Harprasad Gupt ‘Harihar’ Ki Rachnayen  हरप्रसाद गुप्त ‘हरिहर’ की रचनाएं

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श्री हरप्रसाद ‘हरिहर’ का जन्म विक्रम सम्वत 1988 के वैशाख मास की जानकी नवमी के दिन मध्य प्रदेश के जिला छतरपुर के ग्राम, लखनगुवां में हुआ। आपकी माता श्रीमती राजदुलारीमन्नू’ एवं पिता श्री आशाराम जी गुप्ता थे। पिता जी एक सदाचारी एवं शिक्षित सज्जन थे।

समस्या ‘वरसत है’
गूँजित रहीं है जहाँ ध्वनि रण भेरिन कीं,
तहाँ पै मृदंग ताल राग सरसत है।
खनक सुनात रही खड़ग जँजीरन की,
झनक मजीरन की दिव्य दरसत है।।
‘हरिहर’ भाषै रही भीर रण वीरन की,
तहाँ धर्मवीर देख हिय हर्षत है।
जहाँ जुर जँग रहो मार मार रंग,
तहाँ आज राम रंग हो अभंग वरसत है।।

किसी समय जहाँ युद्ध के नगाड़े बजते रहे वहाँ मृदंग की थाप पर संगीत की ध्वनि चलती है। जहाँ पर कभी तलवारें और जंजीरों की खनक सुनाई देती थी, वहाँ आज मंजीरों आदि की झनकार सुनाई दे रही है। कवि हरिहर कहते हैं कि वीर योद्धाओं की इस धरा पर आज धर्मवीरों को देखकर हृदय प्रसन्न हो जाता है। जिस भूमि पर युद्ध हुआ करते थे और मारने-काटने की धूम रहती थी, वहीं पर आज राम-ध्वनि और भजनों को आनंद की वर्षा हो रही है।

चेतावनी चौकड़िया
जो तुम जनम अखारत खोहौ, बीज पापके बो हौ।

भजन भूलकें करम टुकनियां धरें मूड़ पै ढोहौ।।
सपने की सम्पत पावैं खां पाँव तानके सो हौ।
तौ वेतरनी तीर ‘हरिहर’ ठाड़े ठाड़े रो हौ।।

यदि तुम व्यर्थ में समय नष्ट करोगे और पाप कर्म करोगे तो तुम्हें प्रभु का भजन भूलकर अपने कर्मों को साथ में लेकर चलना पड़ेगा। अर्थात् तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिये भार बन जायेंगे। यदि तुम रात्रि रूपी संसार में निश्चिन्त होकर सोते हुए स्वप्न में सम्पत्ति पाने के प्रयास करोगे तो इस वैतरिणी नदी के किनारे पर खड़े-खड़े रोते रहोगे।

सिंहावलोकनी चौकड़िया
मूरख हरि की खबर विसारी, सारी उमर गुजारी।

जारी ना ममता की काटी लै के भजन कटारी।।
टारी खूब उमर वातन में विगरी नहीं सुधारी।
धारी नाहक देह ‘हरिहर’ भेजे न अवध बिहारी।।

हे मूर्ख! पूरी उम्र बिना प्रभु का स्मरण किये बिता दी। तुमने भजन रूपी कटारी से ममता की जाली नहीं काटी। व्यर्थ की बातों में आयु के दिन बिता दिये और अपने उद्धार के लिये कुछ नहीं किया। कवि हरिहर कहते हैं कि तुमने अवध बिहारी श्रीराम का भजन नहीं किया, तो व्यर्थ ही यह शरीर धारण किया।

 

फाग चौकड़ी़
धँस के सपर तला में रइ है, एक नागरी नई है।

जलसे कढ़त लटैं चुचवातीं, शोभा जात न कइ है।।
ज्यों चन्दा कौ इमरत पीवे, नागन लिपट्या गइ हैं।
दमकत देह उरइयां लगतन, निचुर चुनरिया रइ है।।
चिपक गई चोली छाती है उमगत जोवन सइ है।
कमल कलिन खाँ मनो हरिहर, हुमक के चुन्नी दइ है।।

एक नवल अनंगा नायिका तालाब में नहा रही है वह युवती स्नान करके तालाब के जल से बाहर आती है उस सद्यस्नाता नायिका की छटा का वर्णन है। पानी से निकलती नायिका के केश चोटी-चूँ रही है, उसकी शोभा वरनी नहीं जाती है जैसे चन्द्रमा का अमृत पीने हेतु नागिन चन्द्रमा से लिपट गई हो। प्रातः की कोमल धूप (उरइयां) लगते ही सारी निचुड़ रही है। उसकी छाती से चोली चिपक रही है और उसके नवीन वक्षस्थल के उभर रहे कामांग उठते हुए ऐसे दिख रहे हैं मानो कमल की कलियों की शोभा को हुमक कर चुनौती दे रहे हों।

चौकड़ी (अमात्रिक)
डग डग पग धर तन तन फरकत, नगन नगन रस ररकत।।

छलकत वदन मदन मद झलकत, लट लटकन रस ढरकत।।
दरपन पकर नवल तन लख लख, चपल नयन मन करखत।।
तनक न नवत पलक रस वरसत, छनछन मन हर हरखत।।

यह छन्द मात्रा विहीन है। नव युवती नायिका का प्रत्येक अंग चलते-फिरते समय फरक रहा है, प्रत्येक अंग से रस झरता उस पर संगीत की ध्वनि चलती है। जहाँ पर कभी तलवारें और जंजीरों की खनक सुनाई देती थी, वहाँ आज मंजीरों आदि की झनकार सुनाई दे रही है। कवि हरिहर कहते हैं कि वीर योद्धाओं की इस धरा पर आज धर्मवीरों को देखकर हृदय प्रसन्न हो जाता है। जिस भूमि पर युद्ध हुआ करते थे और मारने-काटने की धूम रहती थी, वहीं पर आज राम-ध्वनि और भजनों को आनंद की वर्षा हो रही है।

 

चेतावनी चौकड़िया
जो तुम जनम अखारत खोहौ, बीज पापके बो हौ।

भजन भूलकें करम टुकनियां धरें मूड़ पै ढोहौ।।
सपने की सम्पत पावैं खां पाँव तानके सो हौ।
तौ वेतरनी तीर ‘हरिहर’ ठाड़े ठाड़े रो हौ।।

यदि तुम व्यर्थ में समय नष्ट करोगे और पाप कर्म करोगे तो तुम्हें प्रभु का भजन भूलकर अपने कर्मों को साथ में लेकर चलना पड़ेगा। अर्थात् तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिये भार बन जायेंगे। यदि तुम रात्रि रूपी संसार में निश्चिन्त होकर सोते हुए स्वप्न में सम्पत्ति पाने के प्रयास करोगे तो इस वैतरिणी नदी के किनारे पर खड़े-खड़े रोते रहोगे।

 

सिंहावलोकनी चौकड़िया
मूरख हरि की खबर विसारी, सारी उमर गुजारी।

जारी ना ममता की काटी लै के भजन कटारी।।
टारी खूब उमर वातन में विगरी नहीं सुधारी।
धारी नाहक देह ‘हरिहर’ भेजे न अवध बिहारी।।

हे मूर्ख! पूरी उम्र बिना प्रभु का स्मरण किये बिता दी। तुमने भजन रूपी कटारी से ममता की जाली नहीं काटी। व्यर्थ की बातों में आयु के दिन बिता दिये और अपने उद्धार के लिये कुछ नहीं किया। कवि हरिहर कहते हैं कि तुमने अवध बिहारी श्रीराम का भजन नहीं किया, तो व्यर्थ ही यह शरीर धारण किया।

 

भोरई डगर कुवल की डगरी, दबी कांखरी गगरी।
झाँकत झुकत जात झूमत सी, लली रूप की अगरी।।
गोरौ मुख कारे घूंघट में, शोभा समिटी सगरी।
जैसे पूनों के चन्दा यै – धनी बदरिया वगरी।।
चकचौधी रै गई ‘‘हरीहर’’, नये छैलन की नगरी।।

एक नव यौवना प्रातःकाल ही पानी भरने हेतु कुवाँ के मार्ग पर चल रही है। उसकी काँख में गगरी दबी हुई है। वह बार-बार अगल बगल झुकती और इधर-उधर देखती हुई यौवन के मद में झूमती जा रही है। वह नवेली अति रूपा है, उसका मुख गौर वर्ण है। काली चुनरी के घूंघट में मानों सारा सौन्दर्य सँजोकर रखा हो। जैसे पूरनमासी के चन्द्रमा पर काले मेघों की छटा फैल रही है जिसे देखकर नव युवक रसिकों का समूह आश्चर्य में मग्न हो रहा है। नवल अनंगा नायिका के रूप में यह प्रेयसी अपनी यौवन उमंग से रसिक नायिकों का मन मोहित करती जाती है।

 

इनपै जोर करें हैं ज्वानी, नित नई दमक दिखानी।
लाली छई गोरे गालन पै, चिकनई परत चुचानी।।
फरकत नग नग वदन छबीलौ, ररकत हँसतन वानी।
फूट परत रसकी धारा सी – जो तन कइ मुस्क्यानी।।
ज्यों भादों की नदी ‘हरीहर’, उमड़ रही उफनानी।।

नायिका नवल वधू पर यौवन का आगमन हो गया है। उस पर यौवन का प्रभाव परिलक्षित होने लगा है। नित्य नई-नई कान्ति देह पर दमकती जा रही है। गोरे मुख पर लालिमा की झलक दिखने लगी है तथा अंगों में स्निग्धता मानो चुँई पड़ रही हो।

अंग-अंग में यौवन के प्रभाव से लहरें उठ रही हैं जिससे वे फड़क रहे हैं। बोलने में हँसी आ रही है जिससे वाणी अस्पष्ट होती दिख रही है। उसके थोड़े से मुस्काने से मानों रस (आनंद) की बाढ़ आ गई हो। नायिका की देह पर यौवन के चिन्ह उभरते जा रहे हैं जैसे भादों के मास में नदी में जल के आगमन से बाढ़ आ पड़ती है।

 

चलतन लेत कमर लचकइयां, झुक रइ हर हर दइयां।
उभर उठत गदराने आंचल, उठतन गोरी बइयां।
गड़ कुइया परती गालन पै, लली की हँसतन मुइयां।।
इठलाती जातीं गुइयन संग, करती छूल छुलइयां।।
सबै लगत है इनें ‘हरिहर’, कबै उठा लै कइयां।।

नायिका के चलने में पतली कमर बार-बार लचक पड़ती है। गोरे हाथों के ऊपर उठाने से यौवन के गदराये अंग उभरते दिखते हैं। हँसते समय नायिका के गालों में गोल गड्डे (गड़कुइयां) पड़ते दिखते हैं। साथ की सहेलियों के साथ इतराती हुई लिपट-झपट तथा हँसी से ओत-प्रोत बातें करती चली जा रही है। सभी को इनकी यह झाँकी देखकर ऐसा लगने लगता है कि इन्हें उठाकर अपने गोदी में ले लें।

हरिया (हरि$आ) सवैया
इक हाथ लठारा की रोटी लयें, तेहि ऊपर मौन धरें हरिया।

सिर पै कुंडरी खाँ सुधार धरें, तेहि ऊपर पानी भरी घरिया।।
लगे तेज तुषार कौ झोंका ‘हरिहर’, लैबै समेट फटी फरिया।
वह भोरी लली गली जात चली, अरु कात चली हरिया हरि$आ।।

रोटी पर नमक की डली रखे हुये है। अपने सिर पर कुंडरी रखकर उस पर जल से भरी घरिया (छोटा घड़ा) रखे है। वह भोली नवेली जुंडी के खेत की रखवाली करने जा रही है। जब तेज शीतल पवन का झोंका लगता है तब फटी हुई ओढ़नी समेटकर ठंड भोगती है, वह भोली सुन्दरी मार्ग में चली जा रही है और चिड़िया भगाने के लिये प्रयुक्त बुन्देली शब्द हरिया हरिया (हरि$आ) पुकारती जाती है।

 

अमात्रिक छंद
चल, चल जगत जनक पद शरणन

भज मन भव भय हरणन।
कर कर श्रवन अमल यश छन छन
सफल करत जग करणन।।
तज सब भरम मगन मन बन कर
पकर कमल दल चरणन।।

नर तन रतन सरस यह ‘हर हर’
बनत न करतन वरणन।।

जगत पिता परमात्मा के चरणों की शरण में चलिये। हे मन! संसार में भय दूर करने वाले प्रभु का भजन करिये। प्रभु के पावन यश का गुणगान प्रतिक्षण सुनने पर जगतकर्ता भगवान जीवन सफल कर देते हैं। अपना सभी गर्व छोड़कर आनंदित मन से चरण कमलों की शरण में चला जा। कवि हरिहर कहते हैं कि इस मनुष्य शरीर रूपी रत्न के समान कुछ नहीं हो सकता, इसके महत्व का वर्णन नहीं किया जा सकता।

श्री हरप्रसाद ‘हरिहर’ का जीवन परिचय 

 शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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