का चलन इस्लाम के जन्म से कोई हजार डेढ़ हजार वर्ष पहले ही शुरू हो गया था। ईरानी लोग ’स’ का उच्चारण ’ह’ करते थे, अतः ’सिन्धु ’ को उन्होंने ’हिन्दु’ कहा। इसी विकृति से आगे चलकर ’हिन्दू’ और ’हिन्दुस्तान’ दोनो शब्द निकले। यूनानियों के मुंह से ’ह’ के बदले ’अ’ निकलता था, अतः हिन्दू को उन्होंने इन्दो कहना शुरू किया।

ईरानियों द्वारा दिया हुआ हिन्दू नाम संस्कृत भाषियों के द्वारा संपूर्ण भारतवासी जनता के समुच्चय नाम के रूप में स्वीकृत हो गया, इसके भी प्रमाण मिलते हैं। नीग्रो, औस्ट्रिक, द्रविड़ और आर्य इन चार जातियों के समन्वय से उत्पन्न हिन्दू संस्कृति में आगे चलकर अनेक धाराएं मिल गईं।

असल में हम जिसे हिन्दू संस्कृति कहते है, वह किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि इन सभी जातियों की संस्कृतियों के मिश्रण का परिणाम है। भारतीय संस्कृति भी इस देश में आकर बसने वाली अनेक जातियों की संस्कृतियों के मेल से तैयार हुई है और अब यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि उसके भीतर किस जाति की संस्कृति का कितना अंश है।

हिन्दू धर्म और संस्कृति की अवधारणा
Concept of Hindu religion and culture
भारतीय संस्कृति वह संस्कृति है जिसने विश्व को न सिर्फ बहुत कुछ दिया, बल्कि दुनिया के विभिन्न कबीलों से , चाहे वे आक्रान्ता के रूप में आए अथवा व्यापारी के रूप में, उनकी सांस्कृतिक उपलब्धियों मे जो बेहतर था उसको ग्रहण किया और अपनी संस्कृति का विकास किया। अनगिनत कबीलों ने सभ्य भी बर्बर भी भारत की सीमाएं लांघ कर इस देश में प्रवेश किया एवं यहां के सामाजिक ताने-बाने में विलीन हो गए।

एक ओर भारतीय संस्कृति का मूल आर्यों से पूर्व हड़प्पा तथा द्रविड़ों की सभ्यता तक पहुंचता है, तो दूसरी ओर इस पर आर्य संस्कृति की गहरी छाप है, जो भारत में मध्य एशिया से आए थे। धीरे-धीरे यह संस्कृति उत्तर-पश्चिम से आने वाले तथा फिर समुद्र की राह से पश्चिम से आने वाले लोगों से बार बार प्रभावित हुई और इस प्रकार धीरे-धीरे राष्टीय संस्कृति ने आकार ग्रहण किया।

भारतीय संस्कृति में हम दो परस्पर विरोधी और प्रतिद्वन्दी शक्तियों को काम करते देखते हैं। एक तो वह शक्ति है जो बाहरी तत्वों को आत्मसात कर समन्वय और सामंजस्य पैदा करने की कोशिश करती है और दूसरी वह जो विभाजन को प्रोत्साहन देती है।

विभिन्न संस्कृतियों से संपर्क और अन्तःक्रिया के दौरान ही शास्त्रकारों द्वारा बहुत सी रूढ़ियां भी भारतीय समाज और परंपरा में सम्मिलित हुईं, जो इस संस्कृति का एक निर्बल पक्ष है। जाति के बंधन कठोर हुए। एक ओर विचारों और सिद्धांतों में भारतीय संस्कृति का अधिक से अधिक उदार और सहिष्णु रूप सामने प्रदर्शित किया गया तो दूसरी ओर सामाजिक आचार-विचार अत्यंत संकीर्ण होते चले गए।

भारतीय संस्कृति की संभवतः सबसे बड़ी विशेषता है अपने ही देश में इसकी निरंतरता। देश के सभी भाग एक साथ एक ही अवस्था में नहीं रहे। प्रत्येक अवस्था में , देश के प्रायः हर भाग में , पहले की सभी अवस्थाओं के कई लक्षण जीवित रहे और उनके साथ साथ अनेक पूर्वावस्थाओं के उत्पादन के तरीके और रीति रिवाज भी।

ऐसे कुछ लोग हमेशा मौजूद रहे जो पुरानी पद्धति से हठपूर्वक चिपके रहना चाहते थे और चिपके रहे। परंतु हमें उसी एक एक विशिष्ट पद्धति पर ध्यान देना है, जिसका प्रभाव इतना अधिक व्यापक हो गया कि वह देश के अधिकांश हिस्सों पर लागू हो गई। भारतीय संस्कृति में धर्म, आध्यात्मवाद, ललित कलाएं, ज्ञान-विज्ञान, विधाएं, नीति, विधि, लोकजीवन और वे समस्त क्रियाएं और कार्य हैं जो उसे विशिष्ट बनाते हैं तथा जिन्होंने भारतीयों के सामाजिक, राजनीतिक विचारों, धार्मिक और आर्थिक जीवन, साहित्य, शिष्टाचार और नैतिकता को ढाला है।

इसमें भी विकास क्रम के अनुरूप विविध संस्कृतियों के संघर्ष, मिलन और संपर्क से परिवर्तन और आदान-प्रदान तथा विविध श्रेष्ठ सांस्कृतिक तत्वों का संग्रह होता रहा है। इस संस्कृति में दो परस्पर विरोधी विशेषताएं दिखाई देती हैं- विविधता के साथ-साथ एकता। वेश-भूषा, भाषा, उपासना पद्धति, यहां के निवासियों का शारीरिक रंग-रूप, रीति-रिवाज, जीवन स्तर, भोजन, जलवायु, भौगोलिक विशेषताएं- सभी में अधिक से अधिक भिन्नताएं दिखाई देती हैं।

एक ही प्रांत, यहां तक कि एक ही जनपद अथवा नगर के भारतीय निवासियों में उतनी ही अधिक सांस्कृतिक असमानता है, जितनी भारत के विभिन्न भागों में प्राकृतिक असमानता। विविधता में एकता की प्रवृत्ति ने विभिन्नताओं से परिपूर्ण इस देश को शताब्दियों से एक सूत्र में पिरोकर रखा है और इसका

भारतीय संस्कृति मे बहुदेववाद और अवतारवाद   

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